अयोध्या का इतिहास/१०—अयोध्या के गुप्तवंशी राजा

 

 

दसवा अध्याय।
अयोध्या के गुप्तवंशी राजा।

ईस्वी सन् की तीसरी और चौथी शताब्दी में अयोध्या उजड़ी पड़ी थी। इस राजधानी का पता लगाना कठिन था; और जब विक्रमादित्य ने इसका जीर्णोद्धार करना चाहा तो उसकी सीमा निश्चित करना दुस्तर हो गया। लोग इतना ही जानते थे कि यह नगर कहीं सरयू-तट पर बसा हुआ था और उसका स्थान निश्चय करने में विक्रमादित्य का मुख्य सूचक नागेश्वरनाथ का मन्दिर था जिसका उल्लेख प्राचीन पुस्तकों में मिला। इन्हीं पुस्तकों में और भी स्थानों का पता मिला जिन के दर्शनों को आज तक हजारों यात्री दूर दूर से आते हैं।

यह विक्रमादित्य गुप्तवंश का चन्द्रगुप्त द्वितीय ही हो सकता है। डाक्टर विनसेण्ट स्मिथ कहते हैं कि भारत की जनश्रुतियों और कहानियों में जिस विक्रमादित्य का नाम बहुत आता है वह यही हो सकता है, दूसरा नहीं। चन्द्रगुप्त पहिले शैव था पीछे से भागवत हो गया और अपने शिला-लेखों में अपने को परम भागवत कहने में अपना गौरव समझता है। इसमें सन्देह नहीं कि मौर्य सम्राट गुप्तों से भी बड़े साम्राज्य पर पुरानी राजधानी पाटलिपुत्र से शासन करते थे, परन्तु इसके सुदूर पूर्व में होने से कुछ न कुछ असुविधा होती ही थी। कुछ मध्य में होने से और कुछ इस कारण से कि चन्द्रगुप्त भागवत हो गया था, राजधानी अयोध्या को उठा कर लाई गई। आज-कल अयोध्या में गुप्त-राज्य का स्मारक केवल जन्म स्थान की मसजिद के कुछ खंभे हैं।

गुप्त पाटलिपुत्र से आये थे। प्राच्य-विद्या-विशारद लोग इस बात को भूल जाते हैं कि भारत के सम्राट अपने प्रतिनिधि-भोगपतियों पर इतना विश्वास नहीं करते थे जितना अंग्रेजी सरकार करती है। मुग़ल सम्राटों के अधिकृत पश्चिम के प्रान्तों पर लाहौर से शासन किया जाता था और अकबर और जहाँगोर दोनों वहाँ साल में कई महीने रहते थे। पठान सम्राटों के इतिहास से उन्हें विदित हो गया था कि भोगपति अपनी मनमानी करने पाते तो स्वतंत्र राजा बन बैठते। अशोक ने राजूकों[] को पूरे अधिकार दे दिये थे। राजूक अंग्रेजी राज के कमिश्नर के पद के रहे हों या गवर्नर के। अशोक काे अनुभव से यह विदित हो गया था कि अपनी प्रजा राजूकों को सौंप कर वह ऐसा निश्चिन्त रहता था जैसे कोई अपना बच्चा चतुर धाय को सौंप कर सुचित्त हो जाता है। समुद्रगुप्त की एक राजधानी झूँसी में थी जो इलाहाबाद के सामने गंगा उस पार अब एक छोटा सा गांव है और उसके बनाये हुये दुर्ग के पत्थर कुछ तो अकबर के किले में लग गये और कुछ अब तक गाँव में इधर उधर पड़े हैं। झूँसी का प्रसिद्ध कुआँ समुद्रकूप दुर्ग के भीतर रहा होगा। बी० एन० डबल्यू रेलवे लाइन के पास हँसतीर्थ से छतनगा तक गंगा के उत्तर तट पर पैदल चलने का कष्ट उठाया जाय और आँखें खुली रहें तो अब तक खड्ड मिलते हैं जिनमें पक्की नेंवें देख पड़ती हैं। जिस स्तम्भ के ऊपर हरिषेण की प्रशस्ति खुदी है वह पहिले काशाम्बी में रहा हो परन्तु जब यह प्रशस्ति खोदी गई तो प्रयाग ही में था। चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ई० ३७५ में सिंहासन पर बैठा और ई० ३९५ उसने मालवा जीता जिसकी राजधानी उज्जयिनी थी। मालवा अत्यन्त समृद्ध प्रान्त था और उस देश की, वहां के रहने-वालों और वहाँ के शासन की बड़ाई चीनी यात्री फ़ाहियान करता है, जो इसी विक्रमादित्य के शासन काल में भारत-यात्रा को आया था। डाक्टर विन्सेण्ट स्मिथ का कथन है कि सौराष्ट्र और मालवा प्रान्तों को जीतने से साम्राट को बड़े धनी और उपजाऊ सूबे तो मिल ही गये, पश्चिमी समुद्र तट पर बन्दरगाहों की भी राह खुल गई और जल-मार्ग द्वारा मिश्र की राह से यूरप के साथ व्याेपार होने लगा और उसकी सभा और उसकी प्रजा दोनों को पाश्चात्य यूरपो विचारों का ज्ञान हो गया जिसे सिकंदरिया के व्यापारी अपने माल के साथ लाते थे।

इससे हमारे इस अनुमान को पुष्टि होती है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय की राजधानी उज्जैन में भी थी और उज्जैन ही से वह अयोध्या आया था जिसका वर्णन उसकी सभा के महाकवि ने अपने रघुवंश काव्य के सर्ग १६ में किया है। इस यात्रा में उसने विन्ध्याचल को पार किया[] और हाथियों का पुल बना कर गङ्गा उतरा।[]

अवध गजे़टियर में विक्रमादित्य के राज-काल को एक और जन- श्रुति लिखी है। वह यह है कि राजा विक्रमादित्य ने अयोध्या में अस्सी वर्ष राज किया। यह मान लिया जाय कि राजधानी अयोध्या में ई० ४०० में आई तो अस्सी वर्ष ई० ४८० में बीत गये होंगे, जब कि प्रोफेसर तकाक्सू के अनुसार गुप्तराज का अन्त हो गया।

परन्तु प्रोफेसर तकाक्सू के अनुमान से एक और बात सिद्ध होती है। बालादित्य बसुबन्धु का चेला था और उसे अयोध्या से कोई अनुराग न था जैसा कि चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य को था। कुछ हूणों के आक्रमण से कुछ कुमार-गुप्त के उत्तराधिकारियों की निर्बलता से गुप्त राजा फिर पुरानी राजधानी को लौट गया, और अयोध्या पर जोगियों अर्थात् ब्राह्मण साधुओं का अधिकार हो गया और इन लोगों ने बल पा कर अयोध्या में निर्बल बौद्ध साम्राज्य का रहना कठिन कर दिया। हम यहाँ एक बात और कहना चाहते हैं जो इन लोगों के ध्यान में नहीं आ सकती जो अयोध्या के रहनेवाले नहीं हैं। जिस टीले पर जन्म स्थान की मसजिद बनी है उसे यज्ञ-बेदी कहते हैं। ई० १८७७ में गोविन्द द्वादशी के पहिले जब कि मसजिद के भीतर बहुतेरे कुचल कर मर गये थे और गली चौड़ी की गई और टीले पर अस्तर करा दिया गया, इस टीले में से जले-जले काले-काले चाँवल खोद कर निकाले जाते थे और कहा जाता था कि ये चाँवल दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ के हैं। हम इनको उस यज्ञ के चाँवल समझते हैं जो चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने राजधानी के जीर्णोद्धार के समय किया था। प्रसिद्ध है कि विक्रमादित्य ने अयोध्या में ३६० मन्दिर बनवाए थे। अब उनमें से एक जन्म स्थान का मन्दिर मसजिद के रूप में वर्तमान है।

अवध में गुमराज का दूसरा चिह्न गोंडे के जिले में देवीपाटन का टूटा मंडप है।

अयोध्या के इतिहास को कवि कालिदास के जीवन-काल पर विचार से कोई विशेष लगाव नहीं है। परन्तु यह मान लिया जाय कि वह महाकवि विक्रमादित्य चन्द्रगुप्त की सभा का एक रत्न था तो वह अपने आश्रयदाता के साथ अवश्य अयोध्या आया होगा। हम कुछ अपने विचार इस विषय में यहाँ लिख देते हैं। परन्तु हमें कोई विशेष आग्रह इनके ठीक होने का नहीं है। इसकी विवेचना फिर कभी की जायगी।

महाकवि कालिदास के लेखों से विदित होता है कि वे किसी सूखे पहाड़ी और रेतीले देश के रहनेवाले थे। यही हमारे गुरुवर महामहोपाध्याय पंडित हरप्रसाद शास्त्री, एम० ए०, सी० आई० ई०, का मत है। उनकी जन्मभूमि होने का गौरव मन्दसोर को प्राप्त हुआ और वह सब से पहिले उज्जयिनो में विक्रमादित्य के दरबार में आये। उनकी प्रतिभा ने उन्हें तुरन्त राजकवि के पद पर पहुंचा दिया। हिन्दुस्तानी दरबार के कविलोग सदा राजा के साथ रहते हैं और आज-कल भी जब राजा विनोद चाहता है तो उसे समयानुकूल कविता सुनाते हैं। ऐसे अवसरों के लिये ऋतुसंहार के भिन्न-भिन्न खंड रचे गये थे। यहीं उस ज्येष्ठ महा-राजकुमार का जन्म हुआ था जो पीछे कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य के नाम से सम्राट हुआ और उसी अवसर के स्मरणार्थ सात सर्गों में कुमार सम्भव (कुमार का जन्म) काव्य रचा गया। चन्द्रगुप्त झूँसी में ठहरा हुआ था; तब कालिदास को पुरूरवस और उर्वशी की कथा की सुध आई और विक्रमोर्वशी नाटक रच डाला गया। नाटक के नाम के आदि में विक्रम शब्द अपने आश्रयदाता के नाम को अमर करने के लिये जोड़ा गया।

और आर्य राजाओं की भाँति, गुप्तराजा भी मृगया के बड़े व्यसनी थे। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के एक सिक्के में राजा वान से एक सिंह मार रहा है। अभिज्ञानशाकुन्तल का नायक दुष्यन्त जिस बन में शिकार खेलने जाता है उसमें बनैले सूअर (वराह), अरने (महिष) और जंगली हाथी भी हैं। यह स्थान आजकल के बिजनौर प्रान्त के उत्तर का हिस्सा है। यहीं मालिनी (आजकल की मालिन) गढ़वाल की पहाड़ियों से निकल कर घूमती हुई गंगा में गिरती है। बूढ़ी गंगा के तट पर हस्तिनापूर यहाँ से ५० मील है। जब हस्तिनापूर जाने लगता है तो राजा दुष्यन्त शकुन्तला को एक अंगूठी देता है जिसके नगीने पर उसका नाम खुदा हुआ है। गुप्तकाल में जो देव नागरी लिपि प्रचलित थी उसमें दुष्यन्त में पाँच अक्षर होते हैं, द ष य न त। बिदा होते समय नायक शकुन्तला से कहता है कि प्रतिदिन एक-एक अक्षर गिनना और पाँचवें दिन जब पाँचवाँ अक्षर गिनोगी तो तुमको हस्तिनापूर ले जाने के लिये सवारी आयेगी। कालिदास का भौगोलिक ज्ञान बहुत ठोक रहता है और राजा का कहना तभी ठीक उतरेगा जब कन्व का आश्रम बिजनौर को पहाड़ियों में माना जायगा। इसी आश्रम के पास चन्द्रगुप्त-द्वितीय अपने राजकवि के साथ अहेर को गया था। राजा धन्वी तो था ही, बड़ा बलवान भी था। वह हाथी की भाँति पहाड़ पर चढ़ता उतरता है।[] बनरखों को आधी रात के पीछे हँकवा कहने की आज्ञा थी। दिन के अहेर के पीछे जो जन्तु मारे जाते थे उन्हें भून कर राजा के साथ सभासद भी दिन को समय कुसमय खाते थे। यह सब चन्द्रगुप्त को अच्छा लगता रहा हो परन्तु महाकवि को रुचि के प्रतिकूल था। उसको हँकवे के कारण सोते से जागना बुरा लगता था। कहाँ राज-सदन का स्वादिष्ट भोजन और कहाँ बन का खाना; कहाँ कोमल गद्दे पर सोना और कहाँ बन में पयाल पर पड़ना, सो भी नींद भर सोने न पाना। यही बातें उसने नाटक में विदूषक के मुँह से कहलाई हैं।

यह भी विचित्र बात है कि कृष्ण और रुक्मिणी के नाम पहिले नाटक मालविकाभि में हैं परन्तु दो बड़े नाटकों (अभिज्ञानशाकुन्तल और विक्रमोर्वशी) में विष्णु के अवतारों का कहीं नाम नहीं। इससे यह अनुमान किया जाता है कि यह दोनों चन्द्रगुप्त के भागवत होने से पहिले लिखे गये थे और इसमें भी सन्देह नहीं कि चन्द्रगुप्त उज्जयिनी ही में भागवत हो गया था।

राजा के धर्म बदलने के पीछे संस्कृत साहित्य का दूसरा रत्न मेघदूत रचा गया। मेघ की यात्रा रामगिरि से आरम्भ होती है जिसको बनवास में श्रीराम जानकी के निवास का श्रेय है। चित्रकूट पर्वत में उनके जग-बंद्य चारण चिह्न हैं। दूत मेघ को हनुमान की उपमा दी गई है और यक्ष की स्त्री को सीता की।[] कालिदास को उज्जयिनी से प्रेम था, उसका आश्रयदाता भी उसे चाहता था इसलिये वह उज्जयिनी को कैसे छोड़ सकता था। उज्जयिनी मेघ की उस राह में नहीं है जो प्रकृति के अचल नियमों ने उसके लिये बना रक्खी है, परन्तु मेघ को अपनी राह से

  1. पाश्चात्य विद्वानों का यह मत है कि राजूक कुछ दिन बीते दिविर कहलाये पीछे इनका नाम कायस्थ पढ़ गया।
  2. व्यलंघयद् विन्ध्यमुपायनानि पश्य पुलिन्दै रुपपादितानि।
  3. तीथे तदीये गजसेसुतबन्धात् प्रतीपंगामुत्तरतोऽथ गङ्गाम्।
  4. गिरिचर इव नाग; माणसारं विति।
  5. इत्याल्याते पवनतनयं मैथिलीवोन्मुखी सा।