कपालकुण्डला
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक Not mentioned, tr. published in 1900.

वाराणसी: हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, पृष्ठ ३९ से – ४१ तक

 

:९:

देव-मन्दिर में

“कण्व! अलं रुदितेन, स्थिरा भव, इतः पन्थानमालोक्य।”
—शकुन्तला।

सवेरे बड़े तड़के ही अधिकारी पुजारिन नवकुमारके पास आयीं। उन्होंने देखा कि अभीतक नवमाकुर सोये न थे। पूछा—“अब बताइये, क्या करना चाहिये?”

नवकुमारने कहा—“आजसे कपालकुण्डला मेरी धर्मपत्नी हुई। इसके लिए यदि मुझे संसारका त्याग भी करना पड़ेगा तो करूँगा। कन्यादान कौन करेगा?”

पुजारिनका चेहरा हर्षसे खिल उठा। मन-ही-मन सोचा—“इतने दिनों बाद जगदम्बाकी कृपासे, जान पड़ता है, मेरी कपालिनीका ठिकाना लगा।” प्रकट कहा—“मैं कन्यादान करूँगी।” यह कहकर वह अपने कमरे में गयीं और एक पुरानी थैलीमें से एक पत्रा निकाल लायीं। पत्रा पुराना ताड़पत्रका था। उसे मजेमें देखकर उन्होंने कहा—“यद्यपि आज लग्न नहीं है, लेकिन शादीमें कोई हर्ज नहीं। गोधूलि-कालमें कन्यादान करूँगी। तुम्हें आज केवल व्रत रहना होगा, शेष लौकिक कार्य घर जाकर पूरा कर लेना। एक दिनके लिए तुम लोगों को छिपाकर रख सकूँगी। ऐसा स्थान मेरे पास है। आज यदि कापालिक आयेगा तो तुम्हें खोज न पायेगा। इसके बाद शादी हो जानेपर कल सबेरे सपत्नीक घर चले जाना।”

नवकुमार इसपर राजी हो गये। इस अवस्थामें जहाँतक सम्भव हो सका, वहाँतक यथाशास्त्र कार्य हुआ। गोधूलिलग्नमें नवकुमारके साथ कापालिक पालित संन्यासिनीका विवाह हो गया।

कापालिकको कोई खबर नहीं लगी। दूसरे दिन सबेरे तीनों जन यात्राका उद्योग करनेमें लगे। अधिकारी उन्हें मेदिनीपुरकी राह पर छोड़ आयेंगी।

यात्राके समय कपालकुण्डला कालिका देवीकी प्रणामके लिये गयी। भक्तिभावसे प्रणाम कर पुष्पपात्रसे एक अभिन्न विल्वपत्र उठाकर कपालकुण्डलाने देवीके चरणोंपर चढ़ा दिया और ध्यानपूर्वक उसे देखती रही। लेकिन वह बिल्वपत्र गिर गया।

कपालकुण्डला बड़ी ही भक्तिपरायण है। बिल्वपत्रको दैवप्रतिमा चरणसे च्युत होते देखकर बहुत डरी। उसने यह हाल अधिकारीसे भी कहा। अधिकारी भी दुखी हुई। बोली—“अब दूसरा कोई चारा नहीं है। अब पति ही तुम्हारा धर्म है। पति यदि श्मशानमें भी जाये, तो तुम्हें साथ ही जाना होगा। अतएव निःशब्द होकर चलो

सब लोग चुपचाप चले। बहुत दिन चढ़े, वह लोग मेदिनीपुरकी राहमें पहुँचे। वहाँतक पहुँचाकर अधिकारी बिदा हुई। कपालकुण्डला रोने लगी। पृथ्वीमें जो कपालकुण्डलाको सबसे ज्यादा प्रिय था, वह विदा हो रहा था, उससे अब मुलाकात नहीं होनेकी थी।

अधिकारी भी रोने लगीं। आखोंका आँसू पोछकर कपालकुंडलासे धीरेसे कहा—“बेटी, तू तो जानती है, भगवतीकी कृपासे मुझे पैसोंकी कमी नहीं है। हिलजीका प्रत्येक व्यक्ति पूजा करता है। तेरी धोतीके किनारे मैंने जो बाँध दिया है, उसे स्वीकार कर अपने पतिको देकर कहना पालकी आदि का प्रबन्ध कर लेंगे। बेटी! अपनेको सन्तान समझ कर मेरी याद भुला न देना।”

अधिकारी यह देखते हुए रोकर विदा हुई। कपालकुण्डला भी रोती हुई आगे बढ़ी।