अतीत-स्मृति/१४ फा-हियान की भारत यात्रा
प्राचीन भारत के इतिहास का थोड़ा-बहुत पता जो हमें लगता है वह ग्रीक और चीनी यात्रियो के यात्रा-वृत्तान्त से लगता है। ग्रीस वाले इस देश में सैनिक, शासक, अथवा राजदूत बनकर आते थे। इसी से इनके लेखों में अधिकतर भारतीय राजनीति, शासन-पद्धति और भौगोलिक बातों ही का उल्लेख है। उन्होंने भारतीय धर्म और शास्त्रों की छानबीन करने की विशेष चिन्ता नहीं की। चीनी यात्रियों का कुछ और हो उदेश्य था। वे विद्वान थे। उन्होंने हजारों मील की यात्रा इसलिए की थी कि वे बौद्धों के पवित्र स्थानो का दर्शन करें, बौद्ध धर्म की पुस्तकें एकत्र करें और उस भाषा को पढ़ें जिसमें वे पुस्तकें लिखी गई थीं। इन यात्राओं में उनको नाना प्रकार के शारीरिक क्लेश सहने पड़े। कभी वे लूटे गये, कभी वे रास्ता भूल कर भयङ्कर स्थानों में भटकते फिरे और कभी उन्हें जंगली जानवरों का सामना करना पड़ा। परन्तु इतना सब होने पर भी वे केवल विद्या और धर्म-प्रेम के कारण भारतवर्ष में घूमते रहे। चीनी यात्रियों में तीन के नाम बहुत प्रसिद्ध है-पहला फा-हियान, दूसरा संगयान और तीसरा ह्वेनसांग। इन तीनों ने अपनी अपनी यात्रा का वृत्तान्त लिखा है। इसका अनुवाद अँगरेजी, फ्रेंच आदि यूरप की भाषाओं में हो गया है। उनसे भारतीय सभ्यता का बहुत कुछ पता चलता है। प्रसिद्ध चीनी यात्रियों में फा-हियान सबसे पहले भारत में आया। उसी की यात्रा का संक्षिप्त हाल नीचे लिखा जाता है।
फा-हियान मध्य-चीन का निवासी था। ४०० ईसवी में वह अपने देश से भारत यात्रा के लिए निकला। इस यात्रा से उसका मतलब बौद्ध तीर्थों के दर्शन और बौद्ध धर्म की पुस्तको का संग्रह करना था। उन दिनों चीन से भारतवर्ष आने के दो रास्ते थे। एक रास्ता खुतन नगर के पश्चिम से होता हुआ भारतीय सीमा पर पहुँचता था। यह रास्ता कुछ चक्कर का था। इसीसे भारत और चीन के मध्य व्यापार होता था। दूसरा रास्ता जल द्वारा जावा और लङ्का के टापुओं से होकर था। यह रास्ता पहले से सीधा तो था, परन्तु पीत-समुद्र के तूफानों ने इस सुगम जलमार्ग को बड़ा भयानक बना रक्खा था। फा-हियान निडर मनुष्य था। वह भारत आया तो खुतन के रास्ते ही से, परन्तु स्वदेश को लौटा लङ्का और जावा के रास्ते।
फा-हियान के साथ और भी कितने ही मुसाफिर थे। खुतन पहुँचने के लिए लाप नामक जंगल से होकर जाना पड़ता था। इस जङ्गल में यात्रियों को बड़ा कष्ट सहना पड़ता। कोसों पानी न मिला। सूर्य्य की गरमी ने और भी गजब ढाया। प्यास के मारे यात्रियों का बुरा हाल हुआ। समय समय पर रास्ता भूल जाने के कारण भी उन पर बड़ी विपत्ति पड़ी। जब वे सब, किसी तरह, लाप नामक झील के किनारे पहुँचे तब उनकी बड़ी बुरी दशा थी। कितने ही यात्रियों के छक्के छूट गये और उन्होंने आगे बढ़ने का विचार छोड़ दिया। पर फा-हियान ने हिम्मत न हारी। वह दो-चार मित्रों सहित आगे बढ़ा और नाना प्रकार के कष्टों को सहता हुआ, दो मास मे, ख़ुतन पहुँचा। लोगो ने ख़ुतन में उनका अच्छा आदर-सत्कार किया। उस समय ख़ुतन एक हरा-भरा बौद्ध राज्य था। पर इस समय ख़ुतन उजड़ा पड़ा है। परन्तु, हाल ही में, डाक्टर स्टीन ने उसकी पूर्व-समृद्धि के बहुत से चिह्न पाये हैं। प्राचीन महलो, स्तूपों, विहारों और बाग़ों के न मालूम कितने चिह्न उन्हे मिले हैं। उन्होंने इस सम्बन्ध में एक पुस्तक लिखी है, जो बड़े महत्व की है।
ख़ुतन से फा-हियान काबुल आया। उस समय काबुल उत्तरीय भारत के अन्तर्गत था। काबुल से वह स्वात, गान्धार और तक्षशिला होता हुआ पेशावर पहुँचा। पेशावर मे उसने एक बड़ा ऊँचा, सुन्दर और मजबूत बौद्ध स्तूप देखा। सिन्धु नदी पार करके वह मथुरा आया। मथुरा का हाल वह इस प्रकार वर्णन करता है-
मथुरा में, यमुना के दोनो किनारों पर, बीस संघाराम है, जिनमें लगभग ३००० साधु रहते हैं। बौद्धधर्म्म का खूब प्रचार है। राजपूताना के राजा बौद्ध है। दक्षिण की ओर जो देश है वह मध्य-देश कहलाता है। इस देश का जल-वायु न बहुत उष्ण है, न बहुत शीतल। बर्फ अथवा कुहरे की अधिकता नहीं है। प्रजा सुखी है। उन्हे अधिक कर नहीं देना पड़ता। शासक लोग कठोरता नहीं करते। जो लोग भूमि जोतते और बोते हैं उन्हें अपनी पैदावारी का एक निश्चित भाग राजा को देना पड़ता है। लोग अपनी इच्छा के अनुसार चाहे जहाँ आ जा सकते हैं। अपराधी को उसके अपराध के गौरव-लाघव के अनुसार भारी अथवा हल्का दंड दिया जाता है। शारीरिक दण्ड बहुत कम दिया जाता है। बार बार विद्रोह करने पर कहीं दाहिना हाथ काटे जाने का दण्ड दिया जाता है। राजा के शरीर-रक्षकों को नियत वेतन मिलता है। देश भर में जीवहत्या नहीं होती। चाण्डालो के अतिरिक्त कोई मद्यपान नहीं करता और न कोई लहसुन और प्याज ही खाता है। इस देश मे न तो कोई मुर्गी ही पालता है और न बतख़ ही। पालतू पशु भी कोई नहीं बेचता। बाज़ारों में पशु-बध अथवा मांस बेचने की दुकानें नहीं। सौदा-सुलफ़ में कौड़ियो का व्यवहार होता है। केवल चाण्डाल ही पशुबध करते और मांस बेचते है। बुद्ध भगवान के समय से यहां की यह प्रथा है कि राजा, महाराजा, अमीर, उमराव और बड़े आदमी विहार-निर्माण करते है और उनके खर्च के लिए भूमि इत्यादि का दान-पत्र लिख देते है। पीढ़ियां गुजर जाती है वे विहार ज्यों के त्यों विद्यमान रहते है। उनका खर्च दान दी हुई भूमि की आमदनी से चलता रहता है। उस भूमि को कोई नहीं छीनता। विहारों में रहने वाले साधुनो को वस्त्र, भोजन और बिछौना मुक्त मिलता है। मथुरा से फा-हियान कन्नौज आया। वह नगर, उस समय, गुप्त राजों की राजधानी था। उसने कन्नौज के विषय में इसके सिवा और कुछ नहीं लिखा कि वहाँ संघाराम थे। कौशल-राज्य की प्राचीन राजधानी श्रावस्ती उजाड़ पड़ी थी। उसमें केवल दो सौ कुटुम्ब निवास करते थे। जैतवन, जहाँ भगवान बुद्ध ने धर्मों-पदेश किया था, अच्छी दशा में था। वहाँ एक सुन्दर विहार था। बिहार के पास एक तालाब था, जिसका जल बड़ा निर्मल था। कई बान भी थे, जिनसे विहार की शोभा बहुत बढ़ गई थी। विहार में रहने वाले साधुओ ने फाहियान का हर्ष-पूर्वक स्वागत किया और उसकी इस कारण बड़ी चढ़ाई की कि उसने यात्रा धर्मप्रेम के वशीभूत होकर की थी।
भगवान बुद्ध के जन्म-स्थान, कपिल-वस्तु, की दशा, फा-हियान के समय मे, बुरी थी। वहाँ न कोई राजा था, न प्रजा। नगर प्रायः उजाड़ था। केवल थोड़े से साधु और दस-बीस अन्य जन वहाँ थे। कुशीनगर भी, जहाँ भगवान बुद्ध की मृत्यु हुई थी, बुरी दशा में था। उस वैसाली नगर को, जहाँ चौद्ध धर्म की पुस्तकों का संग्रह करने के लिए बौद्धों का दूसरा सम्मेलन हुआ था, फा-हियान ने अच्छी दशा में पाया। प्रसिद्ध पाटलिपुत्र नगर के विषय में फा-हियान ने लिखा है कि उसका पुराना राजमहल बड़ा विचित्र है। उसको बनाने में बड़े बड़े पत्थरो से काम लिया गया है। मनुष्यों के हाथों से वह न बना होगा। बिना आसुरी शक्ति के कौन इतने बड़े बड़े पत्थर ऊपर चढ़ा सका होगा। अवश्य ही
अशोक ने उसे असुरों द्वारा बनवाया होगा। फा-हियान का कथन है कि अशोक के स्तूप के समीप ही एक सुन्दर संघाराम बना हुआ है, जिसमें लगभग छः सात सौ साधु रहते हैं। प्रति वर्ष दूसरे महीने के आठवें दिन वहाँ एक उत्सव होता है। उस अवसर पर चार पहिये का एक रथ बनाया जाता है। उस रथ के ऊपर पाँच खण्ड का एक मन्दिर रखा जाता है। मन्दिर बांसों का बनता है। उसके बीच में सात पाठ गज लम्बा एक बांस रहता है। वही उसे साधे रहता है। मन्दिर श्वेत वस्त्र से मढ़ दिया जाता है। पर उसका पिछला भाग चटकीले रङ्गों से रँगा रहता है। सुन्दर रेशम के शामियानों के नीचे देव मूर्तियां, वस्त्राभूषण से सजा कर रखी जाती है। रथ के चारो कोनों में चार वाक रहते हैं। उन ताकों में बुद्ध भगवान् की बैठी हुई मूर्ति स्थापित की माती है। इस प्रकार के कोई बीस रथ तैयार किये जाते हैं। उत्सव के दिन बड़ी भीड़ होती है। खेल तमाशे होते हैं और मूर्तियो पर फूल आदि चढ़ाये जाते हैं। उस दिन बौद्ध लोग नगर में प्रवेश करते हैं। वहाँ वे ठहरते है और सारी रात हर्ष मनाते है। इस अवसर पर दूर दूर से लोग आते है और उत्सव में सम्मिलित होते हैं। धनवान लोगों ने नगर में कितने ही औषधालय खोल रखे है, जहाँ दीन-दुखियों, लँगडे़-लूलो और अन्य असमर्थ जनों का इलाज होता है। उनको हर प्रकार की सहायता दी जाती है। वैद्य उनके रोगों की परीक्षा कर के औषधि सेवन कराते हैं। वे वहीं रहते हैं
और पथ्य भी उन्हें वहीं मिलता है। नीरोग हो जाने पर वे अपने घर चले जाते हैं।
राजगृह में पहला बौद्ध-सम्मेलन हुआ था। इसलिए उसे देखता हुआ फा-हियान गया पहुँचा। गया में उसने बोधि-वृक्ष और अन्य पवित्र स्थानों के दर्शन किये। वह काशी और कौशाम्बी भी गया। काशी में उस स्थान पर, जहाँ भगवान बुद्ध ने पहली बार सत्य का उपदेश दिया था, दो संघाराम थे। काशी से वह फिर पाटलिपुत्र लौट गया। फ़ा-हियान चीन से धार्मिक पुस्तको की खोज में चला था। पाटलिपुत्र में विनयपीठक की एक प्रति उसके हाथ लग गई। पुस्तक लेकर वह अङ्गदेश की राजधानी चम्पा होता हुआ ताम्रलिप्ति (तमलुक) पहुँचा। वहाँ उसने बौद्ध धर्म का अच्छा प्रचार देखा। उस नगर में २४ संघाराम थे। फ़ा-हियान वहाँ दो वर्ष तक रहा। यह समय उसने धर्म-पुस्तको की नक़ल करने में खर्च किया। तत्पश्चात् जहाज़ पर सवार होकर, लगातार १४ दिन और यात्रा करके वह सिंहल-द्वीप पहुँचा। वहां से वह अनिरुद्धपुर गया। बौद्धस्तूप और बोधि-वृक्ष के भी उसने दर्शन किये। लङ्का में उसने कुछ और भी धर्म-पुस्तको का संग्रह किया। लङ्का का वर्णन वह इस तरह करता है-
"लङ्का में पहले बहुत कम मनुष्य रहते थे। धीरे धीरे व्यापारी लोग वहाँ आने लगे। अन्त में वह वहाँ बस गये। इस प्रकार वहाँ की आबादी बढ़ी और राज्य की नींव पड़ी। वहाँ
११ भगवान बुद्ध गये।*[१] उन्होने वहाँ के निवासियों को बौद्ध बनाया। लङ्का का जलवायु अच्छा है। सब्जी बहुत होती है। राजधानी के उत्तर में एक बड़ा ऊचा स्तूप है। समीप ही एक संघाराम भी है, जिसमें ५००० साधु रहते हैं।"
फ़ा-हियान लङ्का में दो वर्ष रहा। उसे स्वदेश छोड़े बहुत वर्ष हो गये थे। इससे उसने चीन लौट जाना चाहा। उसी समय एक व्यापारी ने उसे चीन का बना हुआ एक पङ्खा भेंट किया। अपने देश की बनी हुई वस्तु देख कर फा़-हियान का जी भर आया। उसके नेत्रो से अश्रुधारा बह निकली। अन्त में उसे स्वदेश लौट जाने का एक साधन भी प्राप्त हो गया। एक जहाज़, दो सौ यात्रियों सहित, उस ओर जाता था। वह भी उसी पर बैठ गया। जहाज को हलका करने के लिए खलासी जहाज पर लदी हुई चीजों को समुद्र में फेंकने लगे। बहुत माल-असबाब फेंक दिया गया। फा-हियान ने अपने सारे बर्तन तक समुद्र में, इस डर के मारे, फेंक दिये कि कहीं इनके मोह में पड़ने के कारण लोग उसकी अमूल्य पुस्तकें और मूर्तियां समुद्र के हवाले न कर हैं। तेरह दिन की कठिन तपस्या के बाद, एक छोटा सा टापू मिला। वहां जहाज की मरम्मत हुई। सैकड़ो कष्ट सहने पर ९० दिन बाद जहाज जावा-द्वीप में पहुँचा। जावा में उस समय बौद्ध और ब्राह्मण-धर्म, दोनों का, प्रचार था।
फ़ा-हियान जावा में पाँच महीने रहा। तत्पश्चात् वह
एक और जहाज़ पर सवार हुआ। चलने के एक महीने बाद उस जहाज का भी कील-काँटा बिगड़ा। यह देख कर मल्लाहों ने सलाह की कि जहाज पर शर्मण फा़-हियान के होने ही के कारण हम पर यह विपत्ति आई है। अतएव कोई टापू मिले तो उसे वहीं उतार दें, जिसमें जहाज़ की यात्रा निर्विघ्न समाप्त हो। यह वहाँ चाहे मरे चाहे बचे। इस जहाज के यात्रियों में एक व्यापारी बड़ा सज्जन था। वह फ़ा-हियान से प्रेम करने लगा था। उसने मल्लाहो की इस सलाह का घोर प्रतिवाद किया। उसी के कारण बेचारा फ़ा-हियान, किसी निर्जन टापू में छोड़ दिये जाने से बच गया। ८२ दिन की यात्रा के बाद, दक्षिणी चीन के समुद्र-तट पर, वह सकुशल उतर गया और अपनी जन्मभूमि के पुनर्वार दर्शनो से उसने अपने को कृतकृत्य माना।
[दिसम्बर १९१५
- ↑ * भगवान बुद्ध लङ्का कमी नहीं गये।