आदर्श हिंदू दूसरा भाग
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास, बी.ए.

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ १३ से – २१ तक

 

प्रकरण -- २५
मांसभक्षण

यद्यपि बहुत ही आवश्यकता समझकर पंडितजी ने कांतानाथ को भेज दिया और भेज देने में किया भी अच्छा ही, किंतु इनका मन उसके चले जाने से बड़ा बेचैन हो गया । यह उनका और वह इनका मन मैला नहीं होने देते थे। दोनों मे प्रीति असाधारण थी और इसलिये लोग इन्हें "राम लक्ष्मण की सी जोड़ी" कहा करते थे। इस समय यदि भाई पर विपत्ति है तो उससे चौगुनी इन पर है। यह समझकर इन्होंने भी उसके साथ ही लौट जाना चाहा था किंतु जो काम उठाया उसे चाहे जैसी विपत्ति पड़ने पर भी न छोड़ना, यही इनका सिद्धांत था। इसी के अनुसार इन्होंने किया और जब यह घबड़ाने लगे तब इनकी विपत्ति की संगिनी ने इनको धीरज दिलाकर संतोष कराया। उसने इनको समझा दिया कि --

"चाहे जैसी विपत्ति पड़े, छोटे भैया आपके छोटे भैया हैं। और तार से अनुमान होता है कि देवरानी के चरित्र का मामला है किंतु अभी तक कुछ बिगड़ा नहीं है। वह अवश्य साम, दाम, दंड और भेद से सँभाल लेंगे। आप घबड़ाइए नहीं। और वहाँ काम भी उन्हीं का है फिर आप चलते तब भी क्या कर सकते थे?"

"हाँ! मैं भी मानता हूँ और इस कारण अपने मन को बहुत सँभालने का प्रयत्न करता हूँ परंतु ज्यों ज्यों सँभालता हूँ त्यों त्यों वह मोह में गिरता है। यह मेरे मन की दुर्बलता है। और संसारी बनने के लिये इसे अवतारों तक ने दिखाया है।"

"बेशक! परंतु क्या उन्होंने दृढ़ता नहीं दिखाई है? वे यदि दृढ़ता न दिखाते तो राजा हरिश्चंद्र के विश्वामित्रजी के कोपानल की आहुति बन जाने का अवसर ही क्यों आता? महाराज दशरथ ही विरहानल में क्यों भस्म होते और भगवान् रामचंद्र ही क्यों पिता की आज्ञा से वनवासी बनकर चौदह वर्ष का संकट उठाते? सास के समझाने और पति के आज्ञा देने पर भी हठ करके माता जानकी क्यों भगवान के साथ जातीं? ऐसे अनेक उदाहरण हैं। पुराणों में ऐसे ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिलेंगे। मुझ (मुसकुराकर) गँवारी को अपने ही सुना सुनाकर......"

प्रियंवदा की बात काटकर हँसते हुए -- "पंडितायिन बनाया है और वह पंडितायिन आज एक गँवार को उपदेश देकर पंडित बुला रही है।"

"जाओ जी! (जरा मुँह फेरकर मान दिखाती हुई) आप तो हर बार दिल्लगी कर बैठते हैं! यह हर बार की हँसी अच्छी नहीं।"

"हाँ ठीक तो हैं! आज इस तरह रूठने की भी शिक्षा मिली। ( गाल फुलाकर प्यारी की नकल करते हुए) आज से हम भी इस तरह मान किया करेंगे।"
"मान तो स्त्रियों को ही शोभा देता है।"

"अच्छा मान लो कि मैं आपकी स्त्री ही हूँ।"

"खूब, तब आज से लहँगा पहनकर घर में रहिए।"

"और आप मर्द बनकर लुगाइयों को, नहीं नहीं लोगों को अपने नेत्रों का निशाना बनाते फिरिए।"

"बस बस! बहुत हुई! रहने दो तुम्हारी दिल्लगी। क्या मैं कुलटा हूँ जो लोगों को अपनी आँखों का निशाना बनाती फिरूँगी! क्षमा करो। गाली न दो।"

"नहीं! नाराज न हो। भला (अपनी ओर इशारा करके) इस घँघरिया की क्या ताब जो आप जैसे मर्द को नाराज कर सके! ( अपने हाथ से सज सजकर मर्दाने कपड़े पहनाते हुए) आप मर्द और मैं लुगाई!" कुछ लजाती, तिउरियाँ नचा नचाकर पति को हलके हलके हाथ से घकियाती कपड़ों को हटाती हुई -- "बस साहब, बहुत हुआ! खूब मर्द बनाया! हद हो गई!" कहकर ज्योंही प्रियंवदा ने "आप मुझे आदमी बनाते हो तो मैं भी आपको लहँगा पहना सकती हूँ" कहते हुए खूँटी पर से लहँगा उतारा और नीचे से -- "पंडितजी महाराज! किवाड़ा खेलियो" की आवाज आई। प्रियंवदा सिर पर से केसरिया साफा उतारती हुई कपड़ों को समेटकर भीतर भाग गई और पंडितजी ने गंभीर बनकर कुंडी खेलते हुए "आइए महाराज!" कहकर आनेवाले को गद्दी पर बिठलाया। घर के जो जो आदमी उधर इधर किसी

न किसी काम के लिये बाहर गए हुए थे वे दस मिनट में सब इकट्ठे गए और तब ज्योंही आनेवाले ने "सावधानाभवंतु" कहकर प्रयागमाहात्म्य सुनाने के लिये पुस्तक खेली, भोला कहार सबके बीच में खड़ा होकर बड़बड़ाने लगा --

"ऐसा हत्यारा पंडत! राम! राम!! थू थू! मछली खानेवाला पंडत !" एक गँवार कहार के मुख से एक विद्वान का और सो भी कथाव्यास का अपमान सुनकर पंडित प्रियानाथ को बहुत क्रोध आया। उनका मिजाज लगाम तुड़ाकर यहाँ तक बेकाबू हो गया कि वह भोला को मारने दौड़े। उसने कहा "चाहे आप मारो चाहे काटो पर ऐसे मछली खानेवाले पंडत नहीं होते। हम गँवार कहार भी जब तीर्थों में आकर ऐसा बुरा काम करना छोड़ देते हैं तब यह पंडत होकर ऐसा बुरा कुकर्म हैं! झूठ मानो तो पूछ लो इन पंडतजी से। मैंने अभी इनको मछलियाँ खरीदते हुए देखा हैं।"

इस पर जब प्रियानाथ ने पंडितजी से पुछा तब वह शर्माकर गर्दन नीची झुकाए सिटपिटाकर बाले -- "हाँ महाराज, छिपाने से कुछ लाभ नहीं! हम लोग खाते हैं और शास्त्र में विधि भी है।"

"नहीं! विधि नहीं हो सकती। निषेध है। मनुस्मृति में स्पष्ट है --

"यो यस्य मांसमश्नाति स तन्मांसाद्ध उच्यते।

मत्स्यादः सर्वमांसादस्तम्मान्मत्स्यान्विवर्जयेत्।।

योऽहिलकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेन्छया।
सजीवश्च मृतश्चैव न कचित् सुखमेधते॥
यो दंधनवधक्लेशान्प्राणिनां न चिकीर्षति।
स सर्वस्य हितप्रेप्सुः सुखात्यंतममुते॥
यद्ध्यायति यत्कुरूते धृतिं बध्नाति यत्र च।
तदवाप्नोत्ययत्नेन यो हिनस्ति न किंचन॥
नाऽकृत्वा प्राणिनां हिंसा मांसामुत्पद्यते कचित्।
न च प्राणिवध: स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्॥
समुत्पत्ति च मांसस्य वधबंधौ च देहिनाम्।
असमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात्॥
न भक्षयति यो मांस विधि हित्वा पिशाचवत।
स लोके प्रियता याति व्याधिभिश्च न पीड्यते॥
अनुमंता विशसिता निहंता क्रयविक्रयी।
संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः॥
स्वमांसं परमांसेन यो बर्द्धयितुभिच्छति।
अनभ्यर्च्य पितृन्देवांस्ततोन्यो नास्त्यपुण्यकृत्॥
वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन यो यजेत शातं समाः।
मांलानि च न खादेद्दस्तयो: पुण्यफलं समम्॥
फमूलाशनैर्मेध्वैर्गुन्यजानां च भोजनै:।
न तत्फलमवाप्नोति यन्मांसपरिवर्जनात्॥
मां स भक्षयितामुत्र यस्य मांसमिद्दाम्यहम्।
एतन्मासस्य मांसत्व प्रवदंति मनीषिणः॥

आ० हिं --२ अर्थात -- जो जिसके मांस को भक्षण करता है वह (केवल) उसी का भक्षक कहलाता है किंतु मछली खानेवाले समस्त मांसों के खानेवाले हैं। जे आत्मसुख के लिये प्राणियों का वध करते हैं, उन्हें सताते हैं उनको न तो जीने में सुख मिलता है और न मरने पर स्वर्ग। जो मनुष्य (कभी) किसी प्राणी के बाँधने तथा मार डालने (तक) की इच्छा मात्र भी नहीं करता वह सबका शुभचिंतक है और वही सदा सर्वदा सुख से रहता है। जे मनुष्य कभी किसी प्राणी की हिंसा नहीं करता उसका ईश्वर में ध्यान, शुभ कर्म और सद्धर्म बिना यत्न किए ही सिद्ध हो जाते हैं (क्योंकि धर्म के सद्नुष्ठानों के लिये हिंसा एक बलवान् बाधक है)। प्राणियों की हिंसा किए बिना कदापि मांस नहीं मिल सकता और हिंसा करने से स्वर्ग की प्राप्ति नहीं, इसलिये मांस को छोड़ दो। माँस की उत्पत्ति ही रज-वीर्य से है -- (उस शुक-शाणित से जिसके निकल पड़ने से स्नान की आवश्यकता होती है) -- मांस प्राप्त करने में जीव को बांधना, मारना पड़ता है इस कारण किसी जीव का मांस न खाना चाहिए। जो मनुष्य विधिहीन पिशाच की नाई मांस नहीं खाता है वही जगत का प्यारा है और उसे रोगों की पीड़ा नहीं होती। मांस के लिये सम्मति देनेवाला, प्राणी के अंगों के काटनेवाला, उसका वध करनेवाला, उसे बेचने और खरीदनेवाला, उसे पकानेवाला, चुरानेवाला और खानेवाला ये सब मारनेवाले के समान हैं। जो मनुष्य यज्ञादि के

बिना पराए मांस से अपने मांस को बढ़ाता है उसके खमाल कोई पापी नहीं है। जो प्रति वर्ष अश्वमेघ यज्ञ करता हुआ सौ अश्वमेघ कर जाता है और उससे जो पुण्य होता है वह पुण्य मांस न खानेवाले के पुण्य से बढ़कर नहीं है। पवित्र कंद मूल फल के खाने से, शुद्ध मुनियों के अन्न का भोजन करने से जो पुण्य होता है वही मांस न खाने से। जिस किसी प्राणी का मांस इस लोक में खाया जाता है वही प्राणी परलोक में उस भक्षक का मांस खाता है, यही मनीषियों की आज्ञा है। समझे महाराज !"

"हाँ धर्मावतार! समझा, परंतु आपके प्रमाणों में भी तो यज्ञ की विधि है।"

"बेशक विधि है किंतु प्रथम तो उन्हीं में देखिए अश्वमेघ से बढ़कर कोई यज्ञ नहीं और सो भी सौ अश्वमेध। सौ अश्वमेध के कर्ता इंद्र से भी बढ़कर मांसत्यागी बतलाया गया है, फिर आपको जहाँ विधि के वचन दिखालाई देते हैं वहाँ भी निषेध से ही तात्पर्य है क्योंकि 'न नौ मन तेल होगा और न बीबी नाचेंगी!' श्रीमद्भागवत के एकादश स्कंद में यह बात स्पष्ट कर दी है। जैसे --

"लोके व्यवायामिषमद्यसेवा नित्यास्ति जंतोर्नहि तत्र चोदना।

व्यवस्थितिस्तेषु विवाहयज्ञसुराग्रहैरासु निवृत्तिरिष्टा॥"

अर्थात् -- संसार में स्त्री-संग, मांस, मदिरा -- इनकी ओर स्वभाव से प्रवृत्ति है। यह धर्म नहीं है किंतु अधर्म समझ.

कर ही उसे रोकने के लिये विवाह, यज्ञ और सुराग्रह में उनके लिये व्यवस्था की गई है। क्यों महाराज! अब तो ध्यान में आया?"

"आया यजमान? आया!!"

"अच्छा खैर! यदि थोड़ी देर के लिये यह भी मान लिया जाय कि आप लोगों के लिये धर्मशास्त्रकारों ने विधि दे दी है तो क्या जिनका मांस आप लोग खाते हैं उन्हें कष्ट नहीं होता। आप उनसे बलवान् हैं इसलिये, क्षमा कीजिए, आप उन्हें मार खाते हैं। भला आपसे अधिक बलवान् सिंह व्याघ्रादि यदि आपको खा जायँ तो आपको मंजूर है अथवा नहीं?" ऐसा कहते कहते प्रियानाथजी ने उनके पैर में जरा सी सुई चुभोई। दर्द होते ही कथाभट्टजी उछल पड़े। "हैं! हैं! यजमान! यह क्या करते हो?" कहकर वह "सी सी सी सी!" करने लगे और तब फिर पंडित प्रियानिथजी बोले -- "क्यों आप तो इस जरा सी सुई की जरा सी नोक चुभते ही सी सी करने लगे और जिन बिचारों का मांस खाया जाता है उनका प्राण लेने में भी आपको दया नहीं! राम राम!!"

"हाँ धर्मावतार सत्य है! वास्तव में आपने मुझे बड़ा उपदेश दिया । मैं आज भगवती भागीरथी को, तीर्थराज प्रयाग को और ब्राह्मण विद्वान् को साक्षी कराकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि आज से कभी, प्राण-संकट पड़ने पर भी, ऐसी वस्तुओं का ग्रहण नहीं करूँगा और अब तक जो किया उसके लिये

पश्चात्ताप करूँगा। भगवती से नित्य प्रार्थना करूँगा और शास्त्र-विधि से प्रायश्चित्त करूँगा।"

"धन्य महाराज! आप वास्तव में सज्जन हैं। आपकी प्रथम सज्जनता तो इसी में है कि आपने इस कार्य को स्वीकार कर लिया क्योंकि जो मांस मछली खानेवाले हैं उनमें से अधि- कांश जानते हैं कि यह काम बुरा है। बुरा समझकर भी जीभ के लालच से करते हैं और लोकलज्जा से उसे छिपाते हैं। फिर आपने मेरी सम्मति मानकर बड़ा उपकार किया।"

गौड़बोले में इनकी बात का अनुमोदन किया और फिर कथा आरंभ होकर समाप्ति के बाद उन पंडितजी ने घर जाकर अपनी प्रतिज्ञा का पालन किया।


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