आकाश-दीप
जयशंकर प्रसाद
प्रणय-चिह्न

इलाहाबाद: भारती भंडार, पृष्ठ १४७ से – १५६ तक

 





प्रणय-चिन्ह

"क्या अब वे दिन लौट आवेंगे? वे आशाभरी संध्यायें, वह उत्साह भरा हृदय---जो किसी के संकेत पर शरीर से अलग होकर उछलने को प्रस्तुत हो जाता था---क्या हो गया?"

“जहाँ तक दृष्टि दौड़ती है, जंगलों की हरियाली। उनसे कुछ बोलने की इच्छा होती है, उतर पाने की उत्कण्ठा होती है। वे हिल कर रह जाते हैं, उजली धूप जलजलाती हुई नाचती निकल जाती है। नक्षत्र चुपचाप देखते रहते हैं,---चाँदनी मुसकिराकर घूँघट खींच लेती है। कोई बोलनेवाला नहीं! मेरे साथ दो बातें कर लेने की जैसे सबने शपथ ले ली है। रात खुलकर रोती भी नहीं---चुपचाप ओस के आँसू गिराकर

चल देती है। तुम्हारे निष्फल प्रेम से निराश होकर बड़ी इच्छा हुई थी कि मैं किसी से सम्बन्ध न रख कर सचमुच अकेला हो जाऊँ। इसीलिए जन-संसर्ग से दूर---इस झरने के किनारे आकर बैठ गया, परन्तु अकेला ही न आ सका, तुम्हारी चिन्ता बीच-बीच में बाधा डालकर मन को खींचने लगी। इसलिए फिर किसी से बोलने की, लेन-देन की, कहने-सुनने की कामना बलवती हो गई।

"परन्तु कोई न कुछ कहता है और न सुनता है। क्या सचमुच हम संसार से निर्वासित हैं---अछूत हैं! विश्व का यह नीरव तिरस्कार असह्य है। मैं उसे हिलाऊँगा; उसे झकझोर कर उत्तर देने के लिए बाध्य करूँगा।"

कहते-कहते एकान्तवासी गुफा के बाहर निकल पड़ा। सामने झरना था, उसके पार पथरीली भूमि। वह उधर न जाकर झरने के किनारे-किनारे चल पड़ा। बराबर चलने लगा, जैसे समय चलता है।

सोता आगे बढ़ते-बढ़ते छोटा होता गया। क्षीण, फिर क्रमशः और क्षीण होकर मरुभूमि में जाकर विलीन हो गया। अब उसके सामने सिकता-समुद्र! चारों ओर घू-घू करती हुई बालू से मिली समीर की उत्ताल तरंगें। वह खड़ा हो गया। एकबार चारो ओर आँख फिरा कर देखना चाहा, पर कुछ नहीं, केवल बालू के थपेड़े। साहस करके पथिक आगे बढ़ने लगा। दृष्टि काम नहीं देती थी, हाथ-पैर अवसन्न थे। फिर भी चलता गया। विरल छायावाले खजूर-कुञ्ज तक पहुँचते-पहुँचते वह गिर पड़ा। न जाने कब तक अचेत पड़ रहा।

एक पथिक पथ भूलकर वहाँ विश्राम कर रहा था। उसने जल के छींटे दिये। एकान्तवासी चैतन्य हुआ। देखा एक मनुष्य उसकी सेवा कर रहा है। नाम पूछने पर मालूम हुआ---'सेवक'।

'तुम कहाँ जाओगे?' उसने पूछा।

'संसार से घबराकर एकान्त में जा रहा हूँ।'

'और मैं एकान्त से घबरा कर संसार में जाना चाहता हूँ।'

'क्या एकान्त में कुछ सुख नहीं मिला?'

'सब सुख था---एक दुःख, पर वह बड़ा भयानक दुःख था। अपने सुख को मैं किसी से प्रकट नहीं कर सकता था, इससे बड़ा कष्ट था।'

'मैं उस दुःख का अनुभव करूँगा।'

'प्रार्थना करता हूँ उसमें न पड़ो।'

'तब क्या करूँ?'

'लोट चल; हम लोग बातें करते हुए जीवन बिता देंगे!'

'नहीं, तुम अपनी बातों में विष उगलोगे।'

'अच्छा, जैसी तुम्हारी इच्छा।'

दोनों विश्राम करने लगे। शीतल पवन ने सुला दिया। गहरी

नींद लेने पर जागे। एक दूसरे को देखकर मुसकराने लगे। सेवक ने पूछा---"आप तो इधर से आ रहे हैं, कैसा पथ है?"

'निर्जन मरुभूमि।'

'तब न तो मैं जाऊँगा; नगर की ओर लौट जाऊँगा। तुम भी चलोगे?'

'नहीं, इस खजूर-कुञ्ज को छोड़कर मैं कहीं न जाऊँगा तुम से बोल-चाल कर लेने पर और लोगों से मिलने की इच्छा जाती रही। जी भर गया।'

'अच्छा तो मैं जाता हूँ। कोई काम हो तो बताओ, कर दूँगा।'

'मेरा! मेरा कोई काम नहीं।'

'सोच लो।'

'नहीं, वह तुमसे न होगा।'

'देखूँगा सम्भव है, हो जाय।'

"लूनी नदी के उस-पार रामनगर के जमींदार की एक सुन्दरी कन्या है; उससे कोई सन्देश कह सकोगे?"

'चेष्टा करूँगा। क्या कहना होगा?'

'तीन बरस से तुम्हारा जो प्रेमी निर्वासित है वह खजूर-कुञ्ज में विश्राम कर रहा है। तुमसे एक चिह्न पाने की प्रत्याशा में ठहरा है। अब की बार वह अज्ञात विदेश में जायगा। फिर लौटने की आशा नहीं हैं।' सेवक ने कहा---'अच्छा जाता हूँ, परन्तु ऐसा न हो कि तुम यहाँ से चले जाओ, वह मुझे झूठा समझे।'

'नहीं, मैं यहीं प्रतीक्षा करूँगा।'

सेवक चला गया। खजूर के पत्तों से झोपड़ी बनाकर एकान्तवासी फिर रहने लगा। उसकी बड़ी इच्छा होती कि कोई भूला-भटका पथिक आ जाता तो खजूर और मीठे जल से उसका आतिथ्य करके वह एक बार गृहस्थ बन जाता।

परन्तु कठोर अदृष्ट-लिपि! उसके भाग्य में एकान्तवास ज्वलन्त अक्षरों में लिखा था। कभी-कभी पवन के झोंके से खजूर के पत्ते खड़खड़ा जाते, वह चौंक उठता। उसकी अवस्था पर वह क्षीणकाय स्रोत रोगी के समान हँस देता। चाँदनी में दूर तक मरुभूमि सादी चित्रपटी सी दिखाई देती।

माँ भूखी थी। बुढ़िया झोपड़ी में दाने ढूँढ़ रही थी। उस पार नदी के कगारे पर दोनों की धुँधली प्रतिकृति दिखाई दे रही थी। पश्चिम के क्षितिज में नीचे अस्त होता हुआ सूर्य बादलों पर अपना रंग फेंक रहा था। बादल नीचे जल पर छाया-दान कर रहा था। नदी में धूप-छाँह बिछा था। 'सेवक' डोंगी लिए, इधर यात्री की आशा में, बालू के रूखे तट से लगा बैठा था।

उसके केवल माँ थी। वह युवक था। स्वामी कन्या से वह

किसी प्रेमी का सन्देश कह रहा था; राजा (जमींदार) को सन्देह हुआ। वे क्रुद्ध हुए, बिगड़ गये, परन्तु कन्या के अनुरोध से उसके प्राण बच गये। तबसे वह डोंगी चलाकर अपना पेट पालता था।

तमिस्रा आ रही थी। निर्जन प्रदेश नीरव था। लहरियों का कल-कल बन्द था। उसकी दोनों आँख प्रतीक्षा की दूती थीं। कोई आ रहा हैं! और भी ठहर जाऊँ---नहीं लौट चलूँ। डाँडे डोंगी से जल में गिरा दिये। 'छप’ शब्द हुआ। उसे सिकता-तट पर भी पद-शब्द की भ्रान्ति हुई। रुककर देखने लगा।

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'माँझी उस पार चलोगे?' एक कोमल कण्ठ, वंशी की झनकार।

"चलूँगा क्यों नहीं, उधर ही तो मेरा घर है। मुझे लौटकर जाना है।"

'मुझे भी आवश्यक कार्य है। मेरा प्रियतम उस पार बैठा है। उससे मिलना है। जल्द ले चलो।' यह कहकर एक रमणी आकर बैठ गई। डोंगी हलकी हो गई, जैसे चलने के लिए नाचने लगी हो। सेवक सन्ध्या के दुहरे प्रकाश में उसे आँखें गड़ाकर देखना चाहता था। रमणी खिलखिलाकर हँस पड़ी। बोली, 'सेवक, तुम मुझे देखते रहोगे कि खेना आरम्भ करोगे।' 'मैं देखता चलूँगा, खेता चलूँगा। बिना देखे भी कोई खे सकता है।'

'अच्छा वही सही। देखो, पर खेते भी चलो। मेरा प्रिय कहीं लोट न जाय, शीघ्रता करो।' रमणी की उत्कण्ठा उसके उभरते हुए वक्षस्थल में श्वास बनकर फूल रही थी। सेवक डाँड़ें चलाने लगा। दो-चार नक्षत्र नील गगन से झाँक रहे थे। अवरुद्ध समीर नदी की शीतल चादर पर खुल कर लोटने लगा। सेवक तल्लीन होकर खे रहा था। रमणी ने पूछा---"तुम्हारे और कौन है!"

'कोई नहीं, केवल माँ है।'

नाव किनारे पहुँच गई। रमणी उतर कर खड़ी हो गई। बोली---"तुमने बड़े ठीक समय से पहुँचाया। परन्तु मेरे पास क्या है जो तुम्हें पुरस्कार दूँ।"

वह चुपचाप उसका मुँह देखने लगा है।

रमणी बोली---'मेरा जीवन-धन जा रहा है। एक बार उससे अन्तिम भेंट करने आई हूँ। एक अँगूठी उसे अपना चिह्न देने के लिए लाई हूँ। और कुछ नहीं है। परन्तु तुमने इस अन्तिम मिलन में बड़ी सहायता की है, तुम्हीं ने उसका सन्देश पहुँचाया। तुम्हें कुछ दिये बिना हमारा मिलन असफल होगा, इसलिए, यह चिह्न अँगूठी तुम्हीं ले लो।'
सेवक ने अँगूठी लेते हुए पूछा---"और तुम अपने प्रियतम को क्या चिह्न दोगी?"

'अपने को स्वयं दे दूँगी। लौटना व्यर्थ है। अच्छा धन्यवाद!' रमणी तीर-वेग से चली गई।

वह हक्का-बक्का खड़ा रह गया। आकाश के हृदय में तारा चमकता था; उसके हाथ में अँगूठी का रत्न। उससे तारा का मिलान करते-करते झोंपड़ी में पहुँचा। माँ भूखी थी। इसे बेचना होगा, यही चिन्ता थी। माँ ने जाते ही कहा---'कब से भोजन बनाकर बैठी हूँ, तू आया नहीं।' बड़ी अच्छी मछली मिली थी। ले जल्द खा ले। वह प्रसन्न हो गया।

एकान्तवासी बैठा हुआ खजूर इकट्ठा कर रहा था। अभी प्रभात का कोमल सूर्य खगोल में बहुत ऊँचा नहीं था। एक सुनहली किरण-सी रमणी सामने आ गई। आत्मविस्मृत होकर एकान्तवासी देखने लगा।

"स्वागत अतिथि! आओ, बैठो।"

रमणी ने आतिथ्य स्वीकार किया। बोली---"मुझे पहचानते हो?"

"तुम्हें न पहचानूँगा प्रियतमे! अनन्त पथ का पाथेय कोई प्रणय-चिह्न ले आई हो तो मुझे दे दो। इसीलिए ठहरा हूँ।' 'लौट चलो। इस भीषण एकान्त से तुम्हारा मन नहीं भरा?'

'कहाँ चलूँगा। तुम्हारे साथ जीवन व्यतीत करने की साधन नहीं; करने भी न पाऊँगा, लौट कर क्या करूँगा? मुझे केवल चिह्न दे दो, उसीसे मन बहलाऊँगा।'

'मैं उसे पुरस्कार-स्वरूप दे आई हूँ। उसे पाने के लिए तो लूनी के तट तक चलना होगा।'

'तो चलूँगा ।'

यात्रा की तैयारी हुई। दोनों लौट चले।

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सेवक जब सन्ध्या को डोंगी लेकर लौटता है तब उसके हृदय में उस रमणी की सुध आ जाती है। वह अँगूठी निकाल कर देखता और प्रतीक्षा करता है कि रमणी लौटे तो उसे दे दूँ। उसे विश्वास था, कभी तो वह आवेगी।

डोंगी नीचे बँधी थी। वह झोपड़ी से निकल कर चला ही था कि सामने वही रमणी आती दिखाई पड़ी। साथ में एक पुरुष था। न जाने क्यों वह डोंगी पर जा बैठा। दोनों तीर पर आकर खड़े हो गये। रमणी ने पूछा---'मुझे पहचानते हो?'

'अच्छी तरह।'

मैंने तुम्हें कुछ पुरस्कार दिया था। वह मेरा प्रणय-चिह्न

था। मेरा प्रिय मुझे नहीं लेगा, उसी चिह्न को लेगा। इसलिए तुमसे विनती करती हूँ कि उसे दे दो।'

'यह अन्याय है। मेरी मजूरी मुझसे न छीनो।'

'मैं भीख माँगती हूँ।'

'मैं दरिद्र हूँ, देने में असमर्थ हूँ।'

निरुपाय होकर रमणी ने एकान्तवासी की ओर देखा। उसने कहा---"तुमने तो उसे लौटा देने के लिए ही रख छोड़ा है। वह देखो तुम्हारी उँगली में चमक रहा है, क्यों नहीं दे देते?"

'मैं समझ गया, इसका मूल्य परिश्रम से अधिक है तो चलो अब की दोनों की सेवा करके इसका मूल्य पूरा कर दूँ, परन्तु दया करके इसे मेरे ही पास रहने दो। जिन्हें विदेश जाना है उनको नौका की यात्रा बड़ी सुखद होती है।' कहकर एक बार उसने झोंपड़ी की ओर देखा। बुढ़िया मर चुकी थी। खाली झोंपड़ी की ओर से उसने मुँह फिरा लिया। डाँड़े जल में गिरा दिये।

रमणी ने कहा---चलो यात्रा तो करनी ही है, बैठ जायँ।

एकान्तवासी हँस पड़ा। दोनों नाव पर बैठ गये। नाव धारा में बहने लगी। रमणी ने हँसकर पूछा---'केवल देखोगे या खेओगे भी?'

'नाव स्वयं बहेगी; मैं केवल देखूँगा ही।'