आदर्श हिंदू २/२७ सतयुग का समा

[ ३४ ]

प्रकरण--२७
सतयुग का समा

गत प्रकरण में स्वामी महाराज की आँख का इशारा पाकर हमारी यात्रा-पार्टी बैठ अवश्य गई और हाथ जोड़े बैठी रही, किंतु उधर साधु बाबा मौन और इधर ये लोग चुपचाप। उनकी तपस्या का, उनकी कांति का और उनके आतंक का तेज देखकर जब ये लोग उनसे धुन मिलाने में ही असमर्थ हैं तब बोलना कैसा! जब जब ये उनकी ओर आँखें उठाकर देखते हैं तब ही तब इनके नेत्र झेंप जाते हैं। ज्येष्ठ के सूर्य की प्रखर किरणों में से जैसे तेज बरसा करता है, शरद के विमल चंद्रमा में से जैसे अमृतवर्षा होती है, वैसे ही इनके नेत्र मंडलों की एक अद्भुत ज्योति अपना प्रभाव बरसा बरसा- कर इन लोगों के हृदय में अलौकिक आनंद उत्पन्न कर रही है। इस तरह निश्चेष्ट, निस्तब्ध देखकर, किसी का भी अपने ऊपर लक्ष न पाकर प्रियंवदा के नेत्रों ने प्रियानाथ को लोचनों से झेंपते झेंपते, लजाते लजाते इतना अवश्य कह दिया -- "वे ही हैं!" पंडित जी की आंखों ने -- "हाँ वे ही हैं" कहकर अनु- सोदन भी कर दिया। किंतु सचमुच ही यहाँ कम से कम आधे घंटे तक बिलकुल मूकराज्य रहा, सन्नाटा छाया रहा। और यदि वट वृक्ष की ओट में से कोई उस चुप्पी को तोड़ने-
[ ३५ ]
वाला न मिलता है। शायद दिल निकलकर रात्रि भी योही निकल जाती, क्योंकि न तो इन लोगों की यही इच्छा होती थी कि "चलें आप देरी बहुत हो गई।" और न किसी का उस चुप्पाचुप्पी को तोड़ने का हियाब था।

अस्तु! वृक्ष की ओट में से दूसरा साधु बोला -- मौनी बाबा हैं। अपने अपने घर जाओ। इनको सताओ मत। तुम्हें जो कुछ प्रश्न करना हो काशी के वरुणासंगम की गुफा में इनके गुरु महाराज से करना। चले जायेा।" यह कहकर वह चल दिया। पहले वह धीरे धीरे चला और फिर इन लोगों को देखकर मानो उसने किसी को पहचान लिया हो, ऐसी मुद्रा दिखाई और त आँख फड़कने के साथ ही वह कर यह गया! बह गया!! हवा हो गया! जैसे उसने इनको पहचानना वैसे ही इनमें से भी दो जनों ने उसे पहचाना। बूढ़ा भगवानदास बोला -- "हाय! हाय! हाथ आया हुआ गया।" और प्रियंवदा नै --"वही है! हाँ वही!! का इशारा करके पति को समझाने का प्रयत्न किया। पति राम समझे या नहीं, सो नहीं कहा जा सकता परंतु ये लोग जब महाराज के आगे साष्टांग प्रणाम करके गंगातीर आए तब इन्होंने दूर से देखा कि उस भागनेवाले साधु को चार आदमी बाँधे लिए आ रहे हैं और वह उनसे हाथ जोड़कर, चिरौरी करके हाहा खाकर कहता जाता है -- "मैं तुम्हारी गौ हूँ। मुझे छोड़ दो ।"किंतु लानेवाले मानो उसकी खुशामद पर काम
[ ३६ ]
ही नहीं होते और जब वह छुटकार पाने के लिये मचल जाता है तब "वाह, कैसे छोड़ दें ? गहरा इनाम मिलेगा।" कहकर उसे घसीटने लगते हैं। खैर! घसीटते हैं तो घसीटने दीजिए। जब उसे घसीटते घसीटते वे चारों दूर ले गए, जब देखते देखते वे आखों से गायब हो गए, जय बहुत जोर मारने पर भी नेत्र-हरकारों ने उनका पीछा करने से जवाब दे दिया तब उसका पता पाने का चारा ही कया है? और इस समय जब उनका पता लगाना बन हो नहीं सकता तब बूढ़े भगवान् दास और प्रियंवदा के हृद्गत भावों को यहाँ प्रकाशित करना भी किस्से का मजा किरकिरा कर देना है। हा! इतना यहाँ लिख देना चाहिए कि वह मौनी बाबा, कांतानाथ के श्वसुर पंडित बृदावनविहारी थे और तार के साथ जो पर्चा छोटे भैया का मिला था वह इन्हीं का लिखा हुआ था। जो बात तार में थी वही शब्दों की कुछ अदल बदल के सिवाय पर्चे में थी। इसलिये उसकी नकल प्रकाशित करने से कुछ लाभ नहीं।

हमारी यात्रापार्टी आज नित्य की अपेक्षा अधिक मंजिल मारने और भोजन में अतिकाल हो जाने से लड़खड़ा गई थी। इसलिये सब के सब खा पीकर पड़ रहे और ऐसे पड़े कि जब तक प्रात:काल के टनाटन पाच न बजे इन्होंने करवट तक न बदली। "ओहो, बड़ा विलंब हो गया!" कहकर पंडितजी जगे। उनके साथ ही और सब जागे और तब नित्यकृत से निवृत्त होकर नित्य के समान ये लेाग चल दिए। [ ३७ ]आज इनका दौरा किले के लिये था। वहाँ जाकर इन्होंने दुर्ग की छटा देखी जिसे प्रकाशित करने से तो इस उपन्यास कर लगाव नहीं। हा! अक्षयबट की गुहा में पहले जो घोर अंधकार रहता था और इस कारण वहाँ के पंडे यात्रियों से से गनमना ऐंठते थे, पवन के अभाव से दिन दहाड़े अंधकार में दक्ष घुट घुटकर जो यात्री दु:ख पाते थे उन पर कृपा करके बगवर्मेंट ने जब वहाँ प्रकाश पहुँचाने का अच्छा प्रबंध कर दिया तो अवश्य ही धन्यवाद का काम किया। पंडों ने आज इनसे भी बहुत धींगाभस्ती मचाई। पहले इन्हें जाने ही से रोका और फिर माँग मूँग में इन्हें तंग कर डाला। खैर, जैसे तैसे ये लोग भीतर पहुँचे।

भीतर जाने के अनंतर वहाँ का दृश्य देखकर इन लोगों के मन में जो भाव उत्पन्न हुए अन्डका निष्कर्ष यह है। पंडितजी बोले --

"इस अक्षयवट के (प्रणाम करके) लोग अनादि काल का बतलाते हैं। होगा। हम प्राचीन बातों की खोज करनेवाले "ऐंटीक्वेरियन" नहीं जो इस बात की तलाश के लिये सिर मारते फिरे! यदि यह हजार दो हजार अथवा लाख वर्षों का निकल आवे तो अच्छी बात है। अनजान आदमियों की भक्ति चमत्कार से होती है किंतु हम मूर्ति में चमत्कार देखने की आवश्यकता नहीं समझते। मूर्ति जिसके लिये निर्माण की जाय उसके गुणों की याद दिलाने का वह साधन है। परमेश्वर चाहे साकार हो अथवा निराकार, वह तो जैसे अधिकारी
[ ३८ ]
के लिये तैसा ही है। हमारे विचार से तो साकार है और साकार होना अनेक युक्ति प्रमाणों से सिद्ध है, किंतु यदि निराकार भी हो तो जब तक उसे साकार बनाकर उनकी मूर्ति आँखों के सामने खड़ी न की जाय तब तक वह ध्यान में नहीं आ सकता, कदापि नहीं आ सकता। जो निराकार है, जिसके हाथ पैर ही नहीं, उसका ध्यान में आधे ही क्या? वह आज इस अक्षयवट के दर्शन होते ही (फिर प्रणाम करके) सतयुग का समा नेत्रों के सामने आ खड़ा हुआ। यह हमारे चर्म्मचक्षुओं से बटवृक्ष का ठुंठ ही क्यों न दिखलाई दे किंतु यह कह रहा है कि "यदि युगधर्म ने मेरे पत्र फलादि, शाखा प्रशाखादि नष्ट कर डाले हैं तो कुछ चिता नहीं! तुक डरो मत। मैं ही सनातनधर्म की मूर्ति हूँ। यदि तुम बराबर मेरी सेवा करके मेरा नाम मात्र भी रख सकोगे तो भगवान् कल्कि के अवतार लेने पर प्यारा सनातनधर्म जैसे अपनी पूर्व स्थिति को पहुँच जायगा वैसे ही मैं भी हरा भरा हो जाऊँगा।"

"हाँ! यथार्थ है, परंतु महाराज! (हाथ पकड़कर दिखाता हुआ) देखो तो सही प्राचीन ऋषि मुनियों की, देवताओं की सभा! सबके मन इस स्थान पर इकठ्ठे होकर मानों हिंदू धर्म के होनहार पर विचार कर रहे हैं। आज जिनकी मूर्तियाँ दर्शन दे रही हैं किसी दिन वे स्वयं इसी त्रिवेणी तीर पर इकट्टे होकर उपदेशामृत की, धर्मामृत्त की वर्षा करते थे। क्यों! इनके दर्शनों से वही भाव मन में पैदा होता
[ ३९ ]
है वा नहीं? यदि उत्पन्न होता है तो अपने मन की पट्टी पर विचार की लेखनी से प्राचीन दृश्य का चित्र तैयार करो। वह चित्र अमिट होगा और ज्योंही तुम्हारी शक्ति अमिट हुई अपना उद्धार समझो, क्योंकि विचारशक्ति की विमलता दृढ़ता और दूरदर्शिता ही ईश्वर के चरणों में पहुँचा देने का पुष्पक विमान है। शस्त्र के बल से नहीं, धन की ताकत से नहीं, सेना के समुदाय से नहीं, शरीर की सामर्थ्य से नहीं, विचार शक्ति से, केवल "विल पावर" से आदमी इंद्र के सिंहासन डिगा देता है । भारत के, विलायत के, जिन महानुभावों के हाथ से संसार का उपकार हुआ है, केवल उनकी इसी शक्ति से। इस शक्ति के साथ मंत्रों का बल है और यही प्राचीन समय के अस्त्र हैं। सार्वभौम परीक्षित के पुत्र जनमेजय के सर्पयज्ञ में तक्षक को लिए हुए इंद्र का सिंहासन केवल इसी से यज्ञभूमि के ऊपर आ लटका था।"

'बेशक, ठीक हैं, परंतु देखिए न! इधर इधर! दहनी और! भगवान् यमराज की मूति! अहा, कैसी भयानक है! जब मूर्ति के दर्शन करने ही पर शरीर में कँपकँपी होती है तब यदि प्रत्यक्ष दर्शन हो जाय तो, ओ हो! क्रोध से नेत्र फैल फैलकर निकले पड़ रहे हैं। महाराज की सवारी का भैंसा भयभीत होकर आगे बढ़ने के बदले पीछे को हटा रहा है। एक हाथ में कालपाश है और दूसरे में खड्ग। मानों इस पाश से पापी को बाँधकर इस खड्ग से उसकी गर्दन भारी
[ ४० ]
जायगी। इसी लिये खड्ग ऊँचे के उठाया जा रह है। परंतु आज इतना कोप किस पर है? एक छोटे से बालक पर! ब्राह्मण बटु पर! जिस आतंक से भयभीत होकर बड़े बड़े भी काँपा करते हैं उसक एक बालक पर, निरे बालक पर, इतना क्रोध? ओ हो! अच्छी कथा याद आ गई। यह बालक ही महर्षि मार्कडेय हैं, बड़ ढीठ है। बालक क्यों है। भगवान् शङ्कर की मूर्ति से लिपटकर इसमें यमराज के भी अधिक बल आ गया। अवश्य आज ऐसा ही बल है। बल है तब ही तो उस यमराज की ओर, जिसके दर्शन से ब्रह्मादिक देवता तक घबड़ाते हैं, आज देख देखकर हँस रहा है, हँस क्या रहा है मानों चिढ़ा रहा है। कह रहा है कि अब मैं जगत् के कल्याण करनेवाले भगवान् शंकर की शरण में हूँ। एक महर्षि के वरदान से मैं सात दिन, मनुष्य के नहीं, ब्रह्माजी के सात दिन सात सौ चतुर्युगियों तक अमर हूँ। आप मेरा बाल भी बाँका नहीं कर सकते।"

"वाह! शरणागत-वत्सलता का कैसा ज्वलंत उदाहरण है। ब्राह्मणों की शक्ति का सर्वोत्कृष्ट प्रमाण! एक वह समय था जब ब्राह्मणों में अपने तपोबल से, अपने सदाचार के बल से, और अपनी मानसिक शक्ति से यमराज की आज्ञा तक उलट देने की क्षमता थी। यदि ब्राह्मण निर्लोभ होकर, सदाचारी बनकर अब भी केवल कंदमूलादि से निर्वाह करता हुआ तपश्चर्या करे तो उसके लिये वैसी शक्ति आना कुछ दूर नहीं,
[ ४१ ]
और जातियों की अपेक्षा निकट हैं, क्योंकि उसके अंत:कारण में अपने पुरूषों की उस अनंत शक्ति का लेश है। उस बीज में अंकुर लगकर बड़ा वृक्ष बन सकता है।"

"परंतु देखिए। इस कथा ने यह स्पष्ट कर दिया कि जिनमें शापानुग्रह करने की सामर्थ्य थी वे भी परमेश्वर के नियम का परिवर्तन ई कर सकते थे। उस ब्राह्मण शरीर के आशीर्वाद से मार्कडेय की आयु मनुष्य के सात दिन में ब्रह्मा के सात दिन की हो गई, किंतु रहे सात के सात ही।"

"हाँ! अवश्य!" कहकर गैड़बोले महाशय ने यह संवाद समाप्त किया और यों इनके मुकाम र पहुँचने के साथ ही, एक सप्ताह में प्रयाग की यात्रा भी समाप्त हो गई। यहाँ आकर इन लोगों ने भोजनादि से निवृत्त होकर अपना असबाब बाँधा। बाँध बाँधकर जिस समय स्टेशन पर जाने के लिये गाड़ियों में सामान लादा जा रहा था उसी समय त्रिवेणी-तट का यात्री पूछता पूछता पंडितजी से मिलने के लिये आया। पंडितजी ने उसे अवश्य परदेशी समझ लिया था किन्तु था वह वहीं का तीर्थगुरु ब्राह्मण। उसका नाम था नारायण। बस नारायण से पंडितजी की जो बातचीत हुई उसका सार यह है --

"तीर्थ के भिखारियों की दशा देखकर यहाँ एक दीनशाला खोलने की आवश्यकता जान पड़ती है। केवल यहीं थे प्रत्येक तीर्थ में। ऐसा करने से जो वास्तव में दीन हैं
[ ४२ ]
उनका भले प्रकार भरण पोषण हो जायगा और जो वनावटी हैं वे लज्जित होकर काम धंधे में लगेंगे यों यात्रियों का भी पिंड छूट सकता हैं। वे तीर्थ पर आकर दान अवश्य करें, यथाशक्ति करते ही हैं, परंतु उसके द्वारा करने से उन्हें भी आराम मिलेगा। तीर्थगुरूयों से बालकों की शिक्षा के लिये जो पाठशाला है उसमें मेरी और से (नोट देकर) यह आप जमा कर दीजिए। पाठशाला ऊँचे पाए पर स्थापित होनी चाहिए। बैलों और मछलियों की दुर्दशा पर प्रयाग में आंदोलन कीजिए। सबसे बढ़कर उपाय यही है कि जो धर्मसभा यहाँ की अस्त हो गई है। उसका फिर से उदय हो। राजभक्ति का उसका मुख्य उद्देश्य है और रहना भी चाहिए। यदि धर्मसभा के प्राचीन मेंबरों को फिर जागृत किया जाय तो सब ही दुर्लभ कार्य सुगम और सरल हो सकते हैं।"

"हाँ ऐसा ही होगा!" कहकर नारायणप्रसाद अपने घर गए और ये लोग गाड़ियों पर सवार होकर प्रयाग के रेलवे स्टेशन पर जा पहुँचे ।"


----------