आकाश-दीप/ममता
ममता
१
रोहतास-दुर्ग के प्रकोष्ठ में बैठी हुई युवती ममता, शोण के तीक्ष्ण गंभीर प्रवाह को देख रही है। ममता विधवा थी। उसका यौवन शौण के समान ही उमड़ रहा था। मन में वेदना; मस्तक में आँधी, आँखों में पानी की बरसात लिये, वह सुख के कंटक-शयन में विकल थी। वह रोहतास-दुर्गपति के मंत्री चूड़ा-मणि की अकेली दुहिता थी, फिर उसके लिये कुछ अभाव होना असंभव था, परंतु वह विधवा थी,---हिन्दू-विधवा संसार में सबसे तुच्छ निराश्रय प्राणी है---तब उसकी विडम्बना का कहाँ अंत था? चूड़ामणि ने चुपचाप उसके प्रकोष्ठ में प्रवेश किया। शोण के प्रवाह में, उसके कल-नाद में, अपना जीवन मिलाने में वह बेसुध थी। पिता का आना न जान सकी। चूड़ामणि व्यथित हो उठे। स्नेह-पालिता पुत्री के लिये क्या करें, यह स्थिर न कर सकते थे। लौटकर बाहर चले गये। ऐसा प्रायः होता, पर आज मंत्री के मन में बड़ी दुश्चिन्ता थी। पैर सीधे न पड़ते थे।
एक पहर बीत जाने पर वे फिर ममता के पास आये। उस समय उनके पीछे दस सेवक चाँदी के बड़े थालों में कुछ लिये हुए खड़े थे; कितने ही मनुष्यों के पद-शब्द सुन ममता ने घूम कर देखा। मंत्री ने सब थालों को रखने का संकेत किया। अनुचर थाल रखकर चले गये।
ममता ने पूछा---"यह क्या है पिताजी?"
"तेरे लिये बेटी! उपहार है।"---कहकर चूड़ामणि ने उसका आवरण उलट दिया। स्वर्ण का पीलापन उस सुनहली संध्या में विकीर्ण होने लगा। ममता चौक उठी---
"इतना स्वर्ण! यह कहाँ से आया?"
"चुप रहो ममता, यह तुम्हारे लिये है।"
"तो क्या आपने म्लेच्छ का उत्कोच स्वीकार कर लिया? पिताजी! यह अनर्थ है, अर्थ नहीं! लौटा दीजिये। पिताजी! हम लोग ब्राह्मण हैं, इतना सोना लेकर क्या करेंगे?"
"इस पतनोन्मुख प्राचीन सामन्त-वंश का अन्त समीप है,
बेटी। किसी भी दिन शेरशाह रोहिताश्व पर अधिकार कर सकता
हैं; उस दिन मंत्रित्व न रहेगा, तब के लिये बेटी!"
"हे भगवान्! तब के लिये! विपद के लिये! इतना आयोजन! परम पिता की इच्छा के विरुद्ध इतना साहस! पिताजी, क्या भीख न मिलेगी? क्या कोई हिन्दू भूपृष्ठ पर न बचा रह जायगा, जो ब्राह्मण को दो मुट्ठी अन्न दे सके? यह असंभव है। फेर दीजिये पिताजी, मैं काँप रही हूँ---इसकी चमक आँखों को अंधा बना रही है!"
"मूर्ख है"---कह कर चूड़ामणि चले गये।
दूसरे दिन जब डोलियों का तॉता भीतर आ रहा था, ब्राह्मण-मन्त्री चूड़ामणि का हृदय धक्-धक् करने लगा। वह अपने को रोक न सका। उसने जाकर रोहिताश्व-दुर्ग के तोरण पर डोलियों का आवरण खुलवाना चाहा। पठानों ने कहा---
"यह महिलाओ का अपमान करना है।"
बात बढ़ गई। तलवारें खिचीं, ब्राह्मण वहीं मारा गया और राजा रानी और कोष सब छली शेरशाह के हाथ पड़े; निकल गई ममता। डोली में भरे हुए पठान सैनिक दुर्ग भर में फैल गये, पर
ममता न मिली। २
काशी के उत्तर धर्मचक्र विहार, मौर्य और गुप्त सम्राटों की कीर्ति का खँडहर था। भग्न चूड़ा, तृण-गुल्मो से ढके हुए प्राचीर, ईटों की ढेर में बिखरी हुई भारतीय शिल्प की विभूति, ग्रीष्म रजनी की चन्द्रिका में अपने को शीतल कर रही थी।
जहाँ पञ्चवर्गीय भिक्षु गौतम का उपदेश ग्रहण करने के लिये पहले मिले थे उसी स्तूप के भग्नावशेष की मलिन छाया में एक झोपड़ी के दीपालोक में एक स्त्री पाट कर रही थी---
"अनन्याश्चिनायन्तो मां ये जनाः पर्य्युपासते..."
पाठ रुक गया। एक भीषण और हताश आकृति दीप के मंद प्रकाश में सामने खड़ी थी। स्त्री उठी, उसने कपाट बंद करना चाहा। परंतु उस व्यक्ति ने कहा---"माता! मुझे आश्रय चाहिये।"
"तुम कौन हो?"---स्त्री ने पूछा।
“मैं मुगल हूँ। चौसा-युद्ध में शेरशाह से विपन्न होकर रक्षा चाहता हूँ। इस रात अब आगे चलने में असमर्थ हूँ।"
"क्या शेरशाह से?"--स्त्री ने अपने ओठ काट लिये।
"हाँ, माता!"
"परंतु तुम भी वैसे ही क्रूर हो, वही भीषण रक्त की प्यास, वही निष्ठुर प्रतिबिम्ब, तुम्हारे मुख पर भी है! सैनिक! मेरी कुटी में स्थान नहीं, जाओ कहीं दूसरा आश्रय खोज लो!" "गला सूख रहा है, साथी छूट गये हैं, अश्व गिर पड़ा है---इतना थका हुआ हूँ, इतना।"---कहते-कहते वह व्यक्ति धम से बैठ गया और उसके सामने ब्रह्माण्ड घूमने लगा। स्त्री ने सोचा, यह विपत्ति कहाँ से आई! उसने जल दिया, मुगल के प्राणों की रक्षा हुई। वह सोचने लगी---"सब विधर्मी दया के पात्र नहीं---मेरे पिता का वध करनेवाले आततायी?"---घृणा से उसका मन विरक्त हो गया।
स्वस्थ होकर मुगल ने कहा---"माता! तो फिर मैं चला जाऊँ?"
स्त्री विचार कर रही थी---"मैं ब्राह्मणी हूँ, मुझे तो अपने धर्म—अतिथिदेव की उपासना—का पालन करना चाहिये। परन्तु यहाँ......नहीं-नहीं, सब विधर्मी दया के पात्र नहीं। परन्तु यह दया तो नहीं......कर्तव्य करना है। तब?"
मुगल अपनी तलवार टेक कर उठ खड़ा हुआ। ममता ने कहा---"क्या आश्चर्य है कि तुम भी छल करो; ठहरो।"
"छन! नहीं, तब नहीं स्त्री! जाता हूँ, तैमूर का वंशधर स्त्री से छल करेगा? जाता हूँ। भाग्य का खेल है।"
ममता ने मन मैं कहा---"यहाँ कौन दुर्ग है! यही झोपड़ी
न; जो चाहे ले ले, मुझे तो अपना कर्तव्य करना पड़ेगा।"
वह बाहर चली आई और मुगल से बोली---"जाओ भीतर, थके
हुए भयभीत पथिक! तुम चाहे कोई हो, मैं तुम्हें आ-
हूँ। मैं ब्राह्मण-कुमारी हूँ; सब अपना धर्म छोड़ दें, तो मैं भी क्यों
छोड दूँ?" मुगल ने चन्द्रमा के मन्द प्रकाश में वह महिमामय
सुखमण्डल देखा; उसने मन-ही-मन नमस्कार किया। ममता पास की
टूटी हुई दीवारों में चली गई। भीतर, थके पथिक ने झोपड़ी में
विश्राम कया।
प्रभात में खण्डहर की सुन्धि से ममता ने देखा, सैकड़ों अश्वारोही उस प्रान्त में घूम रहे हैं। वह अपनी मूर्खता पर अपने के कोसने लगी।
अब उस झोपड़ी से निकलकर उस पथिक ने कहा---"मिरजा! मैं यहाँ हूँ।"
शब्द सुनते ही प्रसन्नता की चीत्कार-ध्वनि से वह प्रान्त गूँज उठा। ममता अधिक भयभीत हुई। पथिक ने कहा---"वह स्त्री कहाँ हैं? उसे खोज निकालो।" ममता छिपने के लिये अधिक सचेष्ट हुई। वह मृग-दाव में चली गई। दिन-भर उसमें से न निकली। संध्या में जब उन लोगों के जाने का उपक्रम हुआ, तो ममता में सुना, पथिक घोड़े पर सवार होते हुए कह रहा है---"मिरजा! उस स्त्री को मैं कुछ दे न सका। उसका घर बनवा देना, क्योंकि मैंने विपत्ति में वहाँ विश्राम पाया था। यह स्थान भूलना मत।"---इसके बाद वे चले गये।
अब सत्तर वर्ष की वृद्धा है। वह अपनी झोपड़ी में एक दिन पड़ी थी। शीतकाल का प्रभात था। उसका जीर्ण कंकाल खाँसी से गूँज रहा था। ममता की सेवा के लिये गाँव की दो-तीन स्त्रियाँ उसे घेर कर बैठी थीं; क्योंकि वह आजीवन सबके सुख-दुख की समभागिनी रही।
ममता ने जल पीना चाहा, एक स्त्री ने सीपी से जल पिलाया। सहसा एक अश्वारोही उसी झोपड़ी के द्वार पर दिखाई पड़ा। वह अपनी धुन में कहने लगा---"मिरजा ने जो चित्र बना कर दिया है, वह तो इसी जगह का होना चाहिये। वह बुढ़िया मर गई होगी, अब किससे पूछूँ कि एक दिन शाहंशाह हुमायूँ किस छप्पर के नीचे बैठे थे? यह घटना भी तो सैंतालीस वर्ष से ऊपर की हुई!"
ममता ने अपने विकल कानों से सुना। उसने पास की स्त्री से कहा---"उसे बुलाओ।"
अश्वारोही पास आया। ममता ने रुक-रुक कर कहा---"मैं नहीं जानती कि वह शाहंशाह था, या साधारण मुगल; पर एक दिन इसी झोपड़ी के नीचे वह रहा। मैंने सुना था कि वह मेरा घर बनवाने की आज्ञा दे चुका था! मैं आजीवन अपनी झोपड़ी खोदवाने के डर से भयभीत ही थी! भगवान ने सुन लिया, मैं आज इसे छोड़े जाती हूँ! अब तुम इसका मकान बनाओ या महल मैं अपने चिर-विश्राम-गृह में जाती हूँ!" वह अश्वारोही अवाक् खड़ा था। बुढ़िया के प्राण-पक्षी अनन्त में उड़ गये।
वहाँ एक अष्टकोण मंदिर बना, और उस पर शिलालेख लगाया गया---
'सातो देश के नरेश हुमायूँ ने एक दिन यहाँ विश्राम किया था। उनके पुत्र अकबर ने उनकी स्मृति में यह गगनचुम्बी मन्दिर बनाया।"
पर उसमें ममता का कहीं नाम नहीं।
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