अयोध्या का इतिहास/९—अयोध्या और बौद्धमत
नवाँ अध्याय
अयोध्या और बौद्धमत
"अवध के एक दूसरे महा पुरुष का भी अयोध्या से घनिष्ठ सम्बन्ध है और संसार के इतिहास पर विशेष रूप से अंकित होने से किसी की तुलना हो तो यह पुरुष श्रीराम से भी बड़ा है। शाक्य बुद्ध कपिलवस्तु के राजकुमार थे जो आजकल के गोरखपूर के पास एक नगर था। और उनका कुल कोशल के सूर्यवंश की एक शाखा थी। अयोध्या में उन्होंने अपने धर्म के सिद्धान्त बनाये और अयोध्या ही में बरसात के दिनों में रहा करते थे।"[१]
"किसी धर्म की जाँच उच्चतम धर्मनीति को शिक्षा से अथवा अंतःकरण के अत्यन्त शुद्ध उद्गार से की जाय तो इस बात के मानने में संदेह हो जायगा कि अबतक किसी मनुष्य के हृदय में इससे उच्चतम विचार उत्पन्न हुये हैं जैसे कि पीछे से एक बौद्ध महात्मा के थे; "हम अपनी व्यक्ति के लिये निर्वाण पाने का न प्रयत्न करेंगे न उसे ग्रहण करेंगे और न अकेले उस शान्ति को प्राप्त करेंगे वरन् हम सर्वदा और सर्वत्र सारे संसार के प्रत्येक जीव के शान्ति पाने का उद्योग करेंगे। जब तक सबका उद्धार न हो जायगा हम इस पाप और दुःख भरे संसार को न छोड़ेंगे और यहीं रहेंगे।"?
बौद्ध ग्रंथों में अयोध्या को साकेत और विशाखा कहते हैं। दिव्याव दान में साकेत की व्याख्या यों की गयी हैं।
- "स्वयमागतं स्वयमागतं साकेत साकेतमिति संज्ञा संवृत्ता"।
संस्कृत में केत का अर्थ है बुलाना; आ उपसर्ग लगाने से अर्थ उलट जाता है[२] इसलिये आकेत का अर्थ हुआ, आप से आप आना और स लगा देने से अर्थ हुआ, "किसी के साथ आप से आप आना ।"
विशाखा नाम पड़ने का कारण यह है ।
प्रारम्भिक बौद्ध-कालीन इतिहास में विशाखा देवी का नाम बहुत प्रसिद्ध है । विशाखा राजगृह के एक धनी व्यापारी धनञ्जय की बेटी थी। धनञ्जय राजगृह से साकेत में आकर बसा था और उसने विशाखा का विवाह श्रावस्ती नगर के रहने वाले मृगर से पुत्र पूर्णवर्धन के साथ कर दिया था। विशाखा उन लोगों में से थी जिन्होंने सबसे पहिले बौद्धधर्म ग्रहण किया और उसने श्रावस्ती में बुद्धदेव के लिये एक मठ बनवाया था जिसका पूरा नाम प्राकृत में पुब्बाराम-मृगर-मातु-प्रासाद अर्थात् “पूर्वाराम, मृगर की माता का महल था ।” मृगर विशाखा का ससुर था परन्तु जब उसकी पुत्रबधू ने उसे बौद्धधर्मावलम्बी बना दिया और वह बुद्ध-भक्त हो गया तब से उसे अपनी माता कहता था। विशाखा ने अयोध्या में भी एक पूर्वाराम बनाया था। इसी के नाम पर कुछ दिन पीछे नगर भी विशाखा कहलाने लगा, जिसे चीनी यात्री हुआंगच्यांग पिसोकिया कहता है। अयोध्या के पूर्वाराम में बुद्ध १६ वर्ष रहे थे।
जब बुद्धदेव अयोध्या में रहते थे उन्हीं दिनों एक बार उन्होंने अपनी दतून फेंक दी थी जो जम गई और उस पेड़ को एक हजार वर्ष पीछे चीनी यात्री फाइहान और उसके भी ढाई सौ वर्ष पीछे हुआन च्वांग ने देखा था। इस दतून से उगे पेड़ का स्थान उस भ्रम का समूलोच्छेदन करता है जो कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने साकेत और अयोध्या के एक होने में किया है।
साकेत के विषय में फ़ाहियान लिखता है[३] कि दक्षिण के फाटक से निकल कर सड़क की पूर्व ओर वह स्थान है, जहां बुद्धदेव ने अपनी दतून गाड़ दी थी। इस दतून से सात आठ फुट ऊँचा पेड़ उगा जो न घटा न बढ़ा। पिसाेकिया के विषय में यही कथा हुआन च्वांग ने लिखी है। वह कहता है कि राजधानी के दक्षिण और सड़क की बाईं ओर (अर्थात् पूर्व जैसा कि फ़ाहियान कहता है) कुछ पूजा के योग्य वस्तुओं में एक विचित्र पेड़ छः सात पुट ऊँचा था जो न घटता था न बढ़ता था। यही बुद्धदेव की दतून का प्रसिद्ध बृक्ष था।
आजकल भी अयोध्या से फैज़ाबाद को चलें तो हनुमानगढ़ी से कुछ आगे चल कर सड़क की बाई और एक तलाव है जिसे दतून कुंड कहते हैं। जनता का विश्वास है और अयोध्या माहात्म्य में भी लिखा है कि इसी कुण्ड के किनारे बैठकर श्रीरामचन्द्र जी दतून कुल्ला किया करते थे। पर विचारने से यह अनुमान किया जाता है कि यह कुण्ड या तो उस स्थान पर है जहां पर बुद्धदेव की दतून गाड़ी गई थी, या उसी के पास एक तलाब बनाया गया था जिसके विषय में भक्तों की यह भावना थी कि गौतम जी जब अयोध्या में रहते थे तो इसी कुंड के जल से आचमन करते थे। पेड़ सूख गया परन्तु तलाव बुद्धदेव के निवास का स्मारक अब तक विद्यमान है। दक्षिण का फाटक हनुमान गढ़ी के निकट होगा और गढ़ी कदाचित् दक्षिण का बुर्ज हो तो आश्चर्य नहीं। हनुमानगढ़ी से सरयू तट एक मील से कुछ अधिक है। परन्तु नदी की धारा बहुत बदला करती है। और सम्भव है कि जब चीनी यात्री यहाँ आया था तो नदी और उत्तर बहती रही हो। हमारी याद में नदी ने बस्ती और गोंडा जिलों की हजारों बीघा धरती काट दी है और कई मील दरिया बरार अयोध्या में मिल गया है। हुआन च्वांग ने पिसोकिया राजधानी की परिधि १६ ली मानी है। इसके भीतर बड़ी राजधानी नहीं समा सक्ती। हम समझते हैं कि यह रामकोट की परिधि है जो श्री रघुनाथजी का कि़ला माना जाता है और जिसका जीर्णोद्धार गुप्त-वंशी राजाओं ने किया था। डाक्टर फ़ूरर का मत है कि गोंडावाले इस पेड़ को चिलविल का पेड़ मानते हैं जो छः या सात फुट से अधिक ऊँचा नहीं जाता। यह पेड़ करौंदा भी हो सकता है जिसकी दतूनें अब भी अवध में विशेष कर लखनऊ में की जाती हैं । दतून का जमना कोई अनोखी बात नहीं है। कानपूर जिले के घाटमपूर नगर में तहसील से एक मील की दूरी पर एक महन्त का पक्का मकान है जिसके दूसरे खंड पर एक नीम का पेड़ बीच से फटा हुआ है। यह पेड़ दो सौ वर्ष हुये दतून गाड़ देने से उगा था।
इन बातों से मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि मैं जनता के विश्वास पर आक्षेप करूँ। भक्त जन को इस बिचार से सन्तोष हो सक्ता है कि बुद्धदेव भी विष्णु भगवान् के वैसे ही अवतार थे जैसे श्री रघुनाथजी। यह भी सम्भव है, कि बुद्ध भगवान् ने पहिले अवतार का स्मरण करके अपनी दतून वहीं गाड़ दी, जहाँ रामावतार में दतून किया करते थे।
बौद्ध-कालीन अयोध्या का वर्णन लिखने से पहिले बौद्ध-ग्रन्थों के अनुसार बौद्धावतार से पहिले अयोध्या और उसके राजाओं का कुछ वर्णन करना अनावश्यक न होगा। बौद्ध-ग्रन्थों का वर्णन ईसा मसीह के प्रादुर्भाव से सात सौ वर्ष पहिले के आगे नहीं बढ़ता । इन अन्थों से विदित है कि कोशल देश में सरयू तट पर एक नगर अजोझा (अयोध्या का प्राकृत रूपान्तर) बसा हुआ था। यही साकेत भी था। मध्यकालीन संस्कृत साहित्य में साकेत और अयोध्या पर्यायवाची हैं। महाकवि कालिदास रघुवंश सर्ग ९ में राजधानी को अयोध्या [४] और सर्ग १६ में साकेत [५] लिखता है, और यह कौन कहेगा कि श्री रघुनाथ जी के विवाह के समय का नगर उनके बनवास से लौटते समय से भिन्न था। बुद्धदेव के समय में दोनों नगर विद्यमान थे। सम्भव है कि दोनों पास-पास हों जैसे इंगलिस्तान में लण्डन और वेस्टमिंस्टर हैं। हम यह भी अनुमान करते हैं कि बुद्धदेव के निवास स्थान के पास-पास जो बस्ती बसी वह साकेत कहलायी और पुराना नगर ब्राह्मण धर्मानुसारी बना रहा। यही बात विशाखा जी के मठ के पास की बस्ती के विषय में कही जा सकती है।
चौद्धग्रन्थों से यह भी विदित है कि बुद्ध भगवान् ने अपने सूत्र अञ्जन बाग़ में सुनाये थे और यह बारा अयोध्या ही में था। सूर्यवंश के इतिहास में यह लिखा जा चुका है कि कोशलराज को राजधानी अयोध्या से उठ कर श्रावस्ती को चली गई थी। बौद्ध ग्रन्थों में श्रावस्ती के राजा कोशल कहलाते थे। इसमें कोई विचित्रता नहीं। महाभारत के पीछे जो सूर्यवंशी राजा हुये उसमें हिरण्यनार्भ को विष्णुपुराण में कौशल्य लिखा है। उनका राज उत्तर की पहाड़ी से लेकर दक्षिण गङ्गा तट तक और पूर्व गंडक नदी तक फैला हुआ था और बनारस भी इसी के अन्तर्गत था। सच तो यों है, कि कोशलराज और मगधराज दोनों बनारस के लिये सदा लड़ा करते थे। बुद्धदेव से पहिले कोशल राजा कंक, देवसेन और कंस ने कई बार बनारस पर आक्रमण किया। अन्त को कंस ने उसे जीत लिया और इसी से वाराणसीविजेता उसका एक विरुद् है। ई० पू० सातवीं शताब्दी में शाक्यों ने भी कोशल की आधीनता स्वीकार कर ली थी।
बौद्धमत के प्रचार से पहिले कोशलराज के अन्तर्गत आजकल का सारा संयुक्त प्रान्त हो नहीं वरन् इससे कुछ अधिक था।" इस बड़े राज की समृद्धि से व्यापारी सुरक्षित हो कर इसकी एक ओर से दूसरी ओर तक जाते और राज-कर्मचारी इधर-उधर फिरा करते थे। इन्हीं राष्ट्रीय प्रबन्धों से परिव्राजकों की संस्था की उन्नति हुई। कोशल राज से पहिले परिव्राजकों का होना पाया नहीं जाता और इसमें सन्देह नहीं कि इन्हीं परिव्राजकों ने सारे देश में एक राष्ट्र-भाषा के साहित्य का प्रचार किया जो कोशलराज की छत्रछाया में उत्तरोत्तर उन्नति पाता रहा।
यह साधारण भाषा एक बातचीत की भाषा थी। इसका आधार राजधानी श्रावस्ती के आस-पास की बोली थी। इसी को कोशलराज के कर्मचारी बोलते थे। व्यापारी और पढ़े-लिखे सभ्य लोग केवल कोशलराज ही में नहीं वरन् पूर्व से पश्चिम और पटने से दिल्ली तक और उत्तर दक्षिण श्रावस्ती से उज्जैन तक सब की यही बोली थी। परन्तु यह भी स्मरण रखना चाहिये कि राजधानी श्रावस्ती उठ जाने पर भी साकेत उत्तर भारत के बड़े पाँच नगरों में गिना जाता था। शेष चार, काशी, श्रावस्ती, कौशाम्बी और चंपा थे।
बुद्धदेव ने अयोध्या में रह कर क्या-क्या काम किये इसका पूरा ब्यौरा हमको नहीं मिला परन्तु इतना तो निश्चित है कि अञ्जन बाग में बौद्धमत के बहुत से सूत्र बतलाये गये थे। बुद्धिष्ट इण्डिया (Buddhist India) में अवदान का प्रमाण देकर यह लिखा है कि अञ्जन बुद्धदेव के नाना थे। इनके नाम का बाग अयोध्या में कैसे बना यह जानना कठिन है।
अब हम प्रसेनजित के पूर्व पुरुषों पर विचार करेंगे। महाभारत के पीछे जो सूर्यवंशी राजा हुये उनमें प्रसेनजित सत्ताईसवाँ है। बौद्धमत के प्रन्थों में प्रसेनजित के पिता का नाम महाकोशल है। परन्तु महाकोशल का अर्थ है बड़ा कोशल। इससे हमें कोई विशेष लाभ नहीं होता। प्रसेनजित बहुत अच्छा राजा था और उसके राज में जितने धर्मावलम्बी थे सब पर बराबर अनुग्रह करता था और जब इन नये धर्म के प्रचार के आरम्भ ही में उसने विशेष रूप से अपने को बौद्धधर्म का अनुयायी बताया तो उसके ऐसे भाव और भी पुष्ट हो गये। यह भी जानने योग्यहै कि जब सम्राट अशोक ने अपनी प्रजा को यह आज्ञा दी थी कि अपने पड़ोसी के धर्म को बुरा न कहें तो उसने भारतीय आर्यों की इस सहनशीलता को और भी बढ़ा कर दिखा दिया । यही कारण है जो अयोध्या में ब्राह्मणधर्म और बौद्धधर्म दोनों साथ-साथ निभते रहे। पर कोशल ही को यह श्रेय प्राप्त हुआ कि इसका पहिला राजा था जिसने भगवान् बुद्ध ही से उनके धर्म की दीक्षा ली। यह राजा प्रसेनजित था। हम राकहिल के बुद्धदेव के जीवन-चरित से [६] प्रसेनजित का जीवनचरित उद्धृत करते हैं। प्रसेनजित श्रावस्ती का राजा अरनेमि ब्रह्मदत्त का बेटा था और उसका जन्म उसी समय हुश्रा था जब बुद्धदेव ने अवतार लिया था। वह बड़ा शक्तिशाली राजा था और उसके पास बहुत बड़ी सेना थी। उसके दो रानियाँ थीं। एक वार्षिका जो मगध-राज बिम्बिसार की बहिन थी और दूसरी कपिलवस्तु के शाक्य महानामा की बेटी मल्लिका थी, जो अपनी चतुराई और अद्भुत स्पर्श के लिये प्रसिद्ध थी। दोनों के एक एक पुत्र हुआ वर्षिका का बेटा जेत और मल्लिका का विरूधक था। श्रावस्ती का एक धनी व्यापारी सुदत्त राजगृह में जाकर एक ऐसे सज्जन के यहाँ ठहरा जिसने बुद्धदेव को भोजन के लिये नेवता दिया था। सुदत्त बुद्ध जी का नाम सुनकर उनसे मिलने के लिये जिस आम के बारा में उनका डेरा था वहां गया और उनका चेला हो गया। उसने बुद्धदेव से श्रावस्ती पाने के लिये कहा। श्रावस्ती में कोई बिहार न था। इस लिये बुद्ध जी के लिये उसने एक बिहार बनाना निश्चय किया। बिहार बनाने के लिये जेत के बाग में एक जगह ठीक हुई। जेत ने इसका बहुत मूल्य मांगा। उसने इतनी मोहरें माँगी जितनी उस धरती पर बिछ सकें। सुदत्त मान गया और मोहरें बिछने लगीं। परन्तु मोहरें सारी जगह बिछ न चुकी थीं कि जेत ने सोचा जो जगह बची है, वह बुद्ध जी के भेंट कर दी जाय और उसने उस जगह पर एक दालान बनवा कर संघ को दे दिया। तब से उस जगह का नाम जेतबन पड़ गया। प्रसेनजित यहीं पर बुद्धदेव के दर्शन को आया था और कुमार-दृष्टान्त-सूत्र नामक उनका व्याख्यान सुनकर चौद्ध हो गया। उसके थोड़े दिनों के पीछे उसने कपिलवस्तु के शाक्य राजा शुद्धोधन के पास कहला भेजा "हे राजा, बधाई है तुम्हारे पुत्र ने अमृत प्राप्त कर लिया है, और उससे मनुष्य मात्र को तृप्त कर रहा है।" शुद्धोधन ने बुद्ध जी को कई बार बुला भेजा। जब न्यग्रोद्धाराम बन चुका तो बुद्ध जी वहाँ गये और केवल राजा ही को नहीं वरन अपने पुत्र और स्त्री को भी बौद्ध-धर्म की दीक्षा दी।
इसी बीच में मगध के राजा बिम्बिसार ने भी दीक्षा लेली। उनकी रानी वासवी विदेह घराने की कन्या थी। उसके एक पुत्र अजातशत्रु था। ऐसा जान पड़ता था कि बुद्ध के विरोधी देवदत्त ने जिसने अपना एक नया अलग पन्थ निकाला था अजातशत्रु को जब वह सयाना हुआ तो यह पट्टी पढ़ाई कि अपने बाप को मार कर राज्य ले लो। उसके पिता बिम्बिसार ने उसको संतुष्ट करने के लिये उसको बहुत सा राज्य दिया पर उसका जी न भरा। तब राजा ने राजगृह भी दे डाला केवल कोश अपने अधीन रक्खा। किन्तु देवदत्त ने अजातशत्रु से कहा कि राजा वही है जिसके पास कोश हो। तब अजातशत्रु की बातों पर राजा ने कोश भी दे दिया। केवल इतनी प्रार्थना की कि इस दुष्ट देवदत्त का साथ छोड़ दो। इस पर क्रुद्ध होकर अजातशत्रु ने अपने पिता को वन्दी-गृह में डाल दिया जिससे वह भूखों मर जाय। पर वैदेही रानी को वहाँ जाने की आज्ञा थी और वह वहाँ एक कटोरे में खाना ले जाती थी। जब कारागार के नौकरों से राजा को यह मालूम हुआ तो उसने हुक्म दिया कि यदि रानी भोजन ले जायगी ता उसको प्राणदंड दिया जायगा। तब रानी ने एक चाल चली। अपने शरीर पर वह खाने की चीजों का एक लेप लगा कर और अपने प्रोले कड़ों में पानी भर कर वहाँ जाने लगी। और इस तरह राजा को उसने जीवित रक्खा। यह चाल भी खुल गई और उसको फिर राजा के पास जाने की आज्ञा न रही। तब बुद्धदेव गिद्ध टीले पर जाकर राजा को दूर से देखने लगे और उनको देखकर राजा कुछ दिनों तक जीवित रहे। अजातशत्रु को जब यह बात मालूम हुई तब उसने खिड़की चुनवा दी और पिता के तलवों काे दगवा दिया।
इसके पीछे अजातशत्रु गद्दी पर बैठा । इस पाप के प्रसेनजित से बिगाड़ हो गया। लड़ाई में विजय कभी एक ओर होती थी कभी दूसरी ओर। कहा जाता है कि एक बार अजातशत्रु पकड़ा गया और हथकड़ी बेड़ी पहना कर शत्रु की राजधानी में भेज दिया गया! अन्त में संधि हो गई और कोशल-राजघराने की एक लड़की का विवाह मगध के राजा से हो गया।
एक बार बुद्ध जी जब राजगृह गये तब अजातशत्रु ने अपने पिता के मरने का पश्चात्ताप किया और उनका चेला हो गया। बिम्बिसार की भांति प्रसेनजित की मृत्यु भी शोचनीय रही। प्रसेनजित बुड्ढा हो गया था और कोशलराज पाने के लिये विरूधक की उत्कंठा बढ़ती जाती थी। विरूधक एक दिन शिकार खेलता कपिल-वस्तु के निकट शाक्यों के एक बाग में घुस गया। इससे शाक्य बहुत बिगड़े और उसके बध का प्रयत्न करने लगे। परन्तु वह निकल भागा और शाक्यों से बदला लेने को बहुत से सिपाही लेकर उसी बाग में फिर घुस गया। शाक्यों को उनके बड़े बूढ़ों ने बहुत समझाया परन्तु उन्होंने न माना और विरूधक को मारने पर उतारू हो गये। जब विरुधक ने सुना कि कपिल-वस्तु के शाक्य उसके मारने को आ रहे हैं तो उसने अपने एक सिपाही से कहा, "हम सेना समेत छिपे जाते हैं तुमसे शाक्य लोग कुछ पूछे तो कहना कि चले गये।" जब शाक्य लोग बाग में पहुंचे और विरुधक को न पाया तो उस सिपाही से बोले "यह लौंडी-बच्चा कहां गया?" सिपाही ने कहा "भाग गये।"
कुछ शाक्य कहने लगे "हम उसे पकड़ पाते तो उसके दोनों हाथ काट डालते।" किसी ने कहा "हम उसके पाँव काट डालते।" कोई बोला "हम उसे जीता न छोड़ते, अब वह भाग गया तो क्या करें।" इस पर उन्होंने कहा "यह बाग अशुद्ध हो गया, इसको शुद्ध करना चाहिये। जहाँ-जहाँ उस नीच के पाँव पड़े हैं वहाँ मिट्टी डाल दो। जिस दीवार को उसने छुआ है उसे फिर से अस्तर करके नई कर दो। बाग भर में दूध और पानी छिड़क दो, सुगन्धित जल डाल दो, सुगन्ध फैला दो और अच्छे से अच्छे फूल बिछा दो।"
विरूधक के सेवकों ने शाक्यों की सारी बातें उस से कहीं। इस पर विरूधक आग बगूला हो गया और बोल उठा, "पिता के मरने पर हम राजा होंगे तो हमारा पहिला काम यह होगा कि हम शाक्यों को मार डालेंगे। तुम सब हमारे इस संकल्प में सहायता करने की प्रतिज्ञा करो।"
इसके पीछे वह अपने पिता के विरुद्ध षड्यन्त्र रचने लगा। उसने प्रसेनजित से पाँच सौ सभासदों को मिला लिया, अकेले दीर्घाचार्य ने न माना। कुछ दिन पीछे दीर्घाचार्य भी उसके पक्ष में आ गया, और अपने स्वामी से अपने मन का भाव छिपाये रहा। एक दिन प्रसेनजित एक रथ में बैठ कर जिसका सारथी वहाँ दीर्घाचार्य था, बुद्धदेव के दर्शन को एक शाक्य नगर में चला गया। जब वह नगर के पास पहुंचा तो उसने राजचिह्न छत्र-चमर आदि दीर्घाचार्य को इस विचार से दे दिये कि गुरु के सामने विनीत भाव से जाना चाहिये। वह वंचक दीर्घाचार्य तुरन्त श्रावस्ती लौट गया और उसने राजचिह्न विरूधक को दे दिये और विरूधक कोशलराज के सिंहासन पर बैठ गया। राजा प्रसेनजित बुद्धदेव के दर्शन करके लौटे तो उनको बिदित हुआ कि दीर्घाचार्य ने धोखा दिया और वह पैदल राजगृह की ओर चले। यहाँ उनकी दोनों रानियाँ, वार्षिका और मल्लिका मिली। जान पड़ता है कि विरूधक ने उनको निकाल दिया था और दोनों अपने पति की विपत्ति बँटाने राजगृह जा रही थीं। उन्हीं से प्रसेनजित ने जाना कि विरूधक राजा बन बैठा है। प्रसेनजित ने मल्लिका से कहा कि तुम अपने बेटे के साथ राज का सुख भोग करो और उसे समझा बुझा कर श्रावस्ती लौटा दिया। वार्षिका के साथ प्रसेनजित राजगृह की ओर गया और दोनों राजा अजातशत्रु के एक बाग में ठहरे। प्रसेनजित का राजगृह आने का समाचार देने वार्षिका अजातशत्रु के पास चली गई। पहिले तो अजातशत्रु कुछ डरा परन्तु जब उसे यह विदित हुआ कि प्रसेनजित राज्यच्युत हो कर अकेला अपनी रानियों के साथ राजगृह आया है तो उसके उचित अतिथि सत्कार का प्रबन्ध करने लगा। इसमें देर हुई और भूखा प्यासा प्रसेनजित एक शलजम के खेत में चला गया जहाँ किसान ने उसे कुछ शलजम उखाड़ दिये। भूख का मारा प्रसेनजित उन्हें जड़ पत्ते समेत चबा गया और पानी पीने एक तालाब पर पहुँचा। पानी पीते ही उसके पेट में पीड़ा उठी और उसके हाथ-पाँव ऐंठने लगे। वह सड़क की पटरी पर गिर पड़ा जहाँ गाड़ियों की धूर इतनी उड़ रही थी कि वह दम घुट कर मर गया।
राजा अजातशत्रु को प्रसेनजित की लाश सड़क पर मिली और उसकी अन्त्येष्टि क्रिया उसने योग्यतानुसार कराई। रानी वार्षिका ने राजगृह ही में अपने दिन काटे। यह विचित्र बात यह है कि बुद्धदेव के पहिले दो बड़े शिष्यों को उनके बेटों ही ने मार डाला। हमारी समझ में यह आता है कि दोनों धर्म भ्रष्ट और ब्राह्मणों के पक्षपाती थे। ब्राह्मण उन दिनों प्रबल थे और अपनी प्रभुता पर जिस बात से किसी प्रकार का धक्का लगने की सम्भावना जानी उसके समूल नष्ट करने में कुछ उठ न रखा। बौद्धग्रन्थों में यह भी लिखा है कि प्रसेनजित का एक बेटा तिब्बत पहुँचा और उस देश का पहिला राजा हुआ। यह राजा सनङ्ग सेतसेन के अनुसार ई० पू० ३१३ में सिंहासन पर बैठा। ग्रठन था-सेल-को-मी लाँग इसका राजत्व काल ई० पू०४१६ के पीछे लिखता है। हम इसको ठीक मानते हैं यद्यपि इसमें भी बाप-बेटे के समय के डेढ़ सौ बरस का अन्तर पड़ता है। हम समझते हैं कि तिब्बत का पहिला राजा प्रसेनजित का कोई वंशज था। उसके बेटे विरुधक ने शाक्यों का वध किया था वह बौद्धों का आश्रय-दाता कैसे हो सकता है? और न इस बात का प्रमाण मिलता है कि सूर्यवंश में उसका कोई उत्तराधिकारी इस नये धर्म का पक्षपाती था। सूर्यवंश के पीछे शिशुनाक वंश के राजा नन्दिवर्द्धन के विषय में कहा जाता है कि उसने अयोध्या में एक स्तूप वनवाया जो अब मणिपर्वत के नाम से प्रसिद्ध है। सम्राट अशोक ने विस्तृत राज्य में तीन बरस के भीतर ८४००० स्तूप बनवाये थे। उनसे अयोध्या कैसे वंचित रह सकती थी? पुरातत्वज्ञान ही की खोज से खुदाई की जाय तो यह निश्चय हो सकता है कि शाहजूरन का टीला और सुग्रीव पर्वत आदि टीले जो अयोध्या में फैले हुये हैं अशोक के बनाये स्तूपों के भन्नाव- शेष हैं। अयोध्या में पत्थर नहीं है और ईट चूने का काम कानपूर के भीतरीगाँव के मन्दिर की भाँति राह से हटा हुआ न हो तो सुगमता से खुद कर नये मकानों के बनाने में काम आ जाता है।
पुष्यमित्रवंशी बौद्धधर्म के बैरी थे। इनके पीछे गुप्तों के राज्य में हम सुनते हैं कि महायान संप्रदाय का गुरु वसुबन्धु पुस अयोध्या में रहता था। वसुबन्धु कौशिक ब्राह्मण पुरुषपुर (पेशावर) का रहनेवाला था। उसने अयोध्या में आकर विक्रमादित्य को अपना चेला बनाया। विक्रमादित्य के मरने पर युवराज वालादित्य और उसकी माता दोनों ने जो वसुबन्धु के चेले थे, उसे अयोध्या बुलाया और यहीं वह अस्सी बरस की अवस्था में मर गया।
जापान के सुप्रसिद्ध विद्वान् तकाक्सू निश्चित रूप से कहते हैं कि यहस विक्रमादित्य, स्कन्धगुप्त था जिसने ई० ४५२ से ई० ४८० तक राज किया और उसका उत्तराधिकारी बालादित्य ई० ४८१ में सिंहासन पर बैठा था। डाक्टर विन्सेण्ट स्मिथ ने भी इस पर विचार किया है। उनका यह मत है कि समुद्रगुप्त ने वसुबन्धु को या तो अपना मंत्री बनाया या अंतरङ्ग सभासद किया। इसमें उसका पिता प्रथम चन्द्रगुप्त भी सहमत था। स्मिथ साहब का यह भी मत है कि चन्द्रगुप्त ने अपनी किशोरावस्था में बौद्धधर्म सीखा था और उसका पक्षपाती था यद्यपि ऊपर से ब्राह्मण धर्मानुयायी बना हुआ था।
चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में पहिला चीनी यात्री फ़ाहियान अयोध्या में आया था। वह अयोध्या को शाची कहता है जो चीनी भाषा में साकेत का रूपान्तर है। उसकी यात्रा का निम्नलिखित वर्णन जेम्स लेग (James Legge) के फ़ाहियान ट्रेवेल्स (Fahian's Travels,) में दिया हुआ है जिसका अनुवाद यह है :—
"यहाँ से तीन योजन दक्षिण पूर्व चलने पर शाची का विशाल राज्य मिला। शाची नगर के दक्षिण फाटक से निकल कर सड़क के पूर्व वह स्थान है जहाँ बुद्धदेव ने अपनी दतून गाड़ दी थी। वह जम गयी और सात हाथ ऊँचा पेड़ हो कर रुक गया, न घटा न बढ़ा। विरोधी ब्राह्मण बहुत बिगड़े।"
दूसरा चीनी यात्री ह्वानच्चांग है जो बैस राजा हर्षवर्द्धन के समय में भारतवर्ष की यात्रा को आया था और उसी के सामने प्रयागराज में हर्षवर्द्धन ने बड़ा मेला कराया जिसमें सब बड़े बड़े धार्मिक संप्रदायों के विद्वान उपस्थित थे। उसकी यात्रा का वर्णन उपसंहार द और ध मेंदिया हुआ है। ह्वानच्वाग ने दो नगर लिखे हैं पिसोकिया जो विशाखा का चीनी रूप है और अयूटो (अयोध्या)। दोनों नगर मिले हुये थे परन्तु भिन्न थे। सम्भव है कि यात्री पहिले एक नगर में आया फिर धूमता फिरता दूसरे नगर में पहुँचा। उसने भी दतून के विषय में वही बात लिखी है जिसका उल्लेख ऊपर हो चुका। उसके वर्णन से यह विदित है कि हुआनच्वांग की यात्रा के समय अयोध्या में बौद्धमत फैला हुआ था। इस यात्री के प्रभाव से हर्षवर्धन बौद्ध हो गया था, परन्तु गुप्तों के जाने पर अयोध्या में जो परिवर्तन हुआ, वह चटपट नष्ट कैसे हो सकता था। हमारा अनुमान यह है गुप्तवंश के अन्तिम राजा पर वसुबन्धु का जो प्रभाव पड़ा वह डेढ़ सौ बरस तक स्थिर रहा।
इसके पीछे ईसवी सन की दसवीं शताब्दी के अन्त और ग्यारहवीं शताब्दी के आदि में फिर सुना जाता है कि अयोध्या में बौद्धधर्मावलम्बी शासक था। वङ्गाल, बिहार और अवध पाल-साम्राज्य के अन्तर्गत थे और पाल राजा बौद्ध थे। अन्तिम राजा का नाम महीपाल था। ग्यारहवीं शताब्दी के आदि में एक बड़ी राज्यक्रान्ति हुई। बिहार महीपाल के उत्तराधिकारियों के अधिकार में बौद्धधर्मावलम्बी रह गया और महीपाल के पुत्र चन्द्रदेव के शासन में अवध में ब्राह्मणधर्म स्थापित हो गया जैसा कि आजतक है।