हिंदी व्याकरण/हिंदी की उत्पत्ति

हिंदी व्याकरण  (1927) 
द्वारा कामताप्रसाद गुरु
[ १० ]

२—हिंदी की उत्पत्ति।

(१) आदिम भाषा।

भिन्न भिन्न देशों में रहनेवाली मनुष्य-जातियों के आकार, स्वभाव आदि की परस्पर तुलना करने से ज्ञात होता है कि उनमें आश्चर्य-जनक और अद्भुत समानता है। इससे विदित होता है कि सृष्टि के आदि में सब मनुष्यों के पूर्वज एकही थे। वे एकही स्थान पर रहते थे और एकही-से आचार-व्यवहार करते थे। इसी प्रकार, यदि भिन्न भिन्न भाषाओं के मुख्य मुख्य नियमों और शब्दों की परस्पर तुलना की जाय तो उनमें भी विचित्र सादृश्य दिखाई देता है। इससे यह प्रकट होता है कि हम सबके पूर्वज पहले एक-ही भाषा बोलते थे। जिस प्रकार आदिम स्थान से पृथक् होकर लोग जहाँ तहाँ चले गये और भिन्न भिन्न जातियों में विभक्त हो गये उसी प्रकार उस आदिम भाषा से भी कितनीही भिन्न भिन्न भाषाएँ उत्पन्न हो गईं।

कुछ विद्वानों का अनुमान है कि मनुष्य पहले पहल एशिया-खंड के मध्य भाग में रहता था। जैसे जैसे उसकी संतति बढ़ती गई क्रम क्रम से लोग अपना मूल स्थान छोड़ अन्य देशों में जा बसे। इसी प्रकार यह भी एक अनुमान है कि नाना प्रकार की भाषाएँ एकही भाषा से निकली हैं। पाश्चात्य विद्वान् पहले यह समझते थे कि इब्रानी भाषा से, जिसमें यहूदी लोगों के धर्मग्रंथ हैं, सब भाषाएँ निकली हैं, परंतु उनमें संस्कृत का ज्ञान बढ़ने और शब्दों के मूल रूपों का पता लगने से यह सिद्ध हुआ है कि एक ऐसी आदिम भाषा से, जिसका अब पता लगना कठिन है, संसार की सब भाषाएँ निकली हैं और वे तीन भागों में बाँटी जा सकती हैं— [ ११ ]( १ ) आर्य-भाषाएँ—इस भाग में संस्कृत, प्राकृत (और उससे निकली हुई भारतवर्ष की प्रचलित आर्य-भाषाएँ), अँगरेजी, फारसी, यूनानी, लैटिन, आदि भाषाएँ हैं।

( २ ) शामी भाषाएँ—इसमें इब्रानी, अरबी और हब्शी भाषाएँ हैं।

( ३ ) तूरानी भाषाएँ—इस वर्ग में मुगली, चीनी, जापानी, द्राविड़ी (दक्षिणी हिंदुस्थान की भाषाएँ), तुर्की, आदि भाषाएँ हैं।

(२) आर्य-भाषाएँ।

इस बात का अभी तक ठीक ठीक निर्णय नहीं हुआ है कि संपूर्ण आर्य-भाषाएँ—फारसी, यूनानी, लैटिन, रूसी, आदि—वैदिक संस्कृत से निकली है अथवा और और भाषाओं के साथ साथ यह पिछली भाषा भी किसी आदिम आर्य-भाषा से निकली है। जो हो यह बात अवश्य निश्चित हुई है कि आर्य-लोग, जिनके नाम से उनकी भाषाएँ प्रख्यात हैं, आदिम स्थान से इधर उधर गये और भिन्न भिन्न देशों में उन्होंने अपनी भाषाओं की नींव डाली। जो लोग पश्चिम को गये उनसे ग्रीक, लैटिन, अँँगरेजी, आदि आर्य-भाषाएँ बोलनेवाली जातियों की उत्पत्ति हुई। जो लोग पूर्व को आये उनके दो भाग हो गये। एक भाग फारस को गया और दूसरा हिंदूकुश को लाँघ कर काबुल की तराई में होता हुआ हिंदुस्थान पहुँचा। पहले भाग के लोगों ने ईरान में मीडी (मादी) भाषा के द्वारा फारसी को जन्म दिया और दूसरे भाग के लोगों ने संस्कृत का प्रचार किया जिससे प्राकृत के द्वारा इस देश की प्रचलित आर्य-भाषाएँ निकली हैं। प्राकृत के द्वारा संस्कृत से निकली हुई इन्हीं भाषाओं में से हिंदी भी है। भिन्न भिन्न आर्य-भाषाओं की समानता दिखाने के लिए कुछ शब्द नीचे दिये जाते हैं— [ १२ ]

संस्कृत मीडी फारसी यूनानी लैटिन अँगरेजी हिंदी
पितृ पतर पिदर पाटेर पेटर फादर पिता
मातृ मतर मादर माटेर मेटर मदर माता
भ्रातृ ब्रतर ब्रादर फ़्राटेर फ्रेटर ब्रदर भाई
दुहितृ दुग्धर दुख्तर थिगाटेर डाटर धी
एक यक यक हैन अन वन एक
द्वि, द्वौ द्व दू डुओ डुओ टू दो
तृ थृ दृ दृ थ्री तीन
नाम नाम नाम ओनोमा नामेन नेम नाम
अस्मि अह्मि अम ऐमी सम ऐम हूँ
ददामि दधामि दिहम डिडोमी डो देऊँ

इस तालिका से जान पड़ता है कि निकटवर्ती देशों की भाषाओं में अधिक समानता है और दूरवर्ती देशों की भाषाओं में अधिक भिन्नता। यह भिन्नता इस बात की भी सूचक है कि यह भेद वास्तविक नहीं है और न आदि में था, किंतु वह पीछे से हो गया है।

(३) संस्कृत और प्राकृत।

जब आर्य-लोग पहले पहल भारतवर्ष मे आये तब उनकी भाषा प्राचीन (वैदिक) संस्कृत थी। इसे देववाणी भी कहते हैं। वेदों की अधिकांश भाषा यही है। रामायण, महाभारत और कालिदास आदि के काव्य जिस परिमार्जित भाषा में हैं वह बहुत पीछे की है। अष्टाध्यायी आदि व्याकरणों में "वैदिक" और "लौकिक" नामों से दो प्रकार की भापाओं का उल्लेख पाया जाता है और दोनों के नियमों में बहुत कुछ अंतर है। इन दोनों प्रकार की भाषाओं में विशेषताएँ ये हैं कि एक तो संज्ञा के कारकों की [ १३ ] विभक्तियाँ संयोगात्मक हैं, अर्थात् कारकों में भेद करने के लिए शब्दों के अंत में अन्य शब्द नहीं आते; जैसे, मनुष्य शब्द का संबंध-कारक संस्कृत में "मनुष्यस्य" होता है, हिंदी की तरह "मनुष्य का" नहीं होता। दूसरे, क्रिया के पुरुष और वचन में भेद करने के लिए पुरुषवाचक सर्वनाम का अर्थ क्रिया के ही रूप से प्रकट होता है, चाहे उसके साथ सर्वनाम लगा हो या न लगा हो, जैसे, "गच्छति" का अर्थ "स गच्छति" होता है। यह संयोगात्मकता वर्तमान हिंदी के कुछ सर्वनामों में और संभाव्य-भविष्यत्काल में पाई जाती है, जैसे, मुझे, किसे, रहूँ, इत्यादि। इस विशेपता की कोई कोई बात बंगाली भाषा में भी अब तक पाई जाती है, जैसे "मनुष्येर" संबंधकारक में और "कहिलाम" उत्तम पुरुष में। आगे चलकर संस्कृत की यह संयोगात्मकता बदलकर व्यवच्छेदकता हो गई।

अशोक के शिलालेखों और पतंजलि के ग्रन्थों से जान पड़ता है कि ईसवी सन के कोई तीन सौ बरस पहले उत्तरी भारत में एक ऐसी भाषा प्रचलित थी जिसमें भिन्न भिन्न कई बोलियाँ शामिल थीं। स्त्रियों, बालकों और शूद्रों से आर्य-भाषा का उच्चारण ठीक ठीक न बनने के कारण इस नई भाषा का जन्म हुआ था और इसका नाम "प्राकृत" पड़ा। "प्राकृत" शब्द "प्रकृति" (मूल) शब्द से बना है और उसका अर्थ "स्वाभाविक" "गँवारी" है। वेदों में गाथा नाम से जो छंद पाये जाते हैं उनकी भाषा पुरानी संस्कृत से कुछ भिन्न है, जिससे जान पड़ता है कि वेदों के समय में भी प्राकृत भाषा थी। सुभीते के लिए वैदिक काल की इस प्राकृत को हम पहली प्राकृत कहेंगे और ऊपर जिस प्राकृत का उल्लेख हुआ है उसे दूसरी प्राकृत। पहली प्राकृत ही ने कई शताब्दियों के पीछे दूसरी प्राकृत का रूप धारण किया। [ १४ ]प्राकृत का जो सबसे पुराना व्याकरण मिलता है वह वररुचि का बनाया है। वररुचि ईसवी सन के पूर्व पहली सदी में हो गये हैं। वैदिक काल के विद्वानों ने देववाणी को प्राकृत-भाषा की भ्रष्टता से बचाने के लिए उसका संस्कार करके व्याकरण के नियमों से उसे नियंत्रित कर दिया। इस परिमार्जित भाषा का नाम 'संस्कृत, हुआ जिसका अर्थ "सुधारा हुआ" अथवा "बनावटी" है। यह संस्कृत भी पहली प्राकृत की किसी शाखा से शुद्ध होकर उत्पन्न हुई है। संस्कृत को नियमित करने के लिए कितने ही व्याकरण बने जिनमें से पाणिनि का व्याकरण सबसे अधिक प्रसिद्ध और प्रचलित है। विद्वान् लोग पाणिनि का समय ई॰ सन् के पूर्व सातवीं सदी में स्थिर करते हैं और संस्कृत को उनसे सौ वर्ष पीछे तक प्रचलित मानते हैं।

पहली प्राकृत में संस्कृत की संयोगात्मकता तो वैसी ही थी, परंतु व्यंजनों के अधिक प्रयोग के कारण उसकी कर्ण-कटुता बहुत चढ़ गई थी। पहली और दूसरी प्राकृत मे अन्य भेदों के सिवा यह भी एक भेद हो गया था कि कर्ण-कटु व्यंजनों के स्थान पर स्वरों की मधुरता आ गई, जैसे 'रघु' का 'रहु' और 'जीवलोक' का 'जीअलोअ' हो गया।

बौद्ध-धर्म के प्रचार से दूसरी प्राकृत की बड़ी उन्नति हुई। आजकल यह दूसरी प्राकृत पाली-भाषा के नाम से प्रसिद्ध है। पाली में प्राकृत का जो रूप था उसका विकास धीरे धीरे होता गया और कुछ समय बाद उसकी तीन शाखाएँ हो गई, अर्थात् मागधी, शौरसेनी और महाराष्ट्री। शौरसेनी-भाषा प्रायः उस देश में बोली जाती थी जिसे आजकल संयुक्त-प्रदेश कहते हैं। मागधी मगध-देश वा बिहार की भाषा थी और महाराष्ट्री का प्रचार दक्षिण के बंबई, बरार आदि प्रांतों में था। बिहार और संयुक्त[ १५ ]प्रदेश के मध्य भाग में एक और भाषा थी जिसको अर्द्धमागधी कहते थे । वह शौरसेनी और मागधी के मेल से बनी थी । कहते हैं कि जैन तीर्थंकर महावीर स्वामी इसी अर्द्धमागधी में जैन-धर्म उपदेश देते थे। पुराने जैन ग्रन्थ भी इसी भाषा में हैं। बौद्ध और जैन- धर्म के संस्थापकों ने अपने धर्मों के सिद्धांत सर्व-प्रिय बनाने के लिए अपने ग्रन्थ बोलचाल की भाषा अर्थात् प्राकृत में रचे थे। फिर काव्य और नाटकों में भी उसका प्रयोग हुआ।

थोड़े दिनों पीछे दूसरी प्राकृत में भी परिवर्तन हो गया । लिखित प्राकृत का विकास रुक गया, परतु कथित प्राकृत विकसित अर्थात् परिवर्तित होती गई। लिखित प्राकृत के आचार्यों ने इसी विकाशपूर्ण भाषा का उल्लेख अपभ्रंश नाम से किया है । "अप- भ्रंश" शब्द का अर्थ “बिगड़ी हुई” भाषा है। ये अपभ्रश-भाषाएँ भिन्न भिन्न प्रान्तों में भिन्न भिन्न प्रकार की थीं । इनके प्रचार के समय का ठीक ठीक पता नहीं लगता, पर जो प्रमाण मिलते हैं उनसे जाना जाता है कि ईसवी सन के ग्यारहवें शतक तक अपभ्रंश भाषा में कविता होती थी । प्राकृत के अंतिम वैयाकरण हेमचंद्र ने, जो बारहवे शतक मे हुए हैं, अपने व्याकरण में अपभ्रश का उल्लेख किया है ।

अपभ्रंशों में संस्कृत और दोनों प्राकृतों से यह भेद हो गया कि उसकी संयोगात्मकता जाती रही और उसमें व्यवच्छेदकता आ गई, अर्थात् कारकों का अर्थ प्रकट करने के लिए शब्दों में विभ- क्तियों के बदले अन्य शब्द मिलने लगे और क्रिया के रूप से सर्वनामों का बोध होना मिट गया ।

हर प्राकृत के अपभ्रश पृथक् पृथक् थे और वे भिन्न भिन्न प्रातों में प्रचलित थे । भारत की प्रचलित आर्य-भाषाएँ न सस्कृत से निकली हैं, न प्राकृत से, किंतु अपभ्रशों से । लिखित साहित्य [ १६ ]में केवल एक ही अपभ्रंश भाषा का नमूना मिलता है जिसे नागर-अपभ्रंश कहते हैं। इसका प्रचार बहुत करके पश्चिमी भारत में था। इस अपभ्रंश में कई बोलियाँ शामिल थीं, जो दक्षिणी भारत के उत्तर की तरफ प्रायः समग्र पश्चिमी भाग में बोली जाती थीं। हमारी हिंदी भाषा दो अपभ्रंशों के मेल से बनी है; प्रथम नागर-अपभ्रंश जिससे पश्चिमी हिंदी और पंजाबी निकली हैं; द्वितीय, अर्द्धमागधी का अपभ्रंश जिससे पूर्वी हिंदी निकली है, जो अवध, बघेलखंड और छत्तीसगढ़ में बोली जाती है।

नीचे लिखे वृक्ष से हिंदी-भाषा की उत्पत्ति ठीक ठीक मालूम हो जायगी।

प्राचीन संस्कृत
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
लौकिक संस्कृतपहली प्राकृत
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
पाली या दूसरी प्राकृत
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
शौरसेनीअर्द्धमागधीमागधी
 
 
 
 
नागर-अपभ्रंशअर्द्धमागधी-अपभ्रंश
 
 
 
 
पश्चिमी हिंदीपूर्वी हिंदी
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
वर्तमान् हिंदी (या हिंदुस्तानी)
[ १७ ]

(४) हिंदी।

प्राकृत भापाएँ ईसवी सन् के कोई आठ-नौ सौ वर्ष तक और अपभ्रंश-भाषाएँ ग्यारहवें शतक तक प्रचलित थीं । हेमचंद्र के प्राकृत व्याकरण में हिंदी की प्राचीन कविता के उदाहरण पाये जाते हैं। जिस भाषा में मूल “पृथ्वीराज रासो" लिखा गया है उसमें “षट भाषा" का मेल है । इस "काव्य" में हिंदी का पुराना रूप पाया जाता है। इन उदाहरणों से जान पड़ता है कि हमारी वर्तमान हिंदी का विकास ईसवी सन् की बारहवीं सदी से हुआ है। “शिवसिंह सरोज" में पुष्य नाम के एक कवि का उल्लेख है जो “भाखा की जड़" कहा गया है और जिसका समय सन् ७१३ ई० दिया गया है। पर न तो इस कवि की कोई रचना मिली है। और न यह अनुमान हो सकता है कि उस समय हिंदी-भाषा प्राकृत अथवा अपभ्रंश से पृथक् हो गई थीं । बारहवें शतक में भी यह भाषा अधवनी अवस्था में थी । तथापि, अरबी, फारसी और तुर्की शब्दों का प्रचार मुसलमानों के भारत-प्रवेश के समय

    “भला हुआ जु मारिया, बहिणि महारा कत्तु ।
     लज्जेजंतु वयसिअहु जह भग्गा घरु एतु ॥”

( हे बहिन, भला हुआ जो मेरा पति मर गया । यदि भागा हुआ घर आता तो मैं सखिर्यों में लजित होती । )

    + संस्कृतं प्राकृत चैव शौरसेनी तदुद्भवा ।
     ततोऽपि मागधी तद्वत् पैशाची देशजेति यत् ॥
     + उच्छिष्ट छद चंदह बयन सुनत सु जपिय नारि ।
     तनु पवित्र पावन कविय उकति अनूठ उधारि ॥

‘छद ( कविता ) उच्छिष्ट है' चद का यह वचन सुनकर स्त्री ने कहा-पाचन कवियों की अनूठी उक्ति का उद्धार करने से शरीर पवित्र हो जाता है। [ १८ ]
से होने लगा था। यह प्रचार यहाँ तक बढ़ा कि पीछे से भाषा के लक्षण में ‘पारसी' भी, रक्खी गई[१]

विद्वान् लोग हिंदी-भाषा और साहित्य के विकास को नीचे लिखे चार भागों में बाँटते हैं-

१---आदि-हिंदी---यह उस हिंदी का नमूना है जो अपभ्रंश से पृथक् होकर साहित्य-कार्य के लिये बन रही थी । यह भाषा दो कालों में बॉटी जा सकती है-(१) वीर-काल (१२००-१४००) और धर्म-काल (१४००-१६०० )

वीर-काल में यह भाषा पूर्ण रूप से विकसित न हुई थी और इसकी कविता का प्रचार अधिकतर राजपूताने में था। इससे बाहर के साहित्य की कोई विशेष उन्नति नहीं हुई। उसी समय महोबे में जगनिक कवि हुआ, जिसके किसी ग्रंथ के आधार पर “अल्हा" की रचना हुई। आजकल इस काव्य की मूल-भाषा क्रय ठीक ठीक पता नहीं लग सकता, क्योंकि भिन्न भिन्न प्रांतों के लेखकों और गवैयों ने इसे अपनी अपनी बोलियों का रूप दे दिया है। विद्वानों का अनुमान है कि इसकी मूल-भाषा बुंदेलखंडी थी और यह बात कवि की जन्मभूमि बुंदेलखंड में होने से पुष्ट होती है।

प्राचीन हिंदी का समय बतानेवाली दूसरी रचना भक्तों के साहित्य में पाई जाती है जिसका समय, अनुमान से, १४००-१६८० है। इस काल के जिन जिन कवियों के ग्रंथ आजतक लोगों में प्रचलित हैं उनमें से बहुतेरे वैष्णव थे और उन्हीं के मार्ग-प्रदर्शन से पुरानी हिंदी के उस रूप में, जिसे ब्रज़-भाषा कहते हैं, कविता रची गई । वैष्णव-सिद्धांतों के प्रचार का आरंभ रामानुज से माना


[ १९ ]

जाता है, जो दक्षिण के रहनेवाले थे और अनुमान से बारहवीं सदी में हुए हैं। उत्तर भारत में यह धर्म रामानंद स्वामी ने 'फैलाया, जो इस संप्रदाय के चौथे प्रचारक थे। इनका समय सन् १४०० ईसवी के लगभग मानी जाता है। इनकी लिखी कुछ कविता सिक्खों के आदि-ग्रंथ में मिलती है और इनके रचे हुए भजन पूर्व में मिथिला तक प्रचलित हैं। रामानंद के चेलों में कबीर थे, जिनका संमय १५१२ ईसवी के लगभग है। उन्होंने कई ग्रंथ लिखे हैं, जिनमें "साखी", "शब्द", “रेख्ता", और "बीजक" अधिक प्रसिद्ध हैं। उनकी भाषा में ब्रज-भाषा और हिंदी के उस रूपांतर, का मेल है जिसे लल्लूजी लाल ने ( सन् १८०३ ई० में ) “खड़ी बोली” नाम दिया है। कबीर ने जो कुछ लिखा है वह धर्म-सुधारक की दृष्टि से लिखा है, लेखक की दृष्टि से नहीं । इसलिए उनकी भाषा वहुधा साधारण और सहज है। लगभग इसी समय मीराबाई हुई जिन्होंने कृष्ण की भक्ति में बहुतसी कविताएं कीं । इनकी भाषा कहीं मेवाड़ी और कहीं व्रज-भाषा है। इन्होंने “राग-गोविंद,” “गीत- गोविंद की टीका" आदि ग्रंथ लिखे। सन् १४६९ ई० से १५३८ तक वावा नानक का समय हैं। ये नानक-पंथी संप्रदाय के प्रचारक और “आदि-ग्रंथ” के लेखक हैं। इस ग्रंथ की भाषा पुरानी पंजाबी होने के बदले पुरानी हिंदी है। शेरशाह ( १५४० ) के आश्रय में मलिक मुहम्मद जायसी ने “पद्मावत” लिखी, जिसमें सुल्तान अलाउद्दीन के चित्तौर का किला लेने पर वहाँ के राजा रतनसेन की रानी पद्मा-

     छ मनका फेरत जुग गयी गयी न मन का फेरे ।
     कर को मनका छाँडि दे मन का मनका फैर ॥
     नव द्वारे को पींजरा तामें पंछी पौन ।
     रहिवे को आचर्ज है गये अचभा कौन ।।। [ २० ]

वती के आत्मघात की ऐतिहासिक कथा है। इस पुस्तक की भाषा अवधी है।

वैष्णव धर्म का एक और भेद है जिसमें लोग श्रीकृष्ण को अपना इष्ट-देव मानते हैं। इस संप्रदाय के संस्थापक वल्लभस्वामी थे जिनके पूर्वज दक्षिण के रहनेवाले थे। वल्लभस्वामी ने सोलहवीं सदी के आदि में उत्तर भारत में अपने मत का प्रचार किया । इनके आठ शिष्य थे, जो "अष्टछाप" के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये आठों कवि ब्रज में रहते थे और ब्रजभाषा में कविता करते थे। इनमें सूरदास मुख्य हैं, जिनका समय सन् १५५० ई० के लगभग है। कहते हैं, इन्होंने सवा लाख पद के लिखे हैं, जिनका संग्रह “सूर-सागर" नामक ग्रंथ में है। इस पंथ के चौरासी गुरुओं का वर्णन "चौरासी-वार्ता" नामक ग्रंथ में पाया जाता है, जो ब्रजभाषा के गद्य में लिखा गया है, पर इस ग्रंथ का समय निश्चित नहीं है।

अकबर ( १५५६-१६०५ ई० ) के समय में ब्रजभाषा की कविता की अच्छी उन्नति हुई । अकबर स्वयं व्रजभाषा में कविता करते थे और उनके दरबार में हिंदू कवियों के साथ रहीम, फैजी, फहीम आदि मुसलमान कवि भी इस भाषा में रचना करते थे। हिंदू कवियों में टोडरमल, बीरबल, नरहरि, हरिनाथ, करनेश और गंग आदि अधिक प्रसिद्ध थे।

२--मध्य-हिंदी--यह हिंदी-कविता के सत्ययुग का नमूना

छ यह एक अन्योक्ति भी है जिसमें सत्य ज्ञान के लिए आत्मा की खोज का और उस खोज में आनेवाले विघ्नों का वर्णन है ।

+ संभवतः सूरदासजी के पदों की संख्या सवा लाख अनुष्टुप् लोकों के बराबर होगी। इससे भ्रमवश लोगों ने सवा लाख पदों की बात प्रचलित कर दी। ग्रंथ का विस्तारः बताने के लिए प्राचीन काल से अनुष्टुप् छंद एक प्रकार की नाप मान लिया गया है। [ २१ ] है जो अनुमान से सन् १६०० से लेकर १८०० ई० तक रहा। इस काल मै केवल कविता और भाषा ही की उन्नति नहीं हुई बरन साहित्य-विषय के भी अनेक उत्तम और उपयोगी ग्रंथ लिखे गये । मध्य-हिंदी के कवियों में सब से प्रसिद्ध गुसाई तुलसीदास जी हुए, जिनका समय सन् १५७३ से १६२४ ई० तक है। उन्होंने हिंदी में एक महाकाव्य लिखकर भाषा का गौरव बढ़ाया और सर्व-साधारण में वैष्णव धर्म का प्रचार किया। राम के अनन्य भक्त होने पर भी गोसाई-जी ने शिव और राम में भेद नहीं माना और मतमतांतर का विवाद नहीं बढ़ाया । वैराग्य-वृत्ति के कारण उन्होंने श्रीकृष्ण की भक्ति पर बहुत नहीं लिखा, तथापि, सुनते हैं, वृन्दावन मे जाकर और वहाँ एक मंदिर में श्रीकृष्ण की मूर्ति के दर्शन कर उन्होंने कहा-

"कहा कहाँ छवि आज की भले बने हौ नार्थ ।। तुलसी मस्तक जब नवे धनुष बान हो हाथ ।”

तुलसीदास ने ऐसे समय में रामायण की रचना की जब मुगल राज्य दृढ़ हो रहा था और हिंदू समाज के बंधन अनीति के कारण ढीले हो रहे थे। मनुष्य के मानसिक विकारों का जैसा अच्छा चित्र तुलसीदास ने खींचा है वैसा और कोई नहीं खींच सका ।।

रामायण की भाषा अवधी है, पर वह बैसवाड़ी से विशेष मिलती जुलती है। गोसाईजी के और ग्रंथों में अधिकांश ब्रज- भाषा है।

इस काल के दूसरे प्रसिद्ध कवि केशवदास, बिहारीलाल, भूषण, मतिराम और नाभादास हैं ।

केशवदास प्रथम कवि हैं जिन्होंने साहित्य विपयक ग्रंथ रचे । इस विषय के इनके ग्रंथ " कविप्रिया " " रसिक-प्रिया" और " रामालंकृत-मंजरी " हैं। " रामचंद्रिका” और “ विज्ञान-गीता” [ २२ ] भी इनके प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। इनकी भाषा में संस्कृत-शब्दों की बहु- तायत है । इनकी योग्यता की तुलना सूरदास और तुलसीदास से की जाती है। इनका मरण काल अनुमान से सन् १६१२ ईसवी है। बिहारीलाल ने १६५० ईसवी के लगभग "सतसई” समाप्त की। इस ग्रंथ-रत्न मे काव्य के प्रायः सब गुण विद्यमान हैं। इसकी भाषा शुद्ध ब्रज-भाषा है। “बिहारी-सतसई" पर कई कवियों ने टीकाएँ लिखी हैं। भूषण ने १६७३ ईसवी में “शिवराज-भूषण” बनाया और फिर अन्य ग्रंथ लिखे। इनके ग्रंथों में देश-भक्ति और धर्मा- भिमान खूब दिखाई देता है। इनकी कुछ कविता खड़ी बोली में भी है और अधिकांश कविता वीर-रस से भरी हुई है। चिंतामणि और मतिराम इनके भाई थे, जो भाषा-साहित्य के आचार्य भाने जाते हैं। नाभादास जाति के डोम थे और तुलसीदास के सम- कालीन थे । इन्होंने व्रजभाषा में "भक्त-माल" नामक पुस्तक लिखी जिसमें अनेक वैष्णव भक्तों का संक्षिप्त वर्णन है।

इस काल के उत्तरार्द्ध ( १७००-१८०० ईसवी ) में राज्य-क्रांति के कारण कविता की विशेष उन्नति नहीं हुई। इस काल के

प्रसिद्ध कवि प्रियादास, कृष्णकवि, भिखारीदास, ब्रजवासीदास, और सूरति मिश्र हैं । प्रियादास ने सन् १७१२ ईसवी में “भक्त- माल" पर एक (पद्य) टीका लिखी। कृष्णकवि ने “विहारी- सतसई" पर सन् १७२० के लगभग एक टीका रची । भिखारीदास सन् १७२३ के लगभग हुए और साहित्य के अच्छे लेखक समझे जाते हैं। इनके प्रसिद्ध ग्रंथ "छंदोऽर्णव" और “काव्य-निर्णय” हैं। व्रजवासीदास ने सन् १७७० ई० में “ब्रज-विलास" लिखा, जो विशेष लोक-प्रिय है। सूरति मिश्र ने इसी समय में ब्रजभापा के गद्य में "बैताल-पचीसी" नामक एक ग्रंथ लिखा । यही कवि गद्य के प्रथम लेखक हैं। [ २३ ] ३---आधुनिक हिंदी-यह काल सन् १८०० से १६०० ईसवी तक है। इसमें हिंदी-गद्य की उत्पत्ति और उन्नति हुई । अंगरेजी राज की स्थापना और छापे के प्रचार से इस शताब्दी में हिंदी गद्य और पद्य की अनेक पुस्तकें बनीं और छपीं । साहित्य के सिवा इतिहास, भूगोल, व्याकरण, पदार्थ-विज्ञान और धर्म पर इस काल में कई पुस्तकें लिखी गई । सन् १८५७ ई० के वलचे के पीछे देश में शाति-स्थापना होने पर समाचार-पत्र, मासिक-पत्र, नाटक, उप-न्यास और समालोचना का आरंभ हुआ। हिंदी की उन्नति का एक विशेष चिह्न इस समय यह है कि इसमें खड़ी-बोली (बोलचाल की भाषा) की कविता लिखी जाती है। इसके साथ ही हिंदी मे संस्कृत शब्दों का निरंकुश प्रयोग भी बढ़ता जाता है। इस काल में शिक्षा के प्रचार से हिंदी की विशेप उन्नति हुई।

पादरी गिलक्राइस्ट के उत्तेजन से लल्लू जी लाल ने सन् १८०४ ई० मैं "प्रेमसागर” लिखा, जो आधुनिक हिंदी-गद्य का प्रथम ग्रंथ है। इनके बनाये और प्रसिद्ध ग्रंथ "राजनीति" ( ब्रज-भाषा के गद्य में ), "सभा-विलास", "लाल-चंद्रिका" ( “बिहारी-सतसई" पर टीका ), "सिंहासन-बत्तीसी” और “बैताल-पचीसी" हैं । इस काल के प्रसिद्ध कवि पद्माकर ( १८१५ ), ग्वालकवि (१८१५), पजनेश ( १८१६ ), रघुराजसिंह ( १८३४ ), दीनदयालगिरि ( १८५५) और हरिश्चंद्र ( १८८० ) हैं।

गद्य लेखकों में लल्लूजीलाल के पश्चात् पादरी लोगों ने कई विषयों की पुस्तकें अँगरेजी से अनुवाद कराकर छपवाई। इसी समय से हिंदी में क्रिस्तानी धर्म की पुस्तकों का छपना आरंभ हुआ। शिक्षा-विभाग के लेखकों में पं० श्रीलाल, पं० वशीधर वाजपेयी और राजा शिवप्रसाद, हैं। शिवप्रसाद ऐसी हिंदी के पक्षपाती थे जिसे हिंदू-मुसलमान दोनों समझ सकें । इनकी रचना [ २४ ]
प्रायः उर्दू-ढंग की होती थी। आर्य-समाज की स्थापना से साधारण लोगों में वैदिक विषयों की चर्चा और धर्म-संबंधी हिंदी की अच्छी उन्नति हुई। काशी की नागरीप्रचारिणी सभा ने हिंदी की विशेष, उन्नति की है।

इस काल के और प्रसिद्ध लेखक राजा लक्ष्मणसिंह, पं० अंबि- कादत्त व्यास और भारतेदु हरिश्चंद्र हैं। इन सब में भारतेंदु जी का आसन ऊँचा है। उन्होंने केवल ३५ वर्ष की आयु में कई विषयों की अनेक पुस्तकें लिखकर हिंदी का उपकार किया और भावी-लेखकों को अपनी मातृ-भाषा की उन्नति का मार्ग बताया।

(५) हिंदी और उर्दू ।

'हिदी' नाम से जो भाषा हिंदुस्थान में प्रसिद्ध और प्रचलित है उसके नाम, रूप और विस्तार के विषय में विद्वानों का मत-भेद है। कई लोगों की राय में हिंदी और उर्दू एकही भाषा हैं और कई लोगों की राय में ये दोनों अलग अलग दो बोलियाँ हैं। राजा शिवप्रसाद सदृश महाशयों की युक्ति यह है कि शहरों और पाठशा-लाओं में हिंदू और मुसलमान कुछ सामाजिक तथा धर्म-संबंधी और वैज्ञानिक शब्दों को छोड़कर प्रायः एकही भाषा में बातचीत करते हैं और एक दूसरे के विचार पूर्णतया समझ लेते हैं। इसके विरुद्ध राजा लक्ष्मणसिंह सदृश विद्वानों का पक्ष यह है कि जिन दो जातियों का धर्म, व्यवहार, विचार, सभ्यता और उद्देश एक नहीं हैं उनकी भाषा एक कैसे हो सकती है? जो हो; साधारण लोगों में आजकल हिंदुस्थानियों की भाषा हिंदी और मुसलमानों की भाषा उर्दू प्रसिद्ध है। भाषा का मुसलमानी रूपांतर केवल हिंदी ही में नहीं पाया जाता, वरन बँगला, गुजराती, आदि भाषाओं में भी ऐसे उपभेद हो गये हैं। "हिन्दी-भाषा की उत्पत्ति" नामक पुस्तक के अनुसार हिंदी और उर्दू हिंदुस्तानी की शाखाएँ हैं जो पश्चिमी हिंदी का एक [ २५ ] भेद है। इस भाषा का "हिंदुस्तानी" नाम अँगरेजों की रक्खा हुआ है और उससे बहुधा उर्दू का बोध होता है। हिंदू लोग इस शब्द को “हिंन्दुस्थानी" कहते हैं और इससे बहुधा "हिंदी बोलने- वाली जाति" के अर्थ में प्रयुक्त करते हैं।

हिंदी कई नामों से प्रसिद्ध है, जैसे, भाषा, हिंदवी ( हिंदुई ), हिदी, खड़ीबोली और नागरी । इसी प्रकार मुसलमानों की भाषा के भी कई नाम हैं। वह हिंदुस्तानी, उर्दू, रेख्ता और दक्खिनी कह-लाती है। इनमें से बहुतसे नाम दोनों भाषाओ का यथार्थ रूप निश्चित न होने के कारण दिये गये हैं।
हमारी भाषा का सव से पुराना नाम केवल "भाषा" है।

म० म० पं० सुधाकर द्विवेदी के अनुसार यह नाम भास्वती की टीका में आया है जिसकी समय सं० १४८५ है। तुलसीदास ने रामायण में "भाषा ” शब्द लिखा है, पर अपने फारसी पंचनामें मे “हिंदवी" शब्द का प्रयोग किया है। बहुधा पुस्तकों के नामों में और टीकाओं में यह शब्द आजतक प्रचलित है, जैसे, “भाषा भास्कर, " "भाषा-टीका-सहित, " इत्यादि । पादरी आदम साहब की लिखी और सन् १८३७ मे दूसरी बार छपी " उपदेश-कथा " में इस भाषा का नाम "हिंदुवी" लिखा है। इन उदाहरणों से जान पड़ता है कि हमारी भाषा का “हिंदी" नाम आधुनिक है। इसके पहले हिंदू लोग इसे मैं "भाषा" और मुसलमान लोग "हिंदुई" या "हिंदवी" कहते थे। लल्लूजी लाल ने प्रेम-सागर मे ( सन् १८०४ मे ) इस भाषा का नाम "खड़ी-बोली" लिखा है जिसे

सन् १८४६ में दूसरी बार छपी “ पदार्थविद्यासार” नामक पुस्तक में " हिंदी-भाषा" नाम आया है। ब्रज-भाषा के ओकारात रूपो से मिलान करने पर हिंदी के आका-रांत-रूप 'खड़े' जान पड़ते हैं। बुँदेलखंड में इस भाषा की ‘ठाढ़ बोली, ' या 'तुर्की ' कहते हैं । [ २६ ]
आजकल कुछ लोग न जानें क्यों "खरी बोली" कहने लगे हैं। आजकल "खड़ी-बोली" शब्द केवल कविता की भाषा के लिए आता है, यद्यपि गद्य की भाषा भी “खड़ी-बोली" है। लल्लूजी लाल ने एक जगह अपनी भाषा का नाम " रेख्ते की बोली" भी लिखा है।" रेख्ता " शब्द कबीर के एक ग्रंथ मे भी आया है, पर वहाँ उसका अर्थ "भाषा" नहीं है, किंतु एक प्रकार का " छंद” है। जान पड़ता है कि फारसी-अरबी शब्द मिलाकर भाषा में जो फारसी छंद रचे गये उनका नाम रेख्ता ( अर्थात् मिला हुआ ) रक्खा गया और फिर पीछे से यह शब्द मुसलमानों की कविता की बोली के लिये प्रयुक्त होने लगा। यह भी एक अनुमान है कि मुसलमानों में रेख्ता का प्रचार बढ़ने के कारण हिंदुओं की भाषा का नाम " हिंदुई " या ( हिंदवी ) रक्खा गया। इस “हिंदवी” में जिसे आजकल "खड़ी-बोली” कहते हैं, कबीर, भूषण, नागरीदास आदि कुछ कवियों ने कविता की है; पर अधिकांश हिदू कवियों ने श्रीकृष्ण की उपासना और भाषा की मधुरता के कारण ब्रज-भाषा का ही उपयोग किया है।

आरंभ में हिंदुई और रेख्ता में थोड़ा ही अंतर था । अमीर खुसरो जिसकी मृत्यु सन् १३२५ ई० में हुई, मुसलमानों में सर्व- प्रथम और प्रधान कवि माना जाता है। उसकी भाषा[२] से जान पड़ता है कि उस समय तक हिंदी में मुसलमानी शब्दों और फारसी ढंग की रचना की भरमार न हुई थी और मुसलमान लोग शुद्ध हिदी लिखते-पढ़ते थे। जब देहली के बाजार में तुर्क, अफगान और


[ २७ ]
फारसवालों का संपर्क हिंदुओं से होने लगा और वे लोग हिंदी

शब्दों के बदले अरबी, फारसी के शब्द बहुतायत ये मिलाने लगे तव रेस्ता ने दूसरा ही रूप धारण किया और उसका नाम “उर्दू" पड़ा। “उर्दू" शब्द का अर्थ “लश्कर” है। शाहजहाँ के समय में उर्दू की वहुत उन्नति हुई जिससे "खड़ी-बोली" की उन्नति में बाधा पड़ गई।

हिंदी और उर्दू मूल में एक ही भाषा हैं। उर्दू हिंदी का केवल मुसलमानी रूप है। आज भी कई शतक बीत जाने पर इन दोनों में विशेप अंतर नहीं, पर इनके अनुयायी लोग इस नाम-मात्र के अंतर को वृथा ही वढ़ा रहे हैं। यदि हम लोग हिंदी में संस्कृत के और मुसलमान उर्दू में अरबी-फारसी के शब्द कम लिखे तो दोनों भोषाओं में बहुत थोड़ा भेद रह जाय और संभव है, किसी दिन, दोनों समुदायों की लिपि और भाषा एक हो जाय । धर्म-भेद के कारण पिछली शताब्दि में हिंदी और उर्दू के प्रचारकों में परस्पर खैंचातानी शुरू हो गई । मुसलमान हिंदी से घृणा करने लगे और हिंदुओं ने हिंदी के प्रचार पर जोर दिया । परिणाम यह हुआ कि हिंदी में संस्कृत शब्द और उर्दू में अरबी-फारसी के शव्द बहुत मिल गये और दोनों भाषाएँ क्लिष्ट हो गई ।

आरंभ ही से उर्दू और हिंदी में कई बातों का अंतर भी रहा है। उर्दू फारसी लिपि में लिखी जाती है और उसमें अरबी-फारसी शब्दों की विशेष भरमार रहती है। उसकी वाक्य-रचना में बहुधा विशेष्य विशेषण के पहले आता है और ( कविता में) फारसी के संबोधन कारक का रूप प्रयुक्त होता है। हिंदी के संबंध-वाचक सर्वनाम के बदले उसमे कभी कभी फारसी का संबंध-वाचक सर्वनाम आता है। इसके सिवा रचना में और भी दो एक बातों का अंतर है। कोई-कोई उर्दू लेखक इन विदेशी शब्दों के लिखने [ २८ ]
में सीमा के बाहर चले जाते हैं। उर्दू और हिंदी की छंद-रचना में भी भेद है। मुसलमान लोग फारसी-अरबी के छंदों का उपयोग करते हैं। फिर उनके साहित्य में मुसलमानी इतिहास और दंत- कथाओं के उल्लेख बहुत रहते हैं। शेष बातों में दोनों भाषाएँ प्रायः एक हैं ।

कुछ लोग समझते हैं कि वर्तमान हिदो की उत्पत्ति लल्लूजी लाल ने उर्दू की सहायता से की है। पर यह भूल है। 'प्रेमसागर' की भाषा दो-आब में पहले ही से बोली जाती थी। उन्होंने उसी भाषा का प्रयोग "प्रेमसागर" में किया और आवश्यकतानुसार उसमें संस्कृत के शब्द भी मिलाये। मेरठ के आसपास और उसके कुछ उत्तर में यह भाषा अव भी अपने विशुद्ध रूप में बोली जाती है। वहाँ इसका वही रूप है जिसके अनुसार हिंदी का व्याकरण वना है। यद्यपि इस भाषा का नाम "उर्दू” या “खड़ी बोली” नया है। तो भी उसका यह रूप नया नहीं, किंतु उतना ही पुराना है जितने उसके दूसरे रूप--ब्रजभाषा, वैसवाड़ी, बुंदेलखंडी आदि, हैं । देहली में मुसलमानों के संयोग से हिंदी-भाषा का विकाश जरूर बढ़ा और इसके प्रचार में भी वृद्धि हुई । इस देश में जहाँ जहाँ मुगल बादशाहों के अधिकारी गये वहाँ वहाँ अपने साथ वे इस भाषा को भी लेते गये ।

कोई कोई लोग हिंदी भाषा को “नागरी" कहते हैं। यह नाम अभी हाल का है और देव-नागरी लिपि के आधार पर रक्खा गया जान पड़ता है। इस भाषा के तोन नाम और प्रसिद्ध हैं-(१) ठेठ हिंदी (२) शुद्ध हिंदी और (३) उच्च हिंदी । “ठेठ हिंदी" हमारी भाषा के उस रूप को कहते हैं जिसमें “हिंदवी छुट और किसी बोली क्री पुट् न मिले।" इसमें बहुधा तद्भव[३] शब्द आते हैं। "शुद्ध हिदी"


[ २९ ]मे तद्भव शब्दों के साथ तत्सम 5 शब्दों का भी प्रयोग होता है,

पर उसमें विदेशी शब्द नहीं आते । “उच्च हिंदी" शब्द कई अर्थों का बोधक है । कभी कभी प्रांतिक भाषाओं से हिंदी का भेद बताने के लिये इस भाषा को “उच्च हिंदी” कहते हैं। अँगरेज़ लोग इस नाम का प्रयोग बहुधा इसी अर्थ में करते हैं। कभी कभी "उच्च हिंदी" से वह भाषा समझी जाती है जिसमे अनावश्यक सस्कृत-शब्दों को भरमार की जाती है और कभी कभी यह नाम केवल “शुद्ध हिंदी" के पर्याय में आता है।

(६) तत्सम और तद्भव शब्द् ।

उन शब्दों को छोड़कर जो फारसी, अरबी, तुर्की, अँगरेजी आदि विदेशी भाषाओं के हैं ( और जिनकी संख्या बहुत थोड़ी-- केवल दशमांश-- है ) अन्य शव्द हिंदी में मुख्य तीन प्रकार के है

(१) तत्सम

(२) तद्भव

(३) अर्द्ध-तत्सम

तत्सम वे संस्कृत शब्द हैं जो अपने असली स्वरूप में हिंदी भाषा में प्रचलित हैं, जैसे, राजा, पिता, कवि, आज्ञा, अग्नि, वायु, वत्स, भ्राता, इत्यादि ।

तद्भव वे शब्द हैं जो या तो सीधे प्राकृत से हिंदी-भाषा मे आ गये हैं या प्राकृत के द्वारा संस्कृत से निकले हैं, जैसे, राय, खेत,दाहिना, किसान ।

1इसका अर्थ आगामी प्रकरण में लिखा जायगा । इस प्रकार के कई शब्द कई सदियों से भाषा में प्रचलित हैं। कोई कोई साहित्य के बहुत पुराने नमूनों में भी मिलते हैं, परंतु वहुतसे वर्तमान शताव्दि में आये हैं। यह भरती अभी तक जारी है। जिस रूप में ये शब्द आते हैं वह बहुधा सस्कृत की प्रथमा के एकवचन का है। [ ३० ] अर्द्ध-तत्सम उन संस्कृत शब्दों को कहते हैं जो प्राकृत-भाषा बोलनेवालों के उच्चारण से बिगड़ते बिगड़ते कुछ और ही रूप के हो गये हैं, जैसे, बच्छ, अग्यां, मुँह, बंस, इत्यादि।

बहुत से शब्द तीनों रूपों में मिलते हैं; परंतु कई शब्दों के सब रूप नहीं पाये जाते। हिन्दी के क्रियाशब्द प्रायः सब के सब तद्भव हैं। यही अवस्था सर्वनामों की है। बहुत से संज्ञा शब्द तत्सम वा तद्भव हैं और कुछ अर्द्ध-तत्सम हो गये हैं।

तत्सम और तद्भव शब्दों में रूप की भिन्नता के साथ साथ बहुधा अर्थ की भिन्नता भी होती है। तत्सम शब्द प्रायः सामान्य अर्थ में आता है, और तद्भव शब्द विशेष अर्थ में; जैसे "स्थान" सामान्य नाम है, पर "थाना" एक विशेष स्थान का नाम है। कभी कभी तत्सम शब्द से गुरुता का अर्थ निकलता है और तद्भव से लघुता का, जैसे "देखना" साधारण लोगों के लिए आता है, पर "दर्शन" किसी बड़े आदमी या देवता के लिए। कभी कभी तत्सम के दो अर्थों में से तद्भव से केवल एक ही अर्थ सूचित होता है, जैसे "वंश" का अर्थ "कुटुंब" भी है और "बॉस" भी है; पर तद्भव "बॉस" से केवल एकही अर्थ निकलता है।

यहाँ तत्सम, तद्भव और अर्द्ध-तत्सम शब्दों के कुछ उदाहरण दिये जाते हैं—

तत्सम अर्द्धतत्सम तद्भव
आज्ञा अग्यां आन
राजा राय
वत्स बच्छ बच्चा
अग्नि अगिन आग
स्वामी साई
कर्ण कान
[ ३१ ]
तत्सम अर्द्धतत्सम तद्भव
कार्य कारज काज
पक्ष पंख, पाख
वायु बयार
अक्षर अच्छर अक्खर, आखर
रात्री रात
सर्व सब
दैव दई

(७) देशज और अनुकरणवाचक शब्द।

हिंदी में और भी दो प्रकार के शब्द पाये जाते हैं—

(१) देशज (२) अनुकरण वाचक।

देशज वे शब्द हैं जो किसी संस्कृत (या प्राकृत) मूल से निकले हुए नहीं जान पड़ते और जिनकी व्युत्पत्ति का पता नहीं लगता, जैसे—तेंदुआ, खिड़की, घूआ, ठेस इत्यादि।

ऐसे शब्दों की संख्या बहुत थोड़ी है और संभव है कि आधुनिक आर्य-भाषाओं की बढ़ती के नियमों की अधिक खोज और पहचान होने से अंत में इनकी संख्या बहुत कम हो जायगी।

पदार्थ की यथार्थ अथवा कल्पित ध्वनि को ध्यान में रखकर जो शब्द बनाये गये हैं वे अनुकरण-वाचक शब्द कहलाते हैं, जैसे—खटखटाना, धड़ाम, चट, आदि।

(८) विदेशी शब्द।

फारसी, अरबी, तुर्की, अँगरेजी आदि भाषाओं से जो शब्द हिंदी में आये हैं वे विदेशी कहाते हैं। अँगरेजी से आजकल भी शब्दों की भरती जारी है। विदेशी शब्द हिंदी में ध्वनि के अनुसार अथवा बिगड़े हुए उच्चारण के अनुसार लिखे जाते हैं। इस विषय का पता लगाना कठिन है कि हिंदी में किस किस समय पर कौन [ ३२ ]कौन से विदेशी शब्द आये हैं; पर ये शब्द भाषा में मिल गये हैं। और इनमें कोई कोई शब्द ऐसे हैं जिनके समानार्थी हिंदी शब्द बहुत समय से अप्रचलित हो गये हैं। भारतवर्ष की और और प्रचलित भाषाओं-विशेप कर मराठी और बॅगला से भी-कुछ शब्द हिंदी में आये हैं। कुछ विदेशी शब्दों की सूची नीचे दी जाती है--

(१) फारसी।

आदमी, उम्मेदवार, कमर, खर्च, गुलाब, चश्मा, चाकू,चापलूस, दाग, दूकान, बाग, मोज़ा, इत्यादि ।

(२.) अरबी ।

अदालत, इम्तिहान, ऐतराज, औरत, तनखाह, तारीख,मुकद्दमा, सिफारिश, हाल, इत्यादि।

(३) तुर्की ।

कोतल, चकमक, तगमा, तोप, लाश, इत्यादि ।

(४) पोर्चुगीज ।

कमरा, नीलाम, पादरी, मारतौल, पेरू ।

(५) अँगरेजी।

अपील, इंच, कलक्टर, कमेटी, कोट, गिलास, टिकट टीन, नोटिस, डाक्टर, डिगरी, पतलून, फंड, फीस, फुट, मील,रेल, लाट, लालटैन, समन, स्कूल, इत्यादि ।

(६ ) मराठी ।

प्रगति, लागू, चाळू, बाड़ा, बाजू , ( ओर, तरफ), इत्यादि ।

(७) बँगला ।

उपन्यास, प्राणपण, चूड़ांत, भद्रलोग ( = भले आदमी ), गेल्प, नितांत, इत्यादि ।

ये शब्द अपभ्रश हैं।

  1. ब्रज-भाखा भाखा रुचिर कहैं सुमति सब कोय।
    मिलै संस्कृत पारस्यौ वै अति सुगम जु होय॥ (काव्य-निर्णय)

  2. तरवर से एक तिरिया उतरी, उसने खूब रिझाया।
    बाप को उसके नाम जो पूछा, आधा नाम बताया॥
    आधा नाम पिता पर वाका, अपना नाम निबोरी।
    अमीर खुसरो यों कहैं, बूझ पहेली मोरी॥

  3. इसका अर्थ आगामी प्रकरण में लिखा जायगा।