आकाश-दीप
जयशंकर प्रसाद
रूप की छाया

इलाहाबाद: भारती भंडार, पृष्ठ १५७ से – १६२ तक

 





रूप की छाया

काशी के घाटों की सौध-श्रेणी जाह्नवी के पश्चिमी तट पर धवल शैलमाला-सी खड़ी हैं। उनके पीछे दिवाकर छिप चुके। सीढ़ियों पर विभिन्न-वेष-भूषा वाले भारत के प्रत्येक प्रान्त के लोग टहल रहे हैं। कीर्तन, कथा और कोलाहल से जाह्नवी तट पर चहल-पहल है।

एक युवती भीड़ से अलग एकान्त में ऊँची सीढ़ी पर बैठी हुई भिखारी का गीत सुन रही है, युवती कानों से गीत सुन रही है, आँखों से सामने का दृश्य देख रही है। हृदय शून्य था, तारा-मण्डल के विराट गगन के समान शून्य और उदास। सामने गंगा के उस पार चमकीली रेत बिछी थी। उसके बाद वृक्षों की हरियाली और ऊपर नीला आकाश, जिसमें पूर्णिमा का

चन्द्र, फीके बादल के गोल टुकड़े के सदृश, अभी दिन रहते ही गंगा के ऊपर दिखाई दे रहा है। जैसे मन्दाकिनी में जल-विहार करने वाले किसी देव-द्वन्द्व की नौका का गोल पाल। दृश्य के स्वच्छ पट में काले-काले बिन्दु दौड़ते हुए निकल गये। युवती ने देखा, वह किसी उच्च मन्दिर में से उड़े हुए कपोतों का एक झुण्ड था। दृष्टि फिर कर वहाँ गई जहाँ टूटी काठ की चौकी पर, विवर्ण मुख, लम्बे असंयत बाल और फटा कोट पहने एक युवक कोई पुस्तक पढ़ने में निमग्न था।

युवती का हृदय फड़कने लगा। वह उतर कर एक बार युवक के पास तक आई, फिर लौट गईं। सीढ़ियों के ऊपर चढ़ते-चढ़ते उसकी एक प्रौढ़ा संगिनी मिल गई। उससे बड़ी घबराहट में युवती ने कुछ कहा और स्वयं वहाँ से चली गई!

प्रौढ़ा ने आकर युवक के एकान्त अध्ययन में बाधा दी और पूछा---"तुम विद्यार्थी हो?"

"हाँ, मैं हिन्दू-स्कूल में पढ़ता हूँ?"

"क्या तुम्हारे घर के लोग यहीं हैं?"

"नहीं, मैं एक विदेशी, निस्सहाय विद्यार्थी हूँ।"

"तब तुम्हें सहायता की आवश्यकता है।"

"यदि मिल जाय, मुझे रहने के स्थान का बड़ा कष्ट है।"

"हम लोग दो-तीन स्त्रियाँ हैं। कोई अड़चन न हो तो हम लोगों के साथ रह सकते हो।" "बड़ी प्रसन्नता से, आप लोगों का कोई छोटा-मोटा काम भी कर दिया करूँगा।"

"अभी चल सकते हो।"

"कुछ पुस्तक और सामान है उन्हें लेता आऊँ।"

"ले आओ मैं बैठी हूँ।"

युवक चला गया।

×
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गंगा-तट पर एक कमरे में उज्ज्वल प्रकाश फैल रहा था। युवक विद्यार्थी, बैठा हुआ व्यालू कर रहा था। अब वह कालेज के छात्रों में है। उसका रहन-सहन बदल गया है। वह एक सुरुचि-सम्पन्न युवक हो गया है। अभाव उससे दूर हो गये थे।

प्रौढ़ा परसती हुई बोली---"क्यों शैलनाथ! तुम्हें अपनी चाची का स्मरण होता है?"

"नहीं तो, मेरे कोई चाची नहीं हैं।"

दूर बैठी हुई युवती ने कहा---"जो अपनी स्मृति के साथ विश्वासघात करता है उसे कौन स्मरण दिला सकता है।"

युवक ने हँसकर इस व्यङ्ग को उड़ा दिया। चुपचाप घड़ी का टिक्-टिक् शब्द सुनता और मुँह चलता जा रहा था। मन में मनोविज्ञान का पाठ सोचता जाता था---"मन क्यों एक बार एक ही विषय का विचार कर सकता है?"

प्रौढ़ा चली गई। युवक हाथ-मुँह धो चुका था। सरला ने

पान बनाकर दिया और कहा---"क्या एक बात मैं भी पूछ सकती हूँ?"

"उत्तर देने ही में तो छात्रों का समय बीतता है, पूछिये।"

"कभी तुम्हें रामगाँव का स्मरण होता है? यमुना की लोल-लहरियों में से निकलता हुआ अरुण और उसके श्यामल तट का प्रभात स्मरण होता है? स्मरण होता है एक दिन हम लोग कार्तिक-पूर्णिमा-स्नान को गये थे, मैं बालिका थी, तुमने मुझे फिसलते देखकर, हाथ पकड़ लिया था, इस पर साथ की और स्त्रियाँ हँस पड़ी थीं, तुम लज्जित हो गये थे।"

२५ वर्ष के युवक छात्र ने अपने जीवन-भर में जैसे आज ही एक आश्चर्थ की बात सुनी हो, वह बोल उठा---"नहीं तो।"

XXX

कई दिन बीत गए।

गङ्गा के स्थिर जल में पैर डाले हुए, नीचे की सीढ़ियों पर सरला बैठी हुई थी। कारुकार्य-खचित-कंचुकी के ऊपर कन्धे के पास सिकुड़ी हुई साड़ी; आधा खुला हुआ सिर, बङ्किमग्रीवा और मस्तक में कुंकुम-बिन्दु—महीन चादर में—सब अलग-अलग दिखाई दे रहे थे। मोटी पलकोंवाली बड़ी-बड़ी आँखें गंगा के हृदय में से मछलियों को ढूँढ़ निकालना चाहती थी। कभी-कभी वह बीच धारा में बहती हुई डोंगी को देखने लगती। खेनेवाला
जिधर जा रहा है उधर देखता ही नहीं। उलटे बैठकर डाँड़ा चला रहा है। कहाँ जाना है, इसकी उसे चिन्ता नहीं।

सहसा शैलनाथ ने आकर पूछा---

"मुझे क्यों बुलाया है?"

"बैठ जाओ।"

शैलनाथ पास ही बैठ गया। सरला ने कहा---"अब तुम नहीं छिप सकते। तुम्हीं मेरे पति हो, तुम्हीं से मेरा बाल-विवाह हुआ था, एक दिन चाची के बिगड़ने पर सहसा घर से निकल कर कहीं चले गये, फिर न लौटे। हम लोग आजकल अनेक तीर्थों में तुम्हें खोजती हुई भटक रही हैं। तुम्हीं मेरे देवता हो; तुम्हीं मेरे सर्वस्व हो। कह दो---हाँ।"

सरला जैसे उन्मादिनी हो गई है। यौवन की उत्कण्ठा उसके बदन पर बिखर रही थी। प्रत्येक अङ्ग में अंगड़ाई, स्वर में मरोर, शब्दों में वेदना का सञ्चार था। शैलनाथ ने देखा कुमुदों से प्रफुल्लित शरत्-काल के ताल-सा भरा हुआ यौवन! सर्वस्व लुटाकर चरणों में लोट जाने के योग्य सौंदर्य-प्रतिमा। मन को मचला देनेवाला विभ्रम, धैर्य को हिलानेवाली लावण्य-लीला। वक्षस्थल में हृदय जैसे फैलने लगा। वह 'हाँ' कहने ही को था परन्तु सहसा उसके मुँह से निकल पड़ा---

"यह सब तुम्हारा भ्रम है। भद्रे! मुझे हृदय के साथ ही मस्तिष्क भी है।" "गंगाजल छूकर बोल रहे हो! फिर से सच कहो!"

युवक ने देखा गोधूलि-मलिना-जाह्नवी के जल में सरला के उज्ज्वल रूप की छाया चन्द्रिका के समान पड़ रही है। गंगा का उतना अंश मुकुर सदृश धवल था। उसी में अपना मुख देखते हुए शैलनाथ ने कही।

"भ्रम है सुन्दरी! तुम्हें पाप होगा।"

"हाँ, परन्तु वह पाप, पुण्य बनने के लिये उत्सुक है।"

"मैं जाता हूँ। सरला, तुम्हें रूप की छाया ने भ्रान्त कर दिया है। अभागों को सुख भी दुख ही देता है। मुझे और कहीं आश्रय खोजना पड़ा।"

शैलनाथ उठा और चला गया।

विमूढ़ सरला कुछ न बोल सकी। वह क्षोभ और लज्जा से गड़ी जाने लगी। क्रमशः घनीभूत रात में सरला के रूप की छाया भी विलीन हो गई।



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