कपालकुण्डला/द्वितीय खण्ड/१

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द्वितीय खण्ड

:१:

शाही राहपर

“—There–now lean on me,
Place your foot here.
—Manfred.

किसी लेखकने कहा है—“मनुष्यका जीवन काव्य विशेष है।” कपालकुण्डलाके जीवनकाव्यका एक सर्ग समाप्त हुआ। इसके बाद?

नवकुमारने मेदिनीपुर पहुँचकर अधिकारी प्रदत्त धनके बलसे कपालकुण्डलाके लिए एक दासी, एक रक्षक और शिविका-वाहक नियुक्त कर, उसे शिविकापर चढ़ाकर आगे भेजा। पैसे अधिक न होनेके कारण वह स्वयं पैदल चले। नवकुमार एक दिन पहलेके परिश्रमसे थके हुए थे। दोपहरके भोजनके बाद पालकी ढोनेवाले कहार उन्हें पीछे छोड़ बहुत आगे निकल गये। क्रमशः सन्ध्या हुई, शीतकालके विरल बादलोंसे आकाश भरा हुआ था। सन्ध्या भी बीती। पृथ्वीने अन्धकार वस्त्रसे अपनेको ढंक लिया। कुछ बूँदा-बाँदी भी होने लगी। नवकुमार कपालकुण्डलाके साथ एकत्र [ ४३ ]होनेके लिए व्यग्र होने लगे। उन्होंने मनमें सोचा था कि आगेकी सरायमें मुलाकात होगा, लेकिन पालकी वहाँ भी न थी। रात कोई ९ बजेका समय हो आया। नवकुमार तेजीसे पैर बढ़ाते हुए आगे बढ़ रहे थे। एकाएक कोई कड़ी चीज उनके पैरके नीचे आयी और ठोकर लगी। पैरकी ठोकरसे वह वस्तु कड़कड़ाकर टूटी। नवकुमार खड़े हो गये; फिर पैर बढ़ाया, लेकिन फिर ऐसा ही हुआ। पैरसे लगनेवाली चीजको हाथसे उठाकर देखा, वह टूटा हुआ तख्ता था।

आकाशके बादलोंसे घिरे रहनेपर भी प्रायः ऐसा अन्धकार नहीं रहता, कि कोई बड़ी वस्तु दिखाई न पड़े। सामने कोई बहुत बड़ी चीज पड़ी थी। नवकुमारने गौरसे देखकर जान लिया कि वह चीज टूटी हुई पालकी है। पालकी देखते ही नवकुमारका हृदय काँप उठा और कपालकुण्डलाकी विपद्‌की आशंका हुई। शिविकाकी तरफ आगे बढ़नेपर किसी कोमल वस्तुसे उनका पदस्पर्श हुआ। यह स्पर्श कोमल, मनुष्य जैसा जान पड़ा। तुरन्त बैठकर हाथसे टटोलकर देखा कि मनुष्य शरीर ही था। लेकिन साथ ही कोई द्रव्यपदार्थ भी हाथसे लगा है, मनुष्य शरीर लेकिन बर्फ जैसा ठण्डा। नाड़ी देखी, चलती न थी। क्या यह मृत है? विशेष मन लगाकर देखा श्वास-प्रश्वासका शब्द सुनाई पड़ रहा था। श्वास हैं, तो नाड़ी क्यों नहीं चलती है? क्या यह रोगी है? नाकपर हाथ रखकर देखा साँस बिलकुल जान न पड़ी। फिर यह शब्द कैसा? शायद कोई जीवित व्यक्ति भी यहाँ है; यह सोचकर उन्होंने पूछा—“कोई यहाँ जिन्दा है?”

धीमे स्वरमें उत्तर मिला—“है।”

नवकुमारने पूछा—“तुम कौन हो?”

उत्तर मिला—“तुम कौन हो?” नवकुमारको यह स्वर स्त्रीके जैसा जान पड़ा।

[ ४४ ]व्यग्र होकर उन्होंने पूछा—“क्या कपालकुण्डला?”

स्त्रीने कहा—“कपालकुण्डला कौन है, मैं नहीं जानती—मैं पथिक हूँ, अवश्य ही डाकुओं के द्वारा निकुण्डला हुई हूँ।”

व्यंग सुनकर नवकुमार कुछ प्रसन्न हुए। पूछा—“क्या हुआ है?”

उत्तर देनेवालीने कहा—“डाकुओंने मेरी पालकी तोड़ दी मेरे एक रक्षकको मार डाला। बाकी सब भाग गये और डाकुओंने मेरे अंगके सारे गहने लेकर मुझे पालकीसे बाँध दिया।”

नवकुमारने अंधकारमें ही जाकर देखा कि वस्तुतः एक स्त्री पालकीमें कसकर कपड़ेसे बँधी है। नवकुमारने शीघ्रतापूर्वक उसके बन्धन खोलकर पूछा—“क्या तुम उठ सकोगी?” स्त्रीने जवाब दिया—“मेरे पैरमें लाठीकी चोट लगी है। पैर में दर्द है, फिर भी, जरा सहायता मिलते ही उठ खड़ी हूँगी।”

नवकुमारने हाथ बढ़ा दिया। रमणी उसकी सहायतासे उठी। नवकुमारने पूछा—“क्या चल सकोगी?”

इस प्रश्नका कोई जवाब न देकर रमणीने पूछा—“आपके पीछे क्या कोई पथिक आ रहा था?”

नवकुमारने कहा—“नहीं।”

स्त्रीने फिर पूछा—“यहाँसे चट्टी कितनी दूर है?”

नवकुमारने जवाब दिया—“कितनी दूर है, यह तो मैं नहीं कह सकता—लेकिन जान पड़ता है कि निकट ही है।”

स्त्रीने कहा—“अँधेरी रातमें अकेली जंगलमें बैठकर क्या करूँगी; आपके साथ अगली मञ्जिल तक चलना ही उचित है। शायद कोई सहारा पानेपर चल सकूंगी।”

नवकुमारने कहा—“विपद्‌कालमें सङ्कोच करना मूर्खता है। मेरे कन्धेका सहारा लेकर चलो।”

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