आदर्श हिंदू २/२६ पौराणिक प्रयाग

आदर्श हिंदू दूसरा भाग
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास, बी.ए.

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ २२ से – ३३ तक

 

प्रकरण -- २६
पौराणिक प्रयाग

"मन का साक्षी मन है। जहाँ एक मन दूसरे से मिल जाता है वहाँ परस्पर एक दूसरे के मन की थाह पा लेना भी कठिन नहीं होता। सचमुच ही यह परमेश्वर का बनाया हुआ टेलीफोन है। केवल चाहिए मन विमल होना और उसमें एकाग्रता से विचार लेने की बलवती शक्ति। परमात्मा के निरंतर ध्यान करने से, वर्षों के अभ्यास से और सदाचार से यदि भगवान् कृपा करें तो वह शक्ति आ सकती है। यही नर से नारायण बनने का मार्ग है क्योंकि मन ही मनुष्य के वंधन का और छुटकारे का कारण है। आगे बड़े बड़े महात्मा ऋषि महर्षि हो गए हैं और दुनिया का उपकार करने में जिन्होंने नाम पाया है वह केवल मन को वश में करने से। किंतु यह मन भी बड़ा ही जोरदार घोड़ा है, जहाँ जरा सी लगाम ढीली हुई कि सवार राम तुरंत ही मुँह के बल गिरते हैं। बस वही मन आज दौड़ दौड़कर बारंबार कर्ण पिशाची की तरह मुझे आ आकर खबर दे रहा है कि कांतानाथ का काम हो गया। आज अकस्मात चित्त को आनंद होता है। दक्षिण नेत्र और भुजा फड़क फड़ककर इस बात की गवाही दे रहे हैं और इस लिये भरोसा होता है कि उसकी प्रसन्नता का

शुभ संवाद अवश्य मिलना चाहिए शीघ्र आना चाहिए। आज ही, अभी।" जब इस प्रकार से वार्तालाप करते हुए पंडित प्रियानाथ प्रातःकाल के नित्य नियम से निश्चिंत होकर उठने लगे तब ही डाकिए ने आकर इस हाथ में कांतानाथ की चिट्ठी थँमाई। पत्र इन्होंने पढ़ा, प्रियंवदा को पढ़ाया और गौड़बोले की उत्कंठा देखकर संक्षेप से उसका आशय कह दिया। इस चिट्ठी में प्रायः वे ही बातें लिखी हुई थीं जो तेई- सवें प्रकरण में हैं। उनके सिवाय इतना और लिखा था कि --

"इसका फैसला आपकी आज्ञा से आपके पधारने पर होगा। परमेश्वर आप दोनों को प्रसन्न रखें। मेरे लिये तो आप ही माता पिता हैं।"

पत्र पाकर पंडिताइन को जो आनंद हुआ वह अकथनीय है। उसका ठीक स्वरूप प्रकाशित कर देने के लिये कोश में शब्द नहीं है। अनुभव ही उसे प्रकट कर सकता है। किंतु हाँ! गौड़बोले भी सुनकर गद्गद हो गए। उन्होंने आँखों में आँसू लाकर कहा -- "परमेश्वर यदि किसी को भाई दे तो ऐसा ही दे। आजकल के से जरा जरा सी बात के लिये कट मरने-वाले, अदालत लड़नेवाले भाई से तो बिन भाई ही अच्छा।"

"महाशय कहने से क्या होता है? यदि अन्नजल हुआ तो गाँव में ले जाकर उसके गुण आँखों से दिखलाऊँगा।"

वाणी से नहीं, केवल आँखों से मुखकमल को खिलाकर आधे घूँघट की ओट से पति के नेत्रों में अपने नेत्र उलझाकर

मृदु हास्य के साथ प्रियंवदा ने इस बात का अनुमोदन किया और नेत्रों की सांकेतिक भाषा में दिखला दिया कि -- "छोटे भैया मेरे भी छोटे भैया हैं। भाई से भी बढ़कर प्यारे हैं।" आजकल की सी उच्छृंखल ललनाओं के समान प्रियंवदा मुखरा नहीं थी, यधपि वह गौड़बोले के आगे फिरती डोलती थी। जब यात्रा में दिन रात का साथ था तब चारा भी नहीं था किंतु उन्होंने इसका मुख नहीं देखा। कभी इसने उनके सामने किसी से बातचीत नहीं की। इस समय भी दोनों के लोचल-पद्मों की उलझन चौखट की आड़ में से हुई। प्रियंवदा कमरे के भीतरी किवाड़ की ओट में और उसके प्राणनाथ बाहर। बादल में से छिपकर बार बार निकलनेवाले चंद्रमा की तरह प्रियतम को प्रेयसी के दर्शन का अवश्य आनंद प्राप्त हुआ किंतु गैड़बोले जैसे सात्विक ब्राह्मण की दृष्टि भी यदि उधर पड़ जाय तो "राम राम!" उस पर सौ घड़े पानी पड़ जाय। उसका भाव प्रियंवदा के लिये माता का सा था। गोस्वामी तुलसीदासजी ने "रामायण मानस" में अपनी आराध्य देवी माता जानकी के नखशिख का वर्णन न किया, इस बात को बहुत "खूबसूरती" के साथ टाल दिया। उनका यह कार्य प्राचीन कवियों से भी "सबकत" ले गया। यही उसकी धारणा थी और जब कभी प्रसंग आता वह इस कार्य के लिये गासाई जी की प्रशंसा किए बिना नहीं रहता था। अस्तु! प्रयाग में आकर इन लोगों ने वहाँ के सब ही मुख्य मुख्य तीर्थों में, देवालयों में और पुण्यस्थलों में जो आनंद पाया, जिस तरह इन्होंने अपके लेाचन सुफल किए और जैसी इनके अंत:करण की तृप्ति हुई सो तब ही मालूम हो सकता है जब पाठक नायिकाएँ स्वयं प्रयाग पधारकर उसका अनुभव प्राप्त करें। चाहे विद्वानों की भाषा में उसे प्रकाशित कर देने की सामर्थ्य हो तो हो सकती है किंतु इस उपन्यासलेखक की भाषा पोच है और वह मानता भी है कि अनुभव का मजा अनुभव में ही है। हाँ! पंडित प्रियानाथतजी के अनुभव की दो चार बातें यह प्रकाशित किए बिना यदि वह वहाँ से कूच कर जायँ तो समझना होगा कि उन्होंने अपनी यात्रा के उद्देश्य में कसर कर दी। उनके कर्तव्यपालन में "परंतु" लग गया।

पंडितजी के अनुभव का बुरा और भला खाका गत प्रकरणों में लिखा जा चुका है और शेष इस तरह है। इन सबका ही यह नियम था कि वे नित्य शरीर कृत्य से निवृत्त होकर स्नान संध्यादि नित्य नियम के अन्ततर और भोजन से पूर्व तीर्थयात्रा किया करते थे। लेग इनसे कहते भी कि अधिक भूख मारने से बीमार हो जाओगे किंतु इन्हें यह बात पसंद नहीं थी। और जैसे कट्टर यह थे वैसा ही बूढ़ा भगवान दास। बस इसी लिये नित्य के नियमानुसार आज इन्होंने पार जाने की तैयारी की। पार जाने पर वल्लभ संप्रदाय के संस्था-

एक महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यजी महाराज की अरैल में बैठक और झूसी (प्रतिष्ठानपुर) में महात्माओं के दर्शन हुए। बस ये दो ही मुख्य थे। पंडितजी अनन्य वैष्णव थे और गैड़बोले अनन्य शैव । मतामत पर इन दोनों पंडितों में विवाद, नहीं नहीं, संवाद भी बहुत हुआ करता था किंतु इन दोनों में एक कारण से पटती भी कम नहीं था, क्योंकि दोनों ही हठधर्मी नहीं थे, दुराअही नहीं थे और दोनों ही गेस्वामी तुलसीदासजी की तरह दोनों को माननेवाले थे। और जब कोई इन्हें छेड़ता यह कह दिया करते थे कि --

"विष्णु के आराध्य देव शिव और शिव के इष्टदेव विष्णु। हम नहीं कह सकते कि दोनों में कौन बड़ा है। जब भक्त का और पतिव्रता स्त्री का दर्जा समान है तब हमारे लिये तो हमारा इष्टदेव ही मुख्य हैं।"

तर्क करनेवाले जब एक ओर से शिवपुराणादि की कथाएँ इनके सामने रखकर शिवजी की प्रधानता सिद्ध करते थे तब वैष्णव लोग श्रीमद्भागवत में से महर्षि भृगु की परीक्षा से विष्णु की प्रधानता का चित्र इनके सामने ला खड़ा करते थे, किंतु इन दोनों का सिद्धांत अटल था और मन ही मन, कभी एकांत में पति से जबानी भी, प्रियंवदा कहा करती थी कि --

"इसका अनुभव जैसा स्त्रियों को होता है वैसा पुरूषों को नहीं। संसार में सुंदर से सुंदर और गुणवान् से गुणवान् पुरुष मौजूद होने पर भी जैसे एक पतिव्रता के लिये उसके

लूले, लँगड़े, अँधे, अपाहिज, कुरूप, दुर्गुणी, व्यभिचारी पति की समानता कोई नहीं कर सकता वैसे ही मनुष्य के लिये उसका इष्टदेव है।"

अस्तु, भगवान् वल्लभाचार्य महाप्रभु की बैठक में पहुँचकर इन लोगों की परस्पर जो बातें हुई उसका सार यह हैं। पंडितजी बोले --

"आजकल, रेल से, तार से और छापे से, किसी साधारण मनुष्य के हाथ से यदि कोई अच्छा या बुरा काम हो तो उसका देश भर में डंका पिट जाता है, किंतु जिस समय ऐसे ऐसे आचार्यों का जन्म हुआ ऐसी किसी प्रकार की सुविधा नहीं थी। और तो क्या चोरों से, लुटेरों से और दुष्टों से रास्ता चलना, घर से बाहर निकलना भी कठिन था। कहते हुए हृदय विदीर्ण होता है, भगवान वैसा समय कभी इस देश के न दिखलावे। परमेश्वर अँगरेजों का भला करे, देश में ऐसी शांति विराजमान होने का यश इन्हीं का है। नहीं तो भगवान् वल्लभाचार्य का जिस समय प्रादुर्भाव हुआ धार्मिक हिंदुओं के लिये घर बैठे भी खैर नहीं थी। उनके ग्रंथरत्न जला जलाकर दुष्टों ने हम्माम गर्म करने में दुनिया का सर्वनाश किया और हजारों हिंदु लौंडी-गुलाम बना दिए गए। ऐसे समय में जिस महात्मा ने प्रेम और भक्ति का प्रचार किया, देश भर में धर्म का डंका बजा दिया वह यदि महाप्रभु न कहलावे तो क्या आजकल के मतप्रवर्तक? वास्तव में भगवान्

शंकर ने जिस तरह बौद्धों को परास्त कर सत्य सनातनधर्म की देश भर में दुहाई फेरी और इसलिये जैसे शंकराचार्य को साक्षात् शंकर कहा जाने में बिलकुल अत्युक्ति नहीं उसी तरह वैष्णवों के इन चारों संप्रदायों आचार्य ने हिंदू धर्म का उद्धार किया है। पुराणों में इस बात का पता लगता है कि ये परमेश्वर के अवतार थे। उन्हीं में से मेरा आराध्य देव भगवान् महाप्रभु की यह बैठक हैं। शास्त्रों में इस बात का प्रमाण मौजूद है कि जिस कुल में सेमयाग (यज्ञ) हों उसमें भगवान् अवतार धारण करते हैं। इनके पूर्वपुरुषों ने इनके यज्ञों का अनुष्ठान किया और इसलिये भक्ति-रस के अमृत के हिंदुओं के अंतःकरण को पवित्र करने के लिये, संसारी जीवों का उद्धार करने के लिये, इन्होंने इस पुण्य-भूमि : पदार्पण कर शुद्धाद्वैत मत का प्रचार किया। जैसे शैव और वैष्णव, प्रायः सब ही संप्रदायों के आचार्यो का जन्म दक्षिण में हुआ था वैसे ही इनका, किंतु सत्य ही यदि इनका प्रादुर्भाव न होता तो जो व्रजभूमि आज दिन तक स्वर्ग-सुख का आनंद दे रही हैं वह व्रजभूमि न रहती। आजकल के कितने ही आचार्यो की दशा देखकर, पर-मतों से द्वेष देखकर और कितने ही अन्यान्य कारणों से जाग आक्षेप करने लगे हैं और उन आक्षेपों को मेटने के लिये जितने ही ये लोग जल्दी सँभलें उतना ही भला है, किंतु इसमें संदेह नहीं कि इस मत में जो प्रकार भक्ति का है वह अलौकिक है, इनकी

भगवत्-सेवा अलौकिक है और वास्तव में इस मत के प्रचार से संसार का बहुत उपकार हुआ हैं। यह मत भी नया नहीं है। भगवान् शिव इसके प्रवर्तक हुए हैं।"

"वास्तव में सत्य है। हमारे शिव और विष्णु संम्प्रदायों के जितने प्रवर्तक आचार्य हुए वे सब ही अपने अपने मत के अद्वितीय विद्वान् थे। उन्होंने दुनिया का बड़ा उपकार किया है और उनकी भगवान् व्यासजी के जोड़ की विद्वत्ता देखकर पश्चिमी विद्वान् भी उनके आगे सिर झुकाते हैं। हमारे दर्शनों का दर्शन करके, वेद भगवान् का का थोड़ा आशय जानकर, युरोप के सुप्रसिद्ध संस्कृतवेत्ता प्रोरफेस मैक्सम्यंलर ने तो यहाँ तक कह दिया है कि 'संस्कृत के अगाध महासागर में अभी तक किसी भी युरोपियन विद्वान् ने प्रदेश तक नहीं किया। जो हुए हैं, होते जाते हैं, वे केवल किनारे की कौड़ियाँ बीतने हैं।' परंतु महाराज, एक ही अनर्थ हो गया।"

"क्या क्या! कहो न! संकोच मत करो! मन खोलकर कहो।"

"अनर्थ यही कि उन महात्माओं की गद्दी को जो आजकल सुशांभित करनेवाले हैं उनमें विद्वान् बिरले हैं। मेरा कथन किसी एक संप्रदाय के लिये नहीं है। हाँ! इन तीर्थगुरुओं की तरह आप के बाद बेटा और बेटे के अनंतर पोता, इस तरह गद्दी पर बैठने का जो पैतृक अधिकार है वही उनके मन का खटका निकाल देता है, वे पढ़ते लिखते कुछ नहीं। वे

यों ही भोले भाइयों से चरण पुजवाते हैं और इसी कारण से जहाँ तहाँ अनेक अनाचार होते हैं।"

"हाँ मैं इस बात को स्वीकार करता हूँ। वास्तव में इस तरह की अविद्या श्रद्धा पर, सनातनधर्म पर कुठार चलानेवाली है। यदि परमेश्वर उन्हें सुबुद्धि दे, किसी तरह उनके दिल में यह भय बना रहे कि विद्वान् और सदाचारी ही गद्दी के पैतृक अधिकार का वास्तविक अधिकारी है तो हिंदू धर्म का बड़ा उपकार हो, क्योंकि अभी तक सर्वसाधारण के हृदय से श्रद्धा नहीं गई है।"

इस तरह बातें करते करते ये लोग झूसी गए। जहाँ महात्माओं के निवास करने की पर्ण-कुटियाँ थीं, जहाँ वन के कंद मूल फल खाकर गंगाजल पान करने की सुविधा थी, वहा अब जंगल कटकर खेतियाँ होने लगीं। गाँव के गाँव बस गए। केवल झूसी पर ही यह दोष क्यों दिया जाय। जहाँ आजकल प्रयाग नगर बस रहा है, जहाँ आजकल युक्त प्रांत की राजधानी है, वहाँ प्राचीन समय में ऋषियों के अश्रम थे। जहाँ आजकल व्यापार से लेन देन से, नैकरी धंदे से रूपए ठनाठन बजते हैं वहाँ किसी दिन ॠषि महर्षि श्रोताओं को उपदेश का धन देते और भक्ति का व्यापार करते थे। जहाँ आजकल कभी कभी दीन दुखियों का हाहाकार सुनाई देता है वहाँ निरंतर वेदध्वनि कर्णकुहरों में प्रवेश कर हृदय को पवित्र किया करती थी। प्राचीन इतिहासों में, पुराणों

में, प्रयागराज की शोभा कुछ इसलिये नहीं है कि वह अच्छा जनपद है। नगर की शोभा यदि देखनी हो तो अयोध्या में मिलेगी। चाहे काल पाकर हजार पाँच सौ या इससे अधिक वर्षों से यहाँ नगर बन गया हो अथवा दारागंज, मुठ्ठोगंज और कीटगंज जैसे अनेक छोटे मोटे गाँयों का मिलकर एक नगर बन गया हो किंतु प्रयाग की शेभा, सच्ची शोभा, भरद्वाज महर्षि के आश्रम से है, जब उस आश्रम में साक्षात् महर्षि-प्रवर निवास करते थे, उनके सहसत्रावधि शिष्य इन पुण्यभूमि में, इस वन में अपनी अपनी कुटियाँ बनाकर रहते थे, बड़े बड़े राजा महाराजा वानप्रस्थ आश्रम का पालन कर उनसे उपदेशामृत का पान करते थे, वन के कंद मूलादि खाकर केवल त्रिवेणी-तोय ने निर्वाह करना ही उनकी जीविका थी। बस झूसी की पर्ण-कुटियों, अधिक नहीं पांच सात झोपड़ियों का दर्शन करते ही पंडितजी की आँखो के सामने यही ऊपर लिखा हुआ दृश्य आ खड़ा हुआ। इन्होंने गौड़बोले से कहा --

"समय के अनुसार आजकाल का दृश्य बुरा नहीं है। अब भी यहाँ अनेक विद्या-मंदिर हैं, और विशाल विशाल प्रसाद हैं, किंतु हाय ! वह पुराना, पुराणप्रसिद्ध दृश्य एकदम भारतवर्ष से लोप हो गया। समय की बलिहारी है! जिस तपोभूमि में ऋषियों के शरीर से मृगशावक अपने सींगों को छुआ छुआकर अपनी खुजली मिटाते थे वहाँ अब इक्के, बग्घी और मोटरों की घरघराहट और "हटो बचो!" की

चिल्लाहट। जहाँ कोकिला का कलरव या वहाँ अब खोमचेवालों की पुकार। जहाँ सत्य के सिवाय झूठ सौगंद खाने को भी नहीं मिलता था वहां अब व्यापार में झूठ, व्यवहार में झूठ ।"

इन लोगों ने एक एक पर्णकुटी के जाकर दर्शन किए। उनमें अच्छे अच्छे योगी भी दिखाई दिए, किंतु त्याग के बदले संग्रह, ब्रह्मानंद के स्थान में गृहत्याग का शोक। बस देखते ही इनका हृदय जल उठ "ऐसे वनवासी से तो गृहस्थ ही अच्छे। घर में रहकर यदि पंचेंद्रिय का निग्रह करें, यदि गृहस्थाश्रम का पालन किया जाय तो इस वन से वह घर हजार दर्जे अच्छा है। "इस तरह कहते हुए जब ये लोग लौटकर गंगातट पर पहुँचे छ एकाएक इनकी दृष्टि एक साधु पर पड़ी। साधु महाराज का भव्य ललाट, काषाय वस्त्र और उनकी कांति के दर्शन करके ये लेकर अवश्य मंत्र-मुग्ध सर्प की तरह निश्चेष्ट, निस्तब्ध होकर टकटकी लगाए, पत्थर की मूर्ति के समान खड़े रहे। साधु कहीं से भिक्षा में दो तीन रोटियां लाया था। उसने उन्हें भगवती के जल में धोकर खाया। खाकर उसने दो तीन अंजुली गंगाजल पिया और तब हाथ धोकर कुल्ली करके वह अपना सिर उठाए किसी विचार में मग्न, कुछ गुनगुनाता हुआ वहाँ से जंगल की ओर चल दिया। बस इनके मनों ने भी साधुजी का पीछा करने की जिद पकड़ी। मन की आज्ञा का वशबर्ती होकर शरीर भी साथ हुआ और इस

तरह ये लोग थक जाने पर भी एक ही नवीन उत्साहित होकर कोई मील डेढ़ मील चलने के अनंतर एक वट वृक्ष के नीचे, जहाँ साधुजी का आसन जम हुआ था, जा पहुँचे। वहाँ जाकर "नमो नारायण!" करने के अनंतर प्रणाम करके महाराज की आज्ञा से ये बैठ गए।


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