आदर्श हिंदू २/२४ प्रयाग के भिखारी

आदर्श हिंदू दूसरा भाग
मेहता लज्जाराम शर्मा, संपादक श्यामसुंदर दास, बी.ए.

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ १ से – १२ तक

 



आदर्श हिंदू

दूसरा भाग

प्रकरण--२४
प्रयाग के भिखारी

इक्कीसवें प्रकरण के अंत में उस अपरिचित यात्री के साथ पंडित प्रियानाथ ने जाकर देखा। उन्होंने अपनी आँखों से देख लिया, खूब निश्चय करके जान लिया और अच्छी तरह जिरह के सवाल करके निर्णय कर लिया कि उस नादिया का पाचवाँ पैर जो कंधे के पास लटक रहा था वह सरासर बनावटी था। पीछे से जोड़ा गया था। जो असाधु साधु बन- कर, नंदिकेश्वर का पुजापा लेता फिरता था वह वास्तव में हिंदू नहीं था। जब पंडितजी ने खूब खोद खोदकर उससे पूछा तब उसने साफ साफ कह दिया कि "महाराज, ये तो पेटभरौती के धंदे हैं।" इन्होंने इस बात के लिये जो जो परीक्षाएँ की उनमें एक यह भी थी कि जब उस नादिया के और और अंगों में सुई चुभो दी गई तब वह लात फटकारकर सिर हिलाकर मारने को दौड़ा किंतु जब पाँचवें पैर की पारी आई तब चुप। पंडितजी का उस नंदिकेश्वर के दुःखों पर दया आई, हिंदूप्रयाग की ऐसी गिरी हुई दशा देखकर उनका हृदय एकदम काँप उठा। देश में इस तरह की ठगी का, धर्म के नाम पर अधर्म का, घोर कुकर्म का दृश्य उनकी आँखों के सामने आ खड़ा हुआ। बस इनकी आँखों में अनायास आँसू आ गए। इनका साथी देश के दुर्भाग्य, पर जब सरकार के दोष देने लगा तब यह बीच में उसकी बात काटकर बोले --

"नहीं! इसमें गवर्मेट का बिलकुल दोष नहीं। वह विदेशी है। वह यदि ऐसे कामों में हाथ डाले तो लोग चिल्ला उठेंगे। उसने प्रत्येक मत मतांतरवालों को अपने अपने धर्म के कामों में स्वतंत्रता दे दी है। इसके सिवाय वह कुछ नहीं कर सकती। इसमें विशेष दोष भोले हिंदुओं का है जो बिना निश्चय किए ऐसे ऐसे ठगों के साधु मानकर उन्हें पूजते हैं, जरा से झूठमूठ चमत्कार से सिद्ध मान बैठते हैं। किसी हिंदू राजा को यदि कोई सुझा दे, यदि उसमें भी परमेश्वर की दया से सुबुद्धि हो ते ऐसे ऐसे धूर्तों को उसके यहाँ से सजा अवश्य मिल सकती हैं। क्योंकि वह जैसे प्रजा का स्वामी हैं वैसे प्रजा के धर्म का भी रक्षक हैं। जैसे बूँदी के वृद्ध महाराज ने उभयमुखी गायों का अनर्थ बंद करवा दिया। और सबसे बढ़कर यह है कि यदि थेड़ा सा भी परिश्रम उठाकर भोले हिंदू ऐसे ठगों की ठगई का निश्चय किए बिना देना बंद कर दें तो सहज में उपाय हो सकता है।" "हाँ महाराज ! ठीक है, परंतु यहाँ एक और भी अनर्थ होता है। भगवती भागीरथी के पुण्य सलिल में मछलियाँ मारी जाती हैं। ( दूर से लटकती हुई जाल दिखलाकर) यह देखो प्रत्यक्ष प्रमाण। अच्छा अच्छा! अभी मैं आपको जाल डालते हुए भी दिखालाए देता हूँ। चढ़ो बाँध पर और लो यह दूरबीन।

"हाँ! हाँ!! दिखालाई देने लगा। (बाँध पर खड़े होकर दूरबीन लगाने के अनंतर) खूब दिखलाई देता है। राम राम! अनर्थ हो गया! पुण्यसलिला गंगा में यह पाप! और प्रायगी हिंदू इसका कुछ प्रयत्न नहीं करते?"

"बिलकुल उदासीन हैं। मैंने कई लोगों से कहा, पंडों को खुब समझाया किंतु वहाँ के बहुत आदमी जब इसे खानेवाले हैं तब वे ऐसा उद्दोग क्यों करने लगे? महाराज, मैं नहीं कहता कि मछली पकड़ना बिलकुल ही बंद कर दिया जाय। ऐसी सलाह देने का न तो समय है और न कोई अधिकारी है। किंतु मेरा कथन यह है कि कम से कम प्रयाग, प्रयाग की हद में, तीर्थों की सीमा में तो यह काम बंद कर दिया जाय। किंतु जब कहा जाता है तब लोग इस बात को मंजूर ही नहीं करते कि मछलियाँ मारी जाती हैं। सुना है कि कुछ लोगों ने उद्योग करके यमुनाजी के हिंदू घाटों पर इसे बंद भी किया हैं।"

"परंतु क्यों साहब! क्या यहां के बहुत आदमी मछलियाँ खानेवाले हैं?"
"हाँ जनाब! बड़े बड़े पंडित! पोथाधारी!"

"राम राम! बड़ा अनर्थ हो गया! फटे कपड़े में पैबंद लग सकता है किंतु फटे आकाश में कौन लगा सके? हाय! हाय!!"

इस तरह की बातें करते करते, इस काम के लिये नीच ऊँच सोचकर सलाह करते करते ये दोनों वहाँ से चलाकर फिर त्रिवेणी-तट पर, संगम पर आ पहुँचे। आए और बहुत ही उदास होकर दुःखित होकर आए। भाई ने और प्रियंवदा ने जब उनसे बहुत आग्रह के साथ पूछा तब उन्होंने आँखों में से आँसू डालकर केवल इतना कहा कि --

"यह वही पुण्यभूमि और यह वही पुण्यसलिला है, यह वही तीर्थ, नहीं तीर्थों का राजा है जिसके विषय में (तुलसी- कृत रामायण में) भगवान् मर्यादापुरुषोत्तम रामचंद्रजी के प्रयाग पहुँचने पर कहा गया है --

चौपाई--"प्रात प्रातकृत करि रघुराई।
तीरथराज दीख प्रभु जाई॥
सचिव सत्य श्रद्धा प्रिय नारी।
माधव सरिस मीत हितकारी॥
चारि पदारथ भरा भँडारू।
पुण्य प्रदेश देश अति चारू॥
क्षेत्र अगम गढ़ गाढ़ सुहावा।
सपनेहुँ नहिं प्रतिपच्छिन पावा॥

सेन सकल तीरथ वर वीरा।
कलुप अनीश, दलन रणधीरा॥
संगम सिंहासन सुठि सोहा।
छत्र अक्षयबट मुनि मन मोहा॥
चमर जनमुन अरु गंग तरंगा।
देखि होंहिं दुख दारिद भंगा॥

दोहा -- सेवहिं सुकृती साधु सुचि, पावहिं सब मन काम।

बंदी वेद पुराण गण, कहहिं विमल गुण ग्राम॥

चौपाई -- को काहि सकै प्रयाग प्रभाऊ।
कलुप पुंज कुंजार मृगराऊ॥
अस तीरथपति देखि सुहावा।
सुखसागर रघुबर सुख पावा।"

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आज इसी तीर्थराज में ऐसा घोर अनर्थ हो रहा है। इतने दिन सुन सुनकर हृदय काँपा करता था। जिस बात को कानों से सुना था उसे आज आँखों से देख लिया। देख- कर कलेजा दहल उठा। उसने जगह छोड़ दी। हाय! बड़ा गजब है। अब तक वह तस्वीर मेरी आँखों के सामने है।"

पंडितजी की इस तरह घबड़ाइट देखकर गृहिणी ने, भाई ने और गौड़बोले ने समय की महिमा, युग का धर्म बतलाकर उनका प्रबोध किया और इस तरह जब इन लोगों में धर्म का आंदोलन हो रहा था तब एकदम भिखारियों के

टोले के टोले ने आ हलचल मचाई। समुद्र की हिलेरे तूफान के समय जैसे आ आकर किनारे से टकराती हैं, छत्ते की बर्रे जैसे उड़ उड़कर आदमी पर टूट पड़ती हैं अथवा मारवाड़ की रेत जैसे टीले के टीले उड़ उड़कर आदमी पर गिरती और ढाँक लेती है उसी तरह इनको घेरा। किंतु लहरें जैसे किनारे से ले जाकर आदमी को फिर भी किनारे पर ही ला डालती हैं, रेत भी जैसे उड़कर आती हैं वैसे हवा के झोंके से उड़कर चली भी जाती है परंतु छत्ते की बर्रे एक बार आदमी को घेरने पर भी नहीं छोड़तों, स्थल में नहीं छोड़तीं और जल में नहीं छोड़तीं, यदि उनसे बचने के लिये पानी में गोता लगाया तो क्या हुआ वे जानती हैं कि अभी ऊपर सिर निकलेगा। बस इस कारण वहाँ की वहाँ ही मँडराती रहती हैं। सिर निकालते ही माथे में डंक मार मारकर काटने लगती हैं। बस यही दशा इन लोगों की हुई। मथुरा की घटना याद करके, प्रयाग का दृश्य देखकर ये सारे भागकर अपनी जान बचाने के लिये नाव पर चढ़े। कमर कमर पानी तक किनारे किनारे चलकर आधी मील तक उन लोगों ने इनका पीछा किया और जब इन्होंने अपनी जान बचाने के लिये उनको कुछ भी न दिया तब वे गालियाँ देते लौट गए।

पहले इनकी यह इच्छा हुई थी कि भोला के इस काम पर नियत कर चलें परंतु उस बिचारे के कपड़े बचने कठिन

थे, उसकी जान बन्धना मुशकिल था, बस इसलिये इन्होंने ग्रथाश्रद्धा गुरुजी को देकर उनसे खूब ताकीद कर दी कि --

"जो संडे मुसंडे हैं, हट्टे झट्टे हैं, जो और तरह से अपनी जीविका चला सकते हैं उन लोगों तक को देना हमारी सामर्थ्य से बाहर है। आपके यहां अनेक राजा, महाराजा, लखपती, करोड़पती आते हैं और उन्हें देते ही हैं। जब गरीबों की जीविका के मार्ग बंद होते जाते हैं, जब प्रजा को पाप से अकाल पर अकाल पड़ते हैं तब जब तक उनकी स्वतंत्र जीविका के नए नए मार्ग खोलकर उन्हें न लगाया जाय तब तक मैं इन्ह लेगों को देनेवालों की निंदा नहीं करता, जीबिकाहीन होकर यदि ये बिचारे भिक्षा न माँगें तो करें क्या? परंतु मुझ जैसे आदमी की ऐसों को देने की सामर्थ्य नहीं। और हाँ! जब प्रयाग की, भारतवर्ष की सब ही जातियाँ भिखारी बन रही हैं तब इन लोगों का भरण पोषण करना भी जरा टेढ़ी खीर है। इन लोगों ने संतोष छोड़कर, भगवान् का भरोसा छोड़कर, यात्रियों की श्रद्धा का सचमुच खून कर डाला। यदि इनकी कोई स्वतंत्र जीविका का शीघ्र ही प्रबंध न किया जायगा तो यात्रियों का आना कम हो जायगा, भगवान् न करे, किसी दिन बंद हो जाय। क्योकि घर पर धर्म की शिक्षा के अभाव से श्रद्धा का बीज प्रथम तो ऊसर भूमि की तरह कोंपल ही नहीं देता, फिर यदि दैवसंयेाग से कोंपल फूट भी आई तो आजकल की दूषित शिक्षा

का खारा जल उसे जन्मते ही, निकालते ही नष्ट कर डालता है और जो कहीं अच्छे संस्कार ले कुछ बढ़ गया तो ऐसे ऐसे वंचकों का पाला उसका सर्वनाश कर डालता है।"

"हाँ यजमान, आपका कहना सच है। घर पर अब इन लोगों कों न दिया जाय ते यह आपकी रकम किनके लिये है?"

"गुरूजी महाराज, इनको भँजाकर उन दीन दुखियों को दीजिए जो सचमुच पेट पालने में असमर्थ हैं! वह देखिए (नाव में बैठे बैठे अँगुली से दिखलाकर) किनारे पर पड़े पड़े लूले, लँगड़े, अंधे, टुंडे और कोढ़ी कराह रहे हैं। हाय! उनकी दुर्दशा देखकर मेरा दिल चूरमूर हुआ जाता है। देखो! देखो! (भाई को दिखाकर ) उनके शरीर में से रक्त बह रहा हैं। हाथ पैर गल गए हैं! ( स्त्री की ओर सैन कर हुए) ओ हो! उनकी आँतें भूख के मारे बैठी जाती हैं। हाय! हाय!! वह नन्हा सा बच्चा बिलख बिलखकर रो रहा है। उनके दो, महाराज! (गुरूजी के पुकारकर ) उन्हें दो। इन लफंगों के उन विचारों के भी पेट काट दिए। इन लोगों के मारे उनकी ताब ही कहाँ है जो किसी के पास जाकर मांगें?"

"अच्छा यजमान, ऐसा ही होगा, परंतु हमारी दक्षिणा और ब्राह्मणभोजन, ये दो बातें रह गई।"

"रह गई तो कुछ चिंता नहीं। (कुछ देकर) यह लीजिए। इसमें आधे में आपकी दक्षिणा, अपके लिये भोजन

और आधे में ब्राह्मणभोजन करा दीजिए। परंतु इतना याद रखिए, विलायती चीनी का कोई पदार्थ न हो। विलायती खाँड़ खाना तो क्या वह स्पर्श करने योग्य भी नहीं है। वह, राम राम! थू थू!! बहुत ही घृणित वस्तु से साफ की जाती है।

"हाँ यजमान! ऐसा ही होगा। जो देशी चीनी की मिठाई भ,भरोसे की दुकान पर न मिली तो कभी बनावाकर खिलाई जायगी। गुड़ की चीजें?"

"बेशक ठीक हैं, परंतु ब्राह्मण पात्र तलाश करना। पढ़े लिखे विद्वान्! और विद्वान् न मिलें ते संस्कृत के विद्यार्थी। क्यों समझ गए ना? अब पाप पुण्य तुम्हारे सिर है।"

"हाँ हाँ! मेरे सिर।" कहकर इधर गुरूजी छलाँग भरते अपने तख्त पर आ डटे और मल्लाहों ने उधर डाँड़ खेकर इनकी नाव चलाई। इस तरह जब ये लेग सब ही कामों से निश्चिंत हो गए तब इन्हें पेटपूजा की सूझ पड़ी। नाव में रखे हुए खाने के पदार्थ सँभाले तो उनमें विलायती चीनी का संदेह। बस आज्ञा दी गई कि तुरंत यमुनाजी में डाल दिए जायँ। बस मिठाई मिठाई सब डाल देने बाद इन्होने केवल केले, सेब, अमरूद, नारंगी पर गुजारा किया और भोला, भगवान, चमेली, गोपीबल्लभ ने खूब डटकर पूरी तरकारी उड़ाई। किंतु खाते खाते ही जब इनकी निगाह किनारे पर कोई आधी मील की लंबाई में सूखती हुई मछलियाँ पकड़ने की जाल पर पड़ी तो इनका मन, सब खाया पीया

राख हो गया। नाव मे बैठे बैठे इधर उधर की बात चलते चलते मल्लाह गहरे पानी में से रुपया निकाल लाने पर तैयार हुए। पंडितजी के नाहीं करते करते भोला ने अपनी टेंट में से निकालकर एक जयपुरी झाडशाही रुपया पानी में डाला और तुरंत ही गोता लगाकर उसे मल्लाह निकाल लाया। पंडितजी ने इस पर भोंदू मल्लाह की बहुत प्रशंसा की और उसे इनाम देकर प्रसन्न भी कर दिया किंतु भोला को झिड़का अवश्य।

खैर, नाव चलते चलते इनकी दृष्टि एक बार त्रिवेणी-संगम पर खड़ी हुई पताकाओं पर पड़ी तो ये लोग देखकर गद्गद हो गए। इस बार गौड़बोले बोले --

"अहा! कैसी विचित्र छटा है! पंडितजी, ये जा दिखखाई दे रहे हैं, ये पंडों के झंडे हैं, नहीं! तीर्थों के राजा प्रयागराज की विजयपताकाएँ हैं! इस पुण्यतोया के तट पर यात्रियों का कलरव ही उस राजाधिराज का जयघोष है। गंगा, यमुना और सरस्वती का जिस पुण्य स्थल में संगम हुआ है वही उसके राजप्रासाद हैं। त्रिवेणी की लहरें उनके के सैनिक हैं और ऐसे राजा से भयभीत होकर ही इस दुर्ग की गिरिगुहा में यमराज जा छिपा है। जब उसके दूतों की पीरी न चली तब वह स्वयं पापियों को पकड़ने आया था किंतु इस ब्रह्मद्रव में उसका बन्न सा कठोर हृदय भी द्रवीभूत कर डाला। धन्य त्रिवेणी! धन्य तीर्थराज! और धन्य

यात्री!!! और वे जन धन्यातिधन्य हैं जो विपत्ति पर विपत्ति सहकर ही श्रद्धा के साथ यहाँ स्नान कर रहे हैं।"

"वास्तव में श्रद्धा ही मुक्ति की माता है, भक्ति ही उसकी सहचरी है और भगवान् भी उसके वशवर्ती हैं। इस विमलतोया, कलिमलनाशिनी के पुण्य द्रव से स्नान करने के पूर्व ही वह विपत्ति सोने की नाई तपाकर जीव का निर्मल कर देती है। भगवती के तट का त्रिविध वयार उसके बाह्य विकारों को सुखा देता है और भगवती के स्नान और पान से दैहिक, दैविक और भौतिक ताप, पापों के पुंजों के लिए हुए प्राणी का पिंड छोड़कर उसी तरह भाग जाते हैं जिस तरह वनराज सिंह के गर्जन का श्रवश करके मेषों का वृंद। वास्तव में आज हमारे कृतार्थ होने का शुभ दिवस है। भगवान् यदि कृपा करें ते गंगातट पर निवास दें।"

"हाँ सत्य है! हाँ सच है!" कहते हुए मल्लाहों को मजदूरी देकर सब लोग नाव पर से उतरे। कुछ आगे बढ़कर किले के पास से इन्होंने इक्के किराए करके घर का रास्ता लिया। वहाँ पहुँचकर ज्यों ही ये लोग सुस्ताने लगे, गुरूजी के आदमी ने कांतानाथ का नाम पूछकर उन्हें एक पर्चा और एक तार का लिफाफा दिया। पढ़कर यह बिलकुल निश्चेष्ट से हो गए। देर तक इनके मुख में से एक शब्द तक न निकला। "हाय प्रारब्ध!!" कहकर यह कमर पकड़कर बैठ गए। इनके चेहरे के चढ़ाव उतार से चाहे कोई यह

जान ले कि मामला कोई गहरी आपदा का हैं किंतु वह मौन। भाई के बहुतेरा पूछने पर जब इन्होंने कुछ उत्तर न दिया तब भौजाई ने पति को इशारा देकर वहाँ से हटाया। फिर भौजाई ने पूछा! उत्तर उसे भी न दिया किंतु पर्चा और तार उसके सामने डाल दिया। पर्चे में क्या लिखा था सो लिखनेवाला किसी दिन स्वयं बतला देगा। तब ही मालूम होगा कि इन दोनों का आपस में क्या संबंध है अथवा कोई और ही मतलब है। तार था कांतानाश के मित्र भोलानाथ का। उसमें लिखा था --

"यदि तुम्हें अपनी इज्जत बचानी है तो यात्रा छोड़कर तुरंत अपनी ससुराल पहुँचो। नहीं तो पछताना पड़ेगा।"

इन दोनों को पढ़कर प्रियंवदा कुछ कुछ समझो हो तो समझी हो क्योंकि पर्दे के भीतर रहकर भी स्त्रियों के पुरुषों की अपेक्षा दुनिया का बहुत हाल मालूम रहता है किंतु न तो प्रियानाथ के ध्यान में आया और न ठीक कांतानाथ के। हाँ! भोलानाथ की बातें सदा वावन तोला पाव रत्ती निकलती थीं। बस इसलिये भाई की आज्ञा पाकर, अपना करम ठोकते हुए कांतानाथ वहाँ से विदा हुए। इससे दंपती को बहुत ही दुःख हुआ। खैर! इसके बाद गत प्रकरण में पाठकों ने कांतानाथ को उनकी ससुराल में देख ही लिया है।

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