अयोध्या का इतिहास/११—अयोध्या के योगी वैश्य श्रीवास्तव्य परिहार और गहरवार वंशी राजा

[ १३६ ]भटक कर उज्जयिनी जाने को कह रहा है[१] और उसे यह सूचना दे रहा है कि न जाओगे तो तुम्हारा जीना अकारथ है।[२]

इसके पीछे अयोध्या में दरबार उठ आया और कालिदास हमारी पावन पुरी में पहुंचा। यहाँ उसने संस्कृत भाषा का सर्वोत्तम महाकाव्य रघुवंश रचना प्रारम्भ किया और इसमें "उस प्रसिद्ध तेजस्वी राजवंश की मुख्य बातें लिखी जो सूर्य भगवान से निकला और जिसमें साठ प्रतापी और अनिन्द्य राजाओं के पीछे मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र ने अवतार लिया।" इनके पीछे इसमें अग्निवर्ण तक सूर्यवंशी राजाओं का संक्षिप्त वर्णन है।

कालिदास अपने स्वामी के साथ हिमालय की तरेटी में देवीपाटन गया था और उसने पहिले और दूसरे सर्गों में पर्वत का दृश्य लिखा है। उसे चन्द्रगुप्त द्वितीय के दिग्विजय का पूरा ज्ञान था जिसका उसने सर्ग, ४ में वर्णन किया! उसने झूँसी के किले से गंगा और यमुना का संगम देखा था (जहाँ से अब भी संगम का दृश्य सबसे अच्छा देख पड़ता है) और सर्ग १३ में उसकी छटा दिखाई। वह अपने स्वामी के साथ उज्जैन से अयोध्या आया था, अयोध्या की उजड़ी दशा उसने अपनी आँखों देखी थी, अयोध्या में राजधानी स्थापन करते समय भी उपस्थित था जिसका विवरण सर्ग १६ में है।

दुर्भाग्यवश रघुवंश समाप्त न हो सका। महाकवि के पास जगन्नियन्ता का बुलावा आ गया और उसने अपनी अमर आत्मा को अपने इष्टदेव युगल सरकार को सौंप कर सरयू बास लिया और अपनी अमूल्य रचना को केवल भारतवासियों के लिये नहीं वरन् सारे सभ्य संसार के लिये उत्तम साहित्य का अक्षय धन छोड़ गया। [ १३७ ] 

ग्यारहवाँ अध्याय
अयोध्या के जोगी, बैस, श्रीवास्तव्य, परिहार और
गहरवार वंशी राजा

जोगी—"जनश्रुति यह है कि राजा विक्रमादित्य ने अयोध्या में ८० बरस राज किया; उसके पीछे समुद्रपाल योगी ने जादू से राजा के जीव को उड़ा दिया और आप उसके शरीर में प्रविष्ट हो कर राजा बन बैठा। जोगियों का राज १७ पीढ़ी तक रहा। उन्होंने ६४३ बरस राज किया। इसमें एक एक राजा का शासन काल बहुत बड़ा होता है।" [३]

हमारा मत यह है कि अयोध्या में सनातन धर्म का प्रभाव मौर्यों के समय में भी नहीं घटा था। गुप्तों के चले जाने पर यहाँ साधुओं का राज स्थापित हो गया। राजा के शरीर में योगी के घुसने का तात्पर्य यही है कि उसने अपना अधिकार जमा लिया। गुप्तों के राज के अन्त से ६४३ बरस ४८०+६४३=११२३ में समाप्त होते हैं और यह असंभव है।

बैस—हर्षवर्द्धन के राज में जो ई० ६०१ से ६४७ तक रहा, अयोध्या, कन्नौज राज के आधीन रही। फैजाबाद जिले के भिटौरा गाँव में प्रतापशील और शीलादित्य के सिक्के मिले हैं। इन दोनों को मुद्राविज्ञान के प्रसिद्ध विद्वान् सर रिचर्ड वन प्रभाकरवर्द्धन और हर्षवर्द्धन के उपनाम बताते हैं। चीनी यात्री ने जो इस नगर का वर्णन लिखा है वह उपसंहार में दे दिया गया है।

श्रीवास्तम—(श्रीवास्तव्य)—ई० ६४७ में हर्षवर्द्धन के मरने पर उसका राज छिन्न-भिन्न हो गया और घाघरा पार के श्रीवास्तव्यों ने राजधानी और उसके आस पास के प्रान्त पर अपना अधिकार जमा लिया। [ १३८ ]यह स्मरण रखने की बात है कि गुप्तों के चले जाने पर अयोध्या का शासन सुदूर की राजधानी से होता था और श्रीवास्तव्य, कभी पूरी और कभी अधूरी स्वतंत्रता से ईस्वी सन् की ग्यारहवीं शताब्दी के अन्त तक अयोध्या का शासन करते रहे। [४] [ १३९ ]

परिहार—आठवीं शताब्दी में अयोध्या कन्नौज के परिहारों के शासन में चली गई। परिहारों का राज कन्नौज से १६० मील उत्तर श्रावस्ती से काठियावाड़ तक और कुरुक्षेत्र से बनारस तक फैला हुआ था। इस वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा भोजदेव हुआ जिसे आदिवराह भी कहते हैं। यह परमारवंशी राजा भोज से भिन्न था और इसने ई० ८४० से ८९० तक पचास बरस राज किया। सुलतान महमूद ग़ज़नवी की चढ़ाई के समय कन्नौज में परिहार राजा राज्यपाल राज करता था। [५] ई० १०१५ में चन्द्रदेव गहरवार ने परिहारों को परास्त कर दिया । परिहार वंश के पतन पर गड़बड़ मच गया। उन्हीं दिनों सैय्यद सालार मसऊद गाजी ने [ १४० ]अवध पर आक्रमण किया और बहराइच में अपनी हड्डियाँ सड़ने को छोड़ गया। उस समय अवध अनेक छोटे छोटे राज्यों में बंटा हुआ था परन्तु अवध ग़जेटियर के अनुसार उसके मुख्य सामना करनेवाले श्रीवास्तव्य थे यद्यपि लोग यही कहते हैं कि राजा सुहेलदेव ने जय पाई थी।

चन्द्र के विषय में एक शिलालेख लिखा है कि उसने अनेक शत्रु राजाओं को जीत कर कान्यकुब्ज को अपनी राजधानी बनाया। मिस्टर सी० ची० वैद्य लिखते हैं कि "हर्ष के समय से कन्नौज, भारतवर्ष का रोम, अथवा कुस्तुन्तुनिया हो रहा है। जो राजा उसे स्वाधिकृत करता वह भारतवर्ष का सम्राट माना जाता।" इस लिये चन्द्र ने यद्यपि कन्नौज के प्रतीहारों के आखिरी राजा को आसानो से जीत लिया तथापि अन्य राजाओं ने उसका विरोध किया होगा। चन्द्र के दो लेखों में पाँचाल के राजा के लिये "चपल" विशेषण प्रयोग किया गया है। इससे यह अनुमान किया जाता है कि प्रतिहार राजा दूसरे बाजीराव के समान भागता फिरता था। और चन्द्र उसका पीछा करता था। "चन्द्र ने कन्नौज का राज लेकर देश को तुर्कों के त्रास से मुक्त किया। ऊपर लिखा जा चुका है कि कन्नौज के प्रतीहार राजा ग़जनी के सुलतान को कर दिया करते थे। चन्द्र ने कर वसूल करने वालों को मार भगाया। उसने काशी चुशिक (कन्नौज?) उत्तर-कोशल भी अपने अधीन कर लिया था।

गहरवार वंश का सब से प्रसिद्ध राजा गोविन्द चन्द्र था।

गोविन्द चन्द्र बड़ा प्रतापी राजा था। उसी ने सबसे पहिले नरपति, हयपति, गजपति, राज्य विजेता का विरुद ग्रहण किया। इसकी दूसरी राजधानी बनारस थी। उसके युद्ध मंत्री लक्ष्मीधर कायस्थ श्रीवास्तव्य ने व्यवहार कल्पद्रुम नाम का धर्मशास्त्र का ग्रन्थ रचा।[६] यह बड़ा दानी राजा था। इसके अब तक ४० दान पत्र मिले हैं। [ १४१ ]

इस वंश का अन्तिम राजा जयचन्द्र भी बड़ा प्रतापी राजा था उसके नाम के दो शिलालेख मिले हैं, एक फै़ज़ाबाद में मिला था जिसमें सं० १२४४ में उसने कुमाली गाँव भारद्वाज गोत्र के ब्राह्मण अलंग को दिया था। इस दानपत्र में विष्णु और लक्ष्मी देवता हैं। दूसरा दानपत्र इलाहाबाद में थोड़े दिन हुये मिला है। इसमें जयचन्द्र, परमभट्टारक इत्यादि राजावली पंचतयोपेत, अश्वपति, गजपति, नरपति, राजत्रपाधिपति, विविध-विद्या-विचार-वाचस्पति कहा गया है।

सन् ११९५ में जयचन्द्र मुहम्मद ग़ोरी से लड़ा। उसका हाथी उसे रणभूमि से लेकर भागा और गंगा में डूब गया। जयचन्द्र के मरते ही हिन्दू साम्राज्य का सूर्य अस्त हो गया।

  1. वर पन्या यदपि भक्तो प्रस्थितस्योत्तराशाम्।
  2. वंचितोऽसि।
  3. Oudh Gazetteer, Vol. 1, page 3.
  4. जान पड़ता है कि ईस्वी सन् की बारहवीं शताब्दी में अयोध्या से श्रीवास्तव्यों के पांव उखड़े और देश में मुसलमानों का अधिकार हो गया। हम अपनी कायस्थ वर्ण मीमांसा की अंग्रेज़ी भूमिका में लिख चुके हैं कि हमारे मुसलमान शासकों का भी माल के काम में बिना कायस्थों के काम न चला और मिस्टर पन्नालाल जी, आई० सी० एम०, जो श्रीवास्तव्य ही हैं लिखते हैं कि ईस्वी सन् की तेरहवीं शताब्दी में अयोध्या का एक श्रीवास्तव्य उन्नाव जिले के असोहा परगने का कानूनगो मुकर्रर किया गया था। उन दिनों कानूनगो का वही काम था जो आज-कल डिप्टी कमिश्नर और मुहतमिम बन्दोवस्त करता है। इसके पीछे सुना जाता है कि सरयूपार अमोढ़े में श्रीवास्तव्य राजा रहे। चौदहवीं शताब्दी में राजा जगतसिंह सुलतानपूर के सूबेदार थे। ई० १३७६ में गोरखपूर के पास राप्ती के तट पर होमनगढ़ के डोम राजा ने अमेदिर परगने के कुरघंड गांव में एक पाँडे ब्राह्मण से कहा कि हमें अपनी बेटी दे दो। ब्राह्मण ने न माना और डोम ने उसके परिवार को कारागार में बन्द कर दिया। लड़की अयोध्या की यात्रा के बहाने राजा जगतसिंह के पास पहुंची और उनसे सरन मांगी। राजा जगतसिंह ने डोम पर चढ़ाई कर दी और उसको मार कर लड़की उसके बाप को सौंप दी। ब्राह्मण लड़की पाकर कृतार्थ हो गया और उसने कहा "मैं आप को क्या दूँ मेरे पास सब से मंहगी वस्तु मेरा यज्ञोपवीत है" और उसने अपना जनेऊ उतार कर राजा के गले में डाल दिया। राजा ने ब्राह्मण का प्रतिग्रह स्वीकार कर लिया और उनके वंशज अब तक अमोदा के पांडे कहलाते हैं। दिल्ली के साम्राट ने जगतसिंह को अमोढ़ा का राज दे दिया। कुछ दिन पीछे सूर्यवंशियों ने उनकी रियासत बंटा ली तो भी श्रीवास्तव्य बहुत दिनों तक अमोढ़ा के राजा रहे । अयोध्या के निकले हुये और श्रीवास्तव्यों का हाल उपसंहार में है।
    फ़ैज़ाबाद और उसके पास के जिलों के कायस्थ अब भी ब्राह्मणों और ठाकुरों के बाद हिन्दू समाज के प्रतिष्ठित अंग माने जाते हैं, और पिछले सौ बरस के भीतर उस वंश में प्रसिद्ध पुरुष नवाब आसफ़द्दौला के मंत्री महाराज टिकैतराय, बलरामपुर के जनरल रामशंकर, फ़ैज़ाबाद के राय राम शरणदास बहादुर और अयोध्या के आनरेबुल राय श्रीराम बहादुर सी० आई० थे। अयोध्या छोड़ने के पीछे श्रीवास्तव्य इलाहाबाद जिले के कड़े में आकर बसे और दूर दूर तक फैले। कड़े को पहिले कट कहते थे। यह नगर बहुत बड़ा था। यहां से पाँच मील उत्तर पश्चिम पारस गांव में सं० ११९७ का एक शिलालेख मिला है उसमें कड़े को श्रीमान् लिखा है। गढ़वा का शिलालेख सं० ११९९ का है। इसमें से जैसा ऊपर लिखा जा चुका है श्रीवास्तव्य ठाकुर कहलाते हैं। हम यह भी लिख चुके हैं कि गढ़वा में श्रीवास्तव्य ठाकुर ने नवग्रह का मन्दिर बनाया था और मेवहड़ में सिद्धेश्वर का। इससे विदिन है कि सात सौ बरस पहिले इलाहाबाद प्रान्त के श्रीवास्तव्य बड़े प्रतिष्ठित सनातन-धर्मी थे।
  5. इसी राजा ने हारमान कर महमूद को कर (खिराज) देना स्वीकार किया जो शिलालेखों में तुरुकदर कहलाता है।
  6. Colebrooke's Digest of Hindu Law.