अतीत-स्मृति  (1930) 
महावीरप्रसाद द्विवेदी

प्रयाग: लीडर प्रेस, पृष्ठ -

 

 

अतीत-स्मृति

 
 

लेखक
महावीरप्रसाद द्विवेदी

 
 

प्रकाशक
लीडर प्रेस, प्रयाग

 
द्वितीयावृत्ति १०००]
[मूल्य ४⇗)
 
 


प्रकाशक और मुद्रक—पं॰ कृष्णा राम मेहता, लीडर प्रेस,
इलाहाबाद।



निवेदन

इस पुस्तक में संग्रहकार के १९ लेख सन्निविष्ट हैं। लेख भिन्न भिन्न समयों में लिखे गये थे और "सरस्वती" नामक मासिक पत्रिका में प्रकाशित हो चुके हैं। जो लेख जिस समय लिखा गया था उस समय का उल्लेख हर लेख के नीचे मिलेगा। जो लेख परस्सर मिलते-जुलते हैं, अर्थात् जिनका विषय कुछ न कुछ पारस्परिक समता रखता है, वे पास ही पास रख दिये गये हैं। इनमें से दो तीन लेख अन्य नामधारी लेखकों के भी हैं। पर उन्हें अभिन्नात्मा समझ कर संग्रहकार ने उनके लेखों को भी इस पुस्तक में स्थान दे दिया है।

इसमें जितने लेख हैं सभी का सम्बन्ध भारत की प्राचीन सभ्यता से है। इस देश का प्राचीन इतिहास यथाक्रम लिपिबद्ध नहीं हुआ। फल यह हुआ है कि हम अपने को भूल-सा गये हैं। जिस समय जगत् के अन्यान्य देश अज्ञानतमसावृत थे उस समय भारत, जातीय जीवन के अनेक अंशो मे, तदपेक्षा बहुत अधिक उन्नत था। यहाँ का साहित्य उच्चश्रेणी का था; यहां की राजसत्ता का कितने ही द्वीपों और अन्य देशों में भी बोलबाला था; यहां के जहाज महासागरों तक का वक्षस्थल विदीर्ण करते हुए देशान्तरों को जाते थे; यहाँ तक कि भारतवासियों ने हजारो कोस दूर टापुओं तक में अपने उपनिवेश स्थापित कर दिये थे। इन सब बातों का पता पुरातत्ववेत्ता धीरे धीरे लगा रहे हैं। यह उन्हीं देशी तथा विदेशी विद्वानों की खोज का फल है जो हमने शनैः शनैः भारत के प्राचीन गौरव का अल्पस्वरूप ज्ञान प्राप्त किया है।

इस पुस्तक में ऐसे ही लेखों का संग्रह किया गया है जिनमें भारत के प्राचीन साहित्य, प्राचीन याग-यज्ञा, प्राचीन कला-कौशल, प्राचीन ज्ञान-विज्ञान तथा प्राचीन संस्कृति की सूचक और भी कितनी ही विस्मृत बातों की झलक देखने को मिलेगी। लेखों के विषय पुराने अवश्य हैं पर वे प्रायः सभी अज्ञात, अल्पज्ञात अथवा विस्मृत से है। इस दशा में, आशा है, कम से कम केवल हिन्दी जानने वाले सर्व-साधारण जन तो इस संग्रह से कुछ न कुछ लाभ अवश्य ही उठा सकेंगे।

एक बात है। इस लेख-माला में जो कुछ है वह प्रायः सभी औरो की खोज और परिश्रम का फल है। लेखक ने उसे हिन्दी का रूपमात्र दे दिया है। पर यह कोई बड़े आक्षेप की बात नहीं। चम्पू-रामायण में राजा भोज ने लिखा है

वाल्मीकिगीतरघुपुङ्गवकीर्तिलेशै-
स्तृप्ति करोमि कथमप्यधुना बुधानाम्।
गङ्गाजलैर्भुवि भगीरथयत्नलब्धैः
किं तर्पणं न विदधाति जनः पितृणाम्॥

अर्थात् गङ्गा जी को भगीरथ पर ले आये। तो क्या हम उसके जल से पितरों का तर्पण भी न करें?

इस पुस्तक का पहला संस्करण छः सात वर्ष पूर्व निकला था। परन्तु प्रकाशक और मुद्रक दोनों की निःसीम असावधानी से वह अत्यन्त ही विकृत और विरूप दशा में प्रकट हुआ। अतएव उसका प्रकाशन व्यर्थ ही गया, समझना चाहिए। उस कृतपूर्व दोष की मार्जना के लिए, इतने समय तक ठहरने के अनन्तर, अब इसका यह दूसरा संस्करण प्रकाशित किया जाता है।

दौलतपुर (रायबरेली) महावीरप्रसाद द्विवेदी
१९ मार्च, १९३०

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