कपालकुण्डला/प्रथम खण्ड/८
:८:
आश्रम में
“And that very night—
Shali Romeo dear thee to Mantna”.
–Romeo and Juliet
उस अमावस्याकी घोर अंधेरी रातमें दोनों ही जन एक साँससे दौड़ते हुए वनके अन्दरसे भागे। वन्यपथ नवकुमारका अजाना था, केवल सहचारिणी पोडशीके साथ-साथ उसके पीछे-पीछे जानेके अतिरिक्त दूसरा उपाय न था। लेकिन अंधेरी रातमें जङ्गलमें हर समय रमणीका पीछा करना कठिन है। कभी रमणी एक तरफ जाती थी, तो नवकुमार दूसरी तरफ। अन्तमें रमणीने कहा—“मेरा आँचल पकड़ लो।” अतः नवकुमार रमणीका आँचल पकड़ कर चले। बहुत दूर जानेपर वह लोग क्रमशः धीरे-धीरे चले। अंधेरेमें कुछ दिखाई न पड़ता था, केवल नक्षत्रलोकमें अस्पष्ट बालुका स्तूपका शिखर झलक जाता था और खद्योत-प्रकाशसे लक्ष्यका भास होता था।
कपालकुण्डला इस तरह पथिकको लिए हुए निभृत जंगलमें पहुँची। उस समय रातके दो पहर बीत चुके थे। जंगलके अन्दर अन्धकारमें एक देवालयका अस्पष्ट चूड़ा दिखाई पड़ रहा था। उसकी प्राचीर सामने थी। प्राचीरसे लगा हुआ एक गृह था। कपालकुण्डलाने प्राचीर द्वारके निकट होकर खटखटाया। बारम्बार कराघात करनेपर भीतरसे एक व्यक्तिने कहा,—“कौन? कपालकुण्डला है, क्या?” कपालकुण्डला बोली,—“दरवाजा खोलो?”
उत्तरकारीने आकर दरवाजा खोला। जिस व्यक्तिने आकर दरवाजा खोला, वह देवालयकी पुजारिन या अधिष्ठात्री थी। उसकी उम्र कोई ५० वर्षके लगभग होगी। कपालकुण्डलाने अपने हाथों द्वारा उस वृद्धाकी गंजी खोपड़ी अपने पास खींचकर कानमें अपने साथीके बारेमें कुछ कह दिया।
वह पुजारिन बहुत देरतक हथेलीपर गाल रखे चिन्ता करती रही। अन्तमें उसने कहा—“बात सहज नहीं है। महापुरुष यदि चाहे तो सब कुछ कर सकता है। फिर भी, माताकी कृपासे तुम्हारा अमंगल न होगा। वह व्यक्ति कहाँ है?”
कपालकुण्डलाने ‘आओ’ कहकर नवकुमारको बुलाया। नवकुमार आड़में खड़े थे, बुलाये जानेपर घरके अन्दर आये। अधिकारीने उनसे कहा—“आज यहीं छिप रहो, कल सबेरे तुम्हें मेदिनीपुरकी राहपर छोड़ आऊँगी।”
क्रमशः बात-ही-बातमें मालूम हुआ कि अबतक नवकुमारने कुछ खाया नहीं है। अधिकारी द्वारा भोजनका आयोजन करनेपर नवकुमारने इनकार कर कहा कि केवल विश्राम की आवश्यकता है। अधिकारीने अपने रसोईघर में नवकुमारके सोनेका इन्तजाम कर दिया। नवकुमारके सोनेका उद्योग करनेपर कपालकुण्डला समुद्रतटपर पुनः लौट जानेका उपक्रम करने लगी। इसपर अधिकारीने कपालकुण्डलाके प्रति स्नेह दृष्टिपातकर कहा—“न जाओ, थोड़ा ठहरो, एक भिक्षा है।”
कपालकुण्डला—“क्या?”
अधिकारी—“जबसे तुम्हें देखा है, बेटी कहकर समझा और पुकारा है। माताके पैरकी शपथ खाकर कह सकती हूँ कि मातासे बढ़कर मैंने तुम्हें स्नेह दिया है। मेरी याचनाकी अवहेलना तो न करोगी?”
कपाल०—“न करूँगी।”
अधि०—“मेरी भिक्षा है कि अब तुम वहाँ लौटकर न जाओ।”
कपाल०—“कयों?”
अधि०—“जानेसे तुम्हारी रक्षा न होगी।”
कपाल०—“यह तो मैं भी जानती हूँ।”
अधि०—“तो फिर आज पूछती क्यों हो?”
कपाल०—“न जाऊँगी तो कहाँ रहूँगी?”
अधि०—इसी पथिकके साथ देशान्तर चली जाओ।”
कपालकुण्डला चुप रह गयी। अधिकारीने पूछा—“बेटी! क्या सोचती हो?”
कपाल०—“जब तुम्हारा शिष्य आया था, तो तुमने कहा था, कि युवतीका इस प्रकार युवा पुरुषके साथ जाना उचित नहीं। अब जानेको क्यों कहती हो?”
अधि०—“उस समय तुम्हारी मृत्युकी आशंका नहीं थी; विशेषतः जिस सदुपयोगकी सम्भावना थी, वह अब हो सकेगा। आओ, माताकी अनुमति ले आयें।
यह कहकर अधिकारीने दीपक हाथमें लिया तथा जाकर माताके मन्दिरका दरवाजा खोला। कपालकुण्डला भी उनके साथ-साथ गयी। मन्दिरमें आदमकद कराल काली मूर्ति स्थापित थी। दोनोंने भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। अधिकारीने आचमन कर पुष्पपात्रसे एक अछिन्न बिल्वपत्र लेकर मन्त्र पूरा किया और उसे प्रतिमाके पैरोंपर संस्थापित कर उसकी तरफ देखती रही। थोड़ी देर बाद अधिकारीने कपालकुण्डलाकी तरफ देखकर कहा—“बेटी! देखो, माताने अर्घ्य ग्रहण कर लिया। बिल्वपत्र गिरा नहीं। जिस मनौतीसे मैंने अर्घ्य चढ़ाया था, उसमें अवश्य मंगल है। तुम इस पथिकके साथ निःसंकोच यात्रा करो। लेकिन मैं विषयी लोगोंका चरित्र जानती हूँ। तुम यदि इसकी गलग्रह होकर जाओगी, तो यह व्यक्ति अपरिचित युवतीको साथ लेकर लोकालयमें जानेमें लज्जित होगा; तुमसे भी लोग घृणा करेंगे। तुम कहती हो कि यह व्यक्ति ब्राह्मण सन्तान है। इसके गलेमें यज्ञोपवीत भी दिखाई पड़ता है। यह यदि तुम्हें विवाह करके ले जाये तो मंगल है। अन्यथा मैं भी तुम्हें इसके साथ जाने देनेको कह नहीं सकती।”
“वि....वा....ह!” यह शब्द बड़े ही धीमे स्वरमें कपालकुण्डलाने कहा। कहने लगी,—“विवाहका नाम तो तुम लोगोंके मुँहसे सुना करती हूँ; किन्तु विवाह किसे कहते हैं, मैं नहीं जानती। क्या करना होगा।”
अधिकारीने मुस्कराकर कहा—“विवाह ही स्त्रियोंके लिये धर्मका एकमात्र सोपान है; इसीलिए स्त्रीको सहधर्मिणी कहते हैं। जगन्माता भी भगवान् शिवकी विवाहिता हैं।”
अधिकारीने सोचा कि सब समझा दिया; कपालकुण्डलाने मनमें समझा कि सब समझ लिया। बोली—“तो ऐसा ही हो। किन्तु उन्हें त्यागकर जानेका मेरा मन नहीं करता है। उन्होंने (कापालिक) इतने दिनों तक मेरा प्रतिपालन किया है।”
अधि०—“किस लिए इतने दिनोंतक प्रतिपालन किया, यह तुम नहीं जानती। तुम नहीं जानती कि बिना स्त्रीका सतीत्व नाश किये तांत्रिक क्रिया सिद्ध नहीं होती। मैंने तन्त्रशास्त्र पढ़ा है। माता जगदम्बा जगतकी माता हैं ये ही सतीका सतीत्व—सतियों प्रधान हैं। ये सतीत्व नाशवाली पूजा कभी ग्रहण नहीं करतीं, इसीलिये में महापुरुषका अनाभिमत साधन कर रही हूँ। तुम यदि भागोगी, तो कभी कृतघ्न न कहाओगी। अबतक सिद्धिका समय उपस्थित नहीं हुआ है, केवल इसीलिये तुम्हारी रक्षा हुई है। आज तुमने जो कार्य किया है, उसमं प्राणोंकी भी आशंका है। इसीलिये कहती हूँ कि मातेश्वरी भगवानीजीकी भी ऐसी आज्ञा है, अतएव जाओ। मैं अपने यहाँ यदि रख सकती, तो अवश्य रख लेती। लेकिन तुम तो जानती हो, इसका कोई भरोसा नहीं है।
कपाल०—“तो विवाह ही हो जाये।”
यह कहकर दोनों मन्दिरसे बाहर निकलीं। एक कमरेमें कपालकुण्डलाको बैठाकर अधिकारी पुजारिन नवकुमारकी शय्याके पास जाकर सिरहाने बैठ गयी। उन्होंने पूछा—“महाशय! सो रहे हैं क्या?”
नवकुमारको नींद आ नहीं रही थी, अपनी दशाका ध्यान आ रहा था। बोले—“जी नहीं।”
अधिकारीने कहा—“महाशय! परिचय लेने के लिए एक बार आयी हूँ। आप ब्राह्मण हैं!”
नव०—“जी हाँ!”
अधि०—“किस श्रेणीके हैं?”
नव०—“राढ़ीय।”
अधि०—“हमलोग भी राढ़ देशीय हैं—उत्कल ब्राह्मणका ख्याल न कीजियेगा। वंशमें कुलाचार्य, फिर भी इस समय माताके पदाश्रममें हूँ। महाशयका नाम?”
नव०—“नवकुमार शर्मा।”
अधि०–“निवास।”
नव०—“सप्तग्राम।”
अधि०—“आपका गोत्र?”
नव०—“बन्ध्यघटी।”
अधि०—“कितनी शादियाँ की हैं?”
नव०—“केवल एक।”
नवकुमारने सारी बातें खोलकर नहीं कहीं। वास्तवमें एक भी स्त्री न थी। उन्होंने रामगोविन्द घोषकी कन्याके साथ शादीकी थी। शादीके बाद कुछ दिनों तक पद्मावती पिताके घर रही, बीच-बीचमें ससुराल भी आती थी। जब उसकी उम्र तेरह वर्षकी हुई, तो उसी समय उसके पिता सपरिवार पुरुषोत्तम दर्शनके लिए गये। उस समय पठान लोग अकबर बादशाह द्वारा बंगालसे विताड़ित होकर सदलबल उड़ीसा में थे। उनके दमनके लिए अकबर द्वारा यथोचित यत्न हो रहा था। जब रामगोविन्द घोष उड़ीसासे वापस होने लगे, तो उस समय दोनों दलोंमें युद्ध शुरू हो गया। अतः घर लौटते समय वह सपरिवार पठानोंके हाथ पड़ गये। पठान उस समय विवेकशून्य असभ्य हो रहे थे वह लोग निरपराधी पथिकोंके प्रति अर्थके लिए बल प्रकाश करने लगे। रामगोविन्द जरा कड़वे मिजाजके थे, पठानोंको गाली आदि दे बैठे। इसका फल यह हुआ, कि वह लोग गिरफ्तार कर लिए गय। अन्तमें घोष महाशयको जब अपना धर्म परित्याग करना पड़ा, तो कैदसे छुटकारा मिला।
इस तरह रामगोविन्द सपरिवार प्राण लेकर घर तो अवश्य आये, किन्तु विधर्मी मुसलमान होने के कारण आत्मीयजन द्वारा बहिष्कृत हो गये। उस समय नवकुमारके पिता जीवित थे; अतः उन्हें भी जातिच्युत होनेके डरसे जातिभ्रष्ट पुत्रवधूका त्याग करना पड़ा। इसके बाद नवकुमारकी अपनी पत्नीके साथ मुलाकात हो न सकी।
कुटुम्बियों द्वारा त्यक्त तथा जातिच्युत होकर रामगोविन्द घोष अधिक दिनों तक बंगालमें टिक न सके। कुछ तो इस कारणवश और कुछ राजदरबारमें उच्चपदस्थ होनेके लोभसे वह दिल्लीके महलमें जाकर रहने लगे। धर्मान्तर ग्रहण करनेपर उन्होंने सपरिवार मुस्लिम नाम धारण कर लिया था। राजमहल चले जानेके बादसे श्वसुर या पत्नीकी कोई भी खबर नवकुमारको न लगी। जानेका कोई साधन और आवश्यकता भी न थी। इसके बाद विरागवश नवकुमारने फिर अपनी शादी न की। इसीलिए कहता हूँ कि नवकुमारकी एक भी शादी नहीं हुई।
पुजारिन यह सब बात जानती न थी। उन्होंने मनमें सोचा कि—“कुलीनकी दो शादियोंमें हज ही क्या है?” उन्होंने प्रकट रूपमें कहा—“आपसे एक बात पूछनेके लिए आई थी और वह बात यह है कि जिस कन्याने आपकी प्राण-रक्षा की है, उसने परहितार्थ आत्मप्राण नष्ट किया है। जिस महापुरुषके पास अबतक यह प्रतिपालित हुई है, वह बड़े भयङ्कर स्वभावका है। उसके पास फिर लौटकर जानेमें जो दशा आपकी हुई थी, वही दशा इसकी होगी। इसके प्रतिकारका कोई उपाय क्या आप निकाल सकते हैं?”
नवकुमार उठकर बैठ गये। बोले—“मैं भी ऐसी ही आशङ्का कर रहा था। आप सब कुछ जानती हैं, इसका कोई उपाय कीजिये। मेरे प्राण देनेसे भी यदि कोई उपकार हो सके—तो उसपर भी राजी हूँ। मैं तो यह विचार करता हूँ कि मैं उस नरहन्ताके पास स्वयं चला जाउँ, तो शायद उसके प्राण बच जायेंगे।” पुजारिनने हँसकर कहा—“तुम पागल हो रहे हो। इससे क्या फायदा होगा? तुम्हारा प्राण-नाश तो होगा ही, साथ ही इस बेचारीपर भी उसका क्रोध प्रशमित न होगा। इसका केवल एक ही उपाय है।”
नव०—“कैसा उपाय?”
अधि०—“आपके साथ इसका पलायन। लेकिन यह कठिन है। हमारे यहाँ रहने पर दो-एक दिनमें ही तुम लोग फिर पकड़ लिए जाओगे। इस देवालयमें उस महापुरुष का आना-जाना प्रायः हुआ करता है। अतः कपालकुण्डलाके भाग्यमें अशुभ ही दिखाई पड़ता है।”
नवकुमारने आग्रहके साथ पूछा—“मेरे साथ भागनेमें कठिनाई क्या है?”
अधि०—“यह किसकी कन्या है—किस कुलमें इसका जन्म है, यह आप कुछ भी नहीं जानते। किसकी पत्नी है—किस चरित्रकी हैं, यह भी नहीं जानते। फिर क्या आप इसे संगिनी बनायेंगे? संगिनी बनाकर ले जाने पर भी क्या आप इसे अपने घरमें स्थान देंगे? और यदि आपने स्थान न दिया तो यह अनाथा कहाँ जायेगी?”
नवकुमारने थोड़ा विचार करने के बाद कहा—“अपनी प्राणरक्षिकाके लिए ऐसा कोई कार्य नहीं, जिसे मैं न कर सकूँ। यह मेरी परिवारभुक्ता होकर रह सकेंगी।”
अधि०—ठीक है। लेकिन जब आपके आत्मीय स्वजन पूछंगे कि यह किसकी स्त्री है तो आप क्या उत्तर देंगे?
नवकुमारने चिन्ता करके कहा—“आप ही इसका परिचय मुझे बता दें। आप जो कहेंगी मैं वही कहूँगा।”
अधि०—“अच्छा। लेकिन इस लम्बी राहमें कोई पन्द्रह दिनों तक एक दूसरेकी बिना सहायताके कैसे रह सकोगे? लोग देख-सुनकर क्या कहेंगे? फिर, सम्बन्धियोंसे क्या कहोगे? इधर मैं भी इस कन्याको पुत्री कह चुकी हूँ; मैं भी एक अज्ञात युवकके साथ परदेश कैसे जाने दे सकती हूँ?”
बीचकी दलाल, दलालीमें कम नहीं हैं।
नवकुमार ने कहा—“आप भी साथ चलिए।”
अधि०—“मैं साथ जाऊँगी तो भवानीकी पूजा कौन करेगा?”
नवकुमारने क्षुब्ध होकर कहा—“तो क्या आप कोई उपाय कर नहीं सकतीं?”
अधि०—“उपाय केवल एक है, लेकिन वह भी आप की उदारता पर निर्भर करता है।”
नव०—“वह क्या है? में किस बातमें अस्वीकृत हूँ? क्या उपाय है, बताइये?”
अधि०—“सुनिये। यह ब्राह्मण कन्या है। इसका हाल में अच्छी तरह जानती हूं। यह कन्या बाल्यकालमें ख्रष्टानोंद्वारा अपहृत होकर ले जायी जा रही थी, और जहाज टूट जानेके कारण इसी समुद्रतटपर छोड़ दी गयी। वह सब हाल बादमें आपको उस कन्यासे ही मालूम हो जायगा। इसके बाद कापालिकने इसे अपनी सिद्धिका उपकरण बनाकर इसका प्रतिपालन किया। शीघ्र ही वह अपना प्रयोजन सिद्ध करता। यह अभी तक अविवाहित है और साथ ही चरित्रमें पवित्र है। आप इसके साथ शादी कर लें। कोई कुछ भी इस प्रकार कह न सकेगा। मैं यथाशास्त्र विवाह कार्य पूरा करा दूँगी।”
नवकुमार शय्यासे उठ खड़े हुए। वह तेजीसे उस कमरे में इधर-उधर घूमने लगे। उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। पुजारिनने थोड़ी देर बाद फिर कहा—“आप इस समय सोयें। मैं कल बड़े तड़के जगा दूँगी। यदि इच्छा होगी, अकेले चले जाइयेगा। में आपको मेदिनीपुरकी राहपर छोड़ आऊँगी।”
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- ↑ अनुवादक की भ्रान्ति। मूलमें है:
“And that very night—
Shall Romeo bear thee hence to Mantua.”
Romeo and Juliet.