हिंदी व्याकरण
कामताप्रसाद गुरु

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ३३ से – ६० तक

 

हिंदी व्याकरण

पहला भाग ।

वर्णविचार ।

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पहला अध्याय ।

वर्णमाला।

१---वर्णविचार व्याकरण के उस भाग को कहते हैं जिसमें वणोंं आकार, भेद, उच्चारण तथा उनके मेल से शब्द बनाने के नियमों का निरूपण होता है।

२-वर्ण उस मूल-ध्वनि को कहते हैं जिसके खंड न हो सके; जैसे, अ, इ, क् , ख्, इत्यादि ।

"सवेरा हुआ" इस वाक्य में दो शब्द हैं, " सबेरा" और “हुआ"। "सवेरा" शब्द में साधारण रूप से तीन ध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं-स, वे, रा। इन तीन ध्वनियों में से प्रत्येक ध्वनि के खंड हो सकते हैं, इसलिए वह मूल-ध्वनि नहीं है। 'स' में दो ध्वनियाँ हैं, स् + अ, और इनके कोई और खंड नहीं हो सकते, इस-लिए 'स' और 'अ' मूल-ध्वनि हैं। येही मूल-ध्वनियाँ वणं कहलाती हैं। "सवेरा" शब्द में स्,अ, ए, र, आ--ये छ. मूल-ध्वनियॉ हैं। इसी प्रकार "हुआ"शब्द में ह् ,उ, आ --ये तीन मूलध्वनियाँँ वा वर्ण हैं। ३–वणों के समुदाय को वर्णमाला कहते हैं। हिंदी वर्णमाला मैं ४६ वर्ण हैं। इनके दो भेद हैं, (१) स्वर (२) व्यंजन | ४----स्वर उन वणों को कहते हैं जिनका उच्चारण स्वतंत्रता से होता है और जो व्यंजनों के उच्चारण में सहायक होते हैं ; जैसे--- अ, इ, उ, ए, इत्यादि । हिंदी में स्वर ११ र्हैं-

अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ ।

५----व्यंजन वे वर्ण हैं, जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते । व्यंजन ३३ हैं-

क, ख, ग, घ, ङ । च, छ, ज, झ, ।

ट, ठ, ड, ढ, ण । त, थ, द, ध, न ।

प, फ, ब, भ, म । य, र, ल, व ।

श,ष,स,ह ।

इन व्यंजनों में उच्चारण की सुगमता के लिए 'अ' मिला दिया गया है। जब व्यंजनों में कोई स्वर नहीं मिला रहता तब उनका अस्पष्ट


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फारसी, अँगरेजी, यूनानी आदि भाषाओं में वणों के नाम और उच्चारण एकसे नहीं हैं, इसलिए विद्यार्थियों को उन्हें पहचानने में कठिनाई होती है। इन भाषाओं में जिन ( अलिफ, ए, डेल्टा, आदि ) को वर्ण कहते हैं उनके खंड हो सकते हैं । ये यथार्थ में वर्ण नहीं, किंतु शब्द हैं । यद्यपि व्यंजन के उच्चारण के लिए उसके साथ स्वर लगाने की आवश्यकता होती है, तो भी उसमें केवल छोटे से छोटा स्वर अर्थात् अकार मिलाना चाहिए, जैसा हिंदी में होता है ।।

॥ संस्कृत-व्याकरण में स्वरों को अच् और व्यंजनों को हल् कहते हैं ।

+ सस्कृत में ऋ, लृ, लृ, ये तीन स्वर और हैं; पर हिंदी में इनका प्रयोग नहीं होता। ऋ ( ह्रस्व ) भी केवल हिंदी में आनेवाले तत्सम शब्दों ही में आती है; जैसे, ऋषि, ऋण, ऋतु, कृपा, नृत्य, मृत्यु, इत्यादि।

+ इनके सिवा वर्णमाला में तीन ब्यजन और मिला दिये जाते हैं- क्ष, त्र, ज्ञ । ये संयुक्त व्यंजन हैं और इस प्रकार मिलकर बने हैं—क्+ प=क्ष, त् + र=त्र, ज् + =ज्ञ । ( देखो २१ वाँ अंक ।) उच्चारण दिखाने के लिए उनके नीचे एक तिरछी रेखा ( ) कर देते हैं। जिसे हिंदी में हल् कहते हैं; जैसे, क् , थ्, म्, इत्यादि ।

६–व्यंजनों में दो वर्ण और हैं जो अनुस्वार और विसर्ग कहलाते हैं। अनुस्वार का चिह्न स्वर के ऊपर एक बिंदी और विसर्ग का चिह्न स्वर के आगे दो बिंदियाँ हैं, जैसे, अं, अ । व्यंजनों के समान इनके उच्चारण में भी स्वर की आवश्यकता होती है, पर इनमें और दूसरे व्यंजनों में यह अंतर है कि स्वर इनके पहले आता है और दूसरे व्यंजनों के पीछे, जैसे, अ + -, क् + अ* ।

७–हिंदी वर्णमाला के वणों के प्रयोग के संबंध में कुछ नियम ध्यान देने योग्य हैं-

( अ ) कुछ वर्णं केवल संस्कृत ( तत्सम ) शब्दों में आते हैं, जैसे, ऋ, ण , घ् । उदाहरण—ऋतु, ऋषि, पुरुष, गण, रामायण । ( आ ) ड् और ब् पृथक् रूप से केवल संस्कृत शब्दों में आते हैं,

जैसे पराङ्मुख, नन् तत्पुरुप ।

( इ ) संयुक्त व्यजनों में से क्ष और ज्ञ केवल संस्कृत शब्दों में आते हैं, जैसे मोक्ष, संज्ञा।

{ ई ) ड्, ए हिंदी में शब्दों के आदि में नहीं आते । अनुस्वार और विसर्ग भी शब्दों के आदि में प्रयुक्त नहीं होते ।

( उ ) विसर्ग केवल थोड़े से हिंदी शब्दों में आता है, जैसे, छः, छि; इत्यादि।


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  • अनुस्वार और विसर्ग के नाम और उच्चारण एक नहीं हैं। इनके रूप और उच्चारण की विशेषता के कारण कोई कोई वैयाकरण इन्हें अं और अः के रूप में स्वरों के साथ लिखते हैं।

दूसरा अध्याय ।

.

लिपि।

८–लिखित भाषा में मूल ध्वनियों के लिए जो चिह्न मान लिये गये हैं, वे भी वर्ण कहलाते हैं। जिस रूप में ये वर्ण लिखे जाते हैं; उसे लिपि कहते हैं। हिंदी-भाषा देवनागरी लिपि में लिखी जाती है।

[ सूचना–देवनागरी के सिवा कैथी, महाजनी आदि लिपियों में भी हिदी-भाषा लिखी जाती है; पर उनका प्रचार सर्वत्र नहीं है। ग्रंथ लेखन और छापने के काम में बहुधा देवनागरी लिपि का ही उपयोग होता है । ]

६–व्यंजनों के अनेक उच्चारण दिखाने के लिए उनके साथ स्वर जोड़े जाते हैं। व्यंजनों में मिलने से बदलकर स्वर का जो रूप हो जाता है उसे मात्रा कहते हैं। प्रत्येक स्वर की मात्रा नीचे लिखी जाती है--

अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ .


१०-अ की कोई मात्रा नहीं है। जब वह व्यंजन में मिलता है, तब व्यंजन के नीचे का चिह्न (्)-नहीं लिखा जाता; जैसे, क्+अ=क ।



  • 'देवनागरी' नाम की उत्पत्ति के विषय में मत-भेद है। श्याम

शास्त्री के मतानुसार देवताओं की प्रतिमाओं के बनने के पूर्व उनकी उपासना सांकेतिक चिह्नों द्वारा होती थी, जो कई प्रकार के त्रिकोणादि यंत्रों के मध्य में लिखे जाते थे । वे यंत्र ‘देवनागर' कहलाते थे और उनके मध्य लिखे जानेवाले अनेक प्रकार के सांकेतिक चिह्न कालांतर में वर्ण माने जाने लगे । इसीसे उनका नाम 'देवनागरी' हुआ है। ११-आ, ई, ओ और औ की मात्राएँ व्यंजन के आगे लगाई जाती हैं; जैसे, का, की, को, कौ। इ, की मात्रा व्यंजन के पहले,ए और ऐ की मात्राएँ ऊपर और उ, ऊ, ऋ, की मात्राएँ नीचे लगाई जाती हैं; जैसे, कि, के, कै, कु, कू, कृ।

१२–अनुस्वार स्वर के ऊपर और विसर्ग स्वर के पीछे आता है;

जैसे, कं, किं, कं, काः ।

१३—उ और ऊ की मात्राएँ जब र् में मिलती हैं तब उनका आकार कुछ निराला हो जाता है, जैसे, रु, रू । र् के साथ ऋ को मात्रा का संयोग व्यंजनों के समान होता है, जैसे, र + ऋ= । ( देखो २५ वॉ अंक )।

१४–ऋ की मात्रा को छोड़कर और अं, अ. को लेकर व्यंजनों के साथ सव स्वरों के मिलाप को बारहखड़ी * कहते हैं। स्वर अथवा स्वरांत व्यंजन अक्षर कहलाते हैं । क् की बारहखड़ी नीचे दी जाती है-

क, का, कि, की, कु, कू, के, कै, को, कौ, कं, कः ।

१५–व्यंजन दो प्रकार से लिखे जाते हैं ( १ ) खड़ी पाई समेत,

(२) विना खडी पाई के। ड, छ, ट, ठ, ड, ढ, द, र को छोड़कर शेष व्यंजन पहले प्रकार के हैं। सब वणों के सिरे पर एक एक आड़ी रेखा रहती है जो ध, झ और भ में कुछ तोड़ दी जाती है।

१६–नीचे लिखे वणों के दो दो रूप पाये जाते हैं-

इअ और अ; झ और झ; ण और ण; च और क्ष; ल और त्र; ज्ञ और ज्ञ ।

१७–देवनागरी लिपि में वणों का उच्चारण और नाम तुल्य होने के कारण, जब कभी उनका नाम लेने का काम पड़ता है; तब अक्षर के आगे ‘कार' जोड़कर उसका नाम सूचित करते हैं, जैसे


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  • यह शब्द द्वादशाक्षरी का अपभ्रंश है। अकार, ककार, मकार, सकार से अ, क, म, स का बोध होता है। 'रकार’ को कोई कोई 'रेफ' भी कहते हैं।

१८-जंब दो वा अधिक व्यंजनों के बीच में स्वर नहीं रहता तब उनको संयोगी वा संयुक्त व्यंजन कहते हैं; जैसे, क्य, स्म, त्र। संयुक्त व्यंजन बहुधा मिलाकर लिखे जाते हैं। हिंदी में प्रायः तीन से अधिक व्यंजनों का संयोग नहीं होता , जैसे, स्तम्भ, मत्स्य, माहात्म्य ।।

१६-जब किसी व्यंजन का संयोग उसी व्यंजन के साथ होता है, तब वह संयोग द्वित्व कहलाता है। जैसे, अन्न, सत्ता ।

२८-संयोग में जिस क्रम से व्यंजनों का उच्चारण होता है, उसी क्रम से वे लिखे जाते हैं, जैसे, अन्त, यत्न, अशक्त, सत्कार।

२१-क्ष, त्र, ज्ञ, जिन व्यंजनों के मेल से बने हैं, उनका कुछ भी रूप संयोग मैं नहीं दिखाई देता; इसलिए कोई कोई उन्हें व्यंजनों के साथ वर्णमाला के अंत में लिख देते हैं। क् और ष के मेल से क्ष,त् और र के मेल से त्र और जू और ब के मेल से ज्ञ बनता है।

२२–पाई (।)-वाले आद्य वर्गों की पाई संयोग में गिर जाती है, जैसे, प् + य= प्य, त् + थ= त्थ, त् + म् + य=त्म्य ।

२३----ड, छ, ट, ठ, ड, ढ, ह, ये सात व्यंजन संयोग के आदि में भी पूरे लिखे जाते हैं और इनके अंत का (संयुक्त) व्यंजन पूर्व वर्ण के नीचे बिना सिरे के लिखा जाता है, जैसे, अङ्कुर, उच्छास, टट्टी,गट्टा, हड्डी, प्रह्लाद, सह्याद्रि ।

२४–कई संयुक्त अक्षर दो प्रकार से लिखे जाते हैं, जैसे, क् + क= छ, क्क; व्+व=व्व, ल् + ल = ल्ल, क् + ल्=कु कल्: श्+ व=श्वव, श्व ।

२५–यदि रकार के पीछे कोई व्यंजन हो तो रकार उस

व्यंजन के ऊपर यह रूप ( ) घारण कॅरता हैं जिसे रेफ कहते हैं; जैसे, धर्म, सर्व, अर्थ, । यदि रकार किसी व्यंजन के पीछे आता है तो उसका रूप दो प्रकार का होता है-

( अ ) खड़ी पाई वाले व्यंजनों के नीचे रकार इस रूप (-) से लिखा जाता है, जैसे चक्र, भद्र, हस्व, वज्र ।

(आ) दूसरे व्यजनों के नीचे उसका यह रूप (^ ) होता है। जैसे, राष्ट्र, त्रिपुंडृ, कृच्छ ।

[ सूचना—ब्रजभाषा में बहुधा र् + य का रूप से होता है। जैसे, मारयो, हरियो । ] ।

२६–क् और त मिलकर तक् और त् और त मिलकर त होता  है।

२७-ड् ,ण , न् , म् , अपने ही वर्ग के व्यंजनों से मिल सकते हैं, पर उनके बदले में विकल्प से अनुस्वार आ सकता है, जैसे, गङ्गा=गंगा, चञ्चल = चंचल, पण्डित = पंडित,दन्त=दंत, कम्प = कंप ।

कई शब्दों में इस नियम का भंग होता है, जैसे, वाड्मय मृण्मय, धन्वन्तरि, सम्राट् , उन्हें, तुम्हें ।

२८–हकार से मिलनेवाले व्यंजन, कभी कभी, भूल से उसके पूर्व लिख दिये जाते हैं, जैसे, चिन्ह ( चिह्न), ब्रम्ह ( ब्रह्म ),आव्हान ( आह्वान ), आल्हाद (आह्लाद ) इत्यादि ।

२९--साधारण व्यंजनों के समान संयुक्त व्यंजनों में भी स्वर जोड़कर बारहखड़ी बनाते हैं, जैसे, क, का, क्रि, क्री,कु, क्रू, क्रे,कै, क्रो, क्रौ, क्रं, क्रः । (देखो १४ वां अंक )



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  • हिंदी में बहुधा अनुनासिक (°) के बदले में भी अनुस्वार आता है,जैसे, हँसना= हंसना, पाँच = पांच । ( देखो ५०वां अंक )।

तीसरा अध्याय ।

वर्णो का उच्चारण और वर्गीकरण ।। ३०---मुख के जिस भाग से जिस अक्षर का उच्चारण होता है, उसे उस अक्षर का स्थान कहते हैं ।

३१-स्थानभेद् से वर्षों के नीचे लिखे अनुसार वर्ग होते हैं-

कंट्य-जिनका उच्चारण कंठ से होता है; अर्थात् अ, आ, क, ख, ग, घ, ङ, है और विसर्ग ।

तालव्य-जिनका उच्चारण तालु से होता है, अर्थात् इ, ई, च, छ, ज, झ, ञ, ये और श।

मूर्धन्य--जिनका उच्चारण मूद्ध से होता है, अर्थात् , ट, ठ, ड, ढ, ण, र, और प ।

दंत्य–त, थ, द, ध, न, ल और स । इनका उच्चारण ऊपर के दाँतों पर जीभ लगाने से होता है।

ओष्ठ्य-इनका उच्चारण ओठों से होता है; जैसे, उ, ऊ, प, फ, ब, भ, म ।।

अनुनासिक-इनका उच्चारण मुख और नासिका से होता है, अर्थात् ड, अ, ण, न, म और अनुस्वार। (देखो३९वॉऔर ४६वाँ अंक)। [ सूचना--स्वर भी अनुनासिक होते हैं । ( देखो ३९ वाँ अंक )] कंठ-तालव्य-जिनका उच्चारण कंठ और ताछ से होता है; अर्थात् ए, ऐ ।।

कंठोष्ठ्य–जिनका उच्चारण कंठ और ओंठों से होता है, अर्थात् ओ, औ ।

| दंत्योष्ठ्य-जिनका उच्चारण दॉत और ओंठो से होता है; अर्थात् च । ३२--वर्गों के उच्चारण की रीति को प्रयत्न कहते हैं। ध्वनि उत्पन्न होने के पहले वार्गिद्रिय की क्रिया को आभ्यंतर प्रयत्न कहते हैं। और ध्वनि के अंत की क्रिया को बाह्य प्रयत्न कहते हैं।

| ३३-आभ्यंतर प्रयत्न के अनुसार वर्षों के मुख्य चार भेद हैं।

। (१) विवृत---इनके उच्चारण में वागिंद्रिय खुली रहती है। | स्वरों का प्रयत्न विवृत कहाता है ।

(२) स्पृष्ट-इनके उच्चारण में वागिंद्रिय का द्वार बंद । | रहता है। ‘क’ से लेकर 'म' तक २५ व्यंजनों को स्पर्श वर्ण । कहते हैं ।

(३) ईषत्-चिवृत--इनके उच्चारण में यागिद्रिय कुछ खुली रहती है । इस भेद में य, र, ल, व, हैं। इनको | अंतस्थ वर्ण भी कहते हैं, क्योंकि इनका उच्चारण स्वर व्यंजनों का मध्यवर्ती है।

(४) ईषत्-स्पृष्ट-इनका उच्चारण वागिद्रिय के कुछ बंद रहने से होता है—श, ष, स, ह, । इन वर्गों के उच्चारण मे एक प्रकार | का घर्पण होता है, इसलिए इन्हें ऊष्म वर्ण भी कहते हैं ।

| ३४-- बाह्य-प्रयत्न के अनुसार वर्षों के मुख्य दो भेद हैं—(१) | अघोष (२) घोष ।।

( १ ) अघोष, वर्गों के उच्चारण में केवल श्वास का उपयोग होता है, उनके उन्धारण में घोप अर्थात् नाद नहीं होता ।

(२) घोष वर्षों के उच्चारण में केवल नाद का उपयोग होता है। अघोप वर्णक, ख, च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ और श, ष, स । घोप वर्ण-शेष व्यंजन और सब स्वर ।

[ सूचना---बाह्य प्रयत्न के अनुसार केवल व्यंजनों के जो भेद हैं वे आगे | दिये जायँगे । ( देखो ४४वाँ अंक ) ।] ३५–उत्पत्ति के अनुसार स्वरों के दो भेद हैं—(१) मूलस्वर;

(२) संधिस्वर।

(१) जिन स्वरों की उत्पत्ति किसी दूसरे स्वरों से नहीं है, उन्हें | मूलस्वर ( वा ह्रस्व ) कहते हैं। वे चार हैं-अ, इ, उ, और ऋ। (२) मूल-स्वरों के मेल से बने हुए स्वर संधि-स्वर कहलाते हैं, जैसे, आ, ई, ए, ऐ, ओ, औ।

| ३६–संधि-स्वरों के दो उपभेद हैं---

| (१) दीर्घ और (२) संयुक्त ।

( १ ) किसी एक मूल स्वर में उसी मूल स्वर के मिलाने से जो स्वर उत्पन्न होता है, उसे दीर्घ कहते हैं; जैसे, अ+ = आ, इ+इ=ई, उ+ उ = ऊ, अर्थात् आ, ई, ऊ, दीर्घ स्वर हैं।

[ सूचना--- + इ = प्रह, यह दीर्घ स्वर हिंदी में नहीं है । ]

(२) भिन्न-भिन्न स्वरों के मेल से जो स्वर उत्पन्न होता है उसे संयुक्त स्वर कहते हैं; जैसे, अ +इ=ए, अ+उ=ओ, आ +ए=ऐ, आ +ओ =औ ।।

३७उच्चारण के काल-मान के अनुसार स्वरों के दो भेद किये जाते | हैं-लघु और गुरु । उच्चारण के काल-मान को मात्रा कहते हैं। | जिसे स्वर के उच्चारण में एक मात्रा लगती है उसे लघु स्वर कहते हैं; जैसे, अ, इ, उ, ऋ, । जिस स्वर के उच्चारण में दो मात्राएँ लगती हैं। उसे गुरु स्वर कहते हैं; जैसे, आ, ई, ए, ऐ, ओ, औ।

[ सूचना १-संच मूल स्वर लघु और सब संधिं-स्वर गुरु हैं ।]

[ सूचना ३–संस्कृत में प्लुत नाम से स्वरों का एक तीसरा भेद माना जाता है; पर हिंदी में उसका उपयोग नहीं होता। ‘प्लुत' शब्द का अर्थ है।]

ॐ हिंदी में ‘मात्रा' शब्द के दो अर्थ हैं-एक, स्वरों को रूप (देखो ९ वाँ | अंक ), दूसरा काल-मान । “उछला हुआ” । प्लुत में तीन मात्राएँ होती है । वह बहुधा दूर से पुकारने रोने, गाने और चिल्लाने में आता है । उसकी पहचान दीर्घ स्वर के आगे तीन का अंक लिख देने से होती है, जैसे, लड़के ३ ।]

३८–जाति के अनुसार स्वरों के दो भेद और हैं-सवणे और असवर्ण अर्थात् सजातीय और विजातीय । समान स्थान और प्रयत्न से उत्पन्न होनेवाले स्वरों को सवर्ण कहते हैं। जिन स्वरों के स्थान और प्रयत्न एकसे नही होते वे असवर्ण कहलाते हैं। अ, आ परस्पर सवर्ण हैं । इसी प्रकार इ, ई तथा उ, ऊ सवर्ण हैं ।।

अ, इ वा अ, ऊ अथवा इ, ऊ असवर्ण स्वर हैं ।

सूचना–ए, ऐ, ओ, औ, इन संयुक्त स्वरों में परस्पर सवर्णता नहीं है। क्योंकि ये असवर्ण स्वरों से उत्पन्न हैं। ]

३६-उच्चारण के अनुसार स्वरों के दो भेद और हैं-

(१) सानुनासिक (२) निरनुनासिक ।

यदि मुंह से पूरा पूरा श्वास निकाला जाय तो शुद्ध–निरनु- नासिक-ध्वनि निकलती है, पर यदि श्वास का कुछ भी अंश नाक से निकाला जाय तो अनुनासिक ध्वनि निकलती है। अनुनासिक स्वर का चिह्न () चंद्रबिंदु कहलाता है, जैसे गॉव, ऊँचा । अनुस्वार और अनुनासिक व्यंजनों के समान चंद्रविदु कोई स्वतंत्र वर्ण नहीं है, वह केवल अनुनासिक स्वर का चिह्न है। अनुनासिक व्यंजनों को कोई कोई “नासिक्य' और अनुनासिक स्वरों को केवल अनुनासिक कहते हैं। कभी कभी यह शब्द चंद्रबिंदु का पर्यायवाचक भी होता है। ( देखो ४६ वॉ अंक )

४०-( क ) हिंदी में अंत्य अ का उच्चारण प्रायः हल् के समान होता है, जैसे, गुण, रात, धन, इत्यादि। इस नियम के कई अपवाद हैं(१) यदि अकारांत शब्द का अंत्याक्षर, संयुक्त हो तो अंत्य अ का उच्चारण पूरा होता है; जैसे, सत्य, इंद्र, गुरुत्व, सन्न, धर्म, अशक्त, इत्यादि । ।

(२) इ, ई, वा ऊ के आगे य हो तो अंत्य अ का उच्चारण पूर्ण होता है; जैसे, प्रिय, सीय, राजसूय, इत्यादि ।

(३) एकाक्षरी अकारांत शब्दों के अंत्य अ का उच्चारण पूरा पूरा होता है; जैसे, न, व, र, इत्यादि।

(४) (क) कविता में अंत्य अ को पूर्ण उच्चारण होता है; जैसे, "समाचार जब लक्ष्मण पाये" । परंतु जब इस वर्ण पर यति होती है, तब इसका उच्चारण बहुधा अपूर्ण होता है ; जैसे, "कुंद- इंदु-सम देह, उमा-रमन करुणा-अयन ।”

( ख) दीर्घ-स्वरांत त्र्यक्षरी शब्दों में यदि दूसरा अक्षर अकारांत हो तो उसका उच्चारण अपूर्ण होता है; जैसे, बकरा, कपड़े, करना,बोलना, तानना ।

( ग ) चार अक्षरों के ह्रस्व-स्वरांत शब्दों में यदि दूसरा अक्षर अकारांत हो तो उसके अ का उच्चारण अपूर्ण होता है, जैसे, गड़बड़, देवधन, मानसिक, सुरलोक, कामरूप, बलहीन ।

अपवाद्-यदि दूसरा अक्षर संयुक्त हो अथवा पहला अक्षर कोई उपसर्ग हो तो दूसरे अक्षर के अ का उच्चारण पूर्ण होता है, जैसे पुत्रलाभ, धर्महीन, आचरण, प्रचलित । ।

(घ ) दीर्घ-स्वरांत चार-अक्षरी शब्दों में तीसरे अक्षर के अ का उच्चारण : अपूर्ण होता है, जैसे, समझना, निकलता, सुनहरी, कचहरी, प्रबलता ।

(ङ) यौगिक शब्दों में मूल अवयव के अंत्य अ का उच्चारण आधा होता है । यह बात ऊपर के उदाहरणों में भी पाई जाती है; ___________________________________________

  • विश्राम ।

जैसे, देव-धन, सुर-लोक, अन्न-दाता, सुख-दायक, शीतल-ता, मन-मोहन, लड़क-पन ।

४१-हिंदी में ऐ और औ का उच्चारण सस्कृत से भिन्न होता है। तत्सम शब्दों में इनका उच्चारण संस्कृत के ही अनुसार होता है, पर हिंदी में ऐ बहुधा अय् और औ बहुधा अव् के समान बोला जाता है, जैसे-

संस्कृत--मैनाक, सदैव, ऐश्वय्यर्य, पौत्र, कौतुक, इत्यादि।

हिंदी-है, कै, मैल, सुनै, और, चौथा, इत्यादि ।

४२--उर्दू और अंगरेजी के कुछ अक्षरों का उच्चारण दिखाने के लिए अ, आ, इ, उ आदि स्वरों के साथ बिंदी और अर्द्ध-चंद्र लगाते हैं, जैसे, मअलूम, इल्म, उम्र, लॉर्ड। इन चिह्नों का प्रचार सार्वदेशिक नहीं है, और विदेशी उच्चारण पूर्ण रूप से प्रकट करना कठिन भी होता है।

व्यंजन

४३–स्पर्श-व्यंजनों के पाँच वर्ग हैं और प्रत्येक वर्ग में पॉच पॉच व्यंजन हैं। प्रत्येक वर्ग का नाम पहले वर्ण के अनुसार रखा गया है, जैसे-

क-वर्ग --क, ख, ग, घ, ङ ।

च-वर्ग--च, छ, ज, झ, ब ।

ट-वर्ग--ट, ठ, ड, ढ, ण ।

त-वर्ग--त, थ, द, ध, न ।

प-वग--प, फ, ब, भ, म ।

४४–बाह्य प्रयत्न के अनुसार व्यंजनों के दो भेद हैं--- . (१) अल्पप्राण, (२) महाप्राण ।

जिन व्यंजनों में हकार की ध्वनि विशेष रूप से सुनाई देती हैं।

उनको महाप्राण और शेप व्यंजनों को अल्पप्राण कहते हैं । स्पर्शव्यंजनों में प्रत्येक वर्ग का दूसरा और चौथा अक्षर तथा ऊष्म महाप्राण हैं, जैसे,—ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ और श, ष, स, हो ।

शेष व्यंजन अल्पप्राण हैं। सब स्वर अल्पग्राण हैं।

[ सूचना-–-अल्पप्राण अक्षरों की अपेक्षा महाप्राणों में प्राणवायु का उपयोग अधिक श्रमपूर्वक करना पड़ता है। ख, घ, छ, आदि व्यंजनों के उच्चारण में उनके पूर्व-वर्ती व्यंजनों के साथ हकार की ध्वनि मिली हुई सुनाई पड़ती है,अर्थात् ख = क् +ह, छ = च् +ह । उर्दू, अंगरेजी आदि भाषाओं में महा-प्राण अक्षर ह मिलाकर बनाये गये हैं ।]

४५-हिंदी में ड और ढ के दो दो उच्चारण होते हैं-( १ ) मूर्द्धन्य (२), द्विस्पृष्ट।।

( १ ) मूर्द्धन्य उच्चारण नीचे लिखे स्थानों में होते हैं---

( क ) शब्द के आदि मे; जैसे, डाक, डमरू, डग, ढम, ढिग,ढंग, ढोल, इत्यादि ।

( ख ) द्वित्व से, जैसे, अड्डा, लड्ड, खढ्डा ।

(ग) ह्रस्व स्वर के पश्चात् अनुनासिक व्यंजन के संयोग में, जैसे, डंड, पिंडी, चंडू, मंडप, इत्यादि।

(२) द्विस्पृष्ट उच्चारण जिह्वा का अग्र भाग उलटाकर मूद्धा में लगाने से होता है। इस उच्चारण के लिए इन अक्षरों के नीचे एक एक बिंदी लगाई जाती है । द्विस्पृष्ट उच्चारण बहुधा नीचे लिखे स्थानों में होता है--

( क ) शब्द के मध्य अथवा अंत मे; जैसे, सड़क, पकड़ना, आड़, गढ़, चढ़ाना, इत्यादि ।

( ख ) दीर्घ स्वर के पश्चात् अनुनासिक व्यंजन के संयोग में दोनों उच्चारण बहुधा विकल्प से होते हैं; जैसे, मुंडना, मॅड़ना, खाँड, खॉड़; मेढा, मेंढा, इत्यादि । ४६-ड, ण, न, म, का उच्चारण अपने अपने स्थान और नासिका से किया जाता है। विशिष्ट स्थान से श्वास उत्पन्न कर उसे नाक के द्वारा निकालने से इन अक्षरों का उच्चारण होती है। केवल स्पर्श-व्यंजनों के एक एक वर्ग के लिये एक एक अनुनासिक व्यंजन है,अंतस्थ और ऊष्म के साथ अनुनासिक व्यंजन का कार्य अनुस्वार से निकलता है। अनुनासिक व्यंजनों के बदले में भी विकल्प से अनुस्वार आता है, जैसे, अङ्ग =अंग, कण्ठ =कंठ, अंश, इत्यादि ।

४७–अनुस्वार के आगे कोई अंतस्थ व्यंजन अथवा- ह हो तो उसका उच्चारण दंत-तालव्य अर्थात् वॉ के समान होता है, परंतु श, ष, स के साथ उसका उच्चारण बहुधा न् के समान होता है; जैसे, संवाद, संरक्षा, सिंह, अंश, हंस इत्यादि ।

४८–अनुस्वार (') और अनुनासिक (^) के उच्चारण में अंतर है, यद्यपि लिपि में अनुनासिक के बदले बहुधा अनुस्वार ही का उपयोग किया जाता है (देखो ३९ वाँ अंक ) । अनुस्वार दूसरे स्वरों अथवा व्यंजनों के समान एक अलग ध्वनि है; परंतु अनु-नासिक स्वर की ध्वनि केवल नासिक्य है। अनुस्वार के उच्चारण में ( देखो ४६ वाँ अंक ) श्वास केवल नाक से निकलता है, पर अनुना-सिक के उच्चारण में वह मुख और नासिका से एक ही साथ निकाला जाता है। अनुस्वार तीव्र और अनुनासिक धीमी ध्वनि है, परंतु दोनों के उच्चारण के लिये पूर्ववर्ती स्वर की आवश्यकता होती है, जैसे, रंग,रॉग; कंबल, कॅबल, वेदांत, वेदांत, हंस, हँसना, इत्यादि ।

४९--संस्कृत-शब्दों में अंत्य अनुस्वार का उच्चारण म् के समान होता है, जैसे, वरं, स्वयं, एवं ।।

५०—हिंदी में अनुनासिक के बदले बहुधा अनुस्वार लिखा जाता है, इसलिए अनुस्वार का अनुनासिक उच्चारण जानने के लिए कुछ नियम नीचे दिये जाते हैं- (१) ठेठ हिंदी शब्दों के अंत में जो अनुस्वार आता है उसका उच्चारण अनुनासिक होता है; जैसे, मैं, में, गेहूं, जू ; क्यों ।

(२) पुरुष अथवा वचन के विकार के कारण आनेवाले अनुस्वार का उच्चारण अनुनासिक होता है; जैसे, करूंं, लड़कों,लड़कियां, हूं, हैं, इत्यादि ।

(३) दीर्घ स्वर के पश्चात् आनेवाला अनुस्वार अनुनासिक के समान बोला जाता है; जैसे, आंख, पॉच, ईधन, ऊंट, सांभर,सौंपना, इत्यादि । ।

५० ( क )-लिखने में बहुधा अनुनासिक अ, आ, उ और ऊ मे ही चंद्र-बिंदु का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि इनके कारण अक्षर के ऊपरी भाग में कोई मात्रा नहीं लगती; जैसे, अँधेरा, हँसना,ऑख, दॉत, उँचाई, कुंदरू, ऊँट, करू, इत्यादि । जब इ और ए अकेले आते हैं, तब उनमें चंद्र-बिंदु और जब व्यंजन मे मिलते हैं तब चंद्र-बिंदु के बदले अनुस्वार ही लगाया जाता है; जैसे,इंदारा, सिंचाई, संज्ञाएँ, ढेकी, इत्यादि ।

[ सूचना-जहां उच्चारण में भ्रम होने की संभावना हो वहाँ अनुस्वार और चंद्र-बिंदु पृथक् पृथक् लिखे जाय; जैसे अंधेर ( अन्धेर ), अंधेरा, इत्यादि । ] ।

५१–विसर्ग (:) कंठ्य वर्ण है। इसके उच्चारण में ह्, के उच्चारण को एक झटका सा देकर श्वास को मुंह से एक दम छोड़ते हैं। अनुस्वार वा अनुनासिक के समान विसर्ग का उच्चारण भी किसी स्वर के पश्चात्ता होता है। यह हकार की अपेक्षा कुछ धीमा बोला जाता है; जैसे, दुःख, अंतःकरण, छिः हः, इत्यादि

[ सूचना--किसी किसी वैयाकरण के मतानुसार विसर्ग का उच्चारण केवल हृदय में होता है और मुख के अवयवों से उसका कोई संबंध नहीं रहता। ]

५२-संयुक्त व्यंजन के पूर्व ह्रस्व स्वर का उच्चारण कुछ झटके के साथ होता है, जिससे दोनों व्यंजनों का उच्चारण स्पष्ट हो जाता है, जैसे, सत्य, अड्डा, पत्थर, इत्यादि । हिंदी में म्ह, न्ह, आदि का उच्चारण इसके विरुद्ध होता है; जैसे, तुम्हारा, उन्हें, कुल्हाड़ी,सह्यो ।

५३—दो महाप्राण व्यंजनों का उच्चारण एक साथ नहीं हो सकती, इसलिए उनके संयोग में पूर्व वर्ण अल्पप्राण ही रहता है, जैसे, रक्खा, अच्छा, पत्थर, इत्यादि।

५४-उर्दू के प्रभाव से ज और फ का एक एक और उच्चारण होता है। ज का दूसरा उच्चारण दंत-तालव्य और फ का दंतोष्ठ्य है। इन उच्चारणों के लिए अक्षरों के नीचे एक एक बिंदी लगाते हैं, जैसे, फुरसत, जरूरत, इत्यादि । ज और फ़ से अंगरेजी के भी कुछ अक्षरों का उच्चारण प्रकट होता है, जैसे, फीस, स्वेज, इत्यादि ।

५५–हिंदी में ज्ञ का उच्चारण बहुधा 'ग्य' के सदृश होता है। महाराष्ट्र लोग इसका उच्चारण ‘द्नय् के समान करते हैं। पर इसका शुद्ध उच्चारण प्रायः ‘ज्यँ' के समान है।


चौथा अध्याय

स्वराघात

५६-शब्दों के उच्चारण मे अक्षरों पर जो जोर (धक्का) लगता है उसे स्वराघात कहते हैं । हिदी मे अपूर्णाचरित अ (४० वाँ अंक ) जिस अक्षर में आता है उसके पूर्ववर्ती अक्षर के स्वर का उच्चारण कुछ लंबा होता है, जैसे 'घर' शब्द में अत्य ' अ ' का उच्चारण अपूर्ण है, इसलिए उसके पूर्ववर्ती 'घ' के स्वर का उच्चारण कुछ झटके के साथ करना पड़ता है। इसी तरह संयुक्त व्यंजन के पहले के अक्षर पर (५२ वॉ अंक ) जोर पड़ता है,
उच्चारण आघात के साथ होता है। स्वराघात-संबंधी कुछ नियम नीचे दिये जाते हैं---


( क ) यदि शब्द के अंत में अपूर्णांचरित अ आवे तो उपांत्य अक्षर पर जोर पड़ता है; जैसे, घर, झाड़, सड़क, इत्यादि।


( ख ) यदि शब्द के मध्य-भाग में अपूर्णाञ्चरित अ आवे तो उसके पूर्व- वर्ती अक्षर पर आघात होता है, जैसे, अनबन, बोलकर, दिनभर !


( ग ) संयुक्त व्यंजन के पूर्ववर्ती अक्षर पर जोर पड़ता है; जैसे, हल्ला,आज्ञा, चिता, इत्यादि ।।


( घ ) विसर्ग-युक्त अक्षर का उच्चारण झटके के साथ होता है; जैसे, दुःख, अंतःकरण ।


( च ) यौगिक शब्दों में मूल अवयवों के अक्षरों को जोर जैसा को तैसा रहता है; जैसे, गुणवान् , जलमय, प्रेमसागर, इत्यादि ।


( छ ) शब्द के आरंभ का अ कभी अपूणोंचरित नहीं होता; जैसे घर, सड़क, कपड़ा, तलवार, इत्यादि ।

५७-संस्कृत ( वा हिंदी ) शब्दों में इ, उ वा ऋ के पूर्ववर्ती स्वर का उच्चारण कुछ लंबा होता है; जैसे, हरि, साधु, समुदाय, धातु, पितृ, मातृ, इत्यादि ।

५८---यदि शब्द के एकही रूप से कई अर्थ निकलते हैं तो इन अर्थों का अंतर केवल स्वराघात से जाना जाता है; जैसे, बढ़ा' शब्द विधिकाल और सामान्य भृतकाल, दोनों में आता है, इसलिए विधिकाल के अर्थ में ' बढ़ा' के अंत्य 'आ' पर जोर दिया जाता है। इसी प्रकार की संबंधकारक की स्त्रीलिंग-विभक्ति और सामान्य भूतकाल का स्त्रीलिंग एकवचन रूप है, इसलिएर क्रिया के अर्थ में 'की' का उच्चारण आघात के साथ होता है ।

[सूचना-हिंदी में संस्कृत के समान स्वराघात सूचित करने के लिए चिह्न का उपयोग भी नहीं होता।]  

देवनागरी वर्णमाला का कोष्ठक।
स्थान अघोष घोष
स्पर्श ऊष्म ऊष्म स्पर्श स्वर
अल्पप्राण महाप्राण महाप्राण महाप्राण अल्पप्राण महाप्राण +अल्पप्राण (अनुनासिक) अंतस्थ ह्रस्व दीर्घ संयुक्त
कंठ
तालु ए ऐ[]
मूर्द्धा
दंत
ओष्ठ [] ओ औ[]
ड़, ढ़=द्विस्पृष्ट, ज=दंत-तालव्य, फ=दत्तोष्ठ्य। स्थान +नासिका
  1. कंठ+तालु
  2. दंत+ओष्ठ
  3. कंठ+ओष्ठ
 

 

पाँचवाँ अध्याय।
संधि।

५९—दो निर्दिष्ट अक्षरों के पास पास आने के कारण उनके मेल से जो विकार होता है उसे संधि कहते हैं। संधि और संयोग में (१८ वॉ अंक) यह अंतर है कि संयोग में अक्षर जैसे के तैसे रहते हैं, परंतु संधि में उच्चारण के नियमानुसार दो अक्षरों के मेल में उनकी जगह कोई भिन्न अक्षर हो जाता है।

सूचना—संधि का विषय संस्कृत व्याकरण से संबंध रखता है। संस्कृत- भाषा में पदसिद्धि, समास और वाक्यों में संधि का प्रयोजन पड़ता है, परंतु हिंदी में संधि के नियमों से मिले हुए संस्कृत के जो समासिक शब्द आते हैं, केवल उन्हीं के संबंध से इस विषय के निरूपण की आवश्यकता होती है।]

६०—संधि तीन प्रकार की है—(१) स्वर-संधि (२) व्यंजन-संधि और (३) विसर्ग-संधि।

(१) दो स्वरों के पास पास आने से जो संधि होती है उसे स्वर-संधि कहते हैं; जैसे, राम+अवतार=राम्+अ+अ+वतार=राम्+आ+वतार=रामावतार।

(२) जिन दो वर्णों में संधि होती है उनमें से पहला वर्ण व्यंजन हो और दूसरा वर्ण चाहे स्वर हो चाहे व्यंजन, तो उनकी संधि को व्यंजन-संधि कहते हैं; जैसे, जगत्+ईश=जगदीश, जगत्+नाथ=जगन्नाथ।

(३) विसर्ग के साथ स्वर वा व्यंजन की संधि को विसर्ग संधि कहते हैं; जैसे, तपः+वन=तपोवन, निः+अंतर=निरंतर।

स्वर-संधि।

६१—यदि दो सवर्ण (सजातीय) स्वर पास पास आवे तो दोनों के बदले सवर्ण दीर्घ स्वर होता है; जैसे—

(क) अ और आ की संधि—

अ+अ=आ—कल्प+अंत=कल्पांत; परम+अर्थ=परमार्थ।
अ+आ=आ—रत्न+आकर=रत्नाकर; कुश+आसन=कुशासन।

आ+अ=आ—रेखा+अंश-रेखांश, विद्या+अभ्यास=विद्याभ्यास।

आ+आ=आ–महा+आशय=महाशय; वार्त्ता+आलाप=वार्त्तालाप। ( ख ) इ और ई की संधि--

इ+इ= ई–गिरि + इंद्र=गिरींद्र,

इ+ई = ई-कपि+ ईश्वर= कपीश्वर।

ई + ई = ई-जानकी + ईश-जानकीश ।

ई+इ=ई–मही + इंद्र=महींद्र ।

( ग ) उ, ऊ की संधि--

उ+ उ = ऊ–भानु + उदय=भानूदय ।

उ+ऊ=ऊ—लघु + ऊर्मि=लधूमि ।

ऊ+ ऊ=ऊ-भू + ऊर्द्ध= भूर्द्ध।

ऊ+ उ==ऊ-वधू + उत्सव= वधूत्सव ।

( घ) ऋ, ऋ की संधि--

ऋ के संबंध से संस्कृत व्याकरणों में बहुधा मातृ ऋण= मातृण, यह उदाहरण दिया जाता है, पर इस उदाहरण में भी विकल्प से ‘भातृण’ रूप होता है। इससे प्रकट है कि दीर्घ ऋ की आवश्यकता नहीं है।

६२-–-यदि अ वा आ के आगे इ वा ई रहे तो दोनों मिलकर ए, उ वा ऊ रहे तो दोनों मिलकर ओ, और ऋ रहे तो अर् हो जाता है। इस विकार को गुण कहते हैं।

उदाहरण

अ-+इ=ए-देव+इंद्र= देवेद्र ।

अ+ई =ए–सुर+ईश =सुरेश ।

अ +इ=ए—महा+इंद्र=महेंद्र ।

आ+ई=ए-रमा+ईश-रमेश ।

अ+उ =ओ-चंद्र+उद्य= चंद्रोदय ।

अ+ ऊ=ओ-समुद्र + ऊर्मि= समुद्रोमि ।

आ+ उ =ओ-महा + उत्सव=महोत्सव । आ+ ऊ= ओ-महा+ऊरु= महोरु । अ+ ऋ = अर्-सप्त+ऋषि =सप्तर्षि । आ + ऋ =अर्-महा+ऋषि= महर्षि ।

अपवाद--ख + ईर = खैर; अक्ष+ ऊहिनी = अक्षौहिणी - -उढ = प्रौढ़; सुख + ऋत = सुखार्त ; दश + ऋण = दशार्ण,आदि ।

६३--अकार वा आकार के आगे ए वा ऐ हो तो दोनों लकर ऐ, और ओ वा औं रहे तो दोनों मिलकर औ होता है। तु विकार को वृद्धि कहते हैं । यथा-

अ + ए =ऐ--एक-+एक= एकैक ।

अ+ ऐ=ऐ--मत + ऐक्य = मतैक्य ।

आ+ए= ऐसदा + एव= सदैव ।

आ+ ऐ=ऐ—महा + ऐश्वर्य= महैश्वर्य ।

अ +ओ=औ-जल+ ओघ=जलौघ ।

अ +ओ =औ–महा + ओज =महौज ।।

अ+औ= --परम-+ औपध=परमौषध ।

आ+ औ=औ–महा + औदार्य = महौदार्य ।

अपवाद-अ अथवा आ के आगे ओष्ठ शब्द आवे तो विकल्प से ओ अथवा औ होता है; जैसे, विव+ओष्ठ = बिबोष्ठ वा विवौष्ठ;अधर+ओष्ठ=अधरोष्ठ वा अधरौष्ठ ।

६४-हस्व वा दीर्घ इकार, उकार वा ऋकार के आगे कोई असवणं (विजातीय ) रवर आवे तो इ ई के बदले य्, उ ऊ के बदले व् , और ऋ के बदले र् होता हैं । इस विकार को यण कहते हैं। जैसे,

( क ) इ+अ = य-यदि + अपि यद्यपि ।

इ+ = या-इति + आदि = इत्यादि । इ+उ= यु–प्रति+उपकार = प्रत्युपकार ।

इ+ ऊ=यू–नि +ऊन=न्यून ।

इ+ ए = ये--प्रति + एक प्रत्येक ।

ई+अ +य +नदी +अर्पण= नद्यर्पण ।

ई+ आ = यु--देवी + आगमन देव्यागम ।

ई-+ उ = यु-सखी + उचित = सख्युचित ।

ई+ऊ=यू -नदी + ऊर्मि=नघूर्मि ।

ई+ऐ=यै---देवी +ऐश्वर्य = देव्यैश्वर्य ।

(ख) उ+अ=व-मनु+अंतर = मन्वंतर ।

उ+ आ = वा–सु+आगत = स्वागत ।

ऊ-+ इ = वि--अनु + इत= अन्वित ।

ऊ+ ए = वे—अनु + एषण= अन्वेषण ।

(ग) ऋ+अ =र—पितृ+ अनुमति = पित्रनुमति ।

ऋ+ आ =रा–मातृ+ आनंद = मात्रानंद ।

६५-ए, ऐ, ओ चा औ के आगे कोई भिन्न स्वर हो तो इनके स्थान में क्रमशः अय् , आय् , अव् वा आव् होता है, जैसे-

ने + अन = न् + ए+अ+न= न्+अय् + अन = नयन ।

गै + अन =ग् +ऐ+अ+न=ग् + आय् + अ +न =गायन ।।

गो-+ ईश= ग्+ओ+ई+श=ग् +अव् + इ +श= गवीश।

नौ + इक= म् + औ + इ +क=न् + आव् + इ + क = . नाविक ।

६६-ए वा ओ के आगे अ आवे तो अ का लोप हो जाता हैं और उसके स्थान में लुप्त अकार (s) का चिह्न कर देते हैं; जैसे, ते + अपि= तेऽपि ( रामा० ); सो + अनुमानै=सोऽनुमानै ( हिं० प्र०); यो + असि = योऽसि (रामा० )

[ सूचना-हिंदी में इस संधि का प्रचार नहीं है ।

व्यंजन-संधि

६७–क् , च्, ट्, प् के आगे अनुनासिक को छोड़कर कोई घोष वर्ण हो तो उनके स्थान में क्रम से वर्ग का तीसरा अक्षर हो जाता है; जैसे--

दिक् + गज =दिग्गज; वाक् + ईश = वागीश ।

षट + रिपु= षड्रिपु; पद्+आनन = पढानन ।

अप् +अ = अब्ज; अच् + अंत= अर्जत ।।

६८-- किसी वर्ग के प्रथम अक्षर से परे कोई अनुनासिक वर्ण हो तो प्रथम वर्ण के बदले उसी वर्ग का अनुनासिक वर्ण हो जाता हैं; जैसे -

वाक् + मर्य= वाड्मय ; पट् + मास = परमास ।

अप +मय= अम्मय; जगत् +नाथ = जगन्नाथ ।

६६-त् के आगे कोई स्वर, ग, घ, द, ध, व, भ, अथवा य, र, च रहे तो त् के स्थान मैं द् होगा; जैसे-

सत् + आनंद = सदानंद; जगत् + ईश= जगदीश !

उत् + गम् = उद्गम; सत् + धर्म = सद्धर्म ।

भगवत् + भक्ति = भगवद्भक्ति; तत् + रूप = तद्रूप ।

७०-त् वा द् के आगे च वा छ हो तो त् वा द् के स्थान मैं चू होता है; ज वा झ हो तो ज् ; ट चा ठ हो तो ट् : ड वा ढ हो तो ड्; और ल हो तो ल् होता है; जैसे-

उत् + चारण = उच्चारण; शरद् + चंद्र=शरचंद्र ।

महत् + छत्र= महच्छत्र; सत् +जन = सज्जन ।

विपद् + जाल= विपञ्जाल; तम् + लीन= तल्लीन । ७१–त् वा द् के आगे श हो तो त् चा द् के बदले च् और श के बदले छ होता है, और न वा द् के आगे ह हो तो त् वा द् के स्थान मे द् और ह के स्थान में घ होता है; जैसे---

सत् + शास्त्र =सच्छास्त्र, उत् + हार= उद्धार ।

७२—छ के पूर्व स्वर हो तो छ के बदले च्छ होता है; जैसे-

अ +छादन =आच्छादन, परि+छेद = परिच्छेद ।

७३–म् के आगे स्पर्श-वर्ण हो तो म् के बदले विकल्प से अनुस्वार अथवा उसी वर्ग का अनुनासिक वर्ण आता है, जैसे-

सम् + कल्प= सकल्प वा सङ्कल्प ।

किम् + चित् =किंचित् वा किञ्चित् ।

सन् +तोष = संतोष वा सन्तोष ।।

सम् + पूर्ण =संपूर्ण वा सम्पूर्ण ।

७४-म् के आगे अंतस्थ वा ऊष्म वर्ण हो तो म् अनुस्वार में बदल जाती है, जैसे-

किम् + वा=किवा, सम् + हार =संहार !

सम्+योग= संयोग , सम् + वाद = संवाद ।

अपवाद सम् + राज= सम्राज

७५-ऋ, र वा ष के आगे न हो और इनके बीच मैं चाहे कोई स्वर, कवर्ग, पवर्ग, अनुस्वार य, व, ह आवे तो न का ण हो जाता है, जैसे-

भर् + अन = भरण, भूप् +अन= भूषण ।

प्र+मान = प्रमाण, राम+अयन = रामायण ।

तृष् + ना = तृष्णा ; ऋ+न= ऋण ।

७६–यदि किसी शब्द के आद्य स के पूर्व अ, आ को छोड़ कोई स्वर आवे तो स के स्थान में ष होता है, जैसे- .. :

अभि + सेक= अभिषेक, नि + सिद्ध =निषिद्ध। वि+सम = विषम; सु + सुप्ति= सुषुप्ति ।।

( अ ) जिस संस्कृत धातु में पहले से हो और उसके पश्चात् ऋ वा र, उससे बने हुए शब्द का स पूर्वोक्त वर्षों के पीछे आने पर प नहीं होता ; जैसे-

वि +स्मरण ( स्मृ--धातु )= विस्मरण ।

अनु + सरण (स-धातु) अनुसरण ।

वि + सर्ग (सृज्-धातु)= चिसर्ग ।

७७-यौगिक शब्दों में यदि प्रथम शब्द के अंत में न हो तो उसका लोप होता है; जैसे-

राजन्+ आज्ञा=राजाज्ञा; हस्तिन्+ दंत= हस्तिदंत । प्राणिन्+ मात्र=प्राणिमात्र, घनिन्+त्व = धनित्व ।

(अ) अहन् शब्द के आगे कोई भी वर्ण आवे तो अंत्य न के बदले र होता है, पर रात्रि, रूप शब्दों के आने से न को उ होता है, और संधि के नियमानुसार अ+उ मिल कर ओ हो जाता है, जैसे-

अहन् -+गण= अहर्गण; अन् = मुख= अहर्मुख ।

अहन् + रात्र= अहोरात्र, अहन् + रूप = अहोरूप ।

विसर्ग संधि

७८-यदि विसर्ग के आगे च वा छ हो तो विसर्ग का श हो जाता है; ट वा ठ हो तो प; और त वा थ हो तो स् होता है; जैसे-

निः + चल= निश्चल; धनुः +टंकार = धनुष्टंकार।

निः + छिद्र = निश्छिद्र , मन.+ताप=मनस्ताप ।

७६-विसर्ग के पश्चात् 'श् , ष् स् आवे तो विसर्ग जैसा का तैसा रहता है अथवा उसके स्थान में आगे का वर्ण हो जाता है, जैसे-~--

दुः+ शासन =दुःशासन वा दुश्शासन । निः + संदेह= निःसंदेह वा निस्संदेह ।

८०---विसर्ग के आगे क, ख वा प, फ आवे तो विसर्ग का कोई विकार नहीं होता ; जैसे-

रजः + कण = रजः कण, पयः+पान = पयः पान (हिं०-पयपान)।

(अ) यदि विसर्ग के पूर्व इ वा उ हो तो क, ख वा प, फ के पहले विसर्ग के बदले ष् होता है, जैसे-

निः +कपट= निष्कपट ; दुः+कर्म = दुष्कर्म ।

निः = फल =निष्फल, दु. + प्रकृति = दुष्प्रकृति ।

अपवाद-दुः+ ख= दु.ख, निः + पक्ष = निःपक्ष वा निष्पक्ष ।

(आ) कुछ शब्दों में विसर्ग के बदले स् आता है, जैसे--

नम + कार=नमस्कार, पुरः + कार पुरस्काए ।

भा. + कर = भास्कर, भा’ + पति= भास्पति ।

८१—यदि विसर्ग के पूर्व अ हो और आगे घोप-व्यंजन हो तो अ और विसर्ग ( अ ) के बदले ओ हो जाता है, जैसे-

अधः + गति = अधोगति, मन’ + योग= मनोयोग । तेज' + राशि= तेजोराशि , वयः +वृद्ध= वयोवृद्ध ।

[ सूचना-वनोवास और मनोकामना शब्द अशुद्ध हैं।

(अ) यदि विसर्ग के पूर्व अ हो और आगे भी अ हो तो ओ के पश्चात् दूसरे अ का लोप हो जाता है और उसके बदले लुप्त अकार का चिन्ह ऽ कर देते हैं ( ६६ वा अंक ), जैसे-

प्रथम' +अध्याय-प्रथमोऽध्याय ।

मनः + अनुसार= मनोऽनुसार।

८२-यदि विसर्ग के पहले अ, आ को छोड़कर और कोई स्वर हो और आगे कोई घोष-वर्ण हो तो विसर्ग के स्थान में र् होता है; जैसे---

नि, अशा =निराशा, दुः+ उपयोग= दुरुपयोग । निःगुण = निर्गुण; बहिः + मुख= बहिर्मुख । (अ) यदि र के आगे र हो तो र् का लोप हो जाता है और उसके पूर्व का ह्रस्व स्वर दीर्घ कर दिया जाता है, जैसे--

निः + रस = नीरस; निः +रोग=नीरोग;

पुनर् + रचना=पुनारचना ।

८३--यदि अकार के आगे विसर्ग हो और उसके आगे अ को छोड़कर कोई और स्वर हो तो विसर्ग का लोप हो जाना है और पास पास आये हुए स्वरों की फिर संधि नहीं होती; जैसे--

अतः + एव = अतएव ।

८४---अंत्य स् के बदले विसर्ग हो जाता है; इसलिए विसर्ग- संबंधी पूर्वोक्त नियम स के विषय में भी काम देता है। ऊपर दिये हुए विसर्ग के उदाहरणों में ही कहीं कहीं मूल से है; जैसे---

अधस्’ + गति = अधः+गति = अधोगति।।

निस् +गुण= निः +गुण== निर्गुण ।

तेजस् +पुंज = तेजः +पुंज= तेजोपुंज ।

यशस् + दा =यशः + दा= यशोदी ।

८५---अंत्य र के बदले भी विसर्ग होता है। यदि र् के आगे अघोष-वर्णं आवे तो विसर्ग का कोई विकार नहीं होता ( ७९ वॉ अंक ); और उसके आगे धोप-वर्ण आवे तो र् ज्यों का त्यों रहता हैं ( ८२ वॉ अंक ); जैसे-

प्रातर् + काल= प्रातःकाल ।

अंतर् + करण = अंतःकरण ।

अंतर् + पुर= अंतःपुर ।

पुनर् + उक्ति=पुनरुक्ति ।

पुनर् + जन्म = पुनर्जन्म ।