आकाश-दीप/स्वर्ग के खँड़हर में

आकाश-दीप
जयशंकर प्रसाद
स्वर्ग के खँड़हर में

इलाहाबाद: भारती भंडार, पृष्ठ २७ से – ४८ तक

 






स्वर्ग के खँड़हर में

वन्य कुसुमों की झालरें सुख-शीतल पवन से विकम्पित होकर चारों ओर झूल रही थीं। छोटे-छोटे झरनों की कुल्याएँ कतराती हुई बह रही थीं। लता-वितानों से ढकी हुई प्राकृतिक गुफाएँ शिल्प-रचना-पूर्ण सुंदर प्रकोष्ठ बनातीं, जिसमें पागल कर देने वाली सुगंध की लहरें नृत्य करती थीं। स्थान-स्थान पर कुञ्जों और पुष्प-शय्याओं का समारोह, छोटे-छोटे विश्राम-गृह, पान पात्रों में सुगंधित मदिरा, भाँति-भाँति के सुस्वादु फल-फूलवाले वृक्षों के झुरमुट, दूध और मधु की नहरों के किनारे गुलाबी बादलों का
क्षणिक विश्राम। चाँदनी का निभृत रंगमंच, पुलकित वृक्ष-फूलों पर मधुमक्खियों की भन्नाहट, रह-रहकर पक्षियों के हृदय में चुभने वाली तान, मणि-दीपों पर लटकती हुई मुकुलित मालाएँ। तिस पर सौंदर्य के छूँटे हुए जोड़े——रूपवान बालक और बालिकाओं का हृदयहारी हास-विलास! संगीत की अवाध गति में छोटी-छोटी नावों पर उनका जल-विलास! किसकी आँखे यह सब देखकर भी नशे में न हो जायँगी---हृदय पागल, इंद्रियाँ विकल न हो रहेंगी! यही तो स्वर्ग है!

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झरने के तट पर बैठे हुए एक बालक ने बालिका से कहा---"मैं भूल-भूल जाता हूँ मीना, हाँ मीना मैं तुम्हें मीना नाम से कब तक पुकारूँ?"

"और मैं तुमको गुल कहकर क्यों बुलाऊँ?"

"क्यों मीना, यहाँ भी तो हम लोगों को सुख ही है। है न? अहा, क्या ही सुंदर स्थान है! हम लोग जैसे एक स्वप्न देख रहे हैं! कहीं दूसरी जगह न भेजे जायँ, तो क्या ही अच्छा हो।"

"नहीं गुल, मुझे पूर्व-स्मृति विकल कर देती है। कई बरस बीत गये---वह माता के समान दुलार, उस उपासिका की स्नेहमयी करुणा-भरी दृष्टि आँखों में कभी-कभी चुटकी काट लेती है। मुझे तो अच्छा नहीं लगता; बंदी होकर रहना तो स्वर्ग में भी......अच्छा तुम्हे यहाँ रहना नहीं खलता?" "नहीं मीना, सबके बाद जब मैं तुम्हें अपने पास ही पाता हूँ, तब और किसी आकांक्षा का स्मरण ही नहीं रह जाता। मैं समझता हूँ कि......"

"तुम गलत समझते हो......"

मीना अभी पूरा कहने न पाई थी कि तितलियों के झुण्ड के पीछे, उन्हीं के रंग के कौपेय वसन पहने हुए, बालक और बालिकाओं की दौड़ती हुई टोली ने आकर मीना और गुल को घेर लिया!

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"जल-विहार के लिये रँगीली मछलियों का खेल खेला जाय।"

एकसाथ ही तालियाँ बज उठी। मीना और गुल को ढकेलते हुए सब उसी कलनादी स्रोत में कूद पड़े। पुलिन की हरी झाड़ियों में से वंशी बजने लगी। मीना और गुल की जोड़ी आगे-आगे, और, पीछे-पीछे सब बालक-बालिकाओं की टोली तैरने लगी। तीर पर की झुकी हुई डालों के अंतराल में लुक-छिपकर निकलना, उन कोमल पाणि-पल्लवों से क्षुद्र वीचियो का कटना, सचमुच उसी स्वर्ग में प्राप्त था।

तैरते-तैरते मीना ने कहा---"गुल, यदि मैं बह जाऊँ और डूबने लगूँ?"

"मैं नाव बन जाऊँगा मीना!"

"और जो मैं यहाँ से सचमुच चली जाऊँ?"

"ऐसा न कहो; फिर मैं क्या करूँगा?" "क्यों, क्या तुम मेरे साथ न चलोगे?"

इतने में एक दूसरी सुंदरी, जो कुछ पास थी, बोली---"कहाँ चलोगे गुल? मैं भी चलूँगी, उसी कुंज में। अरे देखो, वहाँ कैसा हरा-भरा अंधकार है!" गुल उसी ओर लक्ष्य करके संतरण करने लगा। बहार उसके साथ तैरने लगी। वे दोनों त्वरित गति से तैर रहे थे, मीना उनका साथ न दे सकी। वह हताश होकर और भी पिछड़ने के लिये धीरे-धीरे तैरने लगी।

बहार और गुल जल से टकराती हुई डालों को पकड़कर विश्राम करने लगे। किसी को समीप में न देखकर बहार ने गुल से कहा---"चलो, हम लोग इसी कुंज में छिप जायँ।"

वे दोनों उसी झुरमुट में विलीन हो गये।

मीना से एक दूसरी सुंदरी ने पूछा---"गुल किधर गया, तुम ने देखा?"

मीना जानकर भी अनजान बन गईं। वह दूसरे किनारे की ओर लौटती हुई बोली---"मैं नहीं जानती।"

इतने में एक विशेष संकेत से बजती हुई सीटी सुनाई पड़ी। सब तैरना छोड़कर बाहर निकले। हरा वस्त्र पहने हुए, एक गंभीर मनुष्य के साथ, एक युवक दिखाई पड़ा। युवक की आँखें नशे में रँगीली हो रही थीं; पैर लड़खड़ा रहे थे। सब ने उस प्रौढ़ को देखते ही सिर झुका लिया। वे बोल उठे---"महापुरुष, क्या कोई हमारा अतिथि आया है?" "हाँ, यह युवक स्वर्ग देखने की इच्छा रखता है"---हरे वस्त्र वाले प्रौढ़ ने कहा।

सब ने सिर झुका लिया। फिर एक बार निर्निमेष दृष्टि से मीना की ओर देखा। वह पहाड़ी दुर्ग का भयानक शेख था। सचमुच उसे एक आत्म-विस्मृति हो चली। उसने देखा, उसकी कल्पना सत्य में परिणत हो रही है।

"मीना---आह! कितना सरल और निर्दोष सौन्दर्य है। मेरे स्वर्ग की सारी माधुरी उसकी भींगी हुई एक लट के बल खाने में बँधी हुई छटपटा रही हैं।"---उसने पुकारा---"मीना!"

मीना पास आकर खड़ी हो गई, और सब उस युवक को घेर कर एक ओर चल पड़े। केवल मीना शेख के पास रह गई।

शेख ने कहा---"मीना, तुम मेरे स्वर्ग की रत्न हो।"

मीना कॉप रही थी! शेख ने उसका ललाट चूम लिया, और कहा---"देखो, तुम किसी भी अतिथि की सेवा करने न जाना। तुम केवल उस द्राक्षा-मण्डप में बैठकर कभी-कभी गा लिया करो। बैठो, मुझे भी वह अपना गीत सुना दो।"

मीना गाने लगी। उस गीत का तात्पर्य था---"मैं एक भटकी हुई बुलबुल हूँ! हे मेरे अपरिचित कुंज! क्षण-भर मुझे विश्राम करने दोगे? यह मेरा क्रंदन है---मैं सच कहती हूँ, यह मेरा रोना है, गाना नहीं! मुझे दम तो लेने दो। आने दो वसंत का वह प्रभात---जब संसार गुलाबी रंग में नहाकर अपने यौवन में

थिरकने लगेगा, और तब मैं तुम्हें अपनी एक तान सुनाकर, केवल एक तान, इस रजनी-विश्राम का मूल्य चुका कर चली जाऊँगी। तब तक अपनी किसी सूखी हुई टूटी डाल पर ही अंधकार बिता लेने दो। मैं एक पथ भूली हुई बुलबुल हूँ!"

शेख भूल गया कि मैं ईश्वरीय संदेश-वाहक हूँ, आचार्य हूँ, और महापुरुष हूँ। वह एक क्षण के लिए अपने को भी भूल गया। उसे विश्वास हो गया कि बुलबुल तो नहीं हूँ, पर कोई भूली हुई वस्तु हूँ। क्या हूँ, यह सोचते-सोचते पागल होकर एक ओर चला गया।

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हरियाली से लदा हुआ ढालुवाँ तट था, बीच में बहता हुआ वही कलनादी स्रोत यहाँ कुछ गम्भीर हो गया था। उस रमणीय प्रदेश के छोटे-से आकाश में मदिरा से भरी हुई घटा छा रही थी। लड़खड़ाते, हाथ-से-हाथ मिलाये, बहार और गुल ऊपर चढ़ रहे थे। गुल अपने आप में नहीं है, बहार फिर भी सावधान है; वह सहारा देकर उसे ऊपर ले आ रही है।

एक शिला-खण्ड पर बैठते हुए गुल ने कहा---प्यास लगी है।

बहार पास के विश्राम-गृह में गई, पान-पात्र भर लाई। गुल पीकर मस्त हो रहा था। बोला---"बहार, तुम बड़े वेग से मुझे खींच रही हो; सँभाल सकोगी? देखों में गिरा?" गुल बहार की गोद में सिर रखकर आँखें बन्द किये पड़ा रहा। उसने बहार के यौवन की सुगंध से घबरा कर आँखें खोल दी। उसके गले में हाथ डालकर बोला---"ले चलो, मुझे कहाँ ले चलती हो?"

बहार उस स्वर्ग की अप्सरा थी। विलासिनी बाहर एक तीव्र मदिरा की प्याली थी, मकरंद-भरी वायु का झकोर आकर उसमें लहर उठा देती है। वह रूप का उर्मिल सरोवर गुल उन्मत था। बहार ने हँसकर पूछा---"यह स्वर्ग छोड़कर कहाँ चलोगे?"

"कहीं दूसरी जगह, जहाँ हम हों और तुम।"

"क्यों, यहाँ कोई बाधा है?"

सरल गुल ने कहा---"बाधा! यदि कोई हो? कौन जाने!"

"कौन? मीना?"

"जिसे समझ लो।"

"तो तुम सबकी उपेक्षा करके मुझे---केवल मुझे ही---नहीं..."

"ऐसा न कहो"---बहार के मुँह पर हाथ रखते हुए गुल ने कहा।

ठीक इसी समय नवागत युवक ने वहाँ आकर उन्हें सचेत कर दिया। बहार ने उठकर उसका स्वागत किया। गुल ने अपनी लाल-लाल आँखों से उसको देखा। वह उठ न सका, केवल मद-भरी अँगड़ाई ले रहा था। बहार ने युवक से आज्ञा लेकर

प्रस्थान किया। युवक गुल के समीप आकर बैठ गया, और उसे गम्भीर दृष्टि से देखने लगा।

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गुल ने अभ्यास के अनुसार कहा---"स्वागत अतिथि!"

"तुम देवकुमार! आह! तुमको कितना खोजा मैने!"

"देवकुमार? कौन देवकुमार? हाँ, हाँ, स्मरण होता है; पर वह विषैली पृथ्वी की बात तुम क्यों स्मरण दिलाते हो? तुम मर्त्यलोक के प्राणी! भूल जाओ उस निराशा और अभावों की सृष्टि को; देखो आनन्द-निकेतन स्वर्ग का सौंदर्य!"

"देवकुमार! तुमको भूल गया, तुम भीमपल के वंशधर हो? तुम यहाँ बन्दी हो! मूर्ख हो तुम; जिसे तुमने स्वर्ग समझ रक्खा है, वह तुम्हारे आत्मविस्तार की सीमा है। मैं केवल तुम्हारे ही लिये आया हूँ।"

"तो तुमने भूल की। मैं यहाँ बड़े सुख से हूँ। बहार को बुलाऊँ, कुछ खाओ-पीओ......, कंगाल! स्वर्ग में भी आकर व्यर्थ समय नष्ट करना! संगीत सुनोगे?"

युवक हताश हो गया।

गुल ने मन में कहा---"मैं क्या करूँ? सब मुझसे रूठ जाते हैं। कहीं सहृदयता नहीं, मुझसे सब अपने मन की कराना चाहते हैं; जैसे मेरे मन नहीं है, हृदय नहीं है! प्रेम-आकर्षण! यह

स्वर्गीय प्रेम में भी जलन! बहार तिनक कर चली गई; मीना? यह पहले ही हट रही थी; तो फिर क्या जलन ही स्वर्ग है?"

गुल को उस युवक के हताश होने पर दया आ गई। यह भी स्मरण हुआ कि वह अतिथि है। उसने कहा---"कहिये, आपकी क्या सेवा करूँ? मीना का गान सुनियेगा? वह स्वर्ग की रानी है!"

युवक ने कहा---"चलो!"

द्राक्षा-मंडप में दोनों पहुँचे। मीना वहाँ बैंठी हुई थी। गुल ने कहा---"अतिथि को अपना गान सुनाओ।"

एक निःश्वास लेकर वह वही बुलबुल का संगीत सुनाने लगी। युवक की आँखें सजल हो गईं। उसने कहा---"सचमुच तुम स्वर्ग की देवी हो?"

"नहीं अतिथि, मैं उस पृथ्वी की प्राणी हूँ---जहाँ कष्टों की पाठशाला है, जहाँ का दुःख इस स्वर्ग-सुख से भी मनोरम था, जिसका अब कोई समाचार नहीं मिलता"---मीना ने कहा।

"तुम उसकी एक करुण-कथा सुनना चाहो, तो मैं तुम्हें सुनाऊँ!" युवक ने कहा।

"सुनाइये"---मीना ने कहा।

युवक कहने लगा---

"वाह्लीक, गांधार, कपिशा और उद्यान, मुसलमानों के

भयानक आतंक में कॉप रहे थे। गांधार के अंतिम आर्य्य-नरपति भीमपाल के साथ ही, शाहीवंश का सौभाग्य अस्त हो गया। फिर भी उनके बचे हुए वंशधर, उद्यान के मंगली दुर्ग में, सुवास्तु की घाटियों में, पर्वत-माला, हिम और जगलो के आवरण में अपने दिन काट रहे थे। वे स्वतन्त्र थे।

"देवपाल एक साहसी राजकुमार था। वह कभी-कभी पूर्व गौरव का स्वप्न देखता हुआ, सिधु-तट तक घूमा करता। एक दिन अभिसार-प्रदेश का सिधु-वट, वासना के फूलवाले प्रभात में सौरभ की लहरों में झोंके खा रहा था। कुमारी लज्जा स्नान कर रही थी। उसका कलसा तीर पर पड़ा था। देवपाल भी कई बार पहले की तरह आज फिर साहस-भरे नेत्रों से उसे देख रहा था। उसकी चंचलता इतने ही से न रुकी, वह बोल उठा---

"उषा के इस शांत आलोक में किसी मधुर कामना से यह भिखारी हृदय हँस रहा था। और मानस-नन्दिनी! तुम इठलाती हुई बह चली हो। वाहरे तुम्हारा इतराना! इसी लिए तो जब कोई स्नान करके तुम्हारी लहर की तरह तरल और आर्द्र वस्त्र ओढ़ कर, तुम्हारे पथरीले पुलिन में फिसलता हुआ ऊपर चढ़ने लगता है, तब तुम्हारी लहरों में आँसुओं की झालरें लटकने लगती हैं। परन्तु मुझ पर दया नहीं; यह भी कोई बात है!

“तो फिर मैं क्या करूँ। उस क्षण की, उस कण की,

सिधु से, बादलों से, अन्तरिक्ष और हिमालय से टहल कर लौट आने की प्रतीक्षा करूँ? और इतना भी न कहोगी कि कब तक? बलिहारी!

"कुमारी लज्जा भीरु थी। वह हृदय के स्पन्दनों से अभिभूत हो रही थी। क्षुद्र वीचियों के सदृश कॉपने लगी। वह अपना कलसा भी न भर सकी और चल पड़ी। हृदय में गुदगुदी के धक्के लग रहे थे। उसके भी यौवन-काल के स्वर्गीय दिवस थे---फिसल पड़ी। धृष्ट युवक ने उसे सँभाल कर अंक में ले लिया।

"कुछ दिन स्वर्गीय स्वप्न चला। जलते हुए प्रभात के समान तारादेवी ने वह स्वप्न भंग कर दिया। तारा अधिक रूपशालिनी, काश्मीर की रूप-माधुरी थी। देवपाल को काश्मीर से सहायता की भी आशा थी! हतभागिनी लज्जा नै कुमार सुदान की तपोभूमि में अशोक-निर्मित विहार में शरण ली। वह उपासिका, भिक्षुनी, जो कहो, बन गई।

"गौतम की गम्भीर प्रतिमा के चरण-तल में बैठ कर उसने निश्चय किया, सब दुःख है, सब क्षणिक है, सब अनित्य है।"

"सुवास्तु का पुण्य सलिल उस व्यथित हृदय की मलिनता को धोने लगा। वह एक प्रकार से रोग-मुक्त हो रही थी।"

"एक सुनसान रात्रि थी, स्थविर धर्म-भिक्षु थे नहीं। सहसा कपाट पर आघात होने लगा और "खोलो! खोलो!" का शब्द सुनाई पड़ा। विहार में अकेली लज्जा ही थी। साहस करके बोली---
"कौन है?"

"पथिक हूँ, आश्रय चाहिये"---उत्तर मिला।

"तुषारावृत अँधेरा पथ था। हिम गिर रहा था। तारों का पता नहीं, भयानक शीत और निर्जन निशीथ। भला ऐसे समय में कौन पथ पर चलेगा? वातायन का परदा हटाने पर भी उपासिका लज्जा झॉक कर न देख सकी कि कौन है। उसने अपनी कुभावनाओं से डर कर पूछा---"आप लोग कौन है।"

"आहा, तुम उपासिका हो! तुम्हारे हृदय में तो अधिक दया होनी चाहिये। भगवान् की प्रतिमा की छाया में दो अनाथों को आश्रय मिलने का पुण्य हैं।"

"लज्जा ने अर्गला खोल दी। उसने आश्चर्य से देखा, एक पुरुष अपने बड़े लबादे में आठ-नौ बरस के बालक और बालिका को लिये भीतर आकर गिर पड़ा। तीनों मुमूर्ष हो रहे थे। भूख और शीत से तीनों विकल थे। लज्जा ने कपाट बन्द करते हुए अग्नि धधका कर उसमें कुछ गंध-द्रव्य डाल दिया। एक बार द्वार खुलने पर जो शीतल पवन का झोंका घुस आया था, वह निर्बल हो चला।"

"अतिथि-सत्कार हो जाने पर लज्जा ने उनका परिचय पूछा। आगंतुक ने कहा-मंगलो-दुर्ग के अधिपति देवपाल का मैं भृत्य हूँ। जगद्दाहक चंगेजखाँ ने समस्त गांधार प्रदेश को जलाकर, लूट, पाट कर उजाड़ दिया, और कल ही इस उद्यान के मंगली-दुर्ग पर

भी उन लोगों का अधिकार हो गया। देवपाल बंदी हुए, उनकी तारादेवी ने आत्म-हत्या की। दुर्ग-पति ने पहले ही मुझसे कहा था कि इस बालक को अशोक-विहार में ले जाना, वहाँ की एक उपासिका लज्जा इसके प्राण बचा ले तो कोई आश्चर्य नहीं।

"यह सुनते ही लज्जा की धमनियों में रक्त का तीव्र संचार होने लगा। शीताधिक्य में भी उसे स्वेद आने लगा। उसने बात बदलने के लिये बालिका की ओर देखा। आगंतुक ने कहा---'यह मेरी बालिका है, इसकी माता नहीं है।' लज्जा ने देखा, बालिका का शुभ्र शरीर मलिन वस्त्र में दमक रहा था। नासिका-मूल से कानों के समीप तक भ्रू-युगल की प्रभावशालिनी रेखा और उसकी छाया में दो उनींदे कमल संसार से अपने को छिपा लेना चाहते थे। उसका विरागी सौंदर्य, शरद के शुभ सघन के हलके आवरण में पूर्णिमा के चंद्र-सा आप ही लज्जिल था। चेष्टा करके भी लज्जा अपनी मानसिक स्थिति को चंचल होने से न सँभाल सकी। वह---'अच्छा, आप लोग सो रहिये, थके होगे'---कहती हुई दूसरे प्रकोष्ठ में चली गई।

"लज्जा ने वातायन खोलकर देखा, आकाश स्वच्छ हो रहा था, पार्वत्य प्रदेश के निस्तब्ध गगन में तारों की झिलमिलाहट थी। उन प्रकाश की लहरों में अशोक निर्मित-स्तूप की चूड़ा पर लगा हुआ स्वर्ण का धर्मचक्र जैसे हिल रहा था।

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"दूसरे दिन जब धर्म-भिक्षु आये, तो उन्होंने इन आर्गतुकों को आश्चर्य से देखा, और जब पूरे समाचार सुने तो और

भी उबल पड़े। उन्होने कहा---"राजकुटुम्ब को यहाँ रखकर क्या इस विहार और स्तूप को भी तुम ध्वंस कराना चाहती हो! लज्जा, तुमने यह किस प्रलोभन से किया? चँगेजखाँ बौद्ध है, संघ उसका विरोध क्यों करे?"

"स्थविर! किसी दुखों का आश्रय देना क्या गौतम के धर्म के विरुद्ध है? मैं स्पष्ट कह देना चाहती हूँ कि देवपाल ने मेरे साथ बड़ा अन्याय किया फिर भी मुझ पर उसका विश्वास था; क्यो था, मैं स्वयं नहीं जान सकी। इसे चाहे मेरी दुर्वलता हीं समझ ले; परन्तु मैं अपने प्रति विश्वास का किसी को भी दुरुपयोग नहीं करने देना चाहती। देवपाल को मैं अधिक-से-अधिक प्यार करती थी, और अब भी बिलकुल निश्शेष समझ कर उस प्रणय का तिरस्कार कर सकूँगी, इसमें सन्देह है।"---लज्जा ने कहा।

"तो तुम संघ के मूल सिद्धांत से च्युत हो रही हो, इसलिये तुम्हें भी विहार का त्याग करना पड़ेगा।"---धर्म-भिक्षु ने कहा।

"लज्जा व्यथित हो उठी थी, बालक के मुख पर देवपाल की स्पष्ट छाया उसे बार-बार उतेजित करती, और वह बालिका तो उसे छोड़ना ही न चाहती थी।

"उसने साहस करके कहा--'तब यही अच्छा होगा कि

मैं भिक्षुनी होने का ढोंग छोड़कर अनाथों के सुख-दु:ख में सम्मिलित होऊँ।"

“उसी रात को वह दोनो बालक-वालिका और विक्रमभृत्य को लेकर, निस्सहाय अवस्था में चल पड़ी। छद्मवेप में यह दल यात्रा कर रहा था। इसे भिक्षा का अवलम्ब था। बाह्लीक के गिरिब्रज नगर के भग्न पाथ निवास के टूटे कोनै में इन लोगों को आश्रय लेना पड़ा। उस दिन आहार नहीं जुट सका, दोनों बालकों के सन्तोष के लिये कुछ बचा था, उसी को खिलाकर वे सुला दिये गये। लज्जा और विक्रम, अनाहार से म्रियमाण, अचेत हो गये।

"दूसरे दिन आँखें खुलते ही उन्होंने देखा तो वह राजकुमार और बालिका, दोनों ही नहीं! उन दोनों की खोज में ये लोग भी भिन्न-भिन्न दिशा को चल पड़े। एक दिन पता चला कि केकय के पहाड़ी दुर्ग के समीप कहीं स्वर्ग है, वहाँ रूपवान बालकों और बालिकाओं की अत्यन्त आवश्यकता रहती है......

"और भी सुनोगी पृथ्वी की दुख-गाथा? क्या करोगी सुन कर, तुम यह जान कर क्या करोगी कि उस उपासिका या विक्रम का फिर क्या हुआ?"

अब मीना से न रहा गया। उसने युवक के गले से लिपट कर कहा---"तो......तुम्ही वह उपासिका हो? आहा, सच कह दो।" गुल की आँखों में अभी नशे का उतार था। उसने अँगडाई लेकर एक जँभाई ली, और कहा---"बड़े आश्चर्य की बात है। क्यों मीना, अब क्या किया जाय?"

अकस्मात् स्वर्ग के भयानक रक्षियों ने आकर उस युवक को बन्दी कर, लिया। मीना रोने लगी, गुल चुपचाप खड़ा था, बहार खड़ी हँस रही थी।

सहसा पीछे आते हुए प्रहरियों के प्रधान ने ललकारा---"मीना और गुल को भी।"

अब उस युवक ने घूम कर देखा; घनी दाढी मूँछोंवाले प्रधान की आँखों से आँखें मिलीं।

युवक चिल्ला उठा---"देवपाल!"

"कौन! लज्जा? अरे!"

"हाँ, तो देवपाल, इस अपने पुत्र गुल को भी बन्दी करो, विधर्मों का कर्तव्य यही आज्ञा देता है।"---लज्जा ने कहा।

"ओह!"--–कहता हुआ प्रधान देवपाल सिर पकड़ कर बैठ गया। क्षण-भर में वह उन्मत्त हो उठा, और दौड़कर गुल के गले से लिपट गया।

सावधान होने पर देवपाल ने लज्जा को बन्दी करनेवाले प्रहरो से कहा---"उसे छोड़ दो।"

प्रहरी ने बहार की ओर देखा। उसका गूढ़ संकेत समझ कर वह बोल उठा---"मुक्त करने का अधिकार केवल शेख को है।" देवपाल का क्रोध सीमा का अतिक्रम कर चुका था, उसने खड्ग चला दिया। प्रहरी गिरा। उधर बहार 'हत्या! हत्या!' चिल्लाती हुई भागी।

संसार की विभूति जिस समय चरणों में लोटने लगती है, वही समय पहाड़ी-दुर्ग के सिंहासन का था। शेख क्षमता की, ऐश्वर्य-मण्डित मूर्ति था। लज्जा, मीना, गुल और देवपाल बन्दी-वेश में खड़े थे। भयानक प्रहरी दूर-दूर खड़े, पवन की भी गति जॉच रहे थे। जितना भीषण प्रभाव संभव हैं, वह शेख के उस सभागृह में था। शेख ने पूछा---"देवपाल तुझे इस धर्म पर विश्वास है कि नहीं?"

"नहीं"---देवपाल ने उत्तर दिया।

"तब तूने हमको धोखा दिया?"

"नहीं, चंगेज़ के बन्दी-गृह से छुड़ाने में जब समर-खण्ड में तुम्हारे अनुचरों ने मेरी सहायता की और मैं तुम्हारे उत्कोच या मूल्य से क्रीत हुआ, तब मुझे तुम्हारी आज्ञा पूरी करने की स्वभावतः इच्छा हुई। अपने शत्रु चंगेज़ का ईश्वरीय कोप, चंगेज़ का नाश करने की एक विकट लालसा मन में खेलने लगी, और मैंने उसकी हत्या की भी। मैं धर्म मानकर कुछ करने गया था, यह समझना भ्रम है।" "यहाॅ तक तो मेरी आशा के अनुसार है हुआ, परन्तु उस अलाउद्दीन की हत्या क्यों की?"--- दॉत पीसकर शेख ने कहा।

"यह मेरा उससे प्रतिशोध था!"---अविचल भाव से देवपाल ने कहा।

"तुम जानते हो कि इस पहाड़ के शेख केवल स्वर्ग के ही अधपति नहीं, प्रत्युत हत्या के दूत भी हैं!"---क्रोध से शेख ने कहा।

"इसके जानने की मुझे उत्कण्ठा नहीं हैं शेख! प्राणी-धर्म, में मेरा अखण्ड विश्वास है। अपनी रक्षा करने के लिये, अपने प्रतिशोध के लिये, जो स्वाभाविक जीवन-तत्व के सिद्धान्त की अवहेलना करके चुप बैठता है, उसे मृतक, कायर, सजीवता-विहीन, हड्डी-मांस के टुकड़े के अतिरिक्त मैं कुछ नहीं समझता। मनुष्य परिस्थितियों का अंध-भक्त है, इसलिये मुझे जो करना था वह मैंने किया; अब तुम अपना कर्त्तव्य कर सकते हो।"---देवपाल का स्वर दृढ़ था।

भयानक शेख अपनी पूर्ण उत्तेजना से चिल्ला उठा। उसने कही---"और, तू कौन हैं स्त्री? तेरा इतना साहस! मुझे ठगना!"

लज्जा अपना वाह्य आवरण फेंकती हुई बोली---"हाँ शेख, अब आवश्यकता नहीं कि मैं छिपाऊँ, मैं देवपाल की प्रणयिनी हूँ!"

"तो तू इन सबको ले जाने या बहकाने आई थी, क्यों?" "आवश्यकता से प्रेरित होकर जैसे एक अत्यन्त कुत्सित मनुष्य धर्माचार्य बनने का ढोंग कर रहा है, ठीक उसी प्रकार मैं स्त्री होकर भी, पुरुष बनी। यह दूसरी बात है कि संसार की सबसे पवित्र वस्तु धर्म की आड़ में आकांक्षा खेलती है। तुम्हारे पास साधन हैं, मेरे पास नहीं, अन्यथा मेरी आवश्यकता किसी से कम न थी।"---लज्जा हाँफ रही थी।

शेख ने देखा, वह दृत सौंदर्य! यौवन के ढलने में भी एक तीव्र प्रवाह था---जैसे चाँदनी रात में पहाड़ से झरना गिर रहा हो? एक क्षण के लिये उसकी समस्त उत्तेजना पालतू पशु के समान सौम्य हो गई। उसने कहा---"तुम ठीक मेरे स्वर्ग की रानी होने के योग्य हो। यदि मेरे मत में तुम्हारा विश्वास हो, तो मैं तुम्हें मुक्त कर सकता हूँ। बोलो।"

"स्वर्ग! इस पृथ्वी को स्वर्ग की क्या आवश्यकता है शेख? ना, ना, इस पृथ्वी को स्वर्ग के ठेकेदारों से बचाना होगा। पृथ्वी का गैरव स्वर्ग बन जाने से नष्ट हो जायगा। इसकी स्वाभाविकता साधारण स्थिति में ही रह सकती है। पृथ्वी को केवल वसुंधरा होकर मानव-जाति के लिए जाने दो, अपनी आकांक्षा के कल्पित स्वर्ग के लिए, क्षुद्र स्वार्थ के लिये, इस महती को, इस धरनी को, नरक न बनाओ, जिसमें देवता बनने के प्रलोभन में पड़कर मनुष्य राक्षस न बन जाय शेख?"--–लज्जा ने कहा।

शेख पत्थर-भरे बादलों के समान कड़कड़ा उठा। उसने

कहा---"ले जाओ, इन दोनों को बन्दी करो, मैं फिर विचार करूँगा; और गुल, तुम लोगों का यह पहला अपराध है क्षमा करता हूँ। सुनती हो मीना, जाओ अपने कुञ्ज में, भागों। इन दोनों को भूल जाओ।"

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बहार ने एक दिन गुल से कहा---"चलो द्राक्षा-मण्डप में संगीत का आनन्द लिया जाय।" दोनों स्वर्गीय मदिरा में झूम रहे थे। मीना वहाँ अकेली बैठी उदासी में गा रही थी---

"वही स्वर्ग तो नरक हैं, जहाँ प्रियजन से विच्छेद है। वही रात प्रलय की है, जिसकी कालिमा में विरह का संयोग है। वह यौवन निष्फल है, जिसका हृदयवान् उपासक नहीं। वह मदिरा हलाहल है, पाप, हैं जो उन मधुर अधरों की उच्छिष्ट नहीं। वह प्रणय विषाक्त छुरी है, जिसमें कपट है। इसलिये हे जीवन, तू स्वप्न न देख, विस्मृति की निद्रा में सो जा! सुषुप्ति यदि आनन्द नहीं तो दुखों का अभाव तो है। इस जागरण से--इस आकांक्षा और अभाव के जागरण से--वह निर्द्वन्द्व सोना कहीं अच्छा है, मेरे जीवन!"

बहार का साहस न हुआ कि वह मंडप में पैर घरे, पर गुल, वह तो जैसे मूक था! एक भूल, अपराध और मनोवेदना के निर्जन कानन में भटक रहा था, यद्यपि उसके चरण निश्चल थे।
इतने में हलचल मच गई। चारों ओर दौड़-धूप होने लगी। मालूम हुआ, स्वर्ग पर तातार के खान की चढ़ाई हुई है।

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वरसों घिरे रहने से स्वर्ग की विभूति निश्शेष हो गई थी। त्वगींय जीव अनाहार से तड़प रहे थे। तब भी मीना को आहार मिलता। आज शेख सामने बैठा था। उसकी प्याली में मदिरा की कुछ अन्तिम बूँदे थीं। जलन की तीव्र पीड़ा से व्याकुल और आहत बहार उधर तड़प रही थी। आज बन्दी भी मुक्त कर दिये गये थे। स्वर्ग के विस्तृत प्रांगण में बन्दियों के दम तोड़ने की क़ातर ध्वनि गूँज रही थी। शेख ने एक बार उन्हें हँसकर देखा, फिर मीना की ओर देखकर उसने कहा---"मीना! आज अंतिम दिन है! इस प्याली में अंतिम घूँटे हैं, मुझे अपने हाथ से पिला दोगी?"

"बन्दी हूँ शेख! चाहे जो कहो।"

शेख एक दीर्ध निश्वास लेकर उठ खड़ा हुआ। उसने अपनी तलवार सँभाली। इतने में द्वार टूट पड़ा, तातारी घुसते हुए दिखलाई पड़े, शेख के पाप-दुर्बल हाथों से तलवार गिर पड़ी।

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द्राक्षा के रूखे कुंज में देवपाल, लज्जा और गुल के शव के पास, मीना चुपचाप बैठी थी। उसकी आँखों में न आँसू थे, न ओठों पर क्रंदन। वह सजीव अनुकम्पा, निष्ठुर हो रही थी। तातारों के सेनापति नै आकर देखा, उस दावाग्नि के अंधड़ में तृण-कुसुन सुरक्षित है। वह अपनी प्रतिहिंसा से अंधा हो रहा था। कड़कर उसने पूछा---"तु शेख की बेटी है?"

मीना ने जैसे मूर्च्छा से आँखें खोलीं। उसने विश्वास-भरी वाणी से कहा---"पिता मैं तुम्हारी लीला हूँ!"

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सेनापति विक्रम को उस प्रान्त का शासन मिला; पर मीना उन्हीं स्वर्ग के खँडहरों में उन्मुक्त घूमा करती। जब सेनापति बहुत स्मरण दिलाता, तो वह कह देती---"मैं एक भटकी हुई बुलबुल हूँ। मुझे किसी टूटी डाल पर अंधकार बिता लेने दो! इन रजनी विश्राम का मूल्य---अंतिम तान सुनाकर जाऊँगी।"

मालूम नहीं, उसकी अंतिम तान किसी ने सुनी या नहीं।


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