उपयोगितावाद/चौथा अध्याय
चौथा अध्याय।
उपयोगिता के सिद्धान्त की पुष्टि में किस प्रकार का प्रमाण दिया जासकता है।
यह पहिले भी बताया जा चुका है कि अन्तिम उद्देश्यों से सम्बन्ध रखने वाले विषयों का साधारण अर्थ में प्रमाण नहीं दिया जा सकता। सारे मूल सिद्धान्त, विज्ञान ( Knowledge ) तथा आचार के मूल पूर्वावयव ( First Premises ) हेतु देकर प्रमाणित नहीं किये जासकते। किन्तु मूलसिद्धान्त वास्तविकता लिये होते हैं, इस कारण वास्तविकता को परखने वाली शक्तियों अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों तथा आन्तरिक चेतना के द्वारा उनका निर्णय हो सकता है। क्या प्रक्रियात्मक उद्देश्यों से सम्बन्ध रखने वाले विषयों का भी ज्ञानेन्द्रियों तथा आन्तरिक चेतना के द्वारा निर्णय हो सकता है? या और किस प्रकार उनकी वास्तविकता जांची जा सकती है? उद्देश्यों से सम्बन्ध रखने वाले विषय दूसरे शब्दों में इस बात के प्रश्न होते हैं कि क्या २ चीजें इष्ट हैं। उपयोगितावाद का सिद्धान्त यह है कि मुख इष्ट है तथा उद्देश्य की दृष्टि से एकमात्र सुख ही इष्ट है। अन्य सारी वस्तुएं इस उद्देश्य-प्राप्ति में सहायक होने ही के कारण इष्ट हैं। अब प्रश्न उठता है कि इस सिद्धान्त के पोषक क्या बात प्रमाणित करें कि जिससे और लोग भी इस सिद्धान्त को मानलें।
किसी वस्तु के प्रत्यक्ष होने का एक मात्र माननीय प्रमाण यही दिया जा सकता है कि आदमी वास्तव में उसे देखते हैं। किसी ध्वनि के श्रोतव्य होने का एकमात्र प्रमाण यह है कि आदमी उसे सुनते हैं। इसी प्रकार किसी वस्तु के इष्ट होने का एक मात्र प्रमाण यही दिया जा सकता है कि मनुष्य उस वस्तु को वास्तव में चाहते हैं। सर्व साधारण का सुख क्यों इष्ट है? इस बात का सिवाय इसके और कोई प्रमाण नहीं दिया जा सकता कि प्रत्येक मनुष्य अपने सुख का यथासम्भव इच्छक रहता है। यह एक वास्तविक बात है। इस कारण यही प्रमाण है जो दिया जा सकता है कि सुख अच्छा है। प्रत्येक मनुष्य का सुख उस मनुष्य के लिये अच्छा है। और इस कारण सर्व साधारण का सुख सब मनुष्यों के समाज के लिये अच्छा है। सुख प्राचार का एक उद्देश्य है और इस कारण आचार-युक्तता का एक निर्णायक है।
किन्तु इतने ही से सुख आचारयुक्तता का एकमात्र निर्णायक प्रमाणित नहीं हो जाता। इस बात को प्रमाणित करने के लिये इस ही नियम के अनुसार यह दिखाना आवश्यक है कि मनुष्य केवल सुख ही को नहीं चाहते हैं वरन सुख के अतिरिक्त वे कभी किसी और वस्तु की कामना नहीं करते। अब यह बात स्पष्ट है कि मनुष्य बहुतसी ऐसी चीज़ों की कामना करते हैं जो साधारण भाषा में सुख से भिन्न हैं। उदाहरणत: मनुष्य ठीक उसी प्रकार पुण्य या नेकी (Virtue) की कामना करते हैं तथा बदी से बचना चाहते हैं जिस प्रकारसुख की कामना करते हैं तथा दुःख से बचना चाहते हैं। पुण्य की कामना सुख की कामना के समान सार्वलौकिक नहीं है, किन्तु सुख की कामना के समान ही पुण्य की कामना का होना भी निर्विवाद है। इस कारण उपयोगितात्मक आदर्श के विरोधी कहते हैं कि हमको यह परिणाम निकालने का अधिकार है कि सुख के अतिरिक्त मानुषिक कार्यों के और भी उद्देश्य होते हैं और इस कारण उपयोगिता की कसौटी से ही किसी काम को करने या न करने के योग्य नहीं ठहराया जा सकता।
किन्तु क्या उपयोगिता का सिद्धान्त कहता है कि मनुष्य पुण्य की कामना नहीं करते? बिल्कुल इससे उल्टी बात है। उपयोगितावाद का कहना है कि पुण्य की कामना ही नहीं करनी चाहिये वग्न् निष्काम होकर पुण्य की कामना करनी चाहिये। उपयोगितावादी आचार-शास्त्रियों की इस विषय में, कि कोई पुण्य कार्य प्रारम्भ में किस प्रकार पुण्य का कार्य बन गया, कोई सम्मति क्यों न हो तथा चाहे उनका कैसा ही यह विश्वास हो (जैसा कि है भी) कि कोई कार्य या मनोवृत्ति इस ही कारण धार्मिक है क्योंकि उससे पुण्य या नेकी (Virtue) के अतिरिक्त किसी और उद्देश्य की पूर्ति में सहायता मिलती है, किन्तु इस प्रकार किसी कार्य के धार्मिक या अधार्मिक होने का निर्णय कर लेने पर उपयोगितावादी नेकी अर्थात् धर्म कार्य या पुण्य कार्य को अन्तिम उद्देश्य की प्राप्ति में सहायता देने वाले पदार्थों में केवल सब से ऊंचा स्थान ही नहीं देते हैं वरन् उनका विचार है कि मनोविज्ञान के अनुसार प्रत्येक मनुष्य में इस प्रकार की भावना का होना सम्भव है कि वह नेकी या पुण्य को बिना किसी और उद्देश्य को ध्यान में रखते हुवे स्वत: अच्छा समझे। उपयोगितावादी लोगों का यह भी कहना है कि जब तक इस प्रकार की भावना नहीं पाती है अर्थात् मनुष्य नेकी को इस प्रकार प्यार नहीं करता है, उस समय तक उस मनुष्य का मस्तिष्क ही ठीक दशा में नहीं है। उस मनुष्य का मस्तिष्क उस दशा को प्राप्त नहीं हुवा है जिस दशा को प्राप्त होना सार्वजनिक हित की दृष्टि से अत्यावश्यक है। इस प्रकार की सम्मति सुख के सिद्धान्त के बिल्कुल भी विरुद्ध नहीं है। सुख के बहुत से साधन हैं। प्रत्येक साधन, केवल सुख-राशि बढ़ाने की दृष्टि से ही नहीं, वरन् स्वत: इष्ट है। उपयोगिता के सिद्धान्त का यह मतलब नहीं है कि कोई आनन्द जैसे गायन या दुःख से मुक्ति जैसे स्वास्थ्य केवल इस ही कारण इष्ट होने चाहिये क्योंकि वे किसी समष्टिरूप पदार्थ प्रसन्नता के साधन हैं। गायन तथा स्वास्थ्य स्वतः इष्ट हैं और होने चाहिये क्योंकि उद्देश्य के साधन होने के अतिरिक्त उद्देश्य का एक भाग भी हैं। उपयोगितावाद के सिद्धान्त के अनुसार नेकी या पुण्य स्वाभाविकतया तथा प्रारम्भ से तो उद्देश्य का भाग नहीं हैं किन्तु उद्देश्य का भाग बन सकते हैं। जो लोग नेकी को निष्काम रूप से प्यार करते हैं उन मनुष्यों के लिये नेकी उद्देश्य का भाग होगई है। ऐसे लोग अपने सुख का एक भाग समझने के कारण ही नेकी या पुण्य की आकांक्षा करते हैं। वे लोग नेकी को सुख का साधन नहीं समझते हैं। इस बात को और अधिक अच्छी तरह समझने के लिये हमको यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि केवल नेकी या पुण्य ही प्रारम्भ में उद्देश्य का साधन होने पर बाद में उद्देश्य का भाग नहीं बन गये हैं। उदाहरण के लिये धन की लालसा ही को ले लीजिये। धन का यही मूल्य है कि उसके द्वारा और चीजें खरीदी जासकती हैं। इस कारण प्रारम्भ में धन की इच्छा उन वस्तुओं की इच्छा के कारण होती हैं जो उस धन द्वारा प्राप्त हो सकती हैं। इस कारण धन हमारी इच्छा-पूर्ति का एक साधन है। किन्तु धन की लालसा केवल उन बातों के अन्तर्गत ही नहीं है जिनका मानुषिक जीवन में बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है, वरन् बहुतसी दशाओं में धनी होनेके एकमात्र विचार से ही बहुत से मनुष्य घन की भावना करते हैं। धन का प्रयोग करने की अपेक्षा धन का स्वामी बनने की कामना अधिक बलवती होती है। इस कारण यह कहना गलत नहीं है कि धन की कामना इस कारण नहीं की जाती कि धन किसी उद्देश्यप्राप्ति का साधन है वरन् धन की कामना इस कारण की जाती है कि धन हमारे उद्देश्य का एक भाग है। आरम्भ में धन सुख का एक साधन था, किन्तु अब मनुष्य धन को सुख का एक मुख्य अवयव समझने लगा है। यही बात मनुष्यों के और बहुत से इष्ट पदार्थों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है, उदाहरणतया शक्ति या शोहरत। शक्ति या शोहरत में एक विशेषता है जो धन में नहीं है। वह विशेषता यह है कि शक्ति मिलने या शोहरत पाने के साथ ही साथ हमको तत्क्षण कुछ आनन्द सा प्रतीत होने लगता है। इससे कम से कम ऐसा मालूम अवश्य होता है कि शक्ति तथा शोहरत में आनन्द है। किन्तु फिर भी मनुष्य स्वभावतया शक्ति तथा ख्याति इस कारण चाहते हैं क्योंकि शक्ति-शाली या प्रसिद्ध होने पर उन्हें अपनी अन्य इच्छाओं को पूर्ति में बड़ी सहायता मिलती है। शक्ति और ख्याति तथा हमारे अन्य इष्ट पदार्थों में इतना घनिष्ट संबंध होने के कारण ही बहुधा मनुष्यों में शक्ति तथा ख्याति की इच्छा इतनी बलवती हो गई है। कुछ मनुष्यों में तो ख्याति तथा शक्ति की इच्छा अन्य सब इच्छाओं से बढ़ जाती है। इन दशाओं में साधन उद्देश्य का एक भाग बन जाते हैं। केवल साधारण भाग ही नहीं वरन् उन पदार्थों की भी अपेक्षा, जिनके वे साधन हैं, उद्देश्य का अधिक महत्त्वपूर्ण भाग हो जाते हैं। जिस पदार्थ की पहिले इस कारण कामना की जाती थी कि वह सुख-प्राप्ति का एक साधन है, अब उस पदार्थ की ही खातिर कामना की जाने लगती है। उस साधन की प्राप्ति सुख का भाग होने के कारण की जाने लगती है। मनुष्य उस पदार्थ को (जो पहिले साधन था) पाने से ही खुश हो जाता है या अपने आपको खुशी समझने लगता है तथा उस पदार्थ के न मिलने से दुखी हो जाता है या अपने आप को दुखी समझने लगता है। जिस प्रकार सङ्गीत का प्रेम तथा स्वास्थ्य की इच्छा सुख की इच्छा से पृथक् नहीं हैं, इस ही प्रकार उस पदार्थ की इच्छा भी सुख की इच्छा से भिन्न नहीं है। ये सब बाते सुख में आ जाती हैं। ये सुख की इच्छा के कुछ तत्त्व हैं। सुख अमूर्त भावना (Abstract idea) नहीं है, वरन् मूर्त साकल्य (Concrete whole) है और ये उस के भाग हैं। इनका इस प्रकार होना उपयोगितावाद के आदर्श के अनुसार है। जीवन बहुत ही शुष्क हो जाता तथा सुख के अवसर बहुत ही कम हो जाते यदि वे वस्तुयें, जो प्रारम्भ में उदासीन थीं किन्तु हमारी प्रारम्भिक इच्छाओं की पूर्ति की ओर लेजाने वाली थीं, बाद में स्वयं ही आरम्भिक आनन्दों की अपेक्षा आनन्द के अधिक मूल्यवान् उद्गार-आधिक्य तथा जीवन काल में नित्यता दोनों के विचार से न बन जातीं।
उपयोगितावाद की विभावना के अनुसार नेकी या पुण्य इस प्रकार की अच्छी चीज़ है। प्रारम्भ में नेकी या पुण्य की एकमात्र इस ही कारण कामना थी कि नेकी या पुण्य सुख की ओर लेजाता है तथा विशेषतया दुःख से बचाता है। किन्तु इस प्रकार का सम्बन्ध होने के कारण नेकी स्वयं ही अच्छी समझी जासकतीहै तथा नेकी की भी इतनी ही प्रबल इच्छा हो सकती है जितनी किसी अन्य अच्छी चीज़ की। नेकी में तथा धन, शक्ति तथा ख्याति की लालसा में इतना अन्तर है कि धन आदि की लालसा के कारण मनुष्य अपने समाज को हानि पहुँचा सकता है जैसा कि बहुधा देखने में भी पाया है। किन्तु मनुष्य जितना लाभ समाज को नेकी (Virtue) के निष्काम प्रेम के कारण पहुंचा सकता है, उतना किसी और प्रकार नहीं पहुंचा सकता। इस कारण उपयोगितावाद के आदर्श के अनुसार धन आदि की लालसा उस सीमा तक ठीक है जब तक कि इस प्रकार की लालसा से सार्वजनिक सुख की वृद्धि हो तथा सार्वजनिक हित के मार्ग में रुकावट न पड़े। किन्तु उपयोगितावाद का कहना है कि नेकी की इच्छा जितनी अधिक बढ़ सके उतना ही अच्छा है क्योंकि नेकी की इच्छा सार्वजनिक सुख के लिये सब से अधिक आवश्यक है। इन सब बातों से प्रमाणित होता है कि सुख के अतिरिक्त और कोई चीज़ इष्ट नहीं है। अन्य वस्तुवें सुख का साधन होने के कारण इष्ट हैं। जिन वस्तुवों की स्वतः उन वस्तुओं की खातिर ही इच्छा है वे वस्तुवें सुख का एक भाग हैं। जब तक कोई वस्तु सुख का भाग नहीं बन जाती तब तक उस वस्तु की उस वस्तु की खातिर इच्छा नहीं होती। जो मनुष्य नेकी की नेकी ही के बिचार से कामना करते हैं वे इस प्रकार की कामना इन दो कारणों में से किसी कारण की वजह से करते हैं। या तो उन्हें अपने नेक होने का ध्यान आने से सुख मिलता है या अपने नेक न होने का ध्यान पाने से दुःख प्राप्त होता है। या उपरोक्त दोनों कारणों की वजह से भी इस प्रकार की कामना हो सकती है क्योंकि वास्तव में सुख तथा दुःख पृथक् २ कभी ही रहते हैं, नहीं तो सदैव साथ ही साथ देखे जाते हैं। कोई मनुष्य कतिपय अंश में नेक होने के विचार से आनन्द अनुभव कर सकता है तथा अधिक नेक न होने के विचार से दुःख अनुभव कर सकता है। यदि इन में से किसी कारण से उसे सुख या दुःख अनुभव न हो तो वह नेकी की कामना नहीं करेगा। यदि कामना करेगा भी तो इस विचार से कि नेकी के कारण मुझे या मेरे प्रेमपात्र अन्य मनुष्यों को अन्य लाभ पहुंच सकते हैं।
अब हम ने इस प्रश्न का कि उपयोगितावाद के सिद्धान्त का किस प्रकार का प्रमाण दिया जा सकता है-उत्तर दे दिया है। यदि मेरी उपरोक्त सम्मति मनोविज्ञान के अनुसार ठीक है अर्थात् यदि मनुष्य की प्रकृति ही ऐसी है कि वह किसी ऐसी वस्तु की कामना नहीं करता जो सुख का भाग अथवा सुख का साधन नहीं होती--तो हम इस बात की पुष्टि में--कि केवल ये ही चीजें इष्ट हैं---और कोई प्रमाण नहीं दे सकते और न कोई और प्रमाण देने की आवश्यकता ही है।
अब इस बात का निर्णय करना चाहिये कि क्या वास्तव में ऐसा ही होता है? अर्थात् क्या मनुष्य जाति केवल उसी वस्तु की कामना करती है कि जिससे उसको सुख मिलता है या दु:ख का अभाव होता है। प्रत्यक्ष ही में यह प्रश्न अनुभव का प्रश्न है। इस प्रकार के प्रश्नों का निर्णय साक्षी पर ही होता है। इस कारण यह बात जानने के लिये कि क्या वास्तव में वैसा ही होता है जैसा ऊपर वर्णन किया गया है, हमको अपने अनुभव तथा अपनी निरीक्षा ( Ovservation ) को काम में लाना चाहिये तथा दूसरों के निरीक्षण से सहायता लेनी चाहिये। मेरा विश्वास है कि यदि निष्पक्षपात होकर अपने अनुभव तथा निरीक्षण से काम लिया जायगा तो यह बात माननी पड़ेगी कि किसी वस्तु की इच्छा करना तथा उसे रुचिकर अनुभव करना तथा किसी वस्तु से घृणा करना और उसके कष्टप्रद होने की कल्पना करना--ये दोनों बाते--एक दूसरे से पृथक् नहीं की जा सकतीं। ये दोनों बातें एक ही वस्तु के दो रुख हैं या दार्शनिक भाषा में एक ही मनो-वैज्ञानिक घटना का नाम रखने के दो तरीक़े हैं। किसी चीज़ को इष्ट समझना ( उसके परिणामों के विचार से इष्ट समझें तो दूसरी बात है ) तथा उस वस्तु को सुखद समझना--ये दोनों--एक ही बात हैं। किसी वस्तु को सुखद न समझते हुवे उस वस्तु की इच्छा करना भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों प्रकार से असम्भव हैं। यह बात मुझको इतनी साफ़ मालूम पड़ती है कि मेरे विचार में इस पर कोई भी आक्षेप नहीं करेगा। कोई आदमी यह नहीं कहेगा कि किसी वस्तु के सुखद होने तथा उसके प्रभाव के दुखद होने के अतिरिक्त और भी किसी कारण से उस वस्तु की इच्छा की जासकती है। हां इस प्रकार का आक्षेप होना सम्भव है कि आकांक्षा ( Will ) इच्छा ( Desire ) से भिन्न है। बहुत से नेक मनुष्य अर्थात् सन्त या ऐसे मनुष्य जिनके उद्देश्य निश्चित हैं अपने उद्देश्य की पूर्ति ही में लगे रहते हैं। वे इस बात का ध्यान नहीं करते कि ऐसा करने से हमें आनन्द मिल रहा है या हमें अन्त में आनन्द मिलेगा। वे तो अपने उद्देश्य की पूर्ति ही का ध्यान रखते हैं चाहे इसमें उनको अपने सुखों की क़ुर्बानी करनी पड़े चाहे उनको अनेक आपदाओं का सामना करना पड़े। ये सब बातें मैं पूर्ण रूप से मानता हूं। इस बात का मैंने कहीं उल्लेख भी किया है। आकांक्षा इच्छा से भिन्न है। अकांक्षा ( Will ) क्रियावान विकृति है तथा इच्छा ( Desire ) निष्क्रिय संवेतृता ( Passive Sensibility ) है । यद्यपि आरम्भ में आकांक्षा इच्छा ही की शाखा है किन्तु समय पाकर जड़ जमा सकती है तथा इच्छा से भिन्न रूप धारण कर सकती है। इस कारण अभ्यस्त उद्देश्य की दशा में हम उस चीज़ की इस कारण आकांक्षा नहीं करते क्यों कि हम उसकी इच्छा रखते हैं वरन् बहुधा हम उसकी इस ही कारण इच्छा करते हैं क्योंकि हम उसकी आकांक्षा रखते हैं। यह अभ्यास की शक्ति का एक उदाहरण मात्र है केवल अच्छे ही कामों में ऐसा नहीं होता है। मनुष्य बहुत सी उदासीन बातों को पहिले इसी प्रकार के उद्देश्य से करते हैं किन्तु फिर उन्हीं बातों को अभ्यास या आदत के कारण करने लगते हैं। कभी २ हम अचेतन रूप से ऐसा कर जाते हैं। काम कर चुकने के बाद ज्ञान ( Consciousness ) होता है। कभी २ सङ्कल्प के कारण, जिसका ज्ञान हमें रहता है, ऐसा करते हैं। किन्तु यह सङ्कल्प अभ्यस्त होता है। अभ्यास पड़ जाने के कारण ही इस प्रकार का सङ्कल्प उठने लगता है, अविवेक रुचि के कारण नहीं। यह बात बहुधा उन लोगों में देखने में आती है जिन्हें बुरी लत लग जाती है। तृतीय तथा अन्तिम दशा वह है जब हमारा अभ्यस्त कार्य पूर्व की बहुधा बनी रहने वाली इच्छा के विरुद्ध नहीं होता है वरन् उस इच्छा की पूर्ति ही के लिये होता है। यह बात सन्त लोगों तथा उन मनुष्यों में देखी जाती है जो समझ-बूझ कर किसी निर्धारित उद्देश्य की पूर्ति में बराबर लगे रहते हैं। आकांक्षा तथा इच्छा का यह भेद प्रमाणिक तथा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक बात है। किन्तु बात केवल इतनी है--हमारे संस्थान के अन्य सब भागों के समान आकांक्षा अभ्यास पर निर्भर है। जो वस्तु अब हमें स्वतः इष्ट नहीं रही है, हम उसकी आकांक्षा अभ्यास के कारण कर सकते हैं, या केवल इस कारण इच्छा कर सकते हैं क्योंकि हमें उसकी आकांक्षा है। यह बात बिल्कुल ठीक है कि आरम्भ में आकांक्षा पूर्ण रूप में इच्छा से पैदा होती है। इच्छा में कष्ट के प्रभाव से खिंचाव तथा आनन्द की ओर आकर्षण---ये दोनों बातें आगईं। उस आदमी को छोड़ दो जिसके दिल में ठीक करने की आकांक्षा ने पूरा आसन जमा लिया है। उस आदमी का उदाहरण लो जिसके अन्दर अभी इस प्रकार की आकांक्षा कमज़ोर हालत में है और जहां इस बात का खटका है कि कहीं प्रलोभन मिलने पर यह आकांक्षा नष्ट न होजाय। इस वजह से आकांक्षा पूर्ण रूप से विश्वसनीय नहीं है। ऐसी दशा में हम किस प्रकार से ऐसी कमज़ोर आकांक्षा को दृढ़ बना सकते हैं? जहां पर नेक होने की आकांक्षा यथेष्ट रूप में नहीं हैं वहां पर इस प्रकार की आकांक्षा को किस प्रकार उत्पन्न या जागृत किया जा सकता है? केवल इसी प्रकार कि ऐसे मनुष्य के दिल में नेकी की इच्छा पैदा कराई जाय। इस बात का प्रयत्न किया जाय कि वह नेकी को सुखद तथा उसके प्रभाव को दुखद समझे। उसके ज़हन में यह बात जमा दी जाय कि सुखद तथा ठीक काम करने का और दुखद तथा गलत काम करने का अभेद सम्बन्ध है। उसको यह बात पूर्ण--रूप से अनुभव करादी जाय की नेक काम करने से स्वभावतया सुख होता है तथा बुरे काम करने से दुःख होता है यह सम्भव है कि इस तरह नेकी की इस प्रकार की आकांक्षा उत्पन्न हो जाय, जिसके एक बार जड़ जमा लेने पर,आदमी फिर बिना सुख दुःख का विचार किये हुवे काम करने लगे। आकांक्षा इच्छा का बच्चा है। इच्छा की सीमा से निकल कर आकांक्षा अभ्यास ही की सीमा में आती है। अभ्यास अर्थात् आदत ही के कारण हमारी भावनाओं तथा आचरणों-दोनों-में निश्चयता आती है। यह बहुत आवश्यक है कि मनुष्य परस्पर एक दूसरे की भावनाओं तथा आचरणों पर भरोसा रक्खें तथा प्रत्येक मनुष्य में भी अपनी भावनाओं तथा आचरणों पर भरोसा रखने की क्षमता होनी चाहिये। इस कारण ठीक करने की आकांक्षा को बढ़ाते २ अभ्यास अर्थात् पादत की दशा को पहुंचा देना चाहिये। दूसरे शब्दों में आकांक्षा की यह दशा इष्ट ( Good ) का एक साधन है असली इष्ट नहीं है। इस कारण आकांक्षा की ग्रह दशा इस सिद्धान्त का विरोध नहीं करती कि मनुष्यों के लिये कोई वस्तु उसी समय तक इष्ट है जब तक कि यातो वह स्वयं सुखद हो या सुख पाने अथवा कष्ट दूर करने का साधन हो।
किन्तु यदि यह मत ठीक है तो उपयोगितावाद का सिद्धान्त भी प्रमाणित होजाता है। यह मत ठीक है या नहीं--इस बात का निर्णय हम विचारशील पाठकों पर छोड़ते हैं।