उपयोगितावाद/पांचवां अध्याय

उपयोगितावाद
जॉन स्टुअर्ट मिल, अनुवादक उमराव सिंह कारुणिक

मेरठ: ज्ञानप्रकाश मंदिर, पृष्ठ ९८ से – टिप्पणी तक

 

पांचवां अध्याय।

न्याय से सम्बन्ध

प्राचीन काल से उपयोगिता या सुख को आचार शास्त्र की कसौटी मानने में एक बड़ी रुकावट यह रही है कि क्या ऐसा मानना न्याय-विरुद्ध या अनुचित तो नहीं है। उचित या अनुचित का ख्य़ाल इतने अधिक अंश में रहता है कि बहुत से तत्त्वज्ञानियों का यह विचार होगया है कि वस्तुओं में एक आन्तरिक ( Imherent ) गुण हैं जो इस बात को प्रगट करता है कि 'उचित' का प्रकृति में पृथक् अस्तित्व है तथा औचित्य सुसाधकता से भिन्न है।

अन्य नैतिक स्थायी भावनाओं के समान इस भावना में भी भावना की उत्पत्ति तथा व्यापकता में कोई आवश्यक संबंध नहीं है। केवल किसी भावना के प्रकृति-दत्त होने के कारण ही हमको प्रत्येक दशा में उस भावना का नेतृत्व मानना आवश्यक नहीं हो जाता। उचित का ख्य़ाल एक सहज क्रिया ( Instinct ) हो सकता है किन्तु फिर भी अन्य सहज क्रियाओं के समान 'उचित' की भावना को उच्चतर विवेक द्वारा समझने तथा वश में रखने की आवश्यकता हो सकती है। यदि हमारे अन्दर मानसिक सहज क्रियायें हैं जो हमको किसी विशेष रूप से निर्णय करने की प्रेरणा करती है तथा पशु-सहज क्रियायें ( Animal instincts ) हैं जो किसी कार्य को किसी विशेष प्रकार करने की प्रेरणा करती हैं तो यह आवश्यक नहीं है कि अन्तिम सहज क्रियाओं की अपेक्षा पहिली सहज क्रियाओं को अपने काम में अधिक अविलुप्तधी अर्थात् भूल से रहित ( Infallible ) होना चाहिये। जिस प्रकार कभी २ पशु सहज क्रियायें ग़लत काम करने की प्रेरणा करती हैं उसी प्रकार मानसिक सहज क्रियायें भी कभी २ गलत निर्णय करने की प्रेरणा कर सकती हैं। यद्यपि यह विश्वास करना कि हमारे अन्दर न्याय या इन्साफ़ की प्राकृतिक भावनायें हैं तथा इन भावनाओं को अाचरण की अन्तिम कसौटी मानना दो भिन्न २ बातें हैं, किन्तु वास्तव में इन दोनों मतों में बहुत घनिष्ट सम्बन्ध है। मनुष्य जाति का यह पहिले ही से विश्वास रहा है कि कोई आत्म-गत भावना ( Subjective feeling )--जिसको हम किसी और तरह से नहीं समझा सकते-किसी अनात्म सम्बन्धी वास्तविकता ( Objective reality ) का ईश्वरादेश है। इस समय हमारा उद्देश्य इस बात के निर्णय करने का है कि क्या न्याय की भावना ऐसी भावना है जिसके लिये किसी विशेष ईश्वरादेश की आवश्यकता हो? क्या किसी कार्य का न्याय-संगत या न्याय-विरुद्ध होना कोई ऐसी चीज़ है जो उस कार्य में विशेष रूप से विद्यमान हो तथा उसके अन्य सारे गुणों से पृथक् हो अथवा न्याय-संगत या न्याय-विरुद्ध होना उस कार्य के कतिपय गुणों का संगठन है जो एक विशेष रूप धारण कर लेता है। यह बात जानने के लिये इस बात पर विचार करना आवश्यक है कि क्या न्याय तथा अन्याय की भावना रंग तथा स्वाद की चेतनाओं के समान अव्युत्पन्न है या अन्य भावनाओं के मेल से बनी हुई व्युत्पन्न भावना है।

इस विषय पर प्रकाश डालने के लिये इस बात के जानने का प्रयत्न करना आवश्यक है कि न्याय या अन्याय की क्या पहचान है। न्याय-विरुद्ध समझे जाने वाली तमाम आचरण-पद्धतियों में क्या कोई सामान्य गुण है जिस से इस बात का पता चल सके कि अमुक आचरण-पद्धतियां न्याय-विरुद्ध होने के कारण नापसन्द की जाती है तथा अमुक आचरण-पद्धतियां अन्य कारणों से? यदि ऐसा कोई सामान्य गुण है तो वह क्या है? यदि प्रत्येक बात में जिसे मनुष्य न्याय-संगत या न्याय-विरुद्ध समझते हैं कोई सामान्य गुण या सामान्य गुणों का समुदाय सदैव उपस्थित रहता है तो हम इस बात का निर्णय कर सकते हैं कि क्या यह सामान्य गुण या गुण-समुदाय उस वस्तु के चारों ओर हमारे मनोविकारों के संगठन के साधारण नियमों के अनुसार उपरोक्त विशेष स्थायी भाव ( Sentiment ) उत्पन्न कर सकते हैं या इस प्रकार के स्थायी भाव का स्पष्टीकरण नहीं किया जा सकता और इस कारण इस को प्रकृति का विशेष प्रबन्ध चाहिये। पहिली बात ठीक निकलने की दशा में तो इस प्रश्न के स्पष्ट होने के साथ २ ही असली समस्या भी स्पष्ट हो जाती है। किन्तु यदि दूसरी बात ठीक निकले तो हम को किसी और उपाय का सहारा लेना होगा।

भिन्न २ वस्तुओं के सामान्य गुणों को मालूम करने के लिये हम को पहिले उन वस्तुओं का निरीक्षण करना पड़ेगा। इस कारण हमें उन भिन्न २ आचरण-पद्धतियों पर विचार करना चाहिये जिन को सब मनुष्य या अधिकतर मनुष्य न्याय-संगत या न्याय-विरुद्ध मानते हैं।

१. किसी की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, जायदाद या और कोई चीज़ जिस का वह क़ानूनन अधिकारी है छीन लेना अधिकतर न्याय-विरुद्ध समझा जाता है। यहां पर न्याय-संगत तथा न्याय-विरुद्ध शब्दों का बिल्कुल सीमा-वद्ध अर्थों में प्रयोग हुवा है। अर्थात् किसी मनुष्य के कानूनी अधिकारों का ध्यान रखना न्याय-संगत है तथा उस के क़ानूनी अधिकारों की अवहेलना करना न्याय-विरुद्ध है।

किन्तु इस निर्णय में भी न्याय तथा अन्याय के ख्य़ाल को दूसरे रूप में लेने के कारण कई अपवाद हो सकते हैं। उदाहरणतः वह मनुष्य जिस के अधिकार छीन लिये गये हैं उन अधिकारों को खो बैठा हो। इस उदाहरण की हम अभी आगे चल कर व्याख्या करेंगे। किन्तु साथ साथ:---

२. ऐसा भी हो सकता है कि वे क़ानूनी अधिकार जो छीन लिये गये हैं ऐसे अधिकार हों जिन का अधिकारी वह मनुष्य होना ही नहीं चाहिये था अर्थात् वह क़ानून जो उस को वे अधिकार देता है दूषित क़ानून हो। जब ऐसा हो या जब ऐसा समझा जाय-हमारे मतलब के लिये दोनों बाते एक हैं-तो इस बात पर मतभेद होगा कि इस प्रकार का क़ानून तोड़ना न्याय-संगत अर्थात् उचित है अथवा न्याय-विरुद्ध अर्थात् अनुचित। कुछ विद्वानों की राय है कि किसी नागरिक को कभी भी किसी क़ानून को भंग नहीं करना चाहिये चाहे वह कैसा ही दूषित क़ानून क्यों न हो। अधिक से अधिक इतना किया जा सकता है कि अधिकारी वर्ग से उस क़ानून को बदलवाने का प्रयत्न किया जाय। इस मत के अनुसार बहुत से लब्धप्रतिष्ठ मनुष्य जाति के उपकारक निन्दनीय ठहरते हैं। इस मत के अनुसार भयंकर संस्थाएं, जिनके नाश करने में आधुनिक स्थिति में एक मात्र इस ही हथियार के थोड़ा बहुत कृतकार्य होने की आशा हो सकती है, बहुधा रक्षित हो जायेंगी। इस मत के मानने वाले मस्लहत की बिना पर अपने कथन का समर्थन करते हैं। विशेष दलील वह यह देते हैं कि मनुष्य जाति के सार्वजनिक हित के लिये क़ानून उल्लंघन न करने का भाव बना रहना, आवश्यक है। दूसरे विद्वानों का बिल्कुल इसके विपरीत मत है। उनका कहना है कि यदि क़ानून अनुचित या मस्लहत के विरुद्ध हो तो उसको तोड़ने में कोई दोष नहीं है। बहुत से विद्वान् कहते हैं कि केवल अनुचित क़ानूनों ही को तोड़ना चाहिये। किन्तु कुछ विद्वानों का कहना है कि जो कानून मस्लहत के विरुद्ध है वे अनुचित भी हैं। प्रत्येक कानून मनुष्यों की प्राकृतिक स्वतन्त्रता में कुछ बाधा डालता है। जब तक इस बाधा में मनुष्यों का कुछ लाभ न हो यह बाधा अनुचित है। इन भिन्न २ मतों से यह बात सर्वसम्मत मालूम पड़ती है कि अनुचित क़ानून भी हो सकते हैं। इस कारण क़ानून न्याय या उचित का अन्तिम निर्णायक नहीं हो सकता। क़ानून किसी आदमी को फ़ायदा पहुंचा सकता है, किसी को हानि। यह बात न्याय के विरुद्ध है। किन्तु जब कभी कोई क़ानून अनुचित समझा जाता है जो इसी कारण अनुचित समझा जाता है कि उससे किसी व्यक्ति के अधिकार पर व्याघात पहुंचता है। उस व्यक्ति के इस अधिकार को, जिस पर क़ानून व्याघात पहुंचाता हैं, हम क़ानूनी अधिकार तो कह नहीं सकते। इस कारण इस अधिकार को दूसरे नाम से पुकारते हैं। इस अधिकार को नैतिक अधिकार कहते हैं। इस कारण हम कह सकते हैं कि दूसरा अन्याय या नाइन्साफ़ी उस दशा में होती है जब हम किसी व्यक्ति का नैतिक अधिकार छीनते हैं।

३. इस बात को सब लोग ठीक या उचित समझते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को वह चीज़ मिलनी चाहिये जिसका वह अधिकारी है--चाहे वह चीज़ अच्छी हो या बुरी। यह बात अनुचित समझी जाती है कि किसी मनुष्य को ऐसा लाभ कराया जाय या ऐसी हानि पहुंचाई जाय जिसका वह अधिकारी नहीं हैं। साधारणतया मनुष्य उचित या अनुचित अर्थात न्याय-संगत या न्याय-विरुद्ध अथवा इन्साफ़ या ना इन्साफ़ के भाव को इस रूप में समझते हैं। चूंकि अधिकारी होने का सवाल है, इस कारण प्रश्न होता है कि अधिकारी कैसे होता है? साधारणतया यदि कोई मनुष्य ठीक काम करता है तो वह भलाई का अधिकारी समझा जाता है। यदि ग़लत काम करता है तो बुराई का अधिकारी समझा जाता है। विशेषतया यदि कोई मनुष्य किसी के साथ नेकी करता है तो इस बात का अधिकारी है कि वह मनुष्य भी उसके साथ नेकी करे। इसी प्रकार यदि किसी के साथ बुराई करता है तो इस बात का अधिकारी है कि वह मनुष्य भी इसके साथ बुराई करे। बुराई के बदले भलाई का उपदेश कभी इस बात को दृष्टि में रख कर नहीं किया गया है कि ऐसा करना इन्साफ़ है। इस प्रकार के उपदेश में तो अन्य बातों को ख्य़ाल में रखकर इन्साफ़ की बात को छोड़ दिया जाता हैं। निम्न लिखित बातें सब लोग अनुचित समझते हैं:---

( १ ) किसी के साथ विश्वास-घात करना।

( २ )किसी( Engagement ) को तोड़ना-चाहे स्पष्ट हो या अस्पष्ट।

( ३ ) अपनी बातों या अपने कामों से आशा बंधा कर निराश करना। कम से कम उस समय तो अवश्य ही जब हमने जान-बूझ कर तथा अपनी इच्छा से आशायें बंधाई हों। पूर्वोल्लिखित बातों के समान, जिनका करना न्याय की दृष्टि से हमारा कर्तव्य है, यह बात अनन्य-सम्बन्ध ( Absolute ) नहीं समझी जाती है। किन्तु न्याय की दृष्टि से हमारा यह कर्तव्य भी हो सकता है कि हम इस बात की अवहेलना करें। अथवा वह मनुष्य जो हम से लाभ पाने की आशा कर रहा है, कोई ऐसा काम कर बैठे कि जिससे फिर हमारा यह कर्तव्य नहीं रहे कि हम उसे लाभ पहुंचावें।

( ४ ) इस बात को भी सब मानते हैं कि पक्ष-पात करना न्याय या इन्साफ़ के विरुद्ध है। ऐसी बातों में, जहां पक्षपात ठीक नहीं है, किसी मनुष्य को दूसरे मनुष्य पर अकारण तरजीह देना अन्याय या बेइन्साफ़ी समझा जाता है। किन्तु ऐसा मालूम पड़ता है कि पक्षपात-रहित होना इस कारण उचित नहीं समझा जाता है क्योंकि पक्षपात रहित होना ही कर्तव्य है। पक्षपात रहित होने से हम किसी दूसरे कर्तव्य को पूरा करते हैं। इस ही कारण पक्षपात-रहित होना कर्तव्य माना जाता है क्योंकि यह बात मानी हुई है कि विशेष कृपा ( Favour ) या तरजीह सदैव निन्दनीय नहीं है। वास्तव में वे दशायें जहां पर विशेष कृपा तथा तरजीह निन्दीय है अपवादरूप हैं नियम नहीं। यदि कोई मनुष्य अच्छी नौकरी देने में अपने सम्बन्धियों तथा मित्रों को अजनबियों पर तरजीह देता है और ऐसा करने में अपने किसी दूसरे कर्तव्य से च्युत नहीं होता तो ऐसा करने में कोई हर्ज नहीं है। बल्कि तरजीह न देने की दशा ही में निन्दा होने की अधिक सम्भावना है। किसी विशेष मनुष्य को अपना मित्र, सम्बन्धी या साथी बनाना कोई भी अनुचित या अन्याय नहीं समझता है। जहां अधिकारों का प्रश्न है वहां पर निष्पक्षपात होना बेशक कर्तव्य है। किन्तु निष्पक्षपात होना इस बात के अन्तर्गत आ जाता है कि प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि दूसरे को उस का अधिकार दे। उदाहरणत: न्यायाधीश को पक्षपात हीन होना चाहिये क्योंकि उस का कर्तव्य है कि किसी विवाद-ग्रस्त वस्तु को दोनों पार्टियों में से किसी पार्टी को बिना किसी अन्य प्रकार का ख्याल किये, उस के अधिकारी को देदे। बहुत सी ऐसी अवस्थायें हैं जहां पर निष्पक्षपात होने का अर्थ एक मात्र अधिकार का ध्यान रखना है। उदाहरणतः न्यायाधीशों, शिक्षकों, माता-पिताओं तथा शासकों को सज़ा या इनाम देने में निष्पक्षपात होना चाहिये। कतिपय अवस्थाओं में निष्पक्षपात होने का अर्थ यह भी है कि एक मात्र सार्वजनिक हित का ध्यान रक्खा जाय, उदाहरणतः सरकारी नौकरी के लिये उम्मैदवार चुनने में। संक्षेप यह कि न्याय अर्थात् इन्साफ की दृष्टि से निष्पक्षपात होने का आशय यह है कि जिस स्थान पर जिन बातों को ध्यान में रखना आवश्यक समझा जाता है वहां पर उन्हीं बातों को ध्यान में रख कर काम करे। निष्पक्षपातता के ख्याल से क़रीब क़रीब मिलता-जुलता 'बराबरी' का ख्य़ाल है। बहुधा 'बराबरी' के ख्य़ाल को ध्यान में रख कर ही 'इन्साफ़ी' या 'बेइन्साफ़ी' का निर्णय किया जाता। बहुत से मनुष्यों का तो यहां तक विचार है कि इन्साफ़ अर्थात न्याय का विशेष आधार बराबरी का ख्य़ाल ही है। प्रत्येक मनुष्य का विचार है कि न्याय समानता अर्थात् बराबरी चाहता है। यह बात दूसरी है कि कभी कभी मस्लहत के ख्य़ाल से असमानता का बर्ताव आवश्यक हो जाय। जो लोग सब मनुष्यों के समान अधिकार नहीं मानते हैं वे भी इस बात को मानते हैं कि सब मनुष्यों के अधिकारों की समान रक्षा करना न्याय-संगत है। उन देशों में भी जहां गुलामी की प्रथा प्रचलित है कम से कम इतना माना अवश्य जाता है कि स्वामी के समान सेवक के अधिकार भी, जितने कुछ भी हों, रक्षणीय हैं। यदि कोई अदालत स्वामी तथा सेवक दोनों के साथ समान साक्षी का व्यवहार नहीं करती है तो वह अदालत इन्साफ़ से गिर जाती है। किन्तु साथ ही साथ वे संस्थायें भी अन्यायी नहीं समझी जाती हैं जो ग़ुलामों को कुछ भी अधिकार नहीं देती हैं; क्योंकि उनका ऐसा करना मस्लहत के विरुद्ध नहीं समझा जाता है। जिन मनुष्यों का विचार है कि उपयोगिता के विचार से मत-भेद होना अवश्य है, वे धन के असमान बटवारे को बेइन्साफ़ी नहीं समझते। वे सामाजिक ऊंच नीच को न्याय के विरुद्ध नहीं समझते। किन्तु जिन लोगों का ख्य़ाल है कि धन का असमान बटवारा तथा सामाजिक ऊंच नीच मस्लहत के ख़िलाफ़ है वे इस प्रकार की बातों को बेइन्साफ़ी समझते हैं। जो मनुष्य सरकार को आवश्यक समझता है वह इस बात को बेइन्साफ़ी नहीं समझता कि मजिस्ट्रेट को क्यों वे अधिकार देदिये गये हैं जो साधारण मनुष्यों को नहीं हैं। बराबरी का सिद्धान्त मानने वालों में भी मत-भेद है। कुछ साम्यवादियों का कहना है कि समाज के श्रम की पैदावार एक मात्र बराबरी का ध्यान रख कर बांटी जाना चाहिये। दूसरे साम्यवादियों का कहना है कि जिसको सब से अधिक आवश्यकता हो उस सब से अधिक मिलना चाहिये। कुछ ऐसे साम्यवादी भी हैं जिनका विचार है कि ऐसे मनुष्य को, जो अधिक कठिन काम करता है या जिसकी सेवा समाज के लिये अधिक मूल्यवान है, कुछ अधिक देदना अनुचित नहीं है। इन सब मतों के समर्थन में दलीलें दी जा सकती हैं।

न्याय या इन्साफ़ का शब्द इतने भिन्न स्थानों में व्यवहृत होता है, किन्तु फिर भी यह शब्द यथार्थ नहीं समझा जाता है। इस कारण यह निर्धारित करना कठिन काम है कि वह मानसिक कडी कौनसी है जिस ने इन सब भिन्न २ प्रयोगों को बांध रक्खा है। स्यात् इस बात को समझने में न्याय, उचित या इन्साफ़ शब्द की व्युत्पत्ति से कुछ सहायता मिले। इस कारण इस शब्द की व्युत्पत्ति पर विचार करना चाहिये।

यदि सब नहीं तो भी अधिकांश भाषाओं में 'उचित' शब्द के समानार्थ शब्दों की व्युत्पत्ति से पता चलता है कि आरम्भ में इस शब्द का सम्बन्ध क़ानून के प्रारम्भिक रूप अर्थात् माने हुवे रिवाज से था। अंग्रेज़ो का 'Justum' से निकला है और 'Justum' 'Justun' का एक रूप है जिस के अर्थ है "वह जिस की आज्ञा दीगई है।" 'Jus' की भी यही व्युत्पत्ति है। 'Recht' जिस से Right तथा Righetous शब्द बने हैं, क़ानून का समानार्थक है। फ्रैंच़ भाषा में La Justice क़ानूनी अदालत के लिये आता है। यही बात लैटिन तथा ग्रीक भाषाओं में है। हीब्रू लोग भी ईसा की उत्पत्ति के समय तक क़ानून के अनुसार बात ही को न्याय-संगत अर्थात् उचित मानते थे। ऐसा होना स्वाभाविक भी था क्योंकि हीब्रू लोगों के क़ानून सब विषयों से---जिन के सम्बंध में उपदेश की आवश्यकता है--संबंध रखते थे तथा उन लोगों का विचार था कि ये कानून ईश्वर की ओर से हैं। किन्तु अन्य जातियां और विशेषतया यूनानी और रोमन लोग, जिनका ख्य़ाल था कि क़ानूनों को आरम्भ में मनुष्यों ने बनाया था और अब भी मनुष्य ही बनाते हैं, यह बात स्वीकार करने में नहीं हिचकते थे कि यह भी सम्भव है कि क़ानून बनाने वाले मनुष्यों ने बुरे क़ानून बनाये हो। इस प्रकार सब क़ानूनों का उल्लंघन करना अनुचित नहीं समझा जाने लगा। केवल उन्हीं मौजूदा क़ानूनों का उल्लंघन करना अनुचित समझा जाने लगा जिन का होना उचित है। ऐसे क़ानूनों का उल्लंघन करना भी, जो हैं तो नहीं किन्तु जिनका होना उचित है, नामुनासिब समझा जाने लगा। ऐसे क़ानून भी, जो क़ानून होने योग्य नहीं समझे जाते थे, अनुचित समझे जाने लगे। इस प्रकार क़ानूनों के उचित तथा अनुचित की कसौटी न रहने पर भी न्याय के ख्य़ाल के साथ २ क़ानून का ख्य़ाल भी बराबर बना ही रहा।

यह बात ठीक है कि मनुष्य जाति न्याय या इन्साफ़ के ख्य़ाल को बहुत सी ऐसी बातों में भी व्यवहृत करती है जिनका सञ्चालन कानून के द्वारा नहीं होता है और न होना चाहिये। कोई मनुष्य यह नहीं चाहता कि घरेलू जीवन की छोटी २ बातों में भी क़ानून दस्तन्दाज़ी अर्थात् हस्ताक्षेप करे। किन्तु फिर भी प्रत्येक मनुष्य की धारणा है कि हम अपने सब दैनिक कार्य उचित या अनुचित करते हैं। किन्तु यहां पर भी उस बात को उल्लंघन करने का विचार, जो क़ानून होना चाहिये थी, परिवर्तित रूप में बिद्यमान है। हम सदैव उन कामों के लिये, जिनको हम अनुचित समझते हैं, दएड मिलता देखकर प्रसन्न होंगे, यद्यपि हम इस बात को मस्लहत के विरुद्ध समझते हैं कि सदैव इस प्रकार का दण्ड अदालतों के द्वारा दिया जाय। हम यह बात देख कर प्रसन्न होंगे कि उचित आचरण को बढ़ावा दिया जा रहा है तथा अनुचित आचरण को दबाया जा रहा है। यह बात दूसरी है कि हम न्यायाधीश को अन्य मनुष्यों की अपेक्षा इतना निस्सीम अधिकार तथा शक्ति देने से डरें। हम यह देख कर ख़ुश होंगे कि शासक--चाहे वह कोई क्यों न हों--मनुष्यों को उचित कार्य करने के लिये विवश कर रहा है। यदि हम समझते हैं कि क़ानून द्वारा किसी उचित कार्य का पालन कराना मस्लहत के विरुद्ध या असम्भव है तो हमको बड़ा खेद सोता है। हम अनुचित व्यवहार के लिये दणड न मिलना बुरा समझते हैं और इस कारण उपरोक्त कमी को पूरा करने के लिये हम अनुचित कार्य करने वाले के प्रति बड़े जोर से अपनी तथा समाज की घृणा प्रकट करते हैं। इस प्रकार न्याय या उचित के भाव के साथ २ क़ानून का बन्धन फिर भी बना ही रहता है। निस्सन्देह क़ानून तथा न्याय या उचित के सम्बन्ध में, जिस अर्थ में उचित शब्द का व्यवहार उन्नत समान में होता है, बहुत कुछ परिवर्तन हुवा है।

मेरे विचार में न्याय या उचित के विचार की उपरोक्त उत्पत्ति तथा वर्धमान विकाश का वृत्तान्त बिल्कुल ठीक है। किन्तु अभी तक यह बात साफ़ नहीं हुई है कि साधारण कर्तव्य तथा नैतिक कर्तव्य में क्या अन्तर है। वास्तविक बात तो यह है कि दण्ड के विधान का विचार, जो क़ानून का सार है, केवल अनुचित ही के लिये नहीं होता वरन सब प्रकार के दोषों के लिये होता है। हम कभी किसी बान को ठीक कहते ही नहीं जब तक कि हमारा यह आशय नहीं होता कि ऐसा काम न करने वाले को किसी न किसी प्रकार दण्ड मिलना चाहिये। यदि क़ानून से ऐसा दण्ड नहीं मिलता तो समाज की सम्मति द्वारा मिलना चाहिये। इस प्रकार भी न हो सके तो ऐसा होना चाहिये कि उस की अन्तरात्मा ( Conscience ) ही ऐसे काम के लिये उस को लानत मलामत करती रहे। ऐसा मालूम पड़ता है कि साधारण मसलहत तथा आचार नीति में वास्तव में यहीं से भेद पड़ना आरम्भ होता है। चाहे हम किसी रूप में कर्तव्य ( Duty ) की कल्पना क्यों न करें, हमारा यह आशय होता है कि कर्तव्य वह है जिसका पालन करने के लिये प्रत्येक मनुष्य को विवश करना ठीक हो। जिस प्रकार किसी मनुष्य से ज़बर्दस्ती क़र्ज़ा वापिस लिया जाता है उसी प्रकार उस से ज़बर्दस्ती कर्तब्य का पालन कराया जा सकता है। जब तक हम यह नहीं समझते कि किसी बात का ज़बर्दस्ती कराना ठीक है तब तक हम उस बात को कर्तब्य ही नहीं कहते। यह बात दूसरी है कि दूरदर्शिता अथवा अन्य मनुष्यों के हित के विचार से हम किसी मनुष्य को कर्तव्य-पालन करने के लिये वास्तव में विवश न करें। किन्तु यह बात माफ़ तौर से समझी जाती है कि यदि हम उस मनुष्य को कर्तव्य पालन के लिये विवश करेंगे तो उस मनुष्य को शिकायत का कोई अधिकार न होगा। इस के विपरीत बहुत सी ऐसी बातें भी हैं जिन को हम चाहते हैं कि और आदमी करें तथा हम उन बातों को करने के लिये करने वालों को पसन्द करते हैं या उनकी प्रशंसा करते हैं; किन्तु फिर भी हम यह मानते हैं कि वे आदमी ऐसा करने के लिये विवश नहीं हैं अर्थात् ऐसा करना उनका नैतिक कर्तव्य ( Moral obligation ) नहीं है। ऐसा न करने के कारण हम उन की निन्दा नहीं करते अर्थात् हम इस बात के लिये उन को दण्ड का उचित पात्र नहीं समझते। दण्ड के उचित पात्र होने या न होने का बिचार कैसे उत्पन्न हुवा--इसका पता स्यात् भागे चलकर चलेगा; किन्तु मेरा ख्य़ाल है कि निस्सन्देह ठीक या बे ठीक अर्थात् गलत' की कल्पना की तह में यह भेद ही काम कर रहा है। हम किसी अचरण को उम सीमा तक ग़लत समझते हैं या किसी अन्य प्रकार से अपनी अस्वीकृति देते हैं, जिस सीमा तक हम यह समझते हैं कि उक्त काम के लिये दण्ड मिलना चाहिये या नहीं। हम कहते है कि ऐसा २ करना ठीक होगा या केवल प्रशंसनीय होगा जब कि हमारी इच्छा होती है कि ऐसा करने के लिये उस मनुष्य को, जिस का इस कार्य से संबन्ध है, इस प्रकार करने के लिये विवश किया जाये, प्रलोभन दिया जाय या ज़बरदस्ती की जाय।

उपरोक्त बात साधारण आचार नीति तथा मसलहत और प्रशंसनीयता ( Worthiness ) का भेद बताती है। अभी न्याय अर्थात इन्साफ और आचारनीति की अन्य शाखाओं का भेद मालूम करना है। आचारशास्त्र के लेखकों ने नैतिक कर्तव्यों के दो भेद किये हैं। एक तो वे कर्तव्य होते हैं जिन को करना यद्यपि आवश्यक है, किन्तु जिन को करने के अवसर हमारी इच्छा पर छोड़ दिये जाते हैं, जैसे दान या उपकार के काम। दान देना तथा उपकार करना हमारा धर्म है किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि किसी विशेष मनुष्य ही को दान दें या उसका उपकार करें तथा किसी निर्धारित समय पर ही ऐसा करें। इस प्रकार के कर्तव्य अपूर्ण कर्तव्य कहे जाते हैं दूसरे वे कर्तव्य होते हैं जिन का पालन करना सदैव आवश्यक होता है। इस प्रकार के कर्तव्यों को पूर्ण कर्तव्य कहते हैं। अधिक नपी तुली दार्शनिक भाषा में हम इस प्रकार कह सकते हैं कि पूर्ण कर्तव्य वे होते हैं। जिन के साथ २ कोई मनुष्य या कतिपय मनुष्य अधिकार के पात्र हो जाते हैं। अपूर्ण कर्तव्य वे होते हैं जिनके कारण कोई अधिकार का पात्र नहीं होता। मेरे विचार में ठीक यही भेद न्याय अर्थात् इनसाफ़ तथा अन्य नैतिक कर्तव्यों में है। न्याय शब्द के भिन्न २ साधारण प्रयोगों के जो उदाहरण इस अध्याय के आरम्भ में दिये गये हैं उन सब उदाहरमों में साधारणतया व्यक्तिगत अधिकार या हक़ का भाव मौजूद है। चाहे अन्याय या बे इन्साफ़ी किसी का माल छीनने में हो, चाहे उसके साथ विश्वासघात करने में हो, या उसके साथ ऐसा बर्ताव करने में हो जिसका वह अधिकारी नहीं है, या उसके साथ उन मनुष्यों की अपेक्षा बुरा व्यवहार करने में हो जिन के दावे ( Claim ) उस से अधिक नहीं हैं; प्रत्येक दशा में न्याय की कल्पना में दो बातें मौजूद हैं--एक तो दूषित कार्य जो हुवा है और दूसरे वह मनुष्य जिस के साथ दुषित कार्य हुवा है। किसी मनुष्य के साथ दूसरे मनुष्यों की अपेक्षा अच्छा बर्ताव करने से भी अन्याय हो सकता है। किन्तु इस दशा में हानि उस मनुष्य के प्रतिद्वन्दियों को पहुंचती है। मेरी समझ में यह बात अर्थात् नैतिक कर्तव्य के साथ २ किसी मनुष्य में अधिकार का होना--न्याय तथा उदारता या परोपकार का विशेष भेद है। न्याय से केवल उसी बात का आशय नहीं होता है जिस का करना ठीक है और जिस का न करना गलत है वरन् न्याय से उस चीज़ का आशय होता है जिस का दावा और कोई आदमी अपना नैतिक अधिकार बताकर हम पर कर सकता है। हमारी उदारता या हमारे परोपकार का पात्र बनने का किसी को नैतिक अधिकार नहीं है, क्योंकि हम पर कोई नैतिक बन्धन नहीं है कि हम किसी विशेष व्यक्ति के प्रति उदारता दिखायें या उस का उपकार करें। जो उदाहरण इस ठीक परिभाषा के प्रतिकूल मालूम पड़ते हैं वे ऐसे उदाहरण हैं जो इसके बहुत ही अधिक अनुकूल हैं। यदि कोई आचार शास्त्री इस बात कों प्रतिपादित करने का प्रयत्न करता है--जैसा कि कुछ आचार शास्त्रियों ने किया भी है--कि यदि कोई विशेष व्यक्ति नहीं तो भी कुल मिलकर मनुष्य जाति तो उस सब भलाई की अधिकारी है जो हम कर सकते हैं--तो वह तत्क्षण ही अपने पूर्व पक्ष में उदारता तथा उपकार को न्याय के साथ सम्मिलित कर देता है। वह यह कहने के लिये विवश होता है कि यथा शक्ति प्रयत्न द्वारा हम समाज के भृण से उभृण हो सकते हैं। इस प्रकार हमारा यथा शक्ति भलाई करने का प्रयत्न करना ऋण चुकाने के समान हो जाता है। या वह यह भी कह सकता है कि जो कुछ समाज हमारे लिये करता है उस का बदला इस से कम कुछ नहीं हो सकता कि हम समाज की भलाई का यथा शक्ति प्रयत्न करें। इस दशा में भलाई करने का यथा शक्ति प्रयत्न कृतज्ञता-प्रकाशन का रूप ग्रहण कर लेता है। यह दोनों बातें अर्थात् ऋण का चुकाना तथा कृतज्ञता-प्रदर्शन न्याय के अन्तर्गत हैं। न्याय या इन्साफ़ के साथ अधिकार लगा हुवा है परोपकार के साथ अधिकार-प़ात्रता का प्रश्न नहीं है। जो न्याय अर्थात् इन्साफ़ तथा साधारण आचार नीति में यह भेद नहीं मानता वह दोनों को गडमड कर देता है।

इस बात को मालूम करने के बाद कि न्याय का विचार किन २ भिन्न २ तत्वों से बनता है हम को यह बात मालूम करने का प्रयत्न करना चाहिये कि जो भावना इस विचारज्ञके साथ उठती है वह कोई विशेष नैसर्गिक देवाज्ञा है या यह भावना कतिपय ज्ञात नियमों के अनुसार इस विचार ही से विकसित हुई है और विशेषतया क्या इस प्रकार की भावना मस्लहत के विचार से उत्पन्न हो सकती है?

मेरा विचार है कि 'न्याय' का भाव ( Sentiment ) किसी ऐसी चीज़ से उत्पन्न नहीं होता जिस को हम साधारणतया या ठीक तौर से मस्लहत का विचार कह सकते हों; किन्तु 'न्याय' या 'इन्साफ़' के विचार में जो कुछ आचाग्युक्तता वह मसलहत के विचार से उत्पन्न हुई है।

हम प्रमाणित कर चुके हैं कि 'न्याय' की भावना के दो मुख्य अवयव ( Ingredienis ) ये हैं---उस मनुष्य को दण्ड देने की इच्छा जिस ने हानि की है तथा इस बात का ज्ञान या विश्वास कि कोई मनुष्य या कुछ मनुष्य ऐसे हैं जिन को हानि पहुंची है। मुझे यह प्रतीत होता है कि किसी को हानि पहुंचाने वाले को दण्ड देने की इच्छा दो भावों से ख़ु बख़ुद पैदा होती है। ये दो भाव प्रात्म-रक्षा का आवेग तथा सहानुभूति की भावना हैं। ये दोनों भाव बिल्कुल प्राकृतिक हैं और या तो निसर्गः ( Instincts ) हैं या निसर्ग से मिलते जुलते हैं।

यह प्राकृतिक है कि यदि हम को या उन मनुष्यों को, जिन से हमें सहानुभूति है, हानि पहुँचाई जायगी तो हम को बुरा मालूम देगा या हम उस हानि को रोकने या उस हानि का बदला लेने की चेष्टा करेंगे। यहां पर इस प्रकार के भाव की उत्पत्ति के विषय में वाद-विवाद करने की आवश्यकता नहीं है। चाहे यह निसर्ग हो या मनीषा का परिणाम---हम सब जानते हैं कि ऐसा करना सब पशुओं की प्रकृति में है क्योंकि हम देखते हैं कि प्रत्येक जानवर उन को हानि पहुंचाने का प्रयत्न करता है जो उस को या उस के बच्चों को हानि पहुंचाते हैं या जिन को वह समझता है कि हानि पहुंचाने वाले हैं। यहां पर मनुष्यों तथा अन्य जानवरों में दो बातों का भेद है। पहिली बात तो यह है कि मनुष्यों में मनुष्य जाति तथा सब ज्ञान-ग्रहण-शील सृष्टि के प्रति सहानुभूति होना संभव है। अन्य जानवर अपने बच्चों के साथ ही सहानुभूति रखते हैं। कुछ उच्च श्रेणी के जानवर ( Noble ) ऐसे बड़े जानवर के साथ भी सहानुभूति रखते हैं जो उन पर मेहरबान होता है। दूसरी बात यह है कि मनुष्यों की बुद्धि अधिक विकसित होती है। इस कारण भावों का, चाहे आत्म-सम्बन्धी हो चाहे सहानुभूति विषयक-दायरा अधिक बड़ा होता है। सहानुभूति का दायरा बड़ा होने के विचार को छोड़कर भी मनुष्य अपनी अधिक विकसित बुद्धि के कारण अपने तथा मनुष्य समाज के हित के सम्बन्ध को जिस का वह एक सभ्य है समझ सकता है। वह जान सकता है कि जिस आचरण से साधारणतया समाज की हस्ती ( Security ) ख़तरे में पड़ती है उस की हस्ती भी ख़तरे में पड़ती है। इस कारण इस प्रकार के आचरण पर उस के अन्दर आत्म-रक्षा का निसर्ग ( यदि यह बात निसर्ग हो ) जागृत हो जाता है। इस अधिक विकसित बुद्धि तथा साधारण- तथा मनुष्य जाति के प्रति सहानुभूति का भाव रखने की क्षमता के कारण ही मनुष्य अपनी जाति, अपने देश तथा मनुष्य जाति का इस प्रकार ख्याल कर सकता है कि जिस से उनको हानि पहुंचाने वाले कार्यों को देखकर उसके अन्दर सहानुभूति तथा बदला लेने के भाव जागृत हो जाते हैं।

इस प्रकार न्याय के भाव में दण्ड देने की इच्छा का अवयव उस हानि का जो हमको या समाज को पहुंचती है, बदला लेने की प्राकृतिक भावना है। बदला लेने के ख्याल में स्वत: कोई आचार नीति नहीं है। जो आचार नीति है वह यह है कि हम इस ख्याल को बिल्कुल सामाजिक सहानुभूति के आधीन कर देते हैं। प्राकृतिक भावना तो यह है कि किसी मनुष्य का जो कुछ भी काम हमें अरुचिकर हो हम उस से बुरा मानें अर्थात् क्रुद्ध हों, किन्तु समाज का ख्याल आ जाने के कारण हम उन कामों से बुरा मानते हैं जो समाज के लिये अहितकर हों। उदाहरणत: मनुष्य ऐसे काम से क्रुद्ध होते हैं जो यद्यपि उन के लिये अहितकर नहीं होता है वरन् समाज के लिये हानिकारक होता है।

बहुत से मनुष्य कहेंगे कि जब हम में इस प्रकार का भाव उत्पन्न होता है कि अन्याय हो रहा है तो हम उस समय समाज या सामुदायिक हित का ध्यान नहीं रखते हैं वरन् किसी व्यक्ति का ख्य़ाल करते हैं। किन्तु इस प्रकार का कथन इस सिद्धान्त के विरुद्ध कोई आक्षेप नहीं है। बेशक साधारणतयां मनुष्यों को इस कारण क्रोध आता है कि उन्हें कष्ट पहुंचा है। किन्तु वह मनुष्य, जिस में इस प्रकार के क्रोध का भाव नैतिक भाव ( Moral feeling ) है अर्थात् जो क्रोध करने से पहिले इस बात का विचार करता है कि काम निन्दनीय है भी या नहीं, चाहे प्रगट रूप से अपने दिल में यह न कहे कि मैं समाज का पक्ष ले रहा हूं किन्तु इस बात को अनुभव अवश्य करता है कि वह एक ऐसे नियम का पालन कर रहा है जो उस के तथा समाज के लिये हितकर है। यदि वह इस बात का अनुभव नहीं करता है अर्थात् यदि वह केवल इस ही बात का विचार करता है कि उस कार्य का उस पर क्या प्रभाव पड़ता है तो वह मनुष्य इस बात को नहीं जानता कि मैं सत्य पर हूं या नहीं। ऐसा मनुष्य अपने कार्यों के उचित या अनुचित होने का विचार नहीं करता है। इस बात को उपयोगितावाद के विरोधी आचार शास्त्रियों ने भी माना है। जब कान्ट (जैसा कि पहिले भी लिखा जा चुका है ) आचार नीति का मुख्य सिद्धान्त यह बताता है कि इस प्रकार आचरण करो कि जिस से तुम्हारे आचरण के नियम को सब सहेतुक धर्मवादी ( Rationalists ) कानून मान लें तो वह वास्तव में इस बात को मान लेता है कि जब कोई व्यक्ति किसी कार्य के आचार-युक्त होने का निर्णय करता है तो उस के दमाग़ में मनुष्य जाति या समाज का ख्य़ाल रहना चाहिये। यदि कान्ट का यह आशय नहीं है तो उस का कथन निरर्थक है। भला यह कैसे हो सकता है कि बिल्कुल ख़ुदगर्जी से भरे हुवे नियम को सारे सहेतुक धर्मवादी मान लेंगे। यदि कान्ट के कथन के कुछ अर्थ हो सकते हैं तो यही होने चाहिये कि हमको ऐसे नियम के अनुसार आचरण करना चाहिये कि जिस नियम को सारे सहेतुक धर्मवादी सामुदायिक हित के विचार से मान लें।

अच्छी तरह समझाने के लिये सब बातों को फिर दुहराये लेते हैं। 'न्याय' का विचार दो बातों की कल्पना करता है; एक तो आचरण का नियम और दूसरा वह भाव ( Sentiment ) जो इस नियम की अनुमति देता है। आचरण का नियम मनुष्य मात्र के लिये समझा जाना चाहिये और उन के लिये हितकर होना चाहिये। न्याय का भाव इस बात की इच्छा है कि जो लोग आचरण के नियम का उल्लंघन करें उन को दण्ड मिलना चाहिये। इस के साथ २ किसी आदमी या बहुत से आदमियों का भी ध्यान होता है जिन को आचरण का नियम उल्लंघन करने से हानि पहुंचती है और उनके अधिकार कुचले जाते हैं। न्याय का भाव ( Sentiment ) मुझे इस बात की प्राकृतिक इच्छा जान पड़ती है कि उन लोगों को हानि पहुंचाई जावे जो हम को या उन को जिन से हमें सहानुभूति है हानि पहुंचावें। यह इच्छा सब जानवरों में पाई जाती हैं।

इस समस्या पर विचार करते हुवे मैंने इस बात का वर्णन किया है कि अन्याय होने पर किसी व्यक्ति या कतिपय व्यक्तियों का अधिकार कुचला जाता है। अच्छा तो अधिकार कुचले जाने का क्या अर्थ है? जब हम कहते हैं कि अमुक चीज़ पर अमुक व्यक्ति का अधिकार है तो हमारा आशय होता है कि उस व्यक्ति का समाज पर पूरा दावा है कि समाज उस व्यक्ति को वह चीज़, क़ानून की ताक़त, शिक्षा अथवा लोक-मत के द्वारा दिलवाये। हम इस बात को प्रमाणित करने के लिये, कि अमुक वस्तु पर अमुक व्यक्ति का अधिकार नहीं है, इस बात को प्रमाणित करते हैं कि समाज को उस वस्तु को उस व्यक्ति को दिलाने का प्रबन्ध नहीं करना चाहिये किन्तु उस वस्तु की प्राप्ति को उस व्यक्ति के भाग्य या उद्योग पर छोड़ देना चाहिये इस प्रकार हम कहते हैं कि प्रत्येक मनुष्य को अधिकार है कि किसी व्यवसाय में इमान्दारी के साथ स्पर्धा अर्थात् मुक़ाबिला करता हुवा जितना कमा सके कमाये क्योंकि समाज को नहीं चाहिये कि वह उस आदमी को ईमान्दारी के साथ यथाशक्ति कमाने से रोके। किन्तु उस आदमी को यह अधिकार नहीं है कि वह ३००) मासिक कमायेगा, चाहे वह इतना कमा रहा हो क्योंकि समाज इस बात की ज़िम्मेदार नहीं है कि वह ३००) अवश्य कमाये। इस के विपरीत यदि उस के पास तीन प्रतिशत व्याज का १० सहस्र पौणड का स्टाक अर्थात् कम्पनी काग़ज़ है तो उस का अधिकार है कि वर्ष भर में उसे ३०० पौन्ड मिलें क्योंकि समाज पर ज़िम्मेदारी आजाती है कि वह उस को उसके मूलधन पर इतने पौण्ड की आय करावे।

इस प्रकार मेरा विचार है कि अधिकार रखने का मतलब किसी ऐसी चीज़ को रखना है जिस को क़ब्ज़े से बाहर न जाने देना समाज का धर्म है। यदि कोई आक्षेप करने वाला मेरे से प्रश्न करे कि समाज को ऐसा क्यों करना चाहिये तो मैं इस के सिवाय कुछ उत्तर नहीं दे सकता कि सार्वजनिक हित के विचार से ऐसा करना चाहिये। यदि सार्वजनिक हित का विचार ऐसा करने के लिये काफ़ी ज़ोरदार प्रमाण नहीं मालूम पड़ता है तो उसका कारण यह है कि हमारे न्याय के भाव की नीव केवल हेतुवाद ही पर नहीं है वरन् इस भाव में पशु-प्रकृति अर्थात् बदला लेने की इच्छा भी बहुत हद तक शामिल है। यह बदला लेने की इच्छा इस कारण आचारयुक्त ठहराई जा सकती है क्योंकि इस का एक बहुत बड़ी उपयोगिता से सम्बन्ध है। यह बहुत बड़ी उपयोगिता 'हिफ़ाज़त' हैं। हमारे लिये हितकर बातों में सब से अधिक महत्वपूर्ण बात 'हिफ़ाज़त' है। और सारी सांसारिक लाभदायक बातें ऐसी हैं जिनकी एक आदमी को आवश्यकता है किन्तु दूसरे को नहीं है। इन लाभदायक बातों में से बहुत सी ऐसी हैं जिन को आवश्यकता पड़ने पर हम सहर्ष छोड़ सकते हैं या उन के स्थान की अन्य प्रकार से पूर्ति कर सकते हैं। किन्तु बिना 'हिफ़ाज़त' ( Security ) के किसी आदमी का काम नहीं चल सकता। 'हिफ़ाज़त' होने की दशा ही में अन्य मनुष्य हमको हानि नहीं पहुंचा सकता। हिफ़ाज़त होने ही पर इष्ट पदार्थ हमारे काम के हैं नहीं तो क्षणिक उपयोग के अतिरिक्त इष्ट पदार्थों का हमारे लिये कोई मोल नहीं रहता क्योंकि यह अंदेशा बना रहता है कि ज्यूंही कोई हम से मज़बून अादमी हमको मिलेगा तत्काल ही हमें इन पदार्थों से वञ्चित कर देगा। इस कारण उदर-पूर्ति के बाद सब आवश्यकताओं में सब से अधिक अनिवार्य आवश्यकता हिफ़ाज़त की है। और हिफ़ाज़त उस समय तक नहीं हो सकती जब तक कि वह संस्था, जिसके सुपुर्द हिफ़ाज़त का काम हो, सदैव अपने काम पर मुस्तैद न रहे। इस कारण हमारी यह कल्पना---कि अन्य मनुष्यों का कर्तव्य है कि हिफ़ाज़त के काम में, जिस पर हमारा अस्तित्त्व तक निर्भर है, हमारा हाथ बटावें--इतनी दृढ़ हो जाती है जितनी अधिक साधारण उपयोगी कार्यों के विषय में नहीं होती।

इस प्रकार हिफ़ाज़त का दावा अन्य उपयोगी कार्यों से बिल्कुल भिन्न हो जाता है और निरपेक्षता ( Absoluteness) का रूप धारण कर लेता है अर्थात् प्रत्यक्ष में यह मालूम पड़ता है कि इस दावे का आधार अन्य बातों का ख्य़ाल नहीं है। यदि न्याय का उपरोक्त विश्लेषण या स्पष्टीकरण न्याय की कल्पना का ठीक वृत्तान्त नहीं है---यदि न्याय का उपयोगिता के विचार से कुछ सम्बन्ध नहीं है, यदि न्याय ऐसा आदर्श हैं जिस को मस्तिष्क अपने ही अन्दर दृष्टि डाल कर जान सकता है--तो समझ में नहीं आता कि यह आन्तरिक आदेश कर्ता ( inner oracle ) इतना सन्दिग्ध क्यों है? क्यों बहुत सी बातें एक प्रकार से विचार करने से उचित मालूम पड़ती है और फिर दूसरी प्रकार से विचार करने से वे ही बातें अनुचित मालूम पड़ती हैं।

हम से बार २ कहा जाता है कि उपयोगिता का आदर्श अनिश्चित है। प्रत्येक मनुष्य भिन्न २ प्रकार से अर्थ लेता है इस कारण न्याय के आदर्शों का पालन उचित है जो नित्य ( Immutable), अनिवार्य ( Ineffaceable ) तथा भूल से मुक्त (Unmitsakable ) है तथा जो अपने प्रमाण स्वयं है और जिन पर लोकमत के परिवर्तन का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इस कथन से स्यात् कोई कल्पना करे कि न्याय से संबन्ध रखने वाले प्रश्न निर्विवाद हैं तथा यदि हम 'न्याय' को अपने आचरण का नियम बनालें तो प्रत्येक आचार के ठीक बे ठीक होने का निर्णय ऐसे असिन्दिग्ध रूप से होगा जैसे किसी गणित के प्रश्न के उत्तर के ठीक या गलत होने का निर्णय हो जाता है। किन्तु यह बात बिल्कुल गलत है। जितना विवादात्मक यह विषय है कि समाज के लिये क्या हितकर है और क्या अहितकर, उतना ही विवादात्मक यह विषय है कि क्या उचित अर्थात् न्याय-संगत है और क्या अनुचित अर्थात् न्याय के विरुद्ध। केवल भिन्न २ जातियों तथा व्यक्तियों ही में न्याय की कल्पनायें भिन्न २ नहीं है वरन् एक ही व्यक्ति के मस्तिष्क में भी न्याय की कल्पना का आधार कोई एक नियम, सिद्धान्त या उसूल नहीं है। एक ही व्यक्ति की भी न्याय की कल्पना बहुत से नियमों, सिद्धान्तों या उसूलों से मिलकर बनती है। कभी २ ऐसा भी होता है कि, इन भिन्न २ नियमों, सिद्धान्तों या उसूलों के आदेश समान नहीं होते हैं और ऐसी दशा में और उस समय वह व्यक्ति या तो किसी अन्य आदर्श का आसरा लेता है या अपनी ही पसन्द को काम में लाता है।

उदाहरणत: कुछ आदमियों का कहना है कि किसी आदमी को इस कारण दण्ड देना, कि दूसरों को उदाहरण हो, अनुचित है। दण्ड उस ही दशा में ठीक है जब कि दण्ड भोगने वाले के फ़ायदे ही के लिये दण्ड दिया जाय। दूसरे लोग इस से बिल्कुल उल्टी बात कहते हैं। उन का कहना है कि समझदार आदमियों को उन्हीं के फ़ायदे के लिये दण्ड देना नादिरशाही तथा अन्याय है। यदि केवल उन्हीं के फ़ायदे का प्रश्न है तो अपने फ़ायदे को वे स्वयं ही समझ सकते हैं। हां! उन को इस कारण दण्ड दिया जा सकता है कि दूसरे आदमियों में वह बुराई न फैले। आत्म-रक्षा के विचार से ऐसा करना न्याय-संगत है। मिस्टर ओवेन ( Owen ) का कहना है कि दण्ड देना बिल्कुल ही अनुचित है क्योंकि मुजरिम ने अपना चरित्र आप ही नहीं बनाया है। अपनी शिक्षा तथा अपने चारों ओर की परिस्थिति के कारण मुजरिम बन गया है। इन सब बातों के लिये वह जिम्मेदार नहीं है। ऊपर से ये सब मत बिल्कुल मुझे यह प्रतीत होता है कि किसी को हानि पहुंचाने वाले को दण्ड देने की इच्छा दो भावों से ख़ुद बख़ुद पैदा होती है। ये दो भाव श्रात्म-रक्षा का आवेग तथा सहानुभूति की भावना हैं। ये दोनों भाव बिल्कुल प्राकृतिक हैं और यातो निसर्ग ( Instincts ) हैं या निसर्ग से मिलते जुलते हैं।

यह प्राकृतिक है कि यदि हम को या उन मनुष्यों को, जिन से हमें महानुभूति है, हानि पहुंचाई जायगी तो हम को बुरा मालूम देगा या हम उस हानि को रोकने या उस हानि को बदल लेने की चेष्टा करेंगे। यहां पर इस प्रकार के भाव की उत्पत्ति के विषय में वाद-विवाद करने की आवश्यकता नहीं है। चाहे यह निसर्ग हो या मनीषा का परिणाम--हम सब जानते हैं कि ऐसा करना सब पशुओं की प्रकृति में है क्योंकि हम देखते हैं कि प्रत्येक जानवर उन को हानि पहुंचाने का प्रयत्न करता है जो उस को या उस के बच्चों को हानि पहुंचाते हैं या जिन को वह समझता है कि हानि पहुंचाने वाले हैं। यहां पर मनुष्यों तथा अन्य जानवरों में दो बातों का भेद है। पहिली बात तो यह है कि मनुष्यों में मनुष्य जाति तथा सब ज्ञान-ग्रहण-शील सृष्टि के प्रति सहानुभूति होना संभव है। अन्य जानवर अपने बच्चों के साथ ही सहानुभूति रखते हैं। कुछ उच्च श्रेणी के जानवर ( Noble ) ऐसे बड़े जानवर के साथ भी सहानुभूति रखते हैं जो उन पर मेहरबान होता है। दूसरी बात यह है कि मनुष्यों की बुद्धि अधिक विकसित होती है। इस कारण भावों का, चाहे आत्म-सम्बन्धी हो चाहे सहानुभूति विषयक---दायरा अधिक बड़ा होता है। सहानुभूति का दायरा बड़ा होने के विचार को छोड़कर भी मनुष्य अपनी अधिक विकसित बुद्धि के कारण अपने तथा मनुष्य समाज के हित के सम्बन्ध को जिस का वह एक सभ्य है समझ सकता है। वह जान सकता है कि जिस आचरण से साधारणतया समाज की हस्ती ( Security ) खतरे में पड़ती है उस की हस्ती भी ख़तरे में पड़ती है। इस कारण इस प्रकार के आचरण पर उस के अन्दर आत्म-रक्षा का निसर्ग ( यदि यह बात निसर्ग हो ) जागृत हो जाता है। इस अधिक विकसित बुद्धि तथा साधारण- तथा मनुष्य जाति के प्रति सहानुभूति का भाव रखने की क्षमता के कारण ही मनुष्य अपनी जाति, अपने देश तथा मनुष्य जाति का इस प्रकार ख्याल कर सकता है कि जिस से उनको हानि पहुंचाने वाले कार्यों को देखकर उसके अन्दर सहानुभूति तथा बदला लेने के भाव जागृत हो जाते हैं।

इस प्रकार न्याय के भाव में दण्ड देने की इच्छा का अवयव उस हानि का जो हमको या समाज को पहुंचती है, बदला लेने की प्राकृतिक भावना है। बदला लेने के ख्याल में स्वत: कोई आचार नीति नहीं है। जो अचार नीति है वह यह है कि हम इस ख्याल को बिल्कुल सामाजिक सहानुभूति के आधीन कर देते हैं। प्राकृतिक भावना तो यह है कि किसी मनुष्य का जो कुछ भी काम हमें अरुचिकर हों हम उस से बुरा माने अर्थात् क्रुद्ध हों, किन्तु समाज का ख्याल आ जाने के कारण हम उन कामों से बुरा मानते हैं जो समाज के लिये अहितकर हों। उदाहरणत: मनुष्य ऐसे काम से क्रुद्ध होते हैं जो यद्यपि उन के लिये अहितकर नहीं होता है वरन् समाज के लिये हानिकारक होता है।

बहुत से मनुष्य कहेंगे कि जब हम में इस प्रकार का भाव उत्पन्न होता है कि अन्याय हो रहा है तो हम उस समय समाज या सामुदायिक हित का ध्यान नहीं रखते हैं वरन् किसी व्यक्ति का ख्याल करते हैं। किन्तु इस प्रकार का कथन इस सिद्धान्त के विरुद्ध कोई आक्षेप नहीं है। बेशक साधारणतया मनुष्यों को इस कारण क्रोध आता है कि उन्हें कष्ट पहुंचा है। किन्तु वह मनुष्य, जिस में इस प्रकार के क्रोध का भाव नैतिक भाव ( Moral feeling ) है अर्थात् जो क्रोध करने से पहिले इस बात का विचार करता है कि काम निन्दनीय है भी या नहीं, चाहे प्रगट रूप से अपने दिल में यह न कहे कि मैं समाज का पक्ष ले रहा हूं किन्तु इस बात को अनुभव अवश्य करता है कि वह एक ऐसे नियम का पालन कर रहा है जो उस के तथा समाज के लिये हितकर हैं। यदि वह इस बात का अनुभव नहीं करता है अर्थात् यदि वह केवल इस ही बात का विचार करता है कि उस कार्य का उस पर क्या प्रभाव पड़ता है तो वह मनुष्य इस बात को नहीं जानता कि मैं सत्य पर हूं या नहीं। ऐसा मनुष्य अपने कार्यों के उचित या अनुचित होने का विचार नहीं करता है। इस बात को उपयोगितावाद के विरोधी आचार शास्त्रियों ने भी माना है। जब कान्ट ( जैसा कि पहिले भी लिखा जा चुका है ) आचार नीति का मुख्य सिद्धान्त यह बताता है कि इस प्रकार आचरण करो कि जिस से तुम्हारे आचरण के नियम को सब सहेतुक धर्मवादी ( Rationalists ) क़ानून मान लें तो वह वास्तव में इस बात को मान लेता है कि जब कोई व्यक्ति किसी कार्य के आचार-युक्त होने का निर्णय करता है तो उस के दमाग़ में मनुष्य जाति या समाज का ख्याल रहना चाहिये। यदि कान्ट का यह आशय नहीं है तो उस का कथन निरर्थक है। भला यह कैसे हो सकता है कि बिल्कुल ख़ुदग़र्ज़ी से भरे हुवे नियम को सारे सहेतुक धर्मवादी मान लेंगे। यदि कान्ट के कथन के कुछ अर्थ हो सकते हैं तो यही होने चाहियें कि हमको ऐसे नियम के अनुसार आचरण करना चाहिये कि जिस नियम को सारे सहेतुक धर्मवादी सामुदायिक हित के विचार से मान लें।

अच्छी तरह समझाने के लिये सब बातों को फिर दुहराये लेते हैं। 'न्याय' का विचार दो बातों की कल्पना करता है; एक तो आचरण का नियम और दूसरा वह भाव ( Sentiment ) जो इस नियम की अनुमति देता है। आचरण का नियम मनुष्य मात्र के लिये समझा जाना चाहिये और उन के लिये हितकर होना चाहिये। न्याय का भाव इस बात की इच्छा है कि जो लोग आचरण के नियम का उल्लंघन करें उन को दण्ड मिलना चाहिये। इस के साथ २ किसी आदमी या बहुत से आदमियों का भी ध्यान होता है जिन को आचरण का नियम उल्लंघन करने से हानि पहुंचती है और उनके अधिकार कुचले जाते हैं। न्याय का भाव ( Sentiment ) मुझे इस बात की प्राकृतिक इच्छा जान पड़ती है कि उन लोगों को हानि पहुंचाई जावे जो हम को या उन को जिन से हमें सहानुभूति है हानि पहुंचावें। यह इच्छा सब जानवरों में पाई जाती है।

इस समस्या पर विचार करते हुवे मैंने इस बात का वर्णन किया है कि अन्याय होने पर किसी व्यक्ति या कतिपय व्यक्तियों का अधिकार कुचला जाता है। अच्छा तो अधिकार कुचले जाने का क्या अर्थ है? जब हम कहते हैं कि अमुक चीज़ पर अमुक व्यक्ति का अधिकार है तो हमाग आशय होता है कि उस व्यक्ति का समाज पर पूरा दावा है कि समाज उस व्यक्ति को वह चीज़, क़ानून की ताक़त, शिक्षा अथवा लोक-मत के द्वारा दिलवाये। हम इस बात को प्रमाणित करने के लिये, कि अमुक वस्तु पर अमुक व्यक्ति का अधिकार नहीं है, इस बात को प्रमाणित करते हैं कि समाज को उस वस्तु को उस व्यक्ति को दिलाने का प्रबन्ध नहीं करना चाहिये किन्तु उस वस्तु की प्राप्ति को उस व्यक्ति के भाग्य या उद्योग पर छोड़ देना चाहिये। इस प्रकार हम कहते हैं कि प्रत्येक मनुष्य को अधिकार है कि किसी व्यवसाय में इमान्दारी के साथ स्पर्धा अर्थात् मुकाबिला करता हुवा जितना कमा सके कमाये क्योंकि समाज को नहीं चाहिये कि वह उस आदमी को ईमान्दारी के साथ यथाशक्ति कमाने से रोके। किन्तु उस आदमी को यह अधिकार नहीं है कि वह ३००) मासिक कमायेगा, चाहे वह इतना कमा रहा हो क्योंकि समाज इस बात की ज़िम्मेदार नहीं है कि वह ३००) अवश्य कमाये। इस के विपरीत यदि उस के पास तीन प्रतिशत व्याज का १० सहस्र पौण्ड का स्टाक अर्थात् कम्पनी कागज़ है तो उस का अधिकार है कि वर्ष भर में उसे ३०० पौन्ड मिले क्योंकि समाज पर ज़िम्मेदारी आजाती है कि वह उस को उसके मूलधन पर इतने पौण्ड की आय करावे।

इस प्रकार मेरा विचार है कि अधिकार रखने का मतलब किसी ऐसी चीज़ को रखना है जिस को क़ब्ज़े से बाहर न जाने देना समाज का धर्म है। यदि कोई आक्षेप करने वाला मेरे से प्रश्न करे कि समाज को ऐसा क्यों करना चाहिये तो मैं इस के सिवाय कुछ उत्तर नहीं दे सकता कि सार्वजनिक हित के विचार से ऐसा करना चाहिये। यदि सार्वजनिक हित का विचार ऐसा करने के लिये काफ़ी ज़ोरदार प्रमाण नहीं मालूम पड़ता है तो उसका कारण यह है कि हमारे न्याय के भाव की नीव केवल हेतुवाद ही पर नहीं है वरन् इस भाव में पशु-प्रकृति अर्थात् बदला लेने की इच्छा भी बहुत हद तक शामिल है। यह बदला लेने की इच्छा इस कारण आचारयुक्त ठहराई जा सकती है क्योंकि इस का एक बहुत बड़ी उपयोगिता से सम्बन्ध है। यह बहुत बड़ी उपयोगिता 'हिफ़ाज़त' हैं। हमारे लिये हितकर बातों में सब से अधिक महत्वपूर्ण बात 'हिफ़ाज़त' है। और सारी सांसारिक लाभदायक बातें ऐसी हैं जिनकी एक आदमी को आवश्यकता हैं किन्तु दूसरे को नहीं है। इन लाभदायक बातों में से बहुत सी ऐसी हैं जिन को आवश्यकता पड़ने पर हम सहर्ष छोड़ सकते हैं या उन के स्थान की अन्य प्रकार से पूर्ति कर सकते हैं। किन्तु बिना 'हिफ़ाज़त' ( Security ) के किसी आदमी का काम नहीं चल सकता। 'हिफ़ाज़त' होने की दशा ही में अन्य मनुष्य हमको हानि नहीं पहुंचा सकता। हिफ़ाज़त होने ही पर इष्ट पदार्थ हमारे काम के हैं नहीं तो क्षणिक उपयोग के अतिरिक्त इष्ट पदार्थों का हमारे लिये कोई मोल नहीं रहता क्योंकि यह अंदेशा बना रहता है कि ज्यूंही कोई हम से मज़बूत आदमी हमको मिलेगा तत्काल ही हमें इन पदार्थों से वञ्चित कर देगा। इस कारण उदर-पूर्ति के बाद सब आवश्यकताओं में सब से अधिक अनिवार्य आवश्यकता हिफ़ाज़त की है। और हिफ़ाज़त उस समय तक नहीं हो सकती जब तक कि वह संस्था, जिसके सुपुर्द हिफ़ाज़त का काम हो, सदैव अपने काम पर मुस्तैद न रहे। इस कारण हमारी यह कल्पना----कि अन्य मनुष्यों का कर्तव्य है कि हिफ़ाज़त के काम में, जिस पर हमारा अस्तित्त्व तक निर्भर है, हमारा हाथ बटावे---इतनी दृढ़ हो जाती है जितनी अधिक साधारण उपयोगी कार्यों के विषय में नहीं होती।

इस प्रकार हिफ़ाज़त का दावा अन्य उपयोगी कार्यों से बिल्कुल भिन्न हो जाता है और निरपेक्षता ( Absoluteness) का रूप धारण कर लेता है अर्थात् प्रत्यक्ष में यह मालूम पड़ता है कि इस दावे का आधार अन्य बातों का ख्य़ाल नहीं है। यदि न्याय का उपरोक्त विश्लेषण या स्पष्टीकरण न्याय की कल्पना का ठीक वृत्तान्त नहीं है---यदि न्याय का उपयोगिता के विचार से कुछ सम्बन्ध नहीं है, यदि न्याय ऐसा आदर्श हैं जिस को मस्तिष्क अपने ही अन्दर दृष्टि डाल कर जान सकता है--तो समझ में नहीं आता कि यह आन्तरिक आदेश कर्ता ( inner oracle ) इतना सन्दिग्ध क्यों है? क्यों बहुत सी बातें एक प्रकार से विचार करने से उचित मालूम पड़ती है और फिर दूसरी प्रकार से विचार करने से वे ही बातें अनुचित मालूम पड़ती हैं।

हम से बार २ कहा जाता है कि उपयोगिता का आदर्श अनिश्चित है। प्रत्येक मनुष्य भिन्न २ प्रकार से अर्थ लेता है। इस कारण न्याय के आदर्शों का पालन उचित है जो नित्य (Immutable), अनिवार्य ( Ineffaceable ) तथा भूल से मुक्त ( Unmitsakable ) है तथा जो अपने प्रमाण स्वयं है और जिन पर लोकमत के परिवर्तन का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इस कथन से स्यात् कोई कल्पना करे कि न्याय से संबन्ध रखने वाले प्रश्न निर्विवाद हैं तथा यदि हम 'न्याय' को अपने आचरण का नियम बनालें तो प्रत्येक आचार के ठीक बे ठीक होने का निर्णय ऐसे असिन्दिग्ध रूप से होगा जैसे किसी गणित के प्रश्न के उत्तर के ठीक या गलत होने का निर्णय हो जाता है। किन्तु यह बात बिल्कुल गलत है। जितना विवादात्मक यह विषय है कि समाज के लिये क्या हितकर है और क्या अहितकर, उतना ही विवादात्मक यह विषय है कि क्या उचित अर्थात् न्याय-संगत है और क्या अनुचित अर्थात् न्याय के विरुद्ध। केवल भिन्न २ जातियों तथा व्यक्तियों ही में न्याय की कल्पनायें भिन्न २ नहीं है वरन् एक ही व्यक्ति के मस्तिष्क में भी न्याय की कल्पना का आधार कोई एक नियम, सिद्धान्त या उसूल नहीं हैं। एक ही व्यक्ति की भी न्याय की कल्पना बहुत से नियमों, सिद्धान्तों या उसूलों से मिलकर बनती है। कभी २ ऐसा भी होता है कि इन भिन्न २ नियमों, सिद्धान्तों या उसूलों के आदेश समान नहीं होते हैं और ऐसी दशा में और उस समय वह व्यक्ति या तो किसी अन्य आदर्श का आसरा लेता या अपनी ही पसन्द को काम में लाता है।

उदाहरणत: कुछ आदमियों का कहना है कि किसी आदमी को इस कारण दण्ड देना, कि दूसरों को उदाहरण हो, अनुचित है। दण्ड उस ही दशा में ठीक है जब कि दण्ड भोगने वाले के फ़ायदे ही के लिये दण्ड दिया जाय। दूसरे लोग इस से बिल्कुल उल्टी बात कहते हैं। उन का कहना है कि समझदार आदमियों को उन्हीं के फ़ायदे के लिये दण्ड देना नादिरशाही तथा अन्याय है। यदि केवल उन्हीं के फ़ायदे का प्रश्न है तो अपने फ़ायदे को वे स्वयं ही समझ सकते हैं। हां! उन को इस कारण दण्ड दिया जा सकता है कि दूसरे आदमियों में वह बुराई न फैले। आत्म-रक्षा के विचार से ऐसा करना न्याय-संगत है। मिस्टर ओवेन ( Owen ) का कहना है कि दण्ड देना बिल्कुल ही अनुचित है क्योंकि मुजरिम ने अपना चरित्र आप ही नहीं बनाया है। अपनी शिक्षा तथा अपने चारों ओर की परिस्थिति के कारण मुजरिम बन गया है। इन सब बातों के लिये वह ज़िम्मेदार नहीं है। ऊपर से ये सब मत बिल्कुल युक्ति-संगत प्रतीत होते हैं। जब तक इन प्रश्नों पर केवल न्यायसंगत या उचित होने की दृष्टि से विचार किया जायगा और न्याय के उन आधारभूत सिद्धान्तों पर ध्यान न दिया जायगा जिन पर न्याय की प्रमाणिकता निर्भर है तो मेरी समझ में नहीं आता कि उपरोक्त तीनों मतों में से किसी एक मत का खण्डन किस प्रकार किया जासकता है। तीनी मतों ने न्याय का सर्वसम्मत भिन्न २ आशय लिया है। पहिला मत कहता है कि यह मानी हुई बात है कि दूसरे आदमियों के भले के लिये किसी व्यक्ति की बिना उसकी इच्छा के कुरबानी करना अन्याय है। दूसरे मत का कहना है कि यह बात मानी हुई है कि आत्म-रक्षा का ध्यान न्याय-संगत है और यह अन्याय है कि किसी मनुष्य को उसकी इच्छा के विरुद्ध यह मानने के लिये विवश किया जाय कि अमुक काम उस के लिये हितकर है। ओवेन के अनुयायियों का कहना कि यह मानी हुई बात है कि किसी मनुष्य को ऐसे काम के लिये, जिसका वह ज़िम्मेदार नहीं है, दण्ड देना अनुचित है। इन तीनों मतों में से प्रत्येक मत उस समय तक अखण्डनीय रहेगा जबतक कि उस मत के अनुयायियों को न्याय के उस उसूल के अतिरिक्त, जिस को उन्हों ने मान रक्खा है, किसी और उसूल को मानने के लिये विवश न किया जायगा। जब तक भिन्न २ उसूल रहेंगे, प्रत्येक मत अपने दावे के सबूत में बहुत कुछ कह सकेगा, प्रत्येक मत को अपनी ही न्याय की कल्पना स्थिर रखने के लिये न्याय की अन्य कल्पनाओं को, जो उसकी कल्पना के समान ही प्रमाणिक हैं, कुचलना पड़ेगा। यह कठिनाइयां हैं। सदैव से तत्त्वज्ञानियों ने इन कठिनाइयों को अनुभव किया है। इन कठिनाइयों से बचने की बहुत सी युक्तियें भीं सोची हैं। किन्तु उन युक्तियों से कठिनाइयां दूर नहीं होतीं, केवल उन का रुख़ फिर जाता है। उपरोक्त तीनों कठिनाइयों में से अन्तिम कठिनाई से बचने के लिये जो युक्ति सोची है वह इच्छा की स्वतंत्रता कहाती है। दण्ड देने के कार्य को युक्ति-संगत प्रमाणित करने के लिये कहते हैं कि मुजरिम की इच्छा तो स्वतंत्र थी। दूसरी कठिनाई से-अर्थात किसी मनुष्य को उस ही के लाभ के लिये दण्ड देना अनुचित है--बचने के लिये इस बात की कल्पना करली गई है कि किसी अज्ञात समय में समाज के सब सभ्यों ने इस बात का मुशाहिदा ( Contract ) कर लिया था कि हम सब क़ानूनों का पालन करेंगे तथा उनके उलंघन करने की दशा में दण्ड के पात्र होंगे और इस प्रकार या तो अपने या समाज के लाभ के विचार से कानून बनाने वालों को वह अधिकार दे दिया था जो ऐसा न करने की दशा में उनको नहीं होता। यह ख्य़ाल किया जाता था कि दिल को खुश करने वाले विचार से सब दिक्क़त दूर हो गई है तथा दण्ड का देना न्याय-सङ्गत सिद्ध हो जाता है क्योंकि यह बात मानी हुई है कि मनुष्य को उस ही की इच्छा के अनुसार दण्ड देना अनुचित नहीं है। यह प्रमाणित करना अनावश्यक है कि उपरोक्त विचार यदि केवल कल्पना-मात्र न समझा जाय तो भी न्याय का यह उसूल-कि मनुष्य को उस ही की इच्छा के अनुसार दण्ड देना अनुचित नहीं है---अन्य उसूलों से, जो पेश किये जाते हैं, अधिक प्रमाणिक नहीं है। इस बात से पता चलता है कि किस प्रकार बिना किसी नियम का अनुसरण करे न्याय के कल्पित सिद्धान्त ( Supposed principles ) बन जाते हैं। ऐसा मालूम पड़ता है कि यह उसूल तो क़ानूनी अदालतों की सहूलियत के लिये बना लिया गया है। किन्तु क़ानूनी अदालतें भी इस उसूल का पूर्णरूप से पालन नहीं कर सकती हैं क्योंकि इच्छापूर्वक किये हुवे मुआहिदों को भी छल या कभी २ केवल भूल या ग़लत सूचना की बिना पर रद कर देती हैं। अस्तु।

दण्ड देने की न्याय-युक्तता को मान लेने पर भी यह बात बड़ी विवादग्रस्त रहती है कि जुर्म के लिये कितना दण्ड देना उचित है। न्याय के आरम्भिक तथा स्वाभाविक भाव को कोई नियम इतना प्रबल नहीं मालूम पड़ता जितना यह नियम---कि आंख आंख के लिये और दांत दांत के लिये। यहूदियों तया मुसल्मानों के क़ानून के इस सिद्धान्त को यूरुप ने अमली उसूल मानना साधारणतया छोड़ दिया है। किन्तु मुझे सन्देह है कि बहुत से मनुष्य दिल में इस बात को पसन्द करते हैं। संयोगवश जब किसी मुजरिम को इस ही परिमाण में मिलता तो जन साधारण सन्तुष्ट होते हैं। इससे पता चलता है कि इस प्रकार के दण्ड का भाव कितना प्राकृतिक या स्वाभाविक हैं। कुछ आदमियों का विचार है कि जुर्म के अनुसार ही दण्ड देना उचित है अर्थात मुजरिम को उसके नैतिक अपराध ( Moral guilt ) के अनुसार दण्ड मिलना चाहिये। नैतिक अपराध नापने का उनका पैमाना चाहे कुछ भी हो, ये लोगः इस बात का विचार नहीं करते कि किसी जुर्म को करने से रोक के लिये कितने दण्ड की आवश्यकता है। दूसरे मनुष्यों का कहना है कि दण्ड देते समय केवल इस ही बात को ध्यान में रखना चाहिये कि कितना दण्ड देना चाहिये जिस से फिर ऐसा जुर्म न हो। इन लोगों का कहना है कि किसी मनुष्य का चाहे कुछ ही अपराध क्यों न हो उसको इतना दण्ड देना उचित है कि जिससे वह मनुष्य फिर उस अपराध को दुबारा न करे तथा दूसरे लोग उसका अनुसरण न करें। इस से अधिक दण्ड देना उचित नहीं है।

एक और विषय का, जिसका पहिले वणन हो चुका है, उदाहरण लीजिये। Co-operative Industrial Association में कार्य-दक्षता के कारण अधिक प्रतिफल देना न्यायसंगत है या नहीं? जिन लोगों का विचार है कि कार्य-दक्षता के कारण अधिक प्रतिफल देना उचित नहीं है उन लोगों का कहना है कि जो कोई भी यथाशक्ति प्रयत्न करता है बराबर प्रतिफल का अधिकारी है। जितना उससे हो सकता है वह करता। यह उसका क़सूर नहीं है कि वह अधिक दक्ष नहीं है। इस कारण उसे कम प्रतिफल देना उचित नहीं है। कार्य में अधिक दक्ष होनेवालों को तो और भी बहुत से लाभ हैं। उनकी प्रशंसा होती है। उनका प्रभाव अधिक होता है। दक्षता के कारण उनका चित्त अधिक प्रसन्न रहता है। इस कारण उसको अधिक प्रतिफल देने की आवश्यकता नहीं है। न्याय तो यह कहता है कि समाज को ऐसा प्रबन्ध करना चाहिये कि जिससे सब मनुष्यों को उन्नति का समान अवसर रहे। समाज को उन लोगों के साथ और रियायत नहीं करनी चाहिये जिन्हे पहिले ही से उन्नति का अधिक अवसर है। जिन लोगों का विचार है कि कार्य-दक्षता के कारण अधिक प्रतिफल मिलना चाहिये उनका कथन है कि दक्ष कारीगर समाज का अधिक काम करते हैं तथा उनका काम अधिक फ़ायदेमन्द होता है इस कारण वे लोग अधिक प्रतिफल के अधिकारी हैं। जो काम सब आदमी मिल कर करते हैं उस काम में दक्ष कारीगर का अधिक भाग होता है, इस कारण उसको अधिक प्रतिफल न देना एक प्रकार का लुटेरापन है। यदि उसको औरों के बराबर ही प्रतिफल दिया जाता है तो उससे औरोन के बराबर ही कामलेना चाहिये। उसकी अधिक दक्षता के अनुसार उससे कम समय काम लेना चाहिये तथा कम मेहनत करनी चाहिये। न्याय के इन परस्पर विरोधात्मक सिद्धान्तों का निर्णय कौन करेगा? दोनों पक्षवाले न्याय का आश्रय लेते हैं। दोनों न्याय के भिन्न २ रूप लेते हैं। एक पक्ष इस बात पर दृष्टि रखता है कि प्रत्येक व्यक्ति को कितना मिलना न्याय-संगत है। दूसरा पक्ष इस बात को ध्यान में रखता है कि समाज को कितना देना न्याय-संगत है। प्रत्येक का दावा उसके दृष्टि-कोण के अनुसार अखण्डनीय है। न्याय की बिना पर किसी एक पक्ष को अधिक अच्छा केवल स्वेच्छानुसार ( Arbitrarily) ही बताया जा सकता है। एक मात्र सामाजिक उपयोगिता ही इस बात का निर्णय कर सकती है कि कौनसा पक्ष अधिक मान्य है।

इसी प्रकार टैक्स लगाने के सम्बन्ध में भी बहुत से परस्पर विरोधात्मक न्याय के उसूल उपस्थित होते हैं। कुछ आदमियों का कहना है कि आर्थिक आय के अनुसार है टैक्स लगाना चाहिये। कुछ आदमियों की सस्मति है कि क्रमशः वर्धित कर ( Graduated taxation ) चाहिये अर्थात् जो आदमी अधिक बचा सकते हैं उन से अधिक प्रतिशत के हिसाब से टैक्स लेना चहिये। प्राकृतिक न्याय के अनुसार आर्थिक आय पर बिलकुल भी ध्यान न देना चाहिये। प्रत्येक मनुष्य से जब तक मिल सके बराबर टैक्स लेना चाहिये जिस प्रकार किसी मैस या कल्ब के सब मैम्बर-चाहे उनकी आर्थिक आय कितनेही हो-समान ( Privilege ) अधिकार के लिये बराबर चन्दा देते हैं। चूंकि सरकार क़ानून द्वारा सब की रक्षा करती है तथा सब को रक्षा की आवश्यकता होती है, इस कारण न्याय यही है कि सब से रक्षा करने का बराबर मूल्य लिया जाये। यह बात न्याय-संगत समझी जाती है---न्याय के विपरीत नहीं---कि सौदागर किसी चीज़ के दाम सब ख़रीदारों से---बिना इस बात के ख्य़ाल के कि उनकी आर्थिक स्थिति कैसी है--समान ले। किन्तु जब इस ही सिद्धान्त को टैक्स लगाने पर लगाया जाता है तो इस सिद्धान्त के पोषक नहीं मिलते क्योंकि ऐसा करना मनुष्यता के भाव तथा समाजिक सुसाधकता के विपरीत है। किन्तु न्याय का जो उसूल बराबर टैक्स लगाने का समर्थन कर रहा है उतना ही ठीक है जितने वे उसूल जो बराबर टैक्स लगाने से विपक्ष में दिये जा सकते हैं। रईसों से अधिक टैक्स लेना न्याय- संगत प्रमाणित करने के लिये आदमी यह युक्ति देने के लिये विवश होते हैं कि सरकार गरीबों की अपेक्षा रईसों के लिये अधिक काम करती है। किन्तु वास्तव में यह बात ठीक नहीं हैं। अमीर लोग तो क़ानून तथा सरकार की अनुपस्थिति में भी ग़रीबों की अपेक्षा अपनी रक्षा अधिक अच्छी तरह कर सकते हैं और संभवतः गरीबों को अपना गुलाम बना लेने में कृतकार्य हो सकते हैं। कुछ और आदमियों की सम्मति है कि जीवन की रक्षा के लिये तो सब को बराबर टैक्स देना चाहिये क्योंकि सब को अपनी जान बराबर प्यारी है किन्तु सम्पत्ति आदि की रक्षा के लिये न्यूनाधिक टैक्स देना चाहिये क्योंकि सब के पास समान धन सम्पत्ति नहीं है। दूसरे आदमी इस सिद्धान्त के उत्तर में कहते हैं कि सब मनुष्यों के लिये, जो कुछ भी जिस किसी के पास है, समान मूल्य का है। एक निर्धन मनुष्य के लिये एक रुपया उतना ही मूल्यवान् है जितनी एक अमीर को एक अशर्फ़ीं। इन सब परस्पर विरोधात्मक सिद्धान्तों का निर्णय केवल उपयोगितावाद ही कर सकता है।

तो क्या न्याय-संगत अर्थात् उचित ( Just ) और मस्लहत अर्थात् सुसाधकता में केवल कल्पित भेद है? क्या मनुष्य जाति अब तक भ्रम में पड़ी हुई थी जो यह सोचती थी कि न्याय ( Justice ) नीति ( Policy ) से अधिक पवित्र चीज़ है तथा न्याय-सङ्गत होने पर ही किसी काम को मस्लहत या सुसाधकता के विचार से करना चाहिये? कदापि नहीं। न्याय के भाव की प्रकृति तथा उत्पत्ति का विवरण, जो हमने दिया है, 'उचित' और 'मस्लहत' में वास्तविक भेद मानता है। जो लोग इस बात को बिल्कुल घृणा की दृष्टि से देखते हैं कि किसी कार्य की आचार-युक्तता उसके परिणाम पर निर्भर होनी चाहिये वे न्याय-युक्तता तथा मस्लहत के भेद को मुझ से अधिक महत्त्व नहीं देते हैं।

यद्यपि मैं उन सिद्धान्तों का विरोध करता हूं जो उपयोगिता को न्याय-युक्तता का आधार न मानकर न्याय-युक्तता का कतिपय आदर्श अपने सन्मुख रखते हैं, किंतु मैं उस न्याय-युक्तता को, जिसका आधार मुख्यतया उपयोगिता है, सारी आचार नीति में सब से अधिक पवित्र तथा मान्य समझता हूं। न्याय-युक्तता ( Justice ) कतिपय उन आचार विषयक नियमों का नाम है जिनका मानुषिक भलाई की प्रधान प्रधान बातों से सम्बन्ध है और जो इस कारण, बिना और किसी विचार के, आचार--विषयक साधारण नियमों से अधिक मान्य हैं। न्याय के विचार की मुख्य कल्पना--अर्थात् किसी आदमी या कुछ आदमियों में अधिकार का रहना---इस बात को प्रदर्शित तथा प्रमाणित करती है कि न्याय-युक्तता से सम्बन्ध रखने वाली बातें अधिक मान्य हैं।

मनुष्य जाति के सुख के लिये आचार-विषयक वे नियम*--जो मनुष्यों को आपस में एक दूसरे को हानि पहुंचाने से रोकते हैं--उन उसूलों से, जो मानुषिक कार्यों के किसी विशेष विभाग का प्रबंध करने का सबसे अच्छा तरीक़ा बताते हैं, अधिक आवश्यक है। इन नियमों में यह भी विशेषता है कि मनुष्य जाति की सारी सामाजिक भावनाओं का निर्णय मुख्यतया इन्हींके अनुसार होता है। इन नियमों का पालन करने से ही मनुष्यों में शांति रहती है। यदि इन नियमों का पालन करना नियम तथा इन का उल्लंघन करना अपवाद न हो तो प्रत्येक मनुष्य दुसरे मनुष्य को दुश्मन समझने लगे और सदैव उससे अपनी रक्षा करने का प्रयत्न करता रहे। मनुष्य जाति इन नियमों का एक दूसरे से पालन कराने का अधिक प्रयत्न करती है क्योंकि ऐसा करना आवश्यक समझती हैं। दूर-दर्शिता के विचार से प्रत्येक मनुष्य को उपदेश या प्रोत्साहन देने से मनुष्यों को लाभ हो सकता है या वे ऐसा भी सोच सकते हैं कि ऐसा करने से कुछ लाभ नहीं होता है। प्रत्येक मनुष्य को यह निश्चय करादेना कि परोपकार करना उसका कर्तव्य है निस्सन्देह समाज के लिये हितकर है, किन्तु बहुत अधिक नहीं। ऐसा होना तो सम्भव है कि किसी मनुष्य को इस बात की आवश्यकता न पड़े कि दूसरे उसका उपकार करे, किंतु प्रत्येक मनुष्य को सदैव


  • इन नियमों में हमको उन नियमों को सम्मिलित करना नहीं भूलना चाहिये जो एक दूसरे की स्वतन्त्रता में बाधा डालने से रोकते हैं। इस बात की आवश्यकता रहती है कि दूसरे मनुष्य उसको हानि

न पहुंचावें। इस कारण वे आचार विषयक नियम, जो प्रत्यक्ष रूप में प्रत्येक मनुष्य को दूसरे मनुष्यों द्वारा हानि पहुंचाये जाने से बचाते हैं तथा परोक्ष रीति पर प्रत्येक मनुष्य को केवल अपने ही लाभ का ध्यान रखने से रोकते हैं, ऐसे नियम होते हैं जिनको प्रत्येक मनुष्य दिल से चाहता है और इसमें अपना भला समझता है कि इन नियमों का प्रचार करे तथा अपने वचनों तथा कार्यों द्वारा इन नियमों का दूसरे मनुष्यों से पालन कराने का प्रयत्न करे। नियमों का पालन करने से ही इस बात की परीक्षा तथा निर्णय होता है कि कोई मनुष्य मनुष्य-समाज का सभ्य होने योग्य है या नहीं क्योंकि इस ही बात पर इस बात का दारोमदार है कि वह मनुष्य उन मनुष्यों के लिये, जिन से उसका वास्ता पड़ेगा, कष्टप्रद ( Nuisance ) तो नहीं होगा। न्याय-युक्तता की दृष्टि से मान्य बातों में मुख्यतया ये ही आचार-विषयक नियम आते हैं। अन्याय के ख़ास उदाहरण वे हैं जब कोई किसी की चीज़ पर ज़बददस्ती क़्बजा कर लेता है या किसी पर अनुचित बल का प्रयोग करता है। इस उदाहरण से उतर कर वे उदाहरण हैं जब कोई बिना किसी कारण के किसी को वह चीज़ नहीं मिलने देता है जिसका वह अधिकारी है। दोनों दशाओं में एक आदमी को हानि पहुंचती है।

वेही प्रबल उद्देश्य, जो इन आरम्भिक आचार-नियमों के पालन करने की आज्ञा देते हैं, उन मनुष्यों को दण्ड का पात्र ठहराते हैं जो इन नियमों का उल्लंघन करते हैं। चूंकि इन नियमों का उल्लंघन करने वाले मनुष्यों के विपरीत आत्म-रक्षा, दूसरों की रक्षा तथा बदले के भाव जागृत हो जाते हैं, इस ही कारण दण्ड या प्रतिकार तथा बुराई के बदले बुराई का न्याय के भाव के साथ घनिष्ट सम्बन्ध हो गया है तथा सब लोग इन बातों को न्याय के विचार में सम्मिलित कर लेते हैं। नेकी के बदले नेकी भी न्याय का एक आदेश है। यद्यपि इस आदेश की सामाजिक उपयोगिता प्रत्यक्ष है तथा यह आदेश इन्सानियत या मनुष्यता का प्राकृतिक भाव लिये हुवे हैं; किन्तु तत्क्षण ही इस आदेश का हानि या नुकसान के साथ उतना प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं दीखता जितना न्याय के बहुत साधारण उदाहरणों में दृष्टि-गोचर होता है। परन्तु चाहे प्रत्यक्ष में इस आदेश का हानि या नुक़सान के साथ कम संबंध मालूम पड़े किंतु वास्तव में कम नहीं है। जो आदमी दूसरों से लाभ उठाता है किन्तु आवश्यकता पड़ने पर उन आदमियों को लाभ का प्रतिकार नहीं देता अर्थात् उनके साथ भलाई नहीं करता वह उन लोगों को वास्तविक कष्ट पहुंचाता है क्योंकि इस बात से उनकी अत्यन्त स्वाभाविक तथा सहेतुक आशाओं पर पानी फिर जाता हैं। इस कष्ट का कारण लाभ उठाने वाला मनुष्य ही है क्योंकि वह लाभ पहुंचाने वाले मनुष्य के हृदय में आवश्यकता पड़ने पर भलाई किये जाने की आशा का अंकुर अप्रत्यक्ष रूप से बोता है। यदि यह मालूम होजाय कि जिसके साथ हम भलाई कर रहे हैं वह समय पड़ने पर हमारे साथ भलाई न करेगा, तो स्यात् ही कोई मनुष्य कभी किसी के साथ भलाई करे। मनुष्यों के साथ जो बुराइया की जाती हैं उन बुराइयों में आशाओं पर पानी फेरने का दर्जा बहुत ऊंचा है क्योंकि मित्रता तथा वादे का तोड़ना--दोनों बाते-बहुत ही अनाचारयुक्त समझी जाती हैं। मनुष्यों के दिल को इतनी चोट कभी नहीं पहुंचती जितनी उस समय पहुंचती है जब वह मनुष्य, जिस पर उनको पूरा भरोसा होता है, समय पड़ने पर धोखा देदेता है। किसी मनुष्य को उसकी भलाई का प्रतिकार न देना उसके साथ बड़ी ज्य़ादती है।

भलाई का बदला न पाने पर किसी मनुष्य को या उस से सहानुभूति रखने वाले को जितना बुरा मालूम होता है और किसी बात से उतना बुरा नहीं मालूम होता। इस कारण प्रत्येक मनुष्य के साथ वैसा बर्ताव करने का सिद्धान्त जिसका वह अधिकारी है अर्थात् भलाई के बदले भलाई तथा बुराई के बदले बुराई का सिद्धान्त केवल न्याय–युक्तता ( Justice ) के विचार ही में नहीं आता है वरन् इस सिद्धान्त से न्याय के भाव को वह दृढ़ता प्राप्त होती है जिसके कारण मनुष्य न्याय-युक्तता को केवल सुसाधकता या मस्लहत से ऊंचा दर्जा देते हैं।

न्याययुक्तता के बहुत से सिद्धान्त, जो संसार में प्रचलित हैं तथा साधारणतया व्यवहृत होते हैं, न्याय-युक्तता के उपरोक्त सिद्धान्तों को, कार्यरूप में परिणत करनेके कारण-मात्र ( Inst-- rumental ) हैं। मनुष्य केवल उस ही बात के लिये ज़िम्मेदार है जिस बात को उसने अपनी इच्छा से किया है या जिस बात को वह अपनी इच्छा से रोक सकता था। बिना किसी आदमी का बयान सुने उसको दोषी ठहराना अनुचित है। दण्ड अपराध के अनुसार ही होना चाहिये। ये सब बातें तथा इनसे मिलती जुलती बाते वे सिद्धान्त हैं जिनका यह आशय है कि बुराई के बदले ही बुराई हो तथा बिना बुराई के किसी के साथ बुराई न की जाय। ये साधारण सिद्धान्त अधिकतर न्यायालयों के कारण प्रचलित होगये हैं। न्यायालयों ने अपना काम ठीक रीति से करने के लिये अर्थात् दण्ड-पात्र को दण्ड देने के लिये तथा प्रत्येक मनुष्य को उसका अधिकार दिलाने के लिये इन सिद्धान्तों के अनुसार बहुत से नियम बना लिये हैं।

न्यायाधीश का पहिला गुण निष्पक्ष होना है। न्याय की दृष्टि से निष्पक्षता भी एक फ़र्ज़ है। ऐसा होना इस कारण से भी आवश्यक है क्योंकि निष्पक्ष हुवे बिना न्यायाधीश अपने दूसरे फ़र्ज़ों को भली प्रकार अदा नहीं कर सकता। किन्तु केवल इसी कारण से मनुष्य के कर्तव्यों में समानता तथा निष्पक्षता के सिद्धान्तों को इतना ऊंचा दर्जा नहीं दिया गया है। एक प्रकार से समानता तथा निष्पक्षता के सिद्धान्त उन सिद्धान्तों के, जिन को हमने अभी प्रतिपादित किया है, उप-सिद्धान्त ( Corollaries ) समझे जा सकते हैं। यदि यह कर्तव्य है कि प्रत्येक मनुष्य के साथ वैसा ही बर्ताव किया जाय जिसका वह अधिकारी है अर्थात् भलाई के बदले भलाई और बुराई के बदले बुराई की जाय तो इस सिद्धान्त से यह बात भी अवश्य निकलती है कि उन सब मनुष्यों के साथ, जो समान बर्ताव किये जाने के अधिकारी हैं, समान बर्ताव किया जाय। उस समय की बात दूसरी है जब किसी इस से ऊंचे कर्तव्य के कारण ऐसा करना उचित न हो। इसी प्रकार समाज को, उन सब मनुष्यों के साथ जो समान बर्ताव के अधिकारी हैं समान बर्ताव करना चाहिये। सामाजिक तथा विभाजक ( Distributive) न्याय का यह सब से बड़ा संक्षिप्त ( Abstract ) आदर्श है। सब संस्थाओं तथा अच्छे नागरिकों का कर्तव्य है कि इस प्रादर्श को अपने सामने रक्खें। किन्तु इस बड़े नैतिक कर्तव्य की एक और भी अधिक गहरी नीव है। यह सिद्धान्त आचार-नीति के मूल-सिद्धान्त का साक्षात निःसरण ( Direct-emanation ) है। गौण या व्युत्पन्न सिद्धान्तों का तर्क शास्त्रीय उप-सिद्धान्त मात्र नहीं है। यह सिद्धान्त उपयोगिता या अत्यधिक सुख के सिद्धान्त के अर्थ ही में घुसा हुवा है। जब तक कि यह न माना जाय कि प्रत्येक मनुष्य का सुख, समान अंश में ( सुखों की भिन्नता का उचित विचार रखते हुये ), बिल्कुल इतना ही गिना जायगा जितना दूसरे मनुष्य का सुख, यह सिद्धान्त सहेतुक अर्थ विहीन शब्दों का रूप-मात्र रह जाता है। इन शर्तों के पूरा होने पर बैन्थम का वचन--–प्रत्येक मनुष्य को एक गिनना चाहिये, किसी को एक से अधिक नहीं---उपयोगिता के सिद्धान्त के नीचे व्याख्यात्मक भाष्य के रूप में लिखा जा सकता है। आचार-शास्त्री तथा क़ानून बनाने वाले की दृष्टि में सुख के सम्बन्ध में प्रत्येक मनुष्य का बराबर दावा होने के साथ २ प्रत्येक मनुष्य का सुख के सब साधनों के विषय में भी बराबर दावा हो जाता है। उस समय की बात को छोड़ दीजिये जब कि मानुषिक जीवन की अनिवार्य दशाओं तथा जन साधारण के हित की दृष्टि से, जिस में प्रत्येक मनुष्य का हित शामिल है, इस सिद्धान्त को सीमा-बद्ध करना पड़ता है। इन सीमाओं की ख़ूब अच्छी तरह से व्याख्या होनी चाहिये। न्याय के अन्य सब सिद्धान्तों के समान इस सिद्धान्त का भी सब स्थानों पर प्रयोग आवश्यक नहीं है। किन्तु जहां कहीं भी इस सिद्धान्त का प्रयोग उचित समझा जाता है, यह सिद्धान्त न्याय का आदेश माना जाता है। यह माना जाता है कि सब मनुष्य समाज बर्ताव के अधिकारी हैं सिवाय उस समय के जब कि किसी मानी हुई ( Recognised ) सामाजिक मस्लहत के कारण इसके विपरीत करना आवश्यक होता है। इस कारण जब मनुष्य समान बर्ताव के अधिकारी हैं तो तमाम सामाजिक असमानतायें, ओ मस्लहत नहीं समझी जाती हैं, केवल मस्लहत के विरुद्ध ही नहीं समझी जाने लगती हैं वरन् अन्याय समझी जाने लगती हैं। मनुष्य इस बात पर आश्चर्य करने लगते हैं कि किस प्रकार मनुष्यों ने इस अन्याय को बर्दाश्त कर लिया होगा, किन्तु यह बात भूल जाते हैं कि स्यात् वे भी मस्लहत के वैसे ही भ्रमात्मक विचार में पड़े हुवे बहुत सी अन्य असमानताओं को बरदाश्त कर रहे हैं। ठीक हो जाने पर ये असमानतायें भी उन्हें उन्हीं असमानताओं के समान, जिनको निन्दनीय समझना उन्होंने सीख लिया है, घृणित मालूम पड़ने लगेंगी। समाज सुधार का समग्र इतिहास परिवर्तनों से भरा पड़ा है। वही रिवाज या संस्था जो आरम्भ में सामाजिक अस्तित्व के लिये आवश्यक समझा जाता था बाद में अन्याय तथा अत्याचार समझा जाने लगता है और इस बात की आवश्यकता अनुभव होने लगती है कि उस रिवाज या संस्था का स्थान किसी दूसरे रिवाज या संस्था को दिया जाय। गुलामों और स्वतन्त्र मनुष्यों के भेद, सरदारों तथा नौकरों ( Servants ) के भेद तथा उच्च वंश वालों तथा निम्न वंश वालों के भेद के सम्बन्ध में ऐसा ही हुवा है तथा आगे भी ऐसा ही होता रहेगा। रंग, जाति तथा स्त्री-पुरुष के भेद के सम्बन्ध में अब भी कुछ २ ऐसा ही हो रहा है।

जो कुछ कहा गया है उस से प्रमाणित होता है कि न्याय या इन्साफ़ कतिपय नैतिक अावश्यकताओं का नाम है जिनका पलड़ा कुल मिलकर सामाजिक उपयोगिता की तराज़ू भारी है और जो इस कारण अन्य नैतिक कर्तव्यों की अपेक्षा अधिक मान्य हैं। नि:स्सन्देह कभी २ ऐसा अवसर हो सकता है जब कोई और सामाजिक, कर्तव्य इतना महत्त्व-पूर्ण हो जाता है कि उसके सामने न्याय या इन्साफ़ के साधारण सिद्धान्तों को ताक़े पर रखना पड़ता है, उदाहरणतः जान बचाने के लिये आवश्यक भोजन या औषधि को चुराया या ज़बरदस्ती छीन लेना अथवा एक मात्र प्रशंसापत्र प्राप्त डाक्टर को ज़बरदस्ती भगा-- लाना या उसे इलाज करने के लिये विवश करना केवल अनुमत ही नहीं वरन् कर्तव्य हो सकता हैं। ऐसे अवसरों पर हम किसी चीज़ को, जो पुण्य या गुण ( virtue ) नहीं है, न्याय या इन्साफ़ नहीं कहते। हम साधारणतया यह नहीं कहतें हैं कि किसी दूसरे नैतिक सिद्धान्त के कारण न्याय को ताक़ पर रखना चाहिये वरन् कहते हैं कि जो बात साधारण दशा में न्याय-युक्त होती है इस विशेष स्थिति में उस दूसरे सिद्धान्त के कारण न्याय-युक्त नहीं रहती। भाषा का इस प्रकार प्रयोग करने के कारण न्याय या इन्साफ़ की नित्यता में भेद नहीं पड़ता और हम को यह प्रतिपादित करने की आवश्यकता नहीं पड़ती कि अन्याय या बे इन्साफ़ी प्रशंसनीय भी हो सकती है।

यह बात सदैव प्रत्यक्ष रही है कि न्याय-युक्त कार्य मसहलत के काम भी होते हैं। भेद यह होता है कि न्याय-युक्तता के साथ एक विशेष भाव ( Sentiment ) होता है जो उसे मसलहत से पृथक् करता है।

यदि इस विशेष भाव का कारण पूर्ण रूप से प्रतिपादित कर दिया गया है, यदि इस भाव की कोई विशेष उत्पत्ति मानना आवश्यक नहीं है, यदि यह भाव बुरा मानने का प्राकृतिक भाव है तथा सामाजिक भलाई के अनुसार होने के कारण आचार-युक्त है, यदि यह भाव न्याय-युक्तता से सबन्ध रखने वाली सब बातों में केवल मौजूद ही नहीं रहता है वरन् मौजूर्दं रहना चाहिये तो फिर न्याय या इन्साफ़ का विचार

उपयोगितात्मक आचारशास्त्र के मार्ग में कोई अड़चन नहीं है। न्याय उन कतिपय सामाजिक उपयोगिताओं का ठीक नाम रहता है जो बहुत अधिक महत्वपूर्ण हैं और इस कारण अन्य उपयोगिताओं से जाति के रूप में अधिक निरपेक्ष तथा मान्य है। विशेष दशा में किसी अन्य उपयोगिता का अधिक महत्वपूर्ण होना सम्भव है। इन कारणों से न्याय की कल्पना में साधारण उपयोगिताओं की अपेक्षा किसी और अधिक दृढ़ भाव से काम लिया जाना चाहिये और ऐसा ही होता भी है।

SUPPLEMENTARY NOTES.

अतीतात्यक (Transcendentalists)-तत्त्वज्ञानियों के एक विशेष समुदाय का नाम है। इन्द्रियातीत सिद्धान्तों (Transcendental Theories) के मुख्य पोषक रिचर (Ritcher), फ़िशटे (Fichte) तथा शैलिंग हुए हैं। अमरीका में इस प्रकार के सिद्धान्तों का प्रचार एमरसन (Emerson) ने किया था।

एपीक्योरियन-एपीक्यूरस (३४२-२७० ईसा से पूर्व) नामक तत्ववेत्ता के अनुयायी। एपीक्यूरस का कहना था कि हम को इस कारण नेकी करनी चाहिये क्योंकि नेकी करने से सुख मिलता है और सुख से बढ़कर अन्य कोई चीज़ नहीं है।

कान्ट-एमैन्युअल कान्ट (१७२४-१८०४ ई॰) नाम का जर्मनी में एक प्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता तथा वैज्ञानिक हुवा है। १८ वीं तथा १६ वीं शताब्दी के तत्त्ववेत्ताओं पर इस के विचारों का बड़ा प्रभाव पड़ा था।

कार्लायल-टामस कार्लायल (१७९५-१८८१ ई॰) नाम का एक प्रसिद्ध अंग्रेज़ी लेखक हुआ है। इसकी निम्न लिखित रचनाएं बहुत प्रसिद्ध हैं:- (1) French Revolution (2) Past and Present, (3) Life & Letters of Oliver Cromwell (4) Fredrick the Great.

प्लेटो-प्लेटो (४२९-३४७ ई॰ से पूर्व) यूनान का प्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता था। इसका असली नाम एरिस्टोक्लीज़ (Aristocles) था। यह सुकरात का शिष्य तथा अरस्तू का गुरु था। 'डायलौग्स' (Dialogues) तथा 'रिपब्लिक' (Republic) नामक इसकी दो पुस्तकें बहुत प्रसिद्ध हैं।

प्रोटोगोरस––ईसा से ४०० वर्ष पूर्व इस नाम का यूनान में एक प्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता हुआ है। प्रोटागोरस का उस समय के यूनानी देवताओं में विश्वास नहीं था। इस कारण इसके देशवासी इससे बहुत नाराज़ हो गये थे और इसको डुबो दिया था।
बैन्थम––बैन्थम जरमी (१७४८-१८३३) नामक एक अंग्रेज़ तत्त्ववेत्ता हुवा है। इसने अपने ग्रन्थों में उपयोगितावाद के सिद्धान्तों को खूब अच्छी तरह समझाया है।
सुकरात––यह प्रसिद्ध यूनानी तत्त्ववेत्ता था। इसका जन्म सन् ४६९ बी॰ सी॰ में हुवा था। यह बड़े स्वाधीन विचारवाला था। अपने स्वाधीन विचारों के कारण ही सन् ३९९ बी॰ सी॰ में इस को ज़हर का प्याला पीना पड़ा था।
स्टायक्स―(Stoics)––ज़ीनू नामक यूनानी तत्त्वज्ञानी के अनुयायी।


भूल सुधार
पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध
१३ दुःख सुख
२६ १२ समझता समझा
५७ २१ निन्याऩवे निन्यानवे काम
७१ किसी चीज़ किसी ऐसी चीज़
७९ भावों के (Arbitrary) भावों के निरंकुश (Arbitrary)
१०६ जाता जाता है
१०६ १५ समान साक्षी का व्यवहार समान व्यवहार
१११ २१ इस प्रकार करने के लिए विवश किया जाय। विवश किया जाय