हिंदुई साहित्य का इतिहास/प्रथम संस्करण की दूसरी जिल्द (१८४७) की भूमिका

हिंदुई साहित्य का इतिहास
गार्सां द तासी, अनुवादक लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय

इलाहाबाद, उत्तर-प्रदेश: हिंदुस्तानी एकेडमी, पृष्ठ ४४ से – ७३ तक

 

 

प्रथम संस्करण की दूसरी जिल्द (१८४७) की
भूमिका

इस इतिहास की पहली जिल्द की भूमिका में, मैंने केवल एक दूसरी और अंतिम जिल्द की घोषणा की थी; किन्तु जीवनी और ग्रंथों-संबंधी मिलीं नवीन सूचनाएँ इतनी प्रचुर हैं कि मुझे इस ग्रंथ के शेष भाग को दो जिल्दों में विभाजित करना पड़ा।

इस समय प्रकाशित होने वाली जिल्द, जिसमें अवतरण और रूपरेखाएँ हैं, के लिए सामग्री का अभाव नहीं रहा; किन्तु उसकी प्रचुरता के अनुरूप दिलचस्पी नहीं रही; क्योंकि हिन्दुई और हिन्दुस्तानी रचनाओं के संबंध में वही कहा जा सकता है जो मार्शल (Martial) ने अपनी हास्योत्पादक छोटी कविताओं के बारे में कहा है :

Sunt bona, sunt quaedam mediocria
Sunt mala plura

मैंने ग्रंथ प्राप्त करने, बहुत-सों को पढ़ने; उनका विश्लेषण करने, उनमें से अनेक का अनुवाद करने में अत्यधिक समय व्यतीत किया है : किन्तु जो अंश मेरे सामने थे, या जिन्हें मैंने तैयार कर लिया था, उनका बहुत बड़ा भाग मुझे छोड़ देना पड़ा, क्योंकि या तो वे हमारे आचार विचारों के अत्यधिक विरुद्ध थे, या क्योंकि उनमें अनैतिक बातों का उल्लेख है या वे अश्लीलता से दूषित हैं,[] या अंत में क्योंकि वे ऐसे अलंकारों से भरे हुए हैं जिन्हें यूरोपीय पाठकों के लिए समझना असम्भव है।[]

हिन्दुई रचनाओं से लिए गए उद्धरण, जो 'भक्तमाल' से लिए गए हैं, जितने महत्त्वपूर्ण हैं उतने ही अधिक रोचक हैं, क्योंकि उनमें उल्लिखित अधिकतर हिन्दू सन्त उनके शिष्यों द्वारा सुरक्षित धार्मिक हिन्दुई कविताओं के रचयिता हैं, और जिनके उद्धरण इस पुस्तक में पाए जायँगे।

'प्रेम सागर' पर मैंने विस्तार से दिया है, क्योंकि यह रचना वस्तुतः अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उसके पद्य हिन्दुई में हैं, और शेष के प्राचीन रूपान्तर हैं, या संभवतः वे परंपरा द्वारा सुरक्षित लोकप्रिय भजनों के अंश हैं। गद्य अधिक आधुनिक शैली है, और लगभग सामान्य हिन्दी में है[]; किंतु वह अत्यन्त सुन्दर और प्रायः लयात्मक है। 

मैंने तुलसी-दास कृत 'रामायण' के एक काण्ड का अनुवाद दिया है, यद्यपि मुझे इस काव्य की, जो मुश्किल से समझने में आने वाली हिन्दुई बोली में लिखा गया है, टीका उपलब्ध नहीं हो सकी।

हिन्दुस्तानी रचनाओं के उद्धरणों में, मैंने 'आराइश-इ महफ़िल' से लिए गए उद्धरणों को सबसे अधिक स्थान दिया है, क्योंकि यह रचना भारत के आधुनिक साहित्य की एक प्रमुख रचना है। अन्य के लिए मैंने, अपने को सीमित परिधि तक रखा है। पहली जिल्द में मैं हिन्दुई और हिन्दुस्तानी साहित्य के छोटे-छोटे उदाहरण दे चुका हूँ। इसमें मैंने अधिक विस्तार से दिए हैं, जो पहली जिल्द की भाँति इसमें पहली बार अनूदित हुए हैं; और मुझे प्रसन्नता है कि ये उसी आनन्द के साथ पढ़े जायँगे जिस प्रकार वे पढ़े गए थे जिन्हें मैं पहले 'ज़ूर्ना एसियातीक' (Journal Asiatique) में दे चुका हूँ, उदाहरण के लिए 'गुल ओ बकावली' की रोचक कहानी, 'कुकवियों को नसीहत' शीर्षक सुन्दर व्यंग, कलकत्ते का वर्णन, आदि आदि। मैं अपने अनुवादों द्वारा यह सिद्ध करना चाहता हूँ, कि अब तक अज्ञात ये दोनों साहित्य वास्तविक और विविध प्रकार की दिलचस्पी पैदा करते हैं।

वास्तविक अनुवादों में, पाठ में जो कुछ नहीं है उसे मैंने इटैलिक अक्षरों द्वारा दिखाया है, अर्थात्, वे शब्द जो मूल का अर्थ बताने की दृष्टि से रखे गए हैं; किन्तु रूप-रेखा और स्वतंत्र या संक्षिप्त अनुवाद में, मैंने इस ओर ध्यान नहीं दिया। इस संबंध में मैंने मैस्त्र द सैसी (le Maistre de Sacy) द्वारा, बाइबिल के अनुवाद, और सेल (Sale) द्वारा क़ुरान के अनुवाद में[] गृहीत सिद्धान्त ग्रहण किया है; और अपने अनुवादों में मिलने वाले कुछ ऐसे अंशों के लिए जिनमें कैथलिक ईसाई मत से सार्म्थ न रखने वाले विचार पाए जा सकते हैं विरोध प्रकट करना मेरा कर्तव्य है, और लोग यह याद रखें कि मैं उनका एक साधारण अनुवादक हूँ।

इस इतिहास की पहली जिल्द की भूमिका में, मैंने हिन्दुस्तानी साहित्य के काल-क्रम का उल्लेख किया है, और साहित्यिक, इतिहास-लेखक, दार्शनिक के लिए उसका महत्त्व बताया है। इस समय मैं इस साहित्य की रचनाओं के वर्गीकरण, और उसके विशेष विविध रूपों के सम्बन्ध में बताना चाहता हूँ।

हिन्दुई में केवल पद्यात्मक रचनाओं के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता। सामान्यतः चार-चार शब्दांशों (Syllable) के ये छन्द दो लययुक्त चरणों में विभाजित रहते हैं। किन्तु साधारण गद्य, या लययुक्त गद्य, में भी रचनाएँ हैं, जैसे हिन्दुस्तानी में, किन्तु अधिकतर प्रायः पद्यों से मिश्रित जो सामान्यतः उद्धरणों के रूप में रहते हैं।

यदि हम, श्री गोरेसिओ (Gorresio) द्वारा 'रामायण' के अपने सुन्दर संस्करण की भूमिका में उल्लिखित, संस्कृत विभाजन का अनुगमन करें, तो हिन्दी-रचनाएँ चार भागों में विभाजित की जा सकती हैं।

१. 'आख्यान', कहानी, क़िस्सा। इनसे वे कविताएँ समझी जानी चाहिए जिनमें लोकप्रिय परंपराओं से संबंधित विषय रहते हैं, और कथाएँ पद्यात्मक, कभी-कभी, फ़ारसी अक्षरों में लिखित, छंदों के रूप में, रहती हैं, यद्यपि लय मसनवियों की भाँति हर एक पद्य में बदलती जाती है।

२. 'आदि काव्य', अथवा प्राचीन काव्य। उससे विशेषतः 'रामायण' समझा जाता है।

३. 'इतिहास', गाथा, वर्णन। ऐतिहासिक-पौराणिक परंपराओं में ऐसे अनेक हैं, जैसे 'महाभारत' तथा पद्यात्मक इतिहास।

४. अंत में 'काव्य', किसी प्रकार की काव्यात्मक रचना। इस वर्गगत नाम से, जो पूर्वी मुसलमानों के नज़्म के समान है, हिन्दुई की वे सभी छोटी-छोटी कविताएँ समझी जाती हैं जिनकी मैं शीघ्र ही समीक्षा करूँगा।

तीसरे भाग में पद्य-मिश्रित गद्य की कहानियाँ रखी जानी चाहिए, विशेषतः कहानियों और नैतिक कथाओं के संग्रह, जैसे, 'तोता कहानी' (एक तोते की कहानियाँ), 'सिंहासन-बत्तीसी' (जादुई सिंहासन); 'बैताल-पचीसी' (बैताल की कहानी), आदि।

राजाओं को सत्य बताने के लिए, पूर्व में, जहाँ उनकी इच्छा ही सब कुछ होती है, उसका खण्डन करना एक कठिन कार्य है। इसी बात पर कवि दार्शनिक सादी का कहना है कि यदि सम्राट् भरी दुपहरी को रात बताए तो चाँद-तारे देखना समझ लेना चाहिए। तब उस समय इन कोमल कानों तक सत्य की आवाज़ पहुँचाने के लिए कल्पित कथाओं का आश्रय ग्रहण किया जाता है। इसी दृष्टि से नैतिक कथाओं की उत्पत्ति हुई, जिनसे बिना किसी ख़तरे के अत्याचारियों को शिक्षा दी जा सकती है, जिससे वे कभी-कभी लाभान्वित हुए हैं। देखिए फ़ारस के उस राजा को जिसने अपने वज़ीर से, जो पशुओं की बोली सुन कर नाराज़ होता था, पूछा कि दो उल्लू, जो उसने साथ-साथ देखे थे, आपस में क्या बातचीत करते हैं। निर्भीक दार्शनिक ने उत्तर दिया 'वे कहते हैं कि वे आप के राज्य पर मुग्ध हो गए हैं; क्योंकि वे आप के अत्याचारी शासन में प्रतिदिन उत्पन्न होने वाले खँडहरों में अपनी इच्छा के अनुसार शरण ले सकते हैं।' वास्तव में हम देखते हैं कि पूर्वी कथाओं में राजनीति सर्वोच्च स्थान ग्रहण किए हुए है, और उनका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भाग है। भारतीय कहानियों और नैतिक कथाओं के ख़ास-ख़ास संग्रहों के ज्ञान से इस बात की परीक्षा की जा सकती है। उनमें कथाओं के अत्यन्त प्रवाहपूर्ण रूपों के बीच में बुद्धि की भाषा मिलती है; क्योंकि, जैसा कि एक उर्दू कवि ने कहा है, 'केवल शारीरिक सौन्दर्य ही हृदय नहीं हरता, लुभा लेने वाली मधुर बातों में और भी अधिक आकर्षण होता है।'

न तनहा हुस्न ख़ूबाँ दिल रुबा है
अदा फ़हमी सख़ुनदानी बला है

(फ़ारसी लिपि से)

पद्य में प्रधान हिन्दुई रचनाओं के नाम, अकारादिक्रम के अनुसार इस समय इस प्रकार हैं :

'अभङ्ग', एक प्रकार की एक चरण विशेष में रचित गीति-कविता जिसकी पंक्तियों में, अँगरेज़ी की भाँति, शब्दों के स्वराधात का नियम रहता है, न कि शब्दांशों की संख्या (दीर्घ या ह्रस्व) का, जैसा संस्कृत, ग्रीक और लेटिन में रहता है। इस कविता का प्रयोग विशेषतः मराठी में होता है।

'आल्हा', कविता जिसका नाम उसके जन्मदाता से लिया गया है।[]

'कड़खा', लड़ने वालों में उत्साह भरने के लिए राजपूतों में व्यवहृत युद्ध-गान। उसमें शौर्य की प्रशंसा की जाती है, और प्राचीन वीरों के महान् कृत्यों का यशगान किया जाता है। पेशेवर गाने वालों को 'कड़खैल' या 'ढाढ़ी' कहते हैं जो ये गाने सुनाते हैं।

'कबित' या 'कबिता', चार पंक्तियों की छोटी कविता।

'कहर्वा', 'मलार', जिसके बारे में (आगे) बताया जायगा, के रूप की भाँति कविता। वास्तव में यह एक नृत्य का नाम है जिसमें पुरुष स्त्रियों के कपड़े पहनते हैं, और स्त्रियाँ पुरुषों के; और फलतः इस नृत्य के साथ वाले गाने को यह नाम दिया गया है।

'कुण्डल्या' या 'कुण्डर्या', कविता या कहिए छन्द जिसका एक ही शब्द से प्रारंभ और अंत होता है।[]

'गाली', यह शब्द भी जिसका ठीक-ठीक अर्थ है 'अपमान', विवाहों और उत्सव के अवसर पर गाए जाने वाले कुछ अश्लील गीतों का नाम है।

'गीत', गीतों, गानों, प्रेम-गीतों आदि का वर्गीय नाम।

'गुज्जरी', एक रागिनी, और एक गौण संगीत-रूप-संबंधी गाने का नाम।

'चतुरङ्ग', चार भागों की कविता जो चार विभिन्न प्रकार से गाई जाती हैं : 'खियाल', 'तराना'[], 'सरगम'[] और 'तिरवत'[] (tirwat)।

'चरणाकुलछन्द', अर्थात् विभिन्न पंक्तियों में कविता। 'महाभारत' के हिन्दुई रूपान्तर में उसके उदाहरण मिलते हैं।

'चुटकुला', केवल दो तुकों का दिल खुश करने वाला खियाल।

'चौपाई', तुकान्तयुक्त चार अर्द्धालियों या दो पंक्तियों को कविता। किन्तु, तुलसी कृत 'रामायण' में, इस शीर्षक की कविताओं में नौ पंक्तियाँ हैं।

'छन्द', छः पंक्तियों में रचित कविता। तुलसी कृत 'रामायण' में उनकी एक बहुत बड़ी संख्या मिलती है। लाहौर में उसका बहुत प्रयोग होता है।

'छप्पै', या छः वाली, एक साथ लिखे गए 'छः', चरणों 'पै' ('पद' का समानार्थवाची) की कविता, जिनसे तीन पद्य बनते हैं। यह उस चरण से प्रारंभ होता है जिससे कविता का अन्त भी होता है।

'जगत बर्णन', शब्दशः संसार, पृथ्वी का वर्णन। यह हिन्दुई की एक वर्णनात्मक कविता है जिसके शीर्षक से विषय का पता चलता है।

'जत' [यति], होली का, इसी नाम के संगीत-रूप से संबंधित, एक गीत।

'जयकरी छन्द', अथवा विजय का गीत, एक प्रकार की कविता जिसके उदाहरण मेरी 'हिन्दुई भाषा के प्राथमिक सिद्धान्त' (Rudiments de la langue hindoui) के बाद मेरे द्वारा प्रकाशित 'महाभारत' के अंश में मिलेंगे।

'झूल्ना', अथवा झूला झूलना, झूले का गीत, वैसा ही जैसा हिण्डोला है। अन्य के अतिरिक्त वे कबीर की रचनाओं में हैं। एक उदाहरण, पाठ और अनुवाद, गिलक्राइस्ट कृत 'ऑरिएंटल लिंग्विस्ट', पृ॰ १५७, में है।

'टप्पा', इसी नाम के संगीत रूप में गाई गई छोटी शृंगारिक कविता। उसमें अन्तरा अन्त में दुबारा आने वाले प्रथम चरणार्द्ध से भिन्न होता है। गिलक्राइस्ट ने इस कविता को अँगरेज़ी नाम 'glee' ठीक ही दिया है, जिसका अर्थ टेक बाला गाना है। पंजाब के लोकप्रिय गीतों में ये विशेष रूप से मिलते हैं, जिनमें हिन्दुई के 'कौ' और हिन्दुस्तानी के 'का' के स्थान पर 'दौ' या 'दा' संबंध कारक का प्रयोग अपनी विशेषता है।[१०]

'ठुम्री', थोड़ी संख्या में चरणार्द्धों वाले हिन्दुई के कुछ लोकप्रिय गीतों का नाम। ज़नानों या रनिवासों में उनका विशेषतः प्रयोग होता है।

'डोमरा', नाचने वालों की जाति, जो इसे गाती है, के आधार पर इस प्रकार के नाम की कविता। उसमें पहले एक चरण होता है, फिर दो अधिक लंबे चरणों का एक पद्य, और अन्त में एक अंतिम पंक्ति जो कविता का प्रथम चरण होती है।

'तुक' का ठीक-ठीक अर्थ है एक चरणार्द्ध (hémistiche)। यह मुसलमानों की काव्य-रचनाओं का पृथक् चरण फ़र्द है।

'दादा', विशेषतः बुन्देलखण्ड और बघेलखण्ड में प्रयुक्त और स्त्रियों के मुख से कहलाया जाने वाला शृंगारपूर्ण गीत।

'दीप चन्दी', एक ख़ास तरह का गीत, जो होली के समय पर ही गाया जाता है।

'दोहा' या 'दोह्रा' (distique)। यह मुसलमानी कविताओं का 'बैत' है, अर्थात् दो चरणों से बनने वाला दोहा पद्य।

'धम्माल', गीत जो भारतीय आनंदोत्सव-पर्व, जब कि यह सुना जाता है, के नाम के आधार पर 'होली' या 'होरी' भी कहा जाता है।

'धुर्पद', सामान्यतः एक ही लय के पाँच चरणों में रचित छोटी कविता। वे सब प्रकार के विषयों पर हैं, किन्तु विशेषतः वीर-विषयों पर। इस कविता के जन्मदाता, जिसे वे स्वयं गाते थे, ग्वालियर के शासक राजा मान थे।[११]

'पद'। इस शब्द का ठीक-ठीक अर्थ है 'पैर', जिसका प्रयोग एक छन्द के लिए किया जाता है, और फलतः एक छोटी कविता।

'पहेली', गूढ़ प्रश्न।

'पाल्ना'। इस शब्द का अर्थ है जिसमें बच्चे झुलाए जाते हैं, जो उन गानों को प्रकट करने के लिए भी प्रयुक्त होता है जो बच्चों को झुलाते समय गाए जाते हैं।

'प्रबन्ध', प्राचीन हिन्दुई गान।

'प्रभाती', एक रागिनी और साधुओं में प्रयुक्त एक कविता की नाम। बीरभान की कविताओं में प्रभातियाँ मिलती हैं।

'बधावा', चार चरणार्द्धों की कविता, जिसका पहला कविता के प्रारंभ और अंत में दुहराया जाता है। यह बधाई का गीत है, जो बच्चों के जन्म, विवाह-संस्कार, आदि के समय सुना जाता है। उसे 'मुबारक बाद' भी कहते हैं, किन्तु यह दूसरा शब्द मुसलमानी है।

'बर्वा, या 'बर्वी', इसी नाम के संगीत-रूप-सम्बन्धी दो चरण की कविता। उसका 'ख़ियाल' नामक प्रकार से संबंध है। उसका एक उदाहरण 'समा विलास' में पाया जाता है, पृ॰ २३।

'बसंत', एक राग या संगीत रूप और एक विशेष प्रकार की कविता का नाम जो इस राग में गाई जाती है। गिलक्राइस्ट[१२] और विलर्ड (Willard)[१३] ने, सरल व्याख्या सहित, समस्त रागों (प्रधान रूपों) और रागिनियों (गौण रूपों) के नाम दिए हैं। उन्हें जानना और भी आवश्यक है क्योंकि वे विभिन्न रूपों में गाई जाने वाली कविताओं के प्रायः शीर्षक रहते हैं। किन्तु मैंने यहाँ लिखित कविता में अत्यधिक प्रयुक्त होने वाले का उल्लेख किया है।

'भक्त मार्ग', शब्दशः, भक्तों का रास्ता, कृष्ण-संबंधी भजन के एक विशेष प्रकार का नाम।[१४]

'भठ्‌याल', मुसलमानों के 'मरसिया' के अनुकरण पर एक प्रकार का हिन्दुई विलाप।

'मोजङ्ग', या 'भुजङ्ग', कविता जिसे टॉड[१५] ने 'lengthened serpentine couplet' कहा है।

'मङ्गल' या 'मङ्गलाचार', उत्सवों और खुशियों के समय गाई जाने वाली छोटी कविता। बधावे का, विवाह का गीत।

'मलार', एक रागिनी, और वर्षा ऋतु, जो भारत में प्रेम का समय भी है, की एक छोटी वर्णनात्मक कविता का नाम।

'मुक्री', एक प्रकार की पहेली जिसका एक उदाहरण मैंने अपने 'हिन्दुस्तानी भाषा के सिद्धान्त' की भूमिका में दिया है, पृ॰ २३।

'रमैनी', सारगर्भित कविता। इस शीर्षक की कविताओं की एक बहुत बड़ी संख्या कबीर की काव्य-रचनाओं में पाई जाती है।

'रसादिक', अर्थात् रसों का संकेत। यह चार पंक्तियों की एक छोटी शृंगारिक कविता है; यह शीर्षक बहुत-से लोकप्रिय गीतों का होता है।

'राग', हिन्दुओं के प्रधान संगीत-रूपों और मुसलमानों की ग़ज़ल से मिलती-जुलती एक कविता का नाम, और जिसे 'राग पद'––राग संबंधी कविता––भी कहते हैं। अन्य के अतिरिक्त सूरदास में उसके उदाहरण मिलते हैं।

'राग-सागर'––रागों का समुद्र––एक प्रकार की संगीत-रचना (Rondeau) को कहते हैं जिसका प्रत्येक छन्द एक विभिन्न राग में गाया जा सकता है, और 'राग-माला'––रागों की माला––चित्रित किए जाने वाले रूपकों सहित विभिन्न रागों से सम्बन्धित छन्दों के संग्रह को।

'राम पद', चरणार्द्धों के अनुसार १५-१५ शब्दांशों का छंद, राम के सम्मान में; जैसा कि शीर्षक से प्रकट होता है।

'रास', कृष्ण-लीला का वर्णन करने वाला गान होने से यह नाम दिया गया है।

'रेख़तस', कबीर की कविताएँ, जिनका नाम, हिन्दुस्तानी कविताओं के लिए प्रयुक्त, फ़ारसी शब्द रेखतः––मिश्रित––से लिया गया है।

'रोलाछन्द'। बाईस लंबी पंक्तियों की, इस नाम की कविता से, 'महाभारत' के हिन्दुई रूपान्तर में, 'शकुन्तला' का उपाख्यान प्रारम्भ होता है।

'विष्नु पद', विकृत रूप में 'बिपन पद', केवल इस बात को छोड़ कर कि इसका विषय सदैव विष्णु से सम्बन्धित रहता है, यह 'डोमरा' की तरह कविता है। कहा जाता है, इसके जन्मदाता सूरदास थे। मथुरा में इसका ख़ास तौर से व्यवहार होता है।

'शब्द' या 'शब्दी', कबीर की कुछ कविताओं का ख़ास नाम।

'सङ्गीत', नृत्य के साथ का गाना।

'सखी', और बहुवचन में 'सख्यां', कबीर की कुछ कविताओं का विशेष नाम। कृष्ण और गोपियों के प्रेम से संबंधित एक गीत को 'सखी सम्बन्ध' कहते हैं।

'समय', कबीर के भजनों का एक दूसरा विशेष नाम।

'साद्रा', ब्रज और ग्वालियर में व्यवहृत गीत, और उसकी तरह जिसे 'कड़खा' कहते हैं।

'सोर्ठा'[१६], एक रागिनी और एक विशेष छन्द की छोटी हिन्दुई-कविता का नाम।

'सोह्ला', (Sohlâ)। यह शब्द, जिसका अर्थ 'उत्सव' है, उत्सवों और ख़ुशियों, और ख़ास तौर से विवाहों में गाई जाने वाली कविताओं को प्रकट करने के लिए भी होता है। विलर्ड (Willard) ने हिन्दुस्तान के संगीत पर अपनी रोचक रचना में इस गीत का उल्लेख किया है, पृ॰ ९३।

'स्तुति', प्रशंसा का गीत।

'हिण्डोल'––escarpolette (झूला), इस विषय का वर्णनात्मक गीत, जिसे भारतीय नारियाँ अपनी सहेलियों को झुलाते समय गाती हैं।

'होली' या 'होरी'। यह एक भारतीय उत्सव है जिसका उल्लेख मेरे 'भारत के लोकप्रिय उत्सवों का विवरण'[१७] में देखा जा सकता है। यही नाम उन गीतों को भी दिया जाता है जो इस समय सुने जाते हैं––गाने जिसका एक सुन्दर उदाहरण पहली जिल्द, पृ॰ ५४९ में है। 'होली' नाम का गीत प्रायः केवल दो पंक्तियों का होता है, जिसमें से अंतिम पंक्ति उसी चरणार्द्ध से समाप्त होती है जिससे कविता प्रारंभ होती है। लोकप्रिय गीतों में उसके उदाहरण मिलेंगे।

अब, यदि ब्राह्मणकालीन भारत को छोड़ दिया जाय, और मुसलमानकालीन भारत की ओर अपना ध्यान दिया जाय तो मुसलमान काव्यशास्त्रियों के अनुसार[१८], सर्वप्रथम हम हिन्दुस्तानी काव्य-रचनाओं, उर्दू और दक्खिनी दोनों, को सात प्रधान भागों में विभाजित कर सकते हैं।

१. वीर कविता (अल्‌हमासा)।
२. शोक कविताएँ (अल्‌मरासी)।[१९]
३. नीति और उपदेश की कविताएँ (अल्अदब बन्‌नसीहत)।
४. शृंगारिक कविता (अल्‌नसीब)।
५. प्रशंसा और यशगान की कविताएँ (अल्‌सना व अल्‌मदीह)।
६. व्यंग्य (अल्‌हिजा)।
७. वर्णनात्मक कविताएँ (अल्‌सिफ़ात)।

पहले भाग में कुछ क़सीदे[२०], और विशेष रूप से बड़ी ऐतहासिक कविताएँ जिनका नाम 'नामा'––पुस्तक[२१]––और 'क़िस्सा'––या पद्यात्मक कथा है, रखी जानी चाहिए। उन्हीं में वास्तव में कहे जाने वाले इतिहास रखे जा सकते हैं जिनके काव्यात्मक गद्य में अनेक पद्य मिले रहते हैं। पूर्वी कल्पना से सुसज्जित यही शेष इतिहास हैं जिनसे निस्संदेह ऐतिहासिक कथाओं का जन्म हुआ (जो) एक प्रकार की रचना है (जिसे) हमने पूर्व से लिया है।[२२] इन पिछली रचनाओं के प्रेम सम्बन्धी विषयों की संख्या अंत में थोड़े-से क़िस्सों तक रह जाती है जिनमें से अनेक अरबों, तुर्कों, फ़ारस-निवासियों और भारतीय मुसलमानों में प्रचलित हैं। सिकन्दर महान् के कारनामे, ख़ुसरो और शीरीं, यूसुफ़ और ज़ुलेख़ा, मजनूँ और लैला का प्रेम ऐसे ही क़िस्से हैं। अनेक फ़ारसी कवियों ने, पाँच मसनवियों[२३] का संग्रह तैयार करने की भाँति, पाँच विभिन्न क़िस्सों को विकसित करने की चेष्टा की है जिनके संग्रह को उन्होंने "ख़म्सः', 'पाँच' शीर्षक दिया है। उदाहरण के लिए निज़ामी[२४], जामी, ख़ुसरो, कातिबी (Kâtibî), हातिफ़ी (Hâtifî) आदि, ऐसे ही कवि हैं।

पूर्व में वीरतापूर्ण कथाएँ भी मिलती हैं; जैसे अरबों में इस प्रकार का अन्तर (Antar) का प्रसिद्ध इतिहास है, जिसमें हमारी प्राचीन वीर-कथाओं की भाँति, मरे हुए व्यक्ति, उखड़े हुए वृक्ष, केवल एक व्यक्ति द्वारा नष्ट की गई सेनाएँ मिलती हैं। हिन्दुस्तानी में 'क़िस्सा-इ अमीर हम्‌ज़ा', ख़ाविर-नामा' आदि की गणना वीर-कथाओं में की जा सकती है।

इस पहले भाग में ही अनेकानेक पूर्वी कहानियों का उल्लेख किया जाना चाहिए : 'एक हज़ार-एक रातें', जिसके हिन्दुस्तानी में अनुवाद हैं; 'ख़िरद अफ़रोज़', 'मुफ़रः उल्‌कुलूब' (Mufarrah ulculûb) आदि।

दूसरे भाग में भारतीय मुसलमानों में अत्यन्त प्रचलित काव्य, 'मर्सिये' या हसन, हुसेन और उनके साथियों की याद में विलाप, रखे जाने चाहिए।

तीसरे में 'पंदनामे' या शिक्षा की पुस्तकें, रखी जाती हैं, जो सारा (Sirach) के पुत्र, ईसा की धर्म-संबंधी पुस्तक की भाँति शिक्षाप्रद कविताएँ हैं; 'अख़लाक', या आचार, पद्यात्मक उद्धरणों से मिश्रित, गद्य में नैतिकता-संबंधी ग्रन्थ हैं, जैसे 'गुलिस्ताँ' और उसके अनुकरण पर बनाए गए ग्रन्थ : उदारहण के लिए 'सैर-इ इशरत', जिसके उद्धरण मैंने इस जिल्द में दिए हैं।

चौथे में केवल वास्तव में शृंगारिक कही जाने वाली कविताएँ ही नहीं, किन्तु समस्त रहस्यवादी ग़ज़लों को रखना चाहिए जिनमें दिव्य प्रेम प्रायः अत्यन्त लौकिक रूप में प्रकट किया जाता है, जिनमें आध्यात्मिक और इन्द्रिय-संबंधी बातों का अकथनीय मिश्रण रहता है।[२५] इन कवियों का संबंध सामान्यतः सूफ़ियों के, जिनके सिद्धान्त वास्तव में वही हैं जो जोगियों द्वारा माने जाने वाले भारतीय सर्वदेववाद के हैं, मुसलमानी दार्शनिक संप्रदाय से रहता है। इन पुस्तकों में ईश्वर और मनुष्य, भौतिक वस्तुओं की निस्सारता, और आध्यात्मिक वस्तुओं की वास्तविकता पर जो कुछ प्रशंसनीय है उसे समझने के लिए एक क्षण उनकी घातक प्रवृत्तियों को भूल जाना आवश्यक है।

पाँचवें में वे रखी जानी चाहिए जिनमें ईश्वर-प्रार्थना जो दीवानों और बहुत-सी मुसलमानी रचनाओं के प्रारम्भ में रहती है, मुहम्मद और प्रायः उनके बाद के इमामों की प्रशंसा करने वाली कविताएँ, और अंत में वे कविताएँ जिनमें कवि द्वारा शासन करने वाले सम्राट् या अपने आश्रयदाता का यशगान रहता है। पिछली रचनाओं में प्रायः अतिशयोक्ति से काम लिया गया है। अन्य अनेक बातों की तरह हिन्दुस्तानी कवियों ने इस बात में भी फ़ारसी वालों का पूर्ण अनुकरण किया है। सेल्यूकिड (Seljoukides) और अताबेक (Atabeks) वंश के दर्प-पूर्ण शाहंशाह थे जिनके अंतर्गत कृपा ही के भूखे कवियों ने इन शाहंशाहों की तारीफ़ों के पुल बाँध दिए, अपनी रची कविताओं में आवश्यकता से अधिक अतिशयोक्तियों का प्रयोग करने लगे जिनसे विषय संकीर्ण और जी उबा देने वाले हो गए।[२६] ये कवि ऐसी प्रशंसा करने में कोई संकोच नहीं करते जो न केवल चापलूसी की, वरन् कुत्सित रुचि और उसी प्रकार बुद्धि की सीमा का उल्लंघन कर जाती है। अपने-अपने चरित-नायकों का चित्र प्रस्तुत करने के लिए दृश्यमान् जगत से ही इन कवियों की कल्पना को यथेष्ट बल नहीं मिलता, वे आध्यात्मिक जगत् में भी विचरण करने लगते हैं। उसी प्रकार, उदाहरण के लिए, उनके शाहंशाह की इच्छा पर प्रकृति की सब शक्तियाँ निर्भर रहती हैं। वही सूर्य और चन्द्र का मार्ग निर्धारित करती है। सब कुछ उनकी आज्ञा के वशीभूत है। स्वयं भाग्य उनकी इच्छा का दास है।[२७]

मुसलमानी रचनाओं के छठे भाग में व्यंग्य आते हैं। दुनिया के सब देशों में आलोचक, व्यंग्य ने सब बाधाओं को पार कर प्रकाश पाया है। परीक्षा करना, तुलना करना, वास्तव में यह मानवी प्रकृति का अत्यन्त सुन्दर विशेषाधिकार है। अथवा क्योंकि मनुष्य के सब कार्य अपूर्णता पर आधारित हैं, उन्हें आलोचक से कोई नहीं बचा सकता। कभी-कभी अत्यन्त साधारण आत्माएँ महानों के प्रति यह व्यवहार न्यायपूर्वक कर सकती हैं। यद्यपि कोई इलियड की रचना न कर सकता हो, तब भी होरेस (Horace) के अनुसार यह पाया जाता है कि :

Quandoque bonus dormitat Homerus.

उसी प्रकार राज्य के प्रसिद्ध व्यक्तियों द्वारा की गई ग़लतियाँ, उनका स्थान ग्रहण कर लेने की भावना के बिना, देखी जा सकती हैं। दुर्भाग्यवश आलोचक की ओर प्रवृत्ति प्रायः द्वेष से, ईर्ष्या से तथा अन्य कुत्सित आवेगों से उत्पन्न होती है। जो कुछ भी हो, यूरोप की भाँति पूर्व में व्यंग्य प्रचलित है; एशिया का बड़े से बड़ा अत्याचारी इन बाणों से नहीं बचा। जैसा कि ज्ञात है, दो शताब्दी पूर्व, तुर्क कवि उवैसी (Uweïci) ने कुस्तुन्तुनिया की जनता के सामने तुर्क शासकों के पतन पर अपनी व्यंग्यवर्षा की थी, व्यंग्य जिसमें उसने सम्राट् से अपमानजनक विशेष दोषों से सजीव प्रश्न किए थे, जिसमें उसने अन्य बातों के अतिरिक्त बड़े वज़ीर के स्थान पर बहुत दिनों से पशुओं को भरे रखने की शिकायत की है।[२८] और न केवल प्रशंसनीय व्यक्तियों ने, खास हालतों में, अनिवार्य परिस्थितियों में व्यंग्य लिखे हैं; किन्तु कवियों ने, जैसा कि यूरोप में, इस प्रकार के प्रति अपनी रुचि प्रकट की है, जिसमें उन्होंने अपनी व्यंग्य-शक्ति प्रकट की है; और, यह ख़ास बात है, कि सामान्यतः लेखकों ने व्यंग्य और यशगान एक साथ किया है; क्योंकि वास्तव में यदि किसी को बुरी बातें अरुचिकर प्रतीत होती हैं, तो अच्छी बातों के प्रति उत्साह भी रहता है; यदि हमें कुछ लोगों के दोषों पर आश्चर्य होता है, तो दूसरों के अच्छे गुणों से उत्साह होता है। फ़ारसी के अत्यन्त प्रसिद्ध व्यंग्यकार, अनवरी (Anwarî), को इस प्रकार दूसरे क्षणों में यशगान करते हुए भी देखते हैं। भारतवर्ष में भी यही बात है : अत्यन्त प्रसिद्ध व्यंग्यकार कवियों ने, जिनके व्यंग्यों में अतिशयोक्तियाँ मिलती हैं, यशगान भी किया है; किन्तु व्यंग्यों में यशगान की अपेक्षा उनका अच्छा रूप मिलता है। उनके व्यंग्यों में अधिक मौलिकता पाई जाती है, और स्वयं उनके देशवासी उन्हें उनके यशगान से अच्छा समझते हैं। यह सच है कि हिन्दुस्तानी कवियों ने व्यंग्य सफलतापूर्वक लिखे हैं। उनमें व्यंग्य की परिधि उत्तरोत्तर विस्तृत होती जाती है। उन्होंने पहले व्यक्तियों को, फिर संस्थाओं को, फिर अन्त में उन चीज़ों को जो मनुष्य-इच्छा पर निर्भर नहीं रहतीं अपना निशाना बनाया है। यहाँ तक कि उन्होंने स्वयं प्रकृति की[२९] उसके भयंकर और डरावने रूप में आलोचना की है। इसी प्रकार उन्होंने गर्मी के विरुद्ध, जाड़े के विरुद्ध,[३०] बाढ़ों के विरुद्ध, और साथ ही अत्यन्त भयंकर और अत्यन्त घृणित बीमारियों पर व्यंग्य लिखे हैं। हम कह सकते हैं कि आधुनिक भारत के व्यंग्यों के अधिकांश भाग का विषय यही बातें हैं। तो भी पूर्व में सर्वप्रथम, घरेलू जीवन के रीति-रस्मों पर व्यंग्य प्रारंभ करने में हिस्दुस्तानी कवियों की विशेषता है।[३१] किन्तु इन व्यंग्यों में अधिकतर एक कठिनाई है, वह यह कि उनका ऐसे विषयों से संबंध है जिनका केवल स्थानीय या परिस्थितिजन्य महत्त्व है, और जो अश्लीलता द्वारा दूषित और छोटी-छोटी बातों द्वारा विकृत हैं, जो, सौदा और जुरत जैसे अत्यन्त प्रसिद्ध कवियों में भी, अत्यन्त साधारण हैं; मैं भी अपने अवतरणों में उन्हें थोड़ी संख्या में, और वह भी काट-छाँट कर, दे सका हूँ। मुझे स्पष्टतः अत्यन्त प्रसिद्ध व्यंग्य छोड़ देने पड़े हैं, ऐसे जिन्होंने अपने रचयिताओं को अत्यधिक ख्याति प्रदान की,[३२] और जिनका भारत की प्रधान रचनाओं के रूप में उल्लेख होता हैं, जिनमें सदाचारों से संबंधित जो कुछ है उसके बारे में शिथिलता पाई जाती है।

किसी ने ठीक कहा है कि प्रहसन (Comédie) केवल कम व्यक्तिगत और अधिक अस्पष्ट व्यंग्य है। आधुनिक भारतवासी निंदा के इस साधन से विहीन नहीं हैं। यदि वे वास्तविक नाटकों, जिनके संस्कृत में सुन्दर उदाहरण हैं, से परिचित नहीं हैं, तो उनके पास एक प्रकार के प्रहसन हैं जिन्हें बड़े मेलों में बाज़ीगार[३३] खेलते हैं और जिनमें कभी-कभी राजनीतिक संकेत रहते हैं। उत्तर भारत के बड़े नगरों में इस प्रकार के अभिनेता पाए जाते हैं जो काफ़ी चतुर होते हैं। कभी-कभी इन कलाकारों का एक समुदाय देशी अश्वारोहियों के अस्थायी सेनादल के साथ रहता है। जब कभी किसी रईस नवाब को अपने मनोरंजन की आवश्यकता पड़ती है, या जब वह अपने अतिथि को ख़ुश करना चाहता है तो वह उन्हें पैसा देता है। प्रधान मुसलमानी त्यौहारों, ख़ास तौर से इस्लाम धर्म के सबसे बड़े धार्मिक कृत्य बकराईद या ईदुज्ज़ुहा, के अवसर पर वे बुलाए जाते हैं। उनके प्रदर्शन इटली के पुराने मूक अभिनयों से बहुत मिलते-जुलते हैं, जिनमें कुछ अभिनेता अपना रूप बनाते हैं और हमें समाज की कहावतें देते हैं। विभिन्न व्यक्तियों में कथोपकथन, यद्यपि कभी-कभी भद्दा रहता है, आध्यात्मिक और चुभता हुआ रहता है। वह श्लेष शब्दों के साथ खिलवाड़, अनुप्रास और दो अर्थ वाली अभिव्यंजनाओं से पूर्ण रहता है––सौन्दर्य-शैली जिसका हिन्दुस्तानी में अद्भुत प्राचुर्य है और जो उसकी अत्यधिक समृद्धि और विभिन्न उद्‌गमों से लिए गए शब्दों-समूह से निर्मित होने के कारण अन्य सभी भाषाओं की अपेक्षा संभवतः अधिक उचित है। जैसा कि मैंने कहा, ये तुरंत बनाए गए अंश प्रायः राजनीतिक संकेतों से पूर्ण रहते हैं। वास्तव में अभिनेता अँगरेज़ों और उनकी रीति-रस्मों का मज़ाक बनाते हैं, विशेषतः नवयुवक सिविलियनों का जो प्रायः दर्शकों में रहते हैं।[३४] यह सत्य है कि चित्रण बहुत बोझिल रहता है और रीति-रस्म बहुत बढ़ा कर दिखाए जाते हैं, जब कि वे अधिकतर ख़ाली यूरोपियन दृश्य तक रहते हैं; किन्तु अंत में वे विविधता से संपन्न रहते हैं और पात्रों के चरित्र में कौशल रहता है। इस प्रकार के अभिनयों से पहले सामान्यतः नाच और इस संबंध में उत्तर में 'कलावन्त' और मध्य भारत में 'भाट', 'चारण' और 'वरदाई' कहे जाने वाले गायकों द्वारा गाए जाने वाले हिन्दुस्तानी गाने रहते हैं।[३५]

अंत में वर्णनात्मक कविताओं के सातवें भाग में ऋतुओं, महीनों, फूलों, मृगया आदि से संबंधित अनेक कविताएँ रखी जाती हैं जिनमें से कुछेक इस जिल्द में दिए गए अवतरणों में मिलेंगी।

मैं यहाँ बता देना चाहता हूँ कि हिन्दुस्तानी छंद-शास्त्र (उरूज़) के नियम, कुछ थोड़े से अंतर के साथ, वही हैं जो अरबी-फ़ारसी के हैं, जिनकी व्याख्या मैंने एक विशेष विवरण (Mémoire) में की है।[३६] उर्दू और दक्खिनी की सब कविताएँ तुकपूर्ण होती हैं; किन्तु जब पंक्ति के अंत में एक या अनेक शब्दों की पुनरावृत्ति होती है तो तुक पूर्ववर्ती शब्द में रहता है। तुक को 'काफ़िया', और दुहराए गए शब्दों को 'रदीफ़' कहते हैं।[३७]

अपने तज़्‌किरा के अंत में मीर तक़ी ने रेख़ता या विशेषतः हिन्दुस्तानी कविता के विषय पर जो कहा है वह इस प्रकार है।

'रेख़ता' (मिश्रित) पद्य लिखने की कई विधियाँ हैं : १. एक मिसरा फ़ारसी और एक हिन्दी[३८] में लिखा जा सकता है, जैसा ख़ुसरो ने अपने एक परिचित क़िता (quita) में किया है। २. इसका उल्टा, पहला मिसरा हिन्दी में, और दूसरा फ़ारसी में, भी लिखा जा सकता है जैसा मीर मुईज़ (Mir Muîzz) ने किया है।[३९] ३. केवल शब्दों का, वह भी फ़ारसी क्रियाओं का प्रयोग किया जा सकता है[४०], किन्तु यह शैली सुरुचिपूर्ण नहीं समझी जाती, 'क़बीह'। ४. फ़ारसी संयुक्त शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है, किन्तु उनका प्रयोग सोच-समझ कर, और केवल उसी समय जब कि वह हिन्दी भाषा की प्रतिभा के अनुकूल हो, करना चाहिए, वैसे उदाहरणार्थ गुफ़्त व गोई, 'बातचीत'। ५. 'इल्‌हाम' नामक शैली में लिखा जा सकता है। यह प्रकार पुराने कवियों द्वारा बहुत पसन्द किया जाता है; किन्तु वास्तव में उसका प्रयोग केवल कोमलता और संयम के साथ होता है। उसमें ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है जिसके दो अर्थ होते हैं, एक बहुत अधिक प्रयुक्त (क़रीब) और दूसरा कम प्रयुक्त (बईद) और कम प्रयुक्त अर्थ में उन्हें इस प्रयोग में लाना कि पाठक चक्कर में पड़ जाय।[४१] ६. एक प्रकार का मध्यम मार्ग ग्रहण किया जा सकता है, जिसे 'अन्दाज़' कहते हैं। इस प्रकार में, जिसे मीर ने स्वयं अपने लिए चुना है, तजनीस (Alliteration), तरसीअ़ (Symmetry), तशबीह (Similitude), सफ़ाई गुफ़्तगू (Belle diction), फ़साहत (Eloquence), ख़याल (Imagination) आदि का प्रयोग अवश्य होना चाहिए। मीर का कहना है कि 'काव्य-कला के जो विशेषज्ञ हैं वे मैंने जो कुछ कहा है उसे पसन्द करेंगे। मैंने गँवारों के लिए नहीं लिखा; क्योंकि मैं जानता हूँ कि बातचीत का क्षेत्र व्यापक है, और मत विभिन्न होते हैं।'

जहाँ तक गद्य से संबंध है, उसके तीन प्रकार हैं : १. वह जो 'मुरज्जज़' या काव्यात्मक गद्य (Poetic prose) कहा जाता है, जिसमें बिना तुक के लय होती है; २. जिसे 'मुसज्जा' या विकृत रूप में 'सजा' कहते हैं[४२]; ३. जिसे 'आरी' कहते हैं, जिसमें न तो तुक होती है और न छन्द। अन्तिम दो का सबसे अधिक प्रयोग होता है; कभी कभी ये दोनों मिला दिए जाते हैं। 'नज़्म' के, जो कविता के लिए प्रयुक्त सामान्य शब्द है, विपरीत गद्य को 'नस्र' कहते हैं। गद्य सामान्य हो तुकयुक्त हो, अधिकतर सामान्यतः पद्यों-सहित होता है, तथा जो प्रायः उद्धरण होते हैं।

अब मैं, जैसा कि मैंने हिन्दुई के संबंध में किया है, निम्नलिखित अकारादिक्रम में हिन्दुस्तानी रचनाओं के विभिन्न प्रकारों के नामों पर विचार करता हूँ।

'इंशा' अर्थात्, 'उत्पत्ति'। यह हमारे पत्र-संबंधी रिसाले से बहुत-कुछ मिलता-जुलता पत्रों की भाँति लिखी गईं चीज़ों का संग्रह है। अनेक लेखकों ने इस प्रकार की रचना का अभ्यास किया है, और गद्य और पद्य दोनों में ही रूपकालंकार के लिए अपनी अनियंत्रित रुचि प्रकट की है। मुझे यह कहने की आवश्यकता नहीं कि उसमें मौलिक, और विशेषतः उद्धृत पद्यों का बाहुल्य रहता है।

'क़सीदा'। इस कविता में, जिसमें प्रशंसा (मुदा), या व्यंग्य (हजौ) रहता है, एक ही तुक में बारह से अधिक (सामान्यतः सौ) पंक्तियाँ रहती हैं, अपवाद स्वरूप पहली है, जिसके दो 'मिसरों' का तुक आपस में अवश्य मिलना चाहिए, और जिसे 'मुसर्रा' अर्थात्, तुक मिलने वाले दो 'मिसरे', और 'मतला' कहते हैं। अंत, जिसे 'मक़ता' कहते हैं, में लेखक का उपनाम अवश्य आना चाहिए।

'क़िता', 'टुकड़ा', अर्थात् चार मिसरों, या दो पंक्तियों में रचित छन्द जिसके केवल अंतिम दो मिसरों की तुक मिलती है। पद्य मिश्रित गद्य-रचनाओं में प्रायः उनका प्रयोग होता है। 'क़िता' के एक छन्द को 'क़िताबन्द' कहते हैं।

'क़ौल' एक प्रकार का गीत, 'आइने अकबरी' के अनुसार, जिसका व्यवहार विशेषतः दिल्ली में होता है।[४३]

'ख़याल', विकृत रूप में 'ख़ियाल', और हिन्दुई में 'खियाल'।'[४४] हिन्दू और मुसलमान टेक वाली कुछ छोटी कविताओं को यह नाम देते हैं, जिनमें से अनेक लोकप्रिय गाने बन गई हैं, जिन्हें गिलक्राइस्ट ने अँगरेज़ी नाम 'Catch' दिया है। इन कविताओं का विषय प्रायः शृंगारात्मक, या कम-से-कम भावुकतापूर्ण रहता है। वे किसी स्त्री के मुँह से कहलाई जाती हैं, और उनकी भाषा अत्यन्त कृत्रिम होती है। इस विशेष गाने के आविष्कारक जौनपुर के सुल्तान हुसेन शर्‌की बताए जाते हैं।[४५]

'ग़ज़ल' एक प्रकार की गीति-कविता (ode) है जो रूप में क़सीदा के समान है, केवल अंतर है तो यही कि यह बहुत छोटी होती है, बारह पंक्तियों से अधिक नहीं होनी चाहिए। पिछली (पंक्ति) जिसे 'शाह बैत', या शाही पद्य, कहते हैं, में, क़सीदा की भाँति, लिखने वाले का तख़ल्लुस आना चाहिए।

कभी-कभी ग़ज़ल में विशेष श्लेष शब्दों का प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार पहले पद्य के दो मिसरों का और आगे आने वाले पद्यों के अंतिम का समान रूप से या समान शब्दों से प्रारंभ और अंत हो सकता है; यह चीज़ वही है जिसे 'बाज़गश्त' कहते हैं।[४६]

'चीस्तान', पद्य और गद्य में पहेली।

'ज़िक्री'––'बयान', गाना जिसका विषय गंभीर और नैतिक रहता है। गुजरात में इसका जन्म हुआ, और काज़ी महमूद द्वारा हिन्दुस्तान में प्रचलित हुआ।[४७]

'तज़्‌किरा'––'संस्मरण' या जीवनी। जिस प्रकार फ़ारसी में उसी प्रकार हिन्दुस्तानी में, इस शीर्षक की अनेक रचनाएँ हैं, और जिनमें कवियों के सम्बन्ध में, उनकी रचनाओं से उद्धरणों सहित, सूचनाएँ रहती हैं।

'तज़्‌मीन'––'सन्निवेश करना'। इस प्रकार का नाम उन पद्यों को दिया जाता है जो किसी दूसरी कविता का विकास प्रस्तुत करते हैं। उनमें परिचित पंक्तियों के साथ नई पंक्तियाँ रहती हैं। अपनी ख़ास ग़ज़लों में से एक पर सौदा ने लिखा है, और ताबाँ ने हाफ़िज़ की एक ग़ज़ल पर।

'तराना'। यह शब्द, जिसका अर्थ है 'स्वर का मिलाना', 'रुबाई' में एक गीत, विशेषतः दिल्ली में प्रयुक्त, के लिए आता है। इन गीतों के बनाने वालों को 'तराना-परदाज़'-'गीत बनाने वाले' कहते हैं।

'तश्बीब'। यह शब्द, जिसका अर्थ है 'युवावस्था और सौन्दर्य का वर्णन', एक शृंगारिक कविता का द्योतक है जिसे मुसलमान काव्य-शास्त्री प्रधान काव्य-रचनाओं में स्थान देते हैं।

'तारीख़'––'इतिहास'। इस प्रकार का नाम काल-चक्र-संबंधी पद्य को दिया जाता है, जिसमें, एक मिसरा या एक पंक्ति के, एक या कुछ शब्दों के अक्षरों की संख्यावाची शक्ति के आधार पर, किसी घटना की तिथि निर्धारित की जाती है। यह आवश्यक है कि कविता और काल-चक्र का उल्लिखित घटना से संबंध हो। ये कविताएँ प्रायः इमारतों और क़ब्रों पर खोदे गए लेखों का काम देती हैं, और सामान्यतः उन रचनाओं के अंत में आती हैं जिनकी ये तिथि भी बताती हैं। 'तारीख़' से कालक्रमानुसार वृतान्त, इतिहास, सामान्य इतिहास या एक विशेष इतिहास-संबंधी सब बड़े ग्रन्थ भी समझे जाते हैं।

'दीवान'। पंक्तियों के अंतिम वर्ण के अनुसार क्रम से रखी गईं ग़ज़लों के संग्रह को भी कहते हैं, और फलतः एक ही लेखक की कविताओं का संग्रह। किन्तु इस अंतिम अर्थ में ख़ास तौर से 'कुल्लियात' अथवा पूर्ण, शब्द का प्रयोग होता है।

भारतीय मुसलमानों के साहित्य में ग़ज़लों के संग्रह सबसे अधिक प्रचलित हैं। लोग एक या दो ग़ज़ल लिखते हैं, तत्पश्चात् कुछ और; अंत में जब उनकी संख्या काफ़ी हो जाती है, तो दीवान के रूप में संकलित कर दी जाती हैं, उसकी प्रतियाँ उतारी जाती हैं, और अपने मित्रों में बाँट दी जाती हैं। कुछ कवियों ने तो कई दीवान तैयार किए हैं; उदाहरणार्थ मीर तक़ी में छः लिखे हैं। दुर्भाग्यवश उनमें लगभग हमेशा एक से विचार रहते हैं, और कभी-कभी भाषा भी एक सी रहती हैं; साथ ही, कई सौ कविताओं के दीवान में नए विचार प्रस्तुत करने वाली या मौलिक रूप में लिखी गईं कविताएँ ढूँढ़ना कठिन हो जाता है।

'नुक़्ता'––'बिन्दु', 'सुन्दर शब्द', एक प्रकार का हरम का गाना।[४८]

'फ़र्द' अर्थात् 'एक'। लोग 'मिसरा' भी कहते हैं।

'बन्द' का ठीक-ठीक अर्थ है 'छन्द' : जैले 'हफ़्त बन्द' में सात छन्द होते हैं। 'तर्ज़ी बन्द' अथवा 'टेकयुक्त छन्द', उस कविता को कहते हैं जिसमें विभिन्न तुक वाले, पाँच से ग्यारह पंक्तियों तक के, छन्द होते हैं, जिनमें से हर एक के अंत में कविता से बाहर की एक ख़ास पंक्ति[४९] दुहराई जाती है, किंतु जिसके अर्थ का छन्द के साथ साम्य होता है, चाहे वह बिना पंक्तियों के अपने में पूर्ण ही हो। उसमें पाँच से कम और बारह से अधिक छन्द तो होने ही नहीं चाहिए।[५०] 'तरकीब बन्द'––क्रमयुक्त छन्द, उस रचना को कहते हैं जिसके छन्दों की अंतिम पंक्तियाँ बदल जाती हैं। यह सामान्यतः प्रशंसात्मक कविता होती है[५१]; कभी-कभी प्रत्येक छन्द के अंत में आने वाली स्फुट पंक्तियों के जोड़ देने से एक ग़ज़ल बन सकती है। इस कविता के अंतिम छन्द में, साथ ही पिछली के में, कवि अपना तख़ल्लुस अवश्य देता है। इस संबंध में सौदा ने, फ़िदवी पर अपने व्यंग्य में, कहा है कि कवियों को पंक्तियों में अपना तख़ल्लुस तो अवश्य रखना चाहिए, किंतु असली नाम कभी नहीं।

'बयाज़', या संग्रह-पुस्तक (album)। यह विभिन्न रचनाओं के पद्यों का संग्रह होता है। आयताकार संग्रह-पुस्तक (album) को जिसमें दूसरों तथा ख़ास मित्र-बांधवों के पद्य रहते हैं विशेष रूप से 'सफ़ीना' कहा जाता है। अरबी के विद्वान् श्री वरसी (M. Varsy) ने मुझे निश्चित रूप से बताया है कि मिश्र (ईजिप्ट) में इस शब्द का यही अर्थ है, और वास्तव में एक बक्स में बन्द आयताकार संग्रह-पुस्तक का द्योतक है।

'बैत'। यह शब्द[५२] 'शेर' का सामानार्थवाची है; और एक सामान्य पद्य का द्योतक है; किन्तु उसका एक अधिक विशेष अर्थ भी है, और जिसे कभी-कभी दो अलग-अलग पंक्तियों वाला छन्द कहते हैं, क्योंकि उसमें दो 'मिसरा' होते हैं। वह हिन्दुई के 'दोहा' या 'दोहरा' के समान हैं।

'दो-बैत', दो पंक्तियों, या चार 'मिसरों' की छोटी कविता को कहते हैं। 'चार-बैत' चार छन्दों के उर्दू गाने को कहते हैं।

'मन्‌क़बा', प्रशंसा। यह वह शीर्षक है जो किसी व्यक्ति की प्रशंसा में लिखी गई कुछ कविताओं को दिया जाता है।

'मर्सिया', 'शोक', अथवा ठीक-ठीक 'विलाप' गीत, मुसलमान शहीदों के संबंध में साधारणतः चार पंक्तियों के पचास छन्दों में रचित काव्य। बहुत पीछे तथा अन्य स्थानों पर मैं इसका उल्लेख कर चुका हूँ।[५३]

'मसनवी'। अरबी में जिन पद्यों को 'मुज़्‌दविज' कहते हैं उन्हें फ़ारसी और हिन्दुस्तानी में इस प्रकार पुकारा जाता है। ये दोनों शब्द 'मिसरों' के जोड़ों से सार्थक होते हैं, और वे पद्यों की उस शृंखला का द्योतन करते हैं जिनके दो मिसरों की आपस में तुक मिलता ही है, और जिसकी तुक प्रत्येक पद्य में बदलती है, या कम-से-कम बदल सकती है।[५४] इस रूप में 'वअज़' या 'वन्दनामे', उपदेशात्मक कविताएँ, किसी भी प्रकार की सब लम्बी कविताएँ और पद्यात्मक वर्णन लिखे जाते हैं। उन्हें प्रायः खण्डों या परिच्छेदों में बाँटा जाता है जिन्हें 'बाब'––दरवाज़ा, या 'फ़रल'-भाग कहते हैं। पिछला शब्द हिन्दुई-कविताओं के 'कांड' की तरह है।

'मुअम्मा'––पहेली, छोटी कविता जिसका विषय एक पहेली रहती है;[५५] उसे 'लुग्ब़' भी कहते हैं।

'मुबारक-बाद'। बधाई और प्रशंसा संबंधी काव्य को यह नाम दिया जाता है। हिन्दुई में 'बधावा' के समानार्थवाची के रूप में उसका प्रयोग होता है।

'मुसम्मत', अर्थात् 'फिर से जोड़ना'। इस प्रकार उस कविता को कहा जाता है जिसके छन्दों में से हर एक भिन्न-तुकान्त होता है, किन्तु जिनके अंत में एक ऐसा मिसरा आता है जिसकी तुक अलग-अलग रूप में मिल जाती है, और जो क्रम पूरी कविता के लिए चलता है। उसमें

  1. एक बात ध्यान देने योग्य है, कि फ़ारस और भारत के अत्यन्त प्रसिद्ध मुसलमान रचयिताओं, जिन्हें संत व्यक्ति समझा जाता है, जैसे, हाफ़िज़, सादी, ज़ुरत, कमाल, आदि लगभग सभी ने अश्लील कविताएँ लिखी हैं। मुसलमानों के बारे में वही कहा जा सकता है जो संत पॉल ने मूर्तिपूजकों के बारे में कहा है : 'Professing themselves to be wise, they become fools... God gave them up...to uncleanness through the lusts of their own hearts" (Epistle to the Romans. 1, 22)
  2. मैं इसलिए और भी नहीं दे रहा, क्योंकि मेरी पहली जिल्द के निकलने के बाद वे प्रकाशित हो चुके हैं। जैसे आसाम का इतिहास है, जिसके मैंने उद्धरण नहीं दिए, क्योंकि श्री पैवी (Th Pavie) ने हाल ही में उसका एक सुन्दर अनुवाद प्रकाशित किया है; और मिस्कीन कृत मर्सिया, जिसके संबंध में मैंने, अपने अत्यन्त प्रसिद्ध शिष्य में से एक, मठधारी श्री बरत्राँ (I'abbé Bertrand), को 'गुल-इ मगफिरात', जिसे उन्होंने 'les séances de Haidari' शीर्षक के अंतर्गत फ़्रेंच में निकाला है, के बाद प्रकाशित करने का अधिकार दिया है।
  3. उचित रूप में कही जाने वाली हिन्दी और हिन्दुई के अंतर के लिए, देखिए मेरी 'Rudiments de la langue hindoui' (हिन्दुई भाषा के प्राथमिक सिद्धान्त), पृ॰ १०।
  4. मेरा संकेत यहाँ मूल संस्करण की ओर है; क्योंकि बाद के संस्करणों में इन भेदों की ओर ध्यान नहीं दिया गया।
  5. शेक्सपियर (Shak.), 'डिक्शनरी हिन्दुस्तानी ऐंड इँगलिश'
  6. दे॰, कोलब्रुक, 'एशियाटिक रिसर्चेज़', x, ४१७
  7. आगे चलकर हिन्दुस्तानी काव्यों की सूची में इस शब्द की व्याख्या देखिए।
  8. इस शब्द का ठीक-ठीक अर्थ है gamme (गम्म्), और जिससे शेष व्युत्पत्ति मालूम हो जाता है।
  9. इस अंतिम तान और गीत पर देखिए विलर्ड, 'ए ट्रिटाइज़ ऑन दि म्यूज़िक ऑव हिन्दुस्तान', पृ० ९२।
  10. दे॰, मेरी 'Rudiments de la langue hindoui' (हिन्दुई भाषा के प्राथमिक सिद्धान्त), नोट ३, पृ॰ ६, और नोट २, पृ॰ ११।
  11. विलर्ड (Willard), 'ऑन दि म्यूज़िक ऑव हिन्दुस्तान', पृ॰ १०७
  12. 'ग्रैमर हिन्दुस्तानी' (Gram. Hind.), २६७ तथा बाद के पृष्ठ
  13. 'ऑन दि म्यूज़िक ऑव हिन्दुस्तान', ४९ तथा बाद के पृष्ठ
  14. ब्राउटन, 'पॉप्युलर पोयट्री ऑव दि हिन्दूज़', पृ॰ ७८
  15. 'एशियाटिक जर्नल', अक्तूबर १८४०, पृ॰ १२९
  16. वह शब्द संस्कृत 'सौराष्ट्र' (Surate) से निकला है, जो उस प्रदेश का नाम है जहाँ इसी नाम के गाँव का प्रयोग होता है।
  17. ज़ूर्ना एसियातीक', वर्ष १८३४
  18. इन विभाजन का विस्तार डब्ल्यू॰ जोन्स कृत 'Poëseos Asiaticae commentarii' में मिलता है।
  19. अल्‌मरासी, मरसिया शब्द का, जिसकी व्याख्या और आगे की जायगी, 'अल्' सहित, अरबी बहुवचन है।
  20. इस नाम की विशेष प्रकार की कविता की व्याख्या मैं आगे करूँगा।
  21. केवल एक प्रधान रचना उद्धृत करने के लिए, 'शाहनामा' ऐसी ही रचना हैं।
  22. प्रसिद्ध साहित्यिकों ने इस प्रकार की कथाओं का यह कह कर विरोध किया है कि 'ऐतिहासिक कथा' शब्द में ही विरोधी विचार है, किन्तु उन्होंने यह नहीं सोचा कि अनेक प्रसिद्ध कथाएँ, केवल नाममात्र के लिए ऐतिहासिक कथाएँ हैं।
  23. इस शब्द का अर्थ मैं आगे बताऊँगा।
  24. निज़ामी के 'खम्सः' में हैं––'मख़ज़न उल्असरार', 'ख़ुसरो ओ शीरीं', 'हस्त पैकर', 'लैला-मजनूँ', और 'सिकन्दर-नामा'।
  25. इस प्रकार के भावों में अनिवार्यतः जो दुर्बोधता रहती है, वह इन अंशों में एकरूपता के अभाव के कारण है। वास्तव में सामान्यतः पद्यों में परस्पर कोई संबंध नहीं होता।
  26. गेटे (Goethe), Ost. West, Divan (पूर्वी पश्चिमी दीवान)
  27. वैसे भी क्लैसीकल लेखकों में ऐसी अतिशयोक्तियाँ पाई जाती हैं। क्या वर्जिल ने अपने 'Géorgiques' के प्रारंभ में सीज़र को देवताओं का स्वामी नहीं बताया? क्या उसने टेथिस (Téthys) की पुत्री को स्त्री रूप में नहीं दिया? क्या इस बात की इच्छा प्रकट नहीं की कि उसके सिंहासन को स्थान प्रदान करने के लिए स्कौरपियन (राशिचक्र का प्रतीक-अनु॰) का तारा-मंडल आदरपूर्वक मार्ग से हट जाय।
  28. यह व्यंग्य डीत्‌ज़ (Dietz) द्वारा जर्मन में अनूदित हुआ है, और उसके कुछ अंश कारदोन (Cardone) कृत 'मेलाँज़ द लितेरत्यूर ऑरिएँ' (Mèlanges de littérature orient, पूर्वी साहित्य का विविध-संग्रह) की जि॰ २ में फ़्रेंच में अनूदित हुए हैं। श्री द सैसी (de Sacy) का 'मैगासाँ आँसीक्लोपेदी' (Magasin encycl. मैगासाँ विश्वकोष), जि॰ ६, १८११ में एक लेख भी देखिए।
  29. इसी तरह कभी-कभी परमात्मा की भी। रोमनों में भी जुवेनल (Juvénal) ने, बड़े आदमियों द्वारा अपनी शक्ति के दुरुपयोग का बुद्धिमानी के साथ विरोध करते हुए, भाग्य की गलतियों के विरुद्ध, अर्थात् ईश्वर, जो बुराई से अच्छाई पैदा करता है, के रहस्यों के विरुद्ध आवाज़ उठाते हुए समाप्त किया।
  30. दे॰, जि॰ १, पृ॰ १३६
  31. अरबी, तुर्की और फ़ारसी, जो हिन्दुस्तानी सहित पूर्वी मुसलमानों की चार प्रधान भाषाएँ हैं, के साहित्यों में भी व्यंग्य मिलते हैं; किन्तु उनमें हिन्दुस्तानी व्यंग्यों का ख़ास विशेषता नहीं है। 'हमासा' (Hamâca) में व्यंग्य 'अल्‌हिजा', संबंधी तीन पुस्तकें हैं; अन्य के अतिरिक्त एक काहिली पर है; एक दूसरा स्त्रियों के विरुद्ध, तीसरा पुरुषों के विरुद्ध है; किन्तु वे एक प्रकार से छोटी हास्योत्पादक कविताएँ हैं। फ़ारसी में व्यंग्य कम संख्या में हैं किन्तु वे एक प्रकार से व्यक्तियों के प्रति अपशब्द हैं। महमूद के विरुद्ध फ़िरदौसी का प्रसिद्ध व्यंग्य ऐसा ही है।
  32. उदाहरण के लिए मैंने घोड़े पर, उसकी चमकने की आदत के विरुद्ध लिखे गए, सौदा कृत व्यंग्य का अनुवाद नहीं दिया, यद्यपि वही बात भारतवर्ष में बहुत अच्छी समझी जाती है, और ख़ास तौर से मार द्वारा जो स्वयं एक अच्छे लेखक होने के साथ-साथ अच्छी पहिचान भी रखते थे।
  33. एक अभिनेता। बाज़ीगार नटों की क़ौम के होते हैं, और सामान्यतः मुसलमान हैं। कभी-कभी ये आवारा लोग होते हैं जिनका किसी धर्म से संबंध नहीं होता, और इसीलिए हिन्दुओं के साथ ब्रह्म की पूजा, और मुसलमानों के साथ मुहम्मद का आदर करते हुए बताए जाते हैं।
  34. उदाहरणार्थ, इन रचनाओं में से एक का विषय इस प्रकार है। दृश्य में एक कचहरी दिखाई गई है जिसमें यूरोपियन मजिस्ट्रेट बैठे हुए हैं। अभिनेताओं में से एक, गोल टोप सहित अँगरेज़ी वेशभूषा में, सीटी बजाते और अपने बूटों में चाबुक मारते हुए सामने आता है। तब किसी अपराध का दोषी कैदी लाया जाता है; किन्तु जज, क्योंकि वह एक नवयुवती भारतीय महिला, जो गवाह प्रतीत होता है, के साथ व्यस्त रहता है, ध्यान नहीं देता। जब कि गवाहियाँ सुनी जा रही हैं, वह कनखियों से देखे बिना, और इशारे किए बिना, बिना किसी अन्य बात की ओर ध्यान दिए हुए, नहीं रहता, और बाद के परिणाम के प्रति उदासीन प्रतीत होता है। अंत में जज का ख़िदमतगार आता है, जो अपने मालिक के पास जाकर, और हाथ जोड़कर, आदरपूर्वक और विनम्रता के साथ, धीमे स्वर में उससे कहता है : 'साहिब, टिफ़ेन तैयार है'। तुरन्त जज जाने के लिए उठ खड़ा होता है। अदालत के कर्मचारी उससे पूछते है कि क़ैदी का क्या होगा। नवयुवक सिविलियन, कमरे से बाहर जाते समय, एड़ी के बल घूमते हुए चिल्लाकर कहता है, 'गौडैम (Goddam), फाँसी।'
    ऊपर जो कुछ कहा गया है वह 'एशियाटिक जर्नल' (नई सीरीज़, जि॰ २२, पृ॰ ३७) में पढ़ने को मिलता है। वेवन (Bevan) ने भी एक हास्य रूपक या प्रहसन का उल्लेख किया है ('Thirty years in India', भारत में तीस बर्ष, जि॰ १ पृ॰ ४७) जो उन्होंने मद्रास में देखा था, और जिसका विषय एक यूरोपियन का भारत में आना, और अपने दुभाषिए की चालाकियों का अनुभव करना है। अपनी यात्रा करते समय हेबर (Héber) एक उत्सव का उल्लेख करते हैं जिसमें उनकी स्त्री भी थी, और जहाँ तीन प्रकार के मनोरंजन थे––संगीत, नृत्य और नाटक। वीकी (Viiki) नामक एक प्रसिद्ध भारतीय गायिका ने उस समय, अन्य के अतिरिक्त, अनेक हिन्दुस्तानी गाने गाए थे। मेरे माननाय मित्र स्वर्गीय जनरल सर विलियम ब्लैकबर्न (William Blackburne) ने भी दक्खिन में हिन्दुस्तानी रचनाओं का अभिनय देखने की निश्चित बात कही है।
  35. कुछ वर्ष पूर्व, कलकत्ते में एक रईस बाबू का निजी थिएटर था, जो 'शाम-बाज़ार' नामक हिस्से में स्थित उसके घर में था। भद्दी भाषा में लिखी गई रचनाएँ हिन्दू स्त्री या पुरुष अभिनेताओं द्वारा खेली जाती थीं। देशी गवैए, जो लगभग सभी ब्राह्मण होते थे, वाद्य-संगीत (औरकैस्ट्रा) प्रस्तुत करते थे, और अपने राष्ट्रीय गाने 'सितार', 'सारंगी', 'पखवाज़' आदि नामक बाजों पर बजाते थे। अभिनय ईश्वर की प्रार्थना से आरंभ होता था, तब एक प्रस्तावना के गान द्वारा रचना का विषय बताया जाता था। अंत में नाटक का अभिनय होता था। ये अभिनय बँगला में, जो बंगाल के हिन्दुओं द्वारा प्रयुक्त विशेष भाषा है, होते थे। ('एशियाटिक जर्नल', जि॰ १९, नई सीरीज, पृ॰ ४५२, as. int.)
  36. 'ज़ूर्ना एसियातीक' (Journal Asiatique), १८३२
  37. 'Rhétorique des peuples musulmans' (मुसलमान जातियों का काव्यशास्त्र) पर मेरा चौथा लेख देखिए, भाग २३।
  38. यह अनिश्चित शब्द, जिसका ठीक-ठीक अर्थ 'भारतीय' है, हिन्दुस्तानी के लिए प्रयुक्त होता है, तथा विशेषतः, जैसा कि मैंने अपनी 'Rudiments de la langue hindoui' (हिन्दुई भाषा के प्राथमिक सिद्धान्त) की भूमिका में बताया है, हिन्दुओं को देवनागरी अक्षरों में लिखित आधुनिक बोली (dialecte) के लिए।
  39. एक अरबी के मिसरे में और एक हिन्दुस्तानी के मिसरे में रचित पद्य भी पाए जाते हैं। उसका एक उदाहरण मैंने अपने छंदों के विवरण (Mémoire sur le mtérique) में उद्धृत किया है। ऐसे मिश्रितों के उदाहरण फ़्रांसीसी में मिलते हैं; अन्य के अतिरिक्त पानार (Panard) की रचनाओं में पाए, जाते हैं। फ़ारसी में भी ऐसे पद्य पाए जाते हैं जिनका एक मिसरा अरबी में, और दूसरा फ़ारसी में है। उन्हें 'मुलम्मा' कहते हैं। देखिए, ग्लैड्‌विन, 'Dissertation on the Rhetorics etc. of the Persians' (फ़ारस वालों के काव्यशास्त्र आदि पर दावा)।
  40. संभवतः लेखक कुछ ऐसे पद्यों का उल्लेख करना चाहता है जो इस समय फ़ारसी और हिन्दी में हैं; चियब्रेरा (Chiabrera) के लैटिन-इटैलियन दो चरणों वाले छंद के लगभग समान, जिसे मेरे पुराने साथी श्री यूसेब द सल (M. Eusébe de Salles), ने मेरी पहली जिल्द पर एक विद्वत्तापूर्ण लेख में उद्धृत किया है :

    In mare irato, in subita procella
    Invoco te, nostra benigna stella.

  41. 'इल्‌हाम' नामक अलंकार पर, देखिए, 'Rhétorique des nations musulmances.' (मुसलमान जातियों का काव्य-शास्त्र) पर मेरा तीसरा लेख, पृ॰ ९७।
  42. इस तुक युक्त गद्य के तीन प्रकारों की गणना की जाती है। इस संबंध में 'Rhètorique des nations musalmanes' (मुसलमान जातियों का काव्य-शास्त्र) पर मेरा चौथा लेख देखिए, भाग २२।
  43. जि॰ २, पृ॰ ४५९
  44. सोचने का बात है, कि यद्यपि आधुनिक भारतीयों में यह शब्द चिर परिचित अरबी शब्द का एक रूप माना जाता है, और जिसका अर्थ है 'विचार', वह संस्कृत 'खेलि'––भजन, गीत––का रूपान्तर है।
  45. विलर्ड (Willard), 'म्यूज़िक ऑव हिन्दुस्तान', पृ॰ ८८
  46. वली की ग़ज़ल जो 'दिलरुबा' शब्दों से प्रारंभ होती है, और जो मेरे संस्करण के पृ॰ २३ पर है, उसका एक उदाहरण प्रस्तुत करती है, साथ ही वह जो 'सब चमन' शब्दों से प्रारंभ होती है, और जो २९ पर पढ़ी जा सकती है।
  47. विलर्ड (Willard), 'म्यूज़िक ऑव हिन्दुस्तान', पृ॰ ९३
  48. विलर्ड (Willard), 'म्यूज़िक ऑव हिन्दुस्तान', पृ॰ ९३
  49. इसका एक उदाहरण इस जिल्द के पृष्ठ ४४३ पर मिलेगा।
  50. न्यूबोल्ड (Newbold), 'Essay on the metrical compositions of the Persians' (फ़ारस वालों की छन्दोबद्ध रचनाओं पर निबन्ध)।
  51. इस प्रकार का एक उदाहरण मीर तक़ी की रचनाओं में पाया जाता है, कलकत्ते का संस्करण, पृ॰ ८७५, जिसका हरएक छन्द बदल जाता है। कमाल ने अपने तज़्‌किरा में हसन की एक कविता उद्धृत की है, जिसकी रचना १७ बन्दों या चार पंक्तियों के छन्दों में हुई है, जिनमें से पहली तीन उर्दू में और अंतिम फ़ारसी में, एक विशेष तुक में, है।
  52. 'बैत' का ठीक-ठीक अर्थ है 'ख़ेमा', और फलतः 'घर', और उसी से एक ख़ेमे के दो द्वार हैं जिन्हें 'मिसरा' कहते हैं, इस प्रकार पद्य में इसी नाम के दो मिसरे होते हैं।
  53. इन विलाप-गीतों पर विस्तार मेरी 'Mémoir sur la religion musulmane dans l' Inde' (भारत में मुसलमानी धर्म का विवरण) में, और 'Séances de Haïdari' (हैदरी से भेंट) में देखिए।
  54. ये 'Ièonins' नामक लैटिन पद्यों की तरह है। अँगरेज़ी उपासना-पद्धति में इसी प्रकार के बहुत हैं।
  55. 'ग़ुलदस्ता-इ निशात' में इस प्रकार की पहेलियाँ बहुत बड़ी संख्या में मिलती हैं, पृ॰ ४४४।