अतीत-स्मृति/१५ प्राचीन भारत में युद्ध-व्यवस्था

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१५-प्राचीन भारत में युद्ध-व्यवस्था

प्राचीन समय से लेकर आज तक भारत में युद्ध ने अनेक प्रकार के दृश्य दिखाये हैं। प्राचीन भारत के जातीय जीवन में युद्ध एक मामूली बात थी। पहले भारत में आते ही। आर्यजाति को अनेक युद्ध करने पड़े। उन्हें यहाँ के प्राचीन निवासियों के साथ तो लड़ना ही पड़ा, पर परस्पर भी उनमे खूब युद्ध होता था। ऋग्वेद में वसिष्ठ और विश्वामित्र के युद्ध का वर्णन इस बात का प्रमाण है। आर्य-जाति ने युद्धो ही मे परास्त करके यहाँ के प्राचीन निवासियों को अपना दास बनाया। दास के जो कार्य निर्दिष्ट हैं वे इन लोगो के ऊपर हमारी जीत की इस समय भी गवाही दे रहे हैं। आर्यों को, राक्षस और दानव कहे जाने वाले बाहरी शत्रुओं से भी खूब लड़ना पड़ा! उन्होंने इन लोगों के साथ कई बार बड़े-बड़े युद्ध किये। इनका वर्णन वेदों तक में पाया जाता है। राक्षसों के साथ श्रआर्य जाति को निरन्तर युद्ध करना पड़ा। इसीसे उस समय आर्यों को अपना समुदाय तीन भागों में विभक्त करना पड़ा-पहला ब्राह्मण, दूसरा क्षत्रिय नाम से अभिहित हुआ। ब्राह्मणों का कार्य देश में शान्ति स्थापना और क्षत्रियों का अपने देश की रक्षा शत्रुओं से करना निश्चित हुआ। [ १६५ ] ये दो विभाग हो जाने से कृषि, वाणिज्य आदि अन्यान्य कार्य करने वाले तीसरे विभाग में गिने गये। वे वैश्य कहलाये।

आर्यों के वैदिक देवता भी बड़े युद्ध-प्रिय थे। युद्ध करना उनका स्वाभाविक काम थ। युद्ध मे इन्द्र की अच्छी प्रतिष्ठा थी। युद्ध ही में विजय पाने के कारण इन्द्रदेव इन्द्रासन के मालिक हुए है। आप देवराज भी, इसी कारण, कहलाये है। इन्द्र ने बड़े बड़े राक्षसों का वध किया है। वृत्रासुर, विप्रु और संवर आदि के अतिरिक्त और भी अनेक राक्षसों का आपने नाश किया है। हमारे प्राचीन कवियों ने इन्द्र के इस बड़े भारी महत्व के कारण अपनी कविताओं में इनके इन गुणों का खूब ही वर्णन किया है। वेदो में इन्द्र की अनेक स्तुतियां है। अग्नि, मित्र, वरुण, मरूर और अश्विनीकुमार आदि भी युद्ध में विजयी हुए थे। इसीसे वे भी बड़े यशस्वी और प्रतिष्ठापात्र माने गये हैं। प्राचीन समय में, जब क्षत्रिय लोग युद्ध मे जाने के लिए तैयार होते थे तब, अपने अपने इष्ट देवताओं से युद्ध में अपनी सहायता के लिए प्रार्थना करते थे। युद्ध के समय, प्राचीन काल में, सोमपान खूब किया जाता था। सोमपान से शरीर में बल की वृद्धि होती थी। और युद्ध में बलवान ही की जीत होती है। अध्यापक राज-गोपालाचार्य्य, एम॰ ए॰, ने इस विषय में एक महत्व-पूर्ण लेख "इंडियन-रिव्यू" में प्रकाशित किया है। अँगरेजी़ न जानने वाले पाठको के सुभीते के लिए उसका सारांश आगे लिखा जाता है।

हमारे यहाँ युद्ध दो प्रकार का था। एक धर्म-युद्ध, दूसरा [ १६६ ] कूटयुद्ध। धर्म-युद्ध पूर्व-निश्चित नियमों के अनुसार होता था। कूटयुद्ध में नियमों की पावन्दी न होती थी। छल, कपट और चालबाज़ी से एक दूसरे को हराने को चेष्टा करता था। कूटयुद्ध प्रायः राक्षस लोग ही करते थे। इसीलिए देवता भी उन्हें परास्त करने के लिए कूटयुद्ध का आश्रय लेने लग गये थे। पर कूटयुद्ध का महत्व कोई भी पक्ष स्वीकार नहीं करता था। जहाँ तक होता था, लोग धर्म-युद्ध का ही आश्रय लेना पसन्द करते थे। धर्म-युद्ध का अधिक महत्व होने पर भी लोग शस्त्रास्त्रों के नये नये आविष्कारों से उदासीन न थे। तरह तरह के धनुष, बाण, भाले, बर्छे और ज़िरह-बस्तर आदि युद्धोपयोगी वस्तुओं का प्रचार धीरे धीरे खूब बढ़ गया था। युद्ध-विद्या में उस समय अच्छी तरक्की हो चुकी थी। प्राचीन आर्य छोटी ही छोटी लड़ाई न लड़ा करते थे। वे, लाखों मनुष्य एकत्र करके लड़ाई के मैदान में कभी कभी बाकायदा हट जाते थे। हमारे प्राचीन ग्रन्थों में बड़े बड़े युद्धों का वर्णन है। रामायण के समय से लगा कर महाभारत के समय तक कई बड़े बड़े युद्ध हुए हैं। उनमे प्रत्येक पक्ष के योद्धाओं की संख्या लाखों थी। इस से सिद्ध है कि उस समय युद्ध-विद्या विशेष उन्नत हो गई थी और आर्य लोग खूब रणनिपुण हो चुके थे। चक्रव्यूह के सदृश कितने ही व्यूहों को रचना करके वे युद्ध करते थे। महाभारत में कई स्थानों पर इस प्रकार की रचनाओं का वर्णन है। एक व्यूह-रचना वे ऐसी करते थे जिसमें सैनिकों का मुँह चारों ओर शत्रु के सामने ही रहता [ १६७ ] था; शत्रु का कोई भी अंश सेना के पीछे से आक्रमण न कर सकता था।

जो नवीन अस्त्र या शस्त्र पहले-पहल आविष्कृत होता था उसे धर्म-युद्ध के नियमानुसार कोई भी युद्ध के काम में न ला सकता था। उसको काम में लाने के लिए दोनो पक्षों की स्वीकृति दरकार होती थी। दोनों पक्ष उस आयुध को काम में लाना जब अच्छी तरह जान लेते थे तभी उसका व्यवहार होता था। यही बात, किसी समय, यूरोप में भी थी। लोग नवीन शस्त्रास्त्रों को राक्षसी था दानवी समझते थे। इसलिए धनुष और गोली-गोले आदि वहाँ बहुत पीछे से, धीरे धोरे काम में लाये जाने लगे। पहले पहल यूरोप में, अप्रचलित शस्त्रास्त्रों को काम में लानेवाले सैनिक, लड़ाई के मैदान में, बिना दोनो पक्षो की स्वीकृत के नहीं आ सकते थे। पर अब तो थल-सुरंग और जल-सुरंग जैसे भयानक और नाशक यन्त्रों के प्रयोग की भी कोई रोक टोक नहीं। सन् १९०७ ईसवी मे, हेग की द्वितीय शान्ति-सभा ने, अपने तृतीय अधिवेशन तक के लिए इस विषय में एक नियम बना दिया था। इस नियम में हवाई जहाजों द्वारा गोले या वम फेंकने की, विशेष कर अरक्षित स्थानो पर, मनाही है। पर वर्तमान घोर संग्राम में जर्मनी ने इस नियम को तोड़ डाला है । अव हवाई जहाजो से यथेच्छ धड़ाधड़ गोले बरसाये जा रहे हैं। यह कोई आश्चर्य्य कारक और नई बात नही। हमारे यहाँ भी राक्षस लोग धर्म-युद्ध का तिरस्कार करके कभी कभी कूट-युद्ध करने लगते थे। उन्हें [ १६८ ] परास्त करने के लिए देवता भी उसी नीति का अवलम्बन करते थे। इन्द्र ने वृत्रासुर को इसी तरह मारा था। इन्द्र का यह कार्य उस समय भी विशेष प्रशंसनीय न समझा गया था।

धीरे धीरे समय ने पलटा खाया और सभ्यता का प्रभाव अधिक पड़ने लगा। अतएव स्मृतियों और धर्म-शाखों ने धर्म-युद्ध ही का अधिक महत्व निश्चित किया। स्मृतियों में राज-धर्म के साथ युद्ध का घनिष्ट सम्बन्ध माना गया है। अर्थ-शास्त्र, (Political Economy) में भी युद्ध और शासन-शक्ति की वृद्धि के कारणों पर विचार किया गया है। मनु और याज्ञवल्क्य की स्मृतियों में, महाभारत तथा कई एक पुराणों में, शुक्राचार्य, कामन्दक और कौटिल्य के ग्रन्थों में, युद्धविग्रह के तत्वों की खूब विवेचना की गई है। वह बड़े मारके की है। राजा को युद्ध से भूमि और शक्ति का लाम तो होता है, पर उसे हानि भी बहुत उठानी पड़ती है। अर्थ-शास्त्र और स्मृति-ग्रन्थ युद्ध को केवल राज-धर्म निभाने के लिए ही उपयुक्त समझते हैं। युद्ध से प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट न पहुँचे, इसलिए लड़ने वाले दोनों पक्षों को यथाशक्ति उद्योग करना पड़ता है। प्रजा से युद्ध का सम्बन्ध करना वे अनुचित समझते हैं।

महाभारत के शान्ति पर्व के अध्याय ५७ और ५८ में राजनीति तथा राज-धर्म का अच्छा विवेचन है। उससे पता चलता है कि प्राचीन काल में राजा के अस्तित्व, राजा के संरक्षण और शत्रु-मित्र के साथ सन्धि तथा विग्रह के लाभों को लोग अच्छी [ १६९ ] तरह समझते थे। राजनीति को रचना करनेवाले कितने ही महर्षियों के नाम महाभारत मे हैं-

"वृहस्पतिर्हि भगवान् नान्यं धर्म प्रशंसति।
विशालाक्षश्च भगवान् काव्यश्चैव महातपाः॥
सहस्राक्षो महेन्द्रश्च तथा प्राचेतसो मनुः।
भारद्वाजश्च भगवान् तथा गौरशिरा मुनिः॥
राजशास्त्रप्रणेतारो ब्रह्मण्याब्रह्मवादिनः।"
महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय ५८, श्लो॰ १, २,३।

इन ऋषियों के बाद शुक्राचार्य का नीतिसार, कौटिल्य का अर्थ-शास्त्र और कामन्दक का नीतिसार आदि अन्य राजधर्म और राजनीति के नियमो से परिपूर्ण है। शुक्राचार्य का नीतिसार प्राचीन राजशास्त्रों के प्रणेता ऋषियों से कुछ पीछे का अवश्य है। पर है वह बड़े महत्व का शुक्राचार्य के नीतिसार में राजा का कर्तव्य, शत्रु और मित्र का निर्देश, कोश और द्रव्य का संरक्षण, दुर्गों की रक्षा और सेना सजाना आदि कई विषय बड़े मार्के के हैं। अन्त में व्यवहार-शास्त्र पर भी एक अच्छा निबन्ध है।

शुक्राचार्य राक्षसो के गुरु माने जाते हैं। उन्होंने कूट-युद्ध और धर्म-युद्ध दोनों का वर्णन किया है। नियम और न्याय-पूर्वक जो युद्ध न हो उसे वे भी कूट-युद्ध अर्थात् अधर्मयुद्ध मानते हैं। जिस प्रकार राक्षसों का कूट-युद्ध करना कहीं कहीं प्रसिद्ध है उसी प्रकार शुक्राचार्य ने राम, कृष्ण और इन्द्र आदि देवताओं का [ १७० ] भी कुट-युद्ध में प्रवृत्त होना साबित किया है। शुक्राचार्य प्रार्थना और खुशामद के द्वारा भी शत्रु से अपना अभीष्ट सिद्ध कर लेना बुरा नहीं समझते। अपमान हो तो हर्ज नहीं, कार्य सिद्ध होना चाहिए। इसी से शुक्राचार्य की नीति का अधिक आदर नहीं हुआ।

कौटिल्य के अर्थ-शास्त्र को प्राप्त हुए थोड़े ही दिन हुए। वे कौटिल्य, चाणक्य और विष्णुगुप्त आदि नामों से भी प्रसिद्ध हैं। उन्होंने अपनी नीतिज्ञता के कारण ही सारे नन्द-वंश को मटिया-मेट कर दिया। चन्द्रगुप्त को नन्द के राज्य का राजा बनाकर मौर्यवंश के शासन की नींव उन्होंने डाली। उनकी नीतिज्ञता और युद्ध-कुशलता आदि का चित्र मुद्राराक्षस में खूब खींचा गया है। उनका अर्थशास्त्र ईसा से ४०० वर्ष पूर्व का माना जाता है।

कामन्दक ने अपना नीतिसार बड़ी सरल भाषा में लिखा है। कामन्दक ने राजशास्त्र बनानेवाले प्राचीन ऋषियों का नाम दिया है और शुक्राचार्य के कूटयुद्ध की उपयोगिता स्वीकार की है। निर्बल राजा के सबल शत्रु के साथ युद्ध करने में कूटयुद्ध का आश्रय लेना कामन्दक के मत में बुरा नहीं। शत्रु की सोती हुई और असावधान सेना पर आक्रमण करना भी कामन्दक की दृष्टि में बुरा नहीं।

स्मृतियों और पुराणादिकों में धर्म युद्ध ही को अधिक महत्व दिया गया है। कूटयुद्ध को लोग पाप-कर्म से कम नहीं समझते [ १७१ ] थे। उस समय के राजशास्त्र और राज-धर्म आदि विषयों के ग्रन्थों से सूचित होता है कि तत्कालीन नरेश युद्ध करना केवल कठिन समस्याओं की पूर्ति के लिए उचित समझते थे। साधारण बातों के लिए युद्ध करना हेय और घृणा के योग्य समझा जाता था। पर, एक बार युद्ध मे प्रवृत्त होकर उससे पोठ फेरना अत्यन्त निन्दनीय माना जाता था। जिस प्रकार युद्ध-क्षेत्र में मरना गौरवास्पद और स्वर्ग-प्राप्ति का कारण समझा गया है उसी प्रकार युद्ध से भागना निन्दनीय और नरक-प्राप्ति का कारण माना गया है।

कुछ ग्रन्थकारो ने विशेष कारण उपस्थित होने पर, युद्ध को महत्व भी दिया है। मनु महाराज लिखते हैं-

समोत्तमाधमै राजा त्वाहूतः पालयन् प्रजाः।
न निवर्तेत संग्रामात्क्षात्रधर्ममनुस्मरम्॥
संग्रामेध्वनिवर्तित्वं प्रजानाश्चैव पालनम्।
शुश्रूषा ब्राह्मणानाञ्च राज्ञां श्रेयस्करं परम्॥
आहवेषु मिथोऽन्योन्यं जिघांसन्तो महीक्षितः।
युद्धानाः पर शक्त्या स्वर्ग यान्त्यपराङ्मुखाः॥
अ॰ ७०, श्लोक ८७, ८८, ८९

अर्थात् राजा को क्षात्र धर्म के अनुसार युद्ध से कभी न हटना चाहिए। क्षत्रिय के लिए युद्ध श्रेष्ठ कार्य है। परस्पर लड़ते हुए और एक दूसरे को मारते हुए जो लोग रणक्षेत्र में शरीर त्याग करते है वे सीधे स्वर्ग चले जाते हैं। [ १७२ ]याज्ञवल्क्य-स्मृति में भी इसी प्रकार कहा गया है-

य आहवेपु वध्यन्ते भूम्यर्थमपराङ्मुखाः।
अकूटैरायुधैर्यान्ति ते स्वर्ग योगिनो यथा॥
पदानि कृतुतुल्यानि भग्नेष्वपि निवर्तिनाम्।
राजा सुकृतिमादत्ते हतानां विपलायिनाम्॥
अ॰ १, श्लो॰ ३२४-३५५।

मतलव यह कि वर्जित अस्त्र-शस्त्रो से लड़कर जो रण-भूमि में शरीर छोड़ते है वे योगियों के सदृश स्वर्ग को चले जाते है। जो लोग अपनी सेना के नष्ट हो जाने या भाग आने पर रणक्षेत्र में डटे रहते है और आगे ही बढ़ते जाते है उन्हे पद पद पर यज्ञ का फल होता है। इसके विपरीत जो लोग भागकर मारे जाते हैं उनका सब पुण्य राजा को प्राप्त होता है। शुक्राचार्य का भी यही मत है। उनके मत में जो रण-क्षेत्र, मे लड़ते हुए मारा जाता है वह सीधे वर्ग को जाता है और जो भागता है वह संसार मे हेय, घृणित और नीच समझा जाता है। मरने पर उसे घोर नरक होता है।

शुक्रनीति की आज्ञा है कि स्त्री, बालक और गाय पर अत्याचार होता देखकर ब्राह्मण भी युद्ध करने लगे। ऐसे अवसर पर युद्ध करने से ब्राह्मण को पाप नहीं होता। इस नीति में यह भी लिखा है कि क्षत्रिय का बिस्तरे पर मरना पाप है। उसे रण-क्षेत्र ही में मरना चाहिए। रण-क्षेत्र में न मरने वाले के लिए खेद करना मूर्खता है। [ १७३ ]

श्रीमद्भगवतद्‌गीता में भी श्रीकृष्ण ने धर्मयुद्ध का बड़ा महत्व सूचित किया है। वे कहते हैं—

धर्म्याद्धि युद्धाच्छेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्॥

अर्थात्‌—क्षत्रिय के लिए धर्म-युद्ध से बढ़ कर और कोई बात कल्याणकारी नहीं है। ऐसा युद्ध क्षत्रियों के लिये अपने आप ही खुले हुये स्वर्गद्वार के सदृश है।

गीता की इस अन्तिम बात से भी ज्ञात होता है कि हमारे यहां युद्ध को बड़ा महत्व दिया जाता था। महाभारत में "यतोधर्मस्ततो जयः" कह कर धर्म-युद्ध की विशेष महत्ता सूचित की गई है।

हमारे नीतिशास्त्र में साम, दाम, दण्ड और भेद ये चार नीतियां शत्रु को पराङ्मुख करने के लिए उपयुक्त मानी गई हैं। मनु महाराज युद्ध का मुख्य फल राजा के लिए भविष्यत् में एक अच्छा मित्र खोज लेना बतलाते हैं। वे धन या भूमि की प्राप्ति को अधिक महत्व नहीं देते। पूर्वोक्त चारों नीतियों में से किसी भी एक या एकाधिक के द्वारा मुख्य फल प्राप्त कर लेना ही, मनु के मत में, युद्ध का अन्तिम उद्देश्य होना चाहिए।

आज कल हम लोग जर्मनी की जासूसी का वृत्तान्त पढ़ कर आश्चर्य्य करते हैं। पर हमें स्मरण रखना चाहिए कि भारत में बहुत पहले जासूसी का प्रचार था। राजा का नाम चारचक्ष [ १७४ ]अर्थात् जासूसों की आंखों से देखने वाला हैं। हर एक राजनीति के लेखक ने दूतों के काम निर्दिष्ट किये हैं। प्राचीन काल में दूतों के द्वारा ही युद्ध-घोषणा की सूचना दी जाती थी। दूत सदा अवध्य माने जाते थे। रामायण और महाभारत में इसके कई उदाहरण हैं। हनूमान् ने जब लंका दहन किया तब रावण उन पर बहुत कुपित हुआ। परन्तु विभीषण ने रावण से दूत का अवध्य होना बतलाकर हनूमान् को मुक्त करवा दिया। महाभारत में भी ऐसे ही कई उदाहरण पाये जाते हैं।

बौधायन, मनु और याज्ञवल्क्य आदि ने नियम बना दिये हैं कि किन शस्त्रों से लड़ना चाहिए, किन्हें मारना चाहिए और किन्हें न मारना चाहिए। इन नियमों से न्याय, विवेक और दया का भाव खूब झलकता है। देखिए—

न कूटैरायुधैहन्याद्युध्यमानो रणे रिपून्।
न काणिभिर्नापि दिग्धैर्नाग्निज्वलिततोजनैः॥
न च हन्यात्स्थलारूढ़ं न क्लीवं न कृताञ्जलिम्।
न मुक्तकेशं नासीनं न तवास्मीति वादिनम्॥
न सुप्तं न विसत्नाहं न नग्नं न निरायुधम्।
नायुध्यमानं पश्यन्तं न परेण समागतम्॥

मनु॰, अ॰ ७, श्लो॰ ९१–९३

याज्ञवल्क्य भी कहते हैं—

तवाहं वादिनं क्लीवं निर्हेतिं परसंगतम्।
न हन्याद्विनिवृत्तञ्च युद्धप्रेक्षणकादिकम्॥

[ १७५ ]पहले योरप मे कुछ कुछ ऐसे ही नियम प्रचलित थे। वर्तमान युद्ध में तो नियमों की बहुत कुछ अवहेलना हो रही है, जो जर्मनी की उच्च सभ्यता का फल है।

ऊपर के प्रमाणों से भारत की सभ्यता का भी अच्छा परिचय मिलता है। भारतीय जन-समाज उस प्राचीन समय में भी उन्नति के जिस पथ पर था वह और देशो के लिए इस समय भी दुर्लभ है। आज कल विपक्षी की प्रजा तथा भूमि और नगर आदि व्यर्थ हो नष्ट किये जाते हैं। यह बात पूर्व-काल मे न होती थी। महाभारत के युद्ध में १८ *[१] अक्षौहिणी सेना थी। एक अक्षौहिणी मे २१,८७० रथारूढ़, इतने ही गजपति, ६५,६१० घुड़सवार और १,०९,३५० पैदल होते है। इस प्रकार पाण्डवों की ७ अक्षौहिणी और कौरवों की ११ अक्षौहिणी मिला कर कोई चालीस लाख सेना हुई। यह इतनी बड़ी सेना यदि प्रजा को कष्ट पहुँचाना और देश का नाश करना चाहती तो खूब कर सकती थी। इस युद्ध में भारत के सारे राजे-महाराजे शामिल थे। यदि वे एक दूसरे की सीमा पर अपना अपना अधिकार जमाना चाहते और एक दूसरे के साथ वहीं लड़ाई प्रारम्भ कर देते तो एक नया ही महाभारत होने लगता। पर ऐसा न होकर लड़ाई के लिए कुरु-क्षेत्र जैसा मैदान चुना गया, जिससे न तो प्रजा को कष्ट पहुँचा और न देश ही नष्ट हुआ।


[ १७६ ]यद्यपि धर्म-युद्ध हमारे यहां श्रेष्ठ माना गया है तथापि कभी कमी हमें शत्रु के देश को उजाड़ना और उसकी प्रजा को कष्ट भी पहुँचाना पड़ता था। यह उस दशा में करना पड़ता था जब शत्रु अपने किले के भीतर रह कर लड़ता था। मनु ने एक स्थान पर कहा है-

उपरुध्यारिमासीत राष्ट्रं चास्योपपीडयेत्।
दूषयेञ्चास्य सततं यवसान्नोदकेन्धनम्॥
भिन्द्याच्चैव तड़ागानि प्राकारपरिखास्तथा।
समवस्कन्दयेञ्चैनं रात्रौ वित्रासयेत्तथा॥
अ ७०, श्लोक १९५-१९६

ठीक वही बात शुक्राचार्य्य ने भी कही है। उनके मन में शत्रु की सेना के लिए जल, भोजन आदि पहुँचाना भी रोक देना नीति के विरुद्ध नहीं। शुक्राचार्य वो यहां तक कहते हैं कि जो बली होगा वही उद्योग के द्वारा सब कुछ कर सकेगा। निर्बल केवल अपने दुर्भाग्य के नाम पर रोता रहेगा।

रामायण और महाभारत से यह सिद्ध है कि हमारे यहाँ धार्मिकता और अधार्मिकता का पक्ष केवल प्रस्ताव रूप में ग्रहण किया जाता था। रामायण में रामचन्द्र के द्वारा ताड़का का वध पाप है, क्योंकि वह स्त्री थी। पर विश्वामित्र ने उसके दुष्कार्यों का वर्णन करके यह साबित किया है कि रामचन्द्र को उसे मारने से पाप नहीं लगा। रामायण के उत्तरकाण्ड में भी एक ऐसी ही घटना का वर्णन है। विष्णु और राक्षस माल्यवान के युद्ध में जो राक्षस भागते थे उन्हें भी विष्णु मार डालते थे। यह देख कर [ १७७ ]
माल्यवान ने कहा,—मालूम होता है, विष्णु क्षात्रयुद्ध के नियमों से परिचित नहीं। विष्णु ने उत्तर दिया कि राक्षसों के नाश की प्रतिज्ञा देवताओं से कर चुकने के कारण मैं इन्हें मार रहा हूँ।

महाभारत में दुर्योधन की चालबाज़ियों के अतिरिक्त धर्मयुद्ध का अच्छा चित्र खींचा गया है। उसमें यह भी दिखलाया गया है कि मानव-समाज के हार्दिक भाव कैसे होते हैं।

[जनवरी १९१५

    • अक्षौहिण्या, प्रमाणं तु लागाष्टैकद्विकैर्गजैः।

    रथैरेतैर्हयैविध्नैः पञ्चप्रैश्च पदातिभिः॥