अणिमा/२७. मत्त हैं जो प्राण

लखनऊ: चौधरी राजेन्द्रशंकर, युग-मन्दिर, उन्नाव, पृष्ठ ५७

 
 

मत्त है जो प्राण,
जानते हैं कब किसी का मान?

बेलि विष की फैलकर जो खिल गई,
गन्ध जिसकी हवा के उर मिल गई,
वह बिना समझे हृदय में हिल गई,
कर गई अपमान।

राह चलते लगेंगे काँटे, सही,
धूल में उनको मिलाएगी मही,
डाल की वह बात हटकर ही रही,
फिर कहाँ उत्थान?

है व्यथा में स्नेह निर्भर जो, सुखी;
जो नहीं कुछ चाहता, सच्चा दुखी;
एक पथ ज्यों जगत में, है बहुमुखी,
सर्वदिक् प्रस्थान।

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