अणिमा/३०. तुम
< अणिमा
तुम*
दिया जीवन, तुम्हारा ही दिया यह दुःख दारुणदव,
दिया अन्तःकरण बैठे जहाँ करते तुम्ही अनुभव।
तुम्हारे ही नयन ये हैं सलिल-सरिता बही जिनसे,
विकलता भी तुम्हारी है, तुम्हारा है करुण हा रव।
तुम्हारी दी हुई निधि वह तुम्हारी ही ग्रहण-विधि वह
तुम्हीं अनमन विजन वन में बहाते शान्ति शुचि सौरभ
तुम्हारा मैं तुम्हारा तन तुम्हारा ही विपुल धनजन
समझकर भीन समझा मन, मिटाओ मोह-घन गौरव
*अनुवाद १९२२