अणिमा/९. तुम्हें चाहता वह भी सुंदर

लखनऊ: चौधरी राजेन्द्रशंकर, युग-मन्दिर, उन्नाव, पृष्ठ १७ से – १८ तक

 

 

तुम्हें चाहता वह भी सुन्दर,
जो द्वार-द्वार फिरकर
भीख मागता कर फैलाकर।

भूख अगर रोटी की ही मिटी,
भूख की ज़मीन न चौरस पिटी,
और चाहता है वह कौर उठाना कोई,
देखो, उसमें उसकी इच्छा कैसे रोई,
द्वार-द्वार फिर कर
भीख मागता कर फैला कर—
तुम्हें चाहता वह भी सुन्दर।

देश का, समाज का
कर्णधार हो किसी जहाज़ का।

पार करे कैसा भी सागर,
फिर भी रहता है चलना उसे,
फिर भी रहता है पीछे डर;
चाहता वहाँ जाना वह भी
नहीं चलाना जहाँ जहाज़, नहीं सागर,
नहीं डूबने का भी जहाँ डर।
तुम्हें चाहता है वह, सुन्दर,
जो द्वार-द्वार फिरकर
भीख माँगता कर फैलाकर।