हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/२/४ उत्तर-काल/बिहारी

हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

पटना विश्वविद्यालय, पृष्ठ ३४० से – ३५३ तक

 

इस बात का उदाहरण है कि घट में समुद्र कैसे भरा जाता है । गोस्वामी तुलसीदास की रामायण छोड़ कर और किसी ग्रन्थ को इतनी सर्व-प्रियता नहीं प्राप्त हुई जितनी "बिहारी सतसई को"। रामचरित मानस के अतिरिक्त और कोई ग्रन्थ ऐसा नहीं है कि उसकी उतनी टीकायें बनी हों जितनी सतसई की। अब तक बन चुकी हैं। बिहारी लाल के दोहाओं के दो चरण बड़े बड़े कवियों के कवित्तों के चार चरणों और सहृदय कवियों के रचे हुये छप्पयों के छः चरणों से अधिकतर भाव-व्यंजन में समर्थ और प्रभावशालिता में दक्ष देखे जाते हैं। एक अंग्रेज़ विद्वान् का यह कथन कि "Brevity is the soul of wit and it is also the soul of art' 'संक्षिप्तता काव्य चातुरी की आत्मा तो है ही, कला की भी आत्मा है।" बिहारी की रचना पर अक्षरशः घटित होता है। बिहारी की रचनाओं की पंक्तियों को पढ़ कर एक संस्कृत विद्वान् की इस मधुर उक्ति में संदेह नहीं रह जाता कि “अक्षराः कामधेनवः !” (अक्षर कामधेनु हैं ) वास्तव में बिहारी के दोहों के अक्षर कामधेनु हैं जो अनेक सूत्र से अभिमत फल प्रदान करते हैं । उनको पठन कर जहां हृदय में आनंद का स्रोत उमड़ उठता है वहीं विमुग्ध मन नंदन कानन में बिहार करने लाता है। यदि उनकी भारती रस-धारा प्रवाहित करती है तो उनकी भाव-व्यंजना पाठकों पर अमृत-बर्षा करने लगती है । सतसई का शब्दविन्यास जैसा ही अपूर्व है वैसा ही विलक्षण उसमें झंकार है। काव्य एवं साहित्य का कोई गुण ऐसा नहीं जो मूर्तिमन्त हो कर इस ग्रन्थ में विराजमान न हो और कवि कर्म की ऐसी कोई विभूति नहीं जो इसमें सुविकसित दृष्टिगत न हो। मानसिक सुकुमार भावों का ऐसा सरस चित्रण किसी साहित्य में है या नहीं, यह नहीं कहा जा सकता । परन्तु जी यही कहता है कि यह मान लिया जावे कि यदि होगा तो ऐसा ही होगा किन्तु यह लोच कहाँ ? इस ग्रन्थ में शृंगार रस तो प्रवाहित है ही, यत्र तत्र अनेक सांसारिक विषयों का भी इसमें बड़ा ही मर्म-स्पर्शी वर्णन है। अनेक रहस्यों का इसमें कहीं कहीं ऐसा निरूपण है जो उसकी स्वाभाविकता का सच्चा चित्र आंखों के सामने ला कर खड़ा करता है। बिहारी लाल ने अपने पूर्ववर्ती संस्कृत अथवा भाषा कवियों के भाव कहीं कहीं लिये हैं। परन्तु उनको ऐसा चमका दिया है कि यह ज्ञात होता है, कि घन-पटल से बाहर निकल कर हँसता हुआ मयंक सामने आ गया। इनकी सतसई के अनुकरण में और कई सतसइयां लिखी गई, जिनमें से चंदन, विक्रम और रामसहाय की अधिक प्रसिद्ध हैं, परन्तु उस बूंद से भेंट कहां ! पीतल सोना का सामना नहीं कर सकता । संस्कृत में भी इस सतसई का पूरा अनुवाद पंडित परमानंद ने किया है और इसमें कोई सन्देह नहीं कि उन्होंने कमाल किया है । परन्तु मूल मूल है और अनुवाद अनुवाद।

बिहारीलालकी सतसई का आधार कोई विशेष ग्रन्थ है अथवा वह स्वयं उनकी प्रतिभा का विकास है, जब यह विचार किया जाता है तो दृष्टि संस्कृत के 'आर्या-सप्तशती' एवं गोवर्धन सप्तशती की ओर आकर्षित होती है। निस्सन्देह इन ग्रन्थों में भी कवि-कर्म का सुन्दर रूप दृष्टिगत होता है। परन्तु मेरा विचार है कि रस निचोड़ने में बिहारीलाल इन ग्रन्थ के रचयिताओं से अधिक निपुण हैं। जिन विषयों का उन लोगों ने विस्तृत वर्णन करके भी सफलता नहीं प्राप्त की उनको बिहारीने थोड़े शब्द में लिख कर अद्भुत चमत्कार दिखलाया है। इस अवसर पर कृपा राम की 'हित तरंगिनी, भी स्मृतिपथ में आती है। परन्तु प्रथम तो उस ग्रन्थ में लगभग चार सौ दोहे हैं, दूसरी बात यह कि उनकी कृति में ललित कला इतनी विकसित नहीं है जितनी बिहारीलाल की उक्तियों में । उन्होंने संक्षिप्तता का राग अलापा है, परन्तु विहारीलाल के समान वे इत्र निकालने में समर्थ नहीं हुये। उनके कुछ दोहे नीचे लिखे जाते हैं। उनको देखकर आप स्वयं विचारें कि क्या उनमें भी वही सरसता, हृदयग्राहिता और सुन्दर शब्द-चयन-प्रवृत्ति पाई जातो है जैसी बिहारीलाल के दोहोंमें मिलती है ।

लोचन चपल कटाच्छ सर, अनियारे विष पूरि ।
मन मृग बेधैं मुनिन के, जगजन सहित विसरि ।
आजु सबारे हौं गयी, नंद लाल हित ताल |
कुमुद कुमुदिनी के भटू निरखे और हाल ।

 

पति आयो परदेस ते, ऋतु बसंत की मानि ।
अमकि झमकि निज महल में, टहलै करैं सुरानि।

बिहारी के दोहों के सामने ये दोहे ऐसे ज्ञात होते हैं जैसे रेशम के लच्छों के सामने सूत के डोरे । संभव है कि हित-तंरगिणी को बिहारी लाल ने देखा हो, परन्तु वे कृपाराम को बहुत पीछे छोड़ गये हैं। मेरा बिचार है कि बिहारीलाल को रचनाओं पर यदि कुछ प्रभाव पड़ा है तो उस काल के प्रचलित फ़ारसी साहित्य का। उर्दू शाइरी का तो तब तक जन्म भी नहीं हुआ था। फ़ारसी का प्रभाव उस समय अवश्य देश में विस्तार लाभ कर रहा था क्यों कि अकबर के समय में ही दफ़्तर फ़ारसी में हो गया था और हिन्दू लोग फ़ारसी पढ़ पढ़ कर उसमें प्रवेश करने लगे थे। फारसी के दो बन्द के शेरों में चुने शब्दों के आधार से वैसी ही बहुत कुछ काव्य-कला विकसित दृष्टिगत होती है जैसा कि बिहारी लाल के दो चरण के दोहों में । उत्तर काल में उर्दू शाइरी में फ़ारसी रचनाओं का यह गुण स्पष्टतया दृष्टिगत हुआ। परन्तु बिहारीलाल को ग्चनाओं के विषय में असंदिग्ध रीति से यह बात नहीं कही जा सकती, क्योंकि अब तक विहारोलाल के विषय में जो ज्ञात है उससे यह पता नहीं चलता कि उन्होंने फ़ारसी भी पढ़ी थी। जो हो, परंतु यह बात अवश्य माननी पड़ेगी कि बिहारीलालके दोहों में जो थोड़े में बहुत कुछ कह जाने की शक्ति है वह अद्भत है। चाहे यह उनकी प्रतिभा का स्वाभाविक विकास हो अथवा अन्य कोई आधार, इस विषय में निश्चित रूपस कुछ नहीं कहा जा सकता।

अब मैं उनको कुछ रचनायें आप लोगों के सम्मुख उपस्थित करूंगा विहारी लाल को शृंगार रस का महाकवि सभी ने माना है। इसलिये उसको छोड़कर पहले मैं उनको कुछ अन्य रस की रचनायें आप लोगों के सामने रखता हूं। आप देखिये उनमें वह गुण और वह सार ग्राहिता है या नहीं जो उनकी रचनाओं को विशेषतायें हैं। संसार का जाल कौन नहीं तोड़ना चाहता पर कौन उसे तोड़ सका ? मनुष्य जितनी ही इस उलझन के सुलझाने की चेष्टा करता है उतना ही वह उसमें उलझता जाता है। इस गम्भीर विषय को एक अन्योक्ति के द्वारा बिहारीलाल ने जिस सुन्दरता और सरसता के साथ कहा है वह अभूतपूर्व है। वास्तव में उनके थोड़े से शब्दों ने बहुत बड़े व्यापक सिद्धांत पर प्रकाश डाला है:-

को छूट्यो येहि जाल परि कत कुरंग अकुलात।
ज्यों २ सरुझि भज्यो चहै त्यों २ अरुझ्यो जात॥

यौवन का प्रमाद मनुष्य से क्या नहीं कराता?, उसके प्रपंचों में पड़ कर कितने नाना संकटों में पड़े, कितने अपने को बरबाद कर बैठे, कितने पाप-पंक में निमग्न हुये, कितने जीवन से हाथ धो बैठे और कितनोंही ने उसके रस से भींग कर अपने सरस जीवन को नीरस बना लिया। हम आप नित्य इस प्रकार का दृश्य देखते रहते हैं। इस भाव को किस प्रकार बिहारीलाल चित्रण करते हैं उसे देखिये:-

इक भींजे चहले परे बूड़े बहे हजार।
किते न औगुन जग करत नै बै चढ़तीबार॥

परमात्मा आंख वालों के लिये सर्वत्र है। परंतु आज तक उसको कौन देख पाया? कहा जा सकता है कि हृदय की आंख से ही उसे देख सकते हैं, चर्म-चक्षुओं से नहीं। चाहे जो कुछ हो, किन्तु यह सत्य है कि वह सर्व व्यापी है और एक एक फूल और एक एक पत्ता में उसकी कला विद्यमान है। शास्त्र तो यहां तक कहता है, कि 'सर्व खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्तिकिंचन। जो कुछ संसार में है वह सब ब्रह्म है, इसमें नानात्व कुछ नहीं है। फिर क्या रहस्य है कि हम उसको देख नहीं पाते? बिहारीलालजी इस विषय को जिस मार्मिकता से समझाते हैं उसकी सौ मुख से प्रशंसा की जा सकती है। वे कहते हैं:-

जगत जनायो जो सकल सो हरि जान्यो नाहिं।
जिमि आंखिनि सब देखिये आंखिन देखी जाहिं।

एक उर्दू शायर भी इस भाव को इस प्रकार वर्णन करता है:-

बेहिजाबी वह कि जल्वा हर जगह है आशिकार।
इसपर घूँघट वहकि सूरत आजतक नादीदा है॥

 

यह शेर भी बड़ा ही सुन्दर है। परन्तु भाव प्रकाशन किस में किस कोटि का है इसको प्रत्येक सहृदय स्वयं समझ सकता है। भावुक भक्त कमी कभी मचल जाते हैं और परमात्मा से भी परिहास करने लगते हैं। ऐसा करना उनका विनोद-प्रिय प्रेम है असंयत भाव नहीं। 'प्रेम लपेटे अटपटे बैन' किसे प्यारे नहीं लगते । इसी प्रकार एक उक्ति बिहारी की देखिये। वे अपनी कुटिलता को इसलिये प्यार करते हैं। जिसमें त्रिभंगीलाल को उनके चित्त में निवास करने में कष्ट न हो, क्योंकि यदि वे उसे सरल बनालेंगे तो वे उसमें सुख से कैसे निवास कर सकेंगे ? केसा सुन्दर परिहास है। वे कहते हैं:-

करौ कुबत जग कुटिलता तजौं न दीन दयाल ।
दुखी होहुगे सरल चित बसत त्रिभंगी लाल ।

परमात्मा सच प्रेम से ही प्राप्त होता है। क्योंकि वह सत्य स्वरूप है। जिसके हृदय में कपट भरा है उसमें वह अन्तर्यामी कैसे निवास कर सकता है जो शुद्धता का अनुरागी है ? जिसका मानस-पट खुला नहीं। उससे अन्तर्पट के स्वामी से पटे तो कैसे पटे ? इस विषय को बिहारी लाल देखिये कितने सुन्दर शब्दों में प्रकट करते हैं:-

तौ लगि या मन मदन में हरि आचैं केहि बाट ।
बिकट जटे जो लौं निपट खुलै न कपट कपाट ।

अब कुछ ऐसे पद्य देखिये जिनमें बिहारीलाल जी ने सांसारिक जीवन के अनेक परिवर्तनों पर सुन्दर प्रकाश डाला है:--

यद्यपि सुंदर सुघर पुनि सगुनौ दीपक देह।
नऊ प्रकास करै तितो भरिये जितो सनेह ।
जो चाहै चटकन घरै मैलो होय न मित्त ।
रज राजस न छुवाइये नेह चीकने चित्त ।
अति अगाध अति अथरो नदी कूप सर बाय ।

सो ताको सागर जहाँ जाकी प्यास बुझाय।
बढ़त बढ़त संपति सलिल मन सरोज बढ़ि जाय ।
घटत घटत पुनि ना घटै बरु समूल कुम्हिलाय ।
को कहि सके बड़ेन सों लखे बड़ीयौ भूल ।
दीन्हें दई गुलाब की इन डारन ये फूल ।

कुछ उनके शृंगार रस के दोहे देखियेः-

तरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय ।
सौंह करै भौंहन हँसै देन कहै नदि जाय ।
दृग अरुझत टूटत कुटुम जुरत चतुर चित प्रीति ।
परति गाँठ दुरजन हिये दई नई यह रीति ।
तच्यो आंच अति बिरह की रह्यो प्रेम रस भीजि ।
नैनन के मग जल बहँ हियो पसीजि पसीजि ।
सघन कुज छाया सुखद सीतल मन्द समीर ।
मन ह जात अजौं वहै वा यमुना के तीर ।
मानहुं विधि तनअच्छ छबि स्वच्छ राखिबे काज ।
दृग पग पोंछनको कियो भूखन पायंदाज ।

बिहारीलाल के उद्धृत दोहों में से सब का मर्म समझाने की यदि चेष्टा की जाय तो व्यर्थ विस्तार होगा. जो अपेक्षित नहीं । कुछ दोहों का मैंने स्पष्टो करण किया है। वही मार्ग ग्रहण करने से आशा है, काव्य मर्मज्ञ सुजन अन्य दोहों का अर्थ भी लगा लेंगे और उनकी व्यंजनाओं का मर्म समझ कर यथार्थ आनन्दलाभ करेंगे। बिहारी के दोहों का भी अधिक प्रचार है और सहृदय जनों पर उनका महत्व अप्रगट नहीं है । इसलिये उनके विषय में अधिक लिखना व्यर्थ है। मैं पहले उनको रचना आदि पर बहुत कुछ प्रकाश डाल चुका हूं। इतना फिर और कह देना चाहता हूं कि कला की दृष्टि से 'बिहारी सतसई' अपना उदाहरण आप है। कुछ लोगों ने बिहारी लाल की श्रृंगार सम्बन्धी रचनाओं पर व्यंग भी किये हैं और इस सूत्र से उनकी मानसिक वृत्ति पर कटाक्ष भी। मत भिन्नता स्वाभाविक है और मनुष्य अपने विचारों और भावों का अनुचर है। इसलिये मुझ को इस विषय में अधिक तर्क-वितर्क वांछनीय नहीं । परन्तु अपने विचारानुसार कुछ लिख देना भी संगत जान पड़ता है।

बिहारीलाल पर किसी किसी ने यह कटाक्ष किया है कि उनको दृष्टि सांसारिक भोग-विलास में ही अधिकतर वद्ध रही है। उन्होंने सांसारिक वासनाओं और विलासिताओं का सुंदर से सुंदर चित्र खींच कर लोगों को दृष्टि अपनी ओर आकर्षित की । न तो उस सत्य शिवं सुन्दरं' का तत्व समझा और न उसकी अलौकिक और लोकोत्तर लोलाओं और रहस्यों का अनुभव प्राप्त करने की यथार्थ चेष्टा की। वाह्य जगत् से अन्तर्जगत् अधिक विशाल और मनोरम है। यदि वे इसमें प्रवेश करते तो उनको वे महान् रत्न प्राप्त होते जिनके सामने उपलब्ध रत्न कांच के समान प्रतीत होते । परन्तु मैं कहूंगा न तो उन्हों ने अन्तर्जगत से मुहमोड़ा और न लोकोत्तरकी लोकोत्तरतासही अलग रहे । क्या स्त्रीका सौन्दर्य सत्यं शिवं सुन्दरम्' नहीं है ? कामिनी-कुलके सौन्दर्य में क्या ईश्वरीय विभूतिका विकास नहीं ? क्या उनकी सृष्टि लोक-मङ्गलकी कामनासे नहीं हुई ? क्या उनके हाव-भाव, विभ्रम-विलास लोकोपयोगी नहीं ? क्या विधाता ने उनमें इस प्रकार की शक्तियां उत्पन्न कर प्रवंचना की? और संसार को भ्रान्त बनाया ? मैं समझता हूं कि कोई तत्वज्ञ इसे न स्वीकार करेगा। यदि यह सत्य है कि संसार की रचना मङ्गलमयी है, तो इस प्रकार के प्रश्न हो हो नहीं सकते। जो परमात्मा की विभूतियां विश्व के समस्त पदार्थों में देखते हैं और यह जानते हैं कि परमात्मा सच्चिदानन्द है वे संसार की मङ्गलमयी और उपयोगी कृतियों को बुगे दृष्टि से नहीं देख सकते। यदि विहारीलाल ने स्त्री के सौन्दय-वर्णन में उच्च कोटि की कवि- कल्पना से काम लिया, उनके नाना आनन्दमय भावों के चित्रण में अपूर्व कौशल दिखलाया, मानस की सुकुमार वृत्तियों के निरूपण में सच्ची भावुकता प्रगट की। विश्व की सारभूत दो मङ्गलमयो मूर्तियों (स्त्री पुरुष) की मङ्गल- मयी कामनाओं की कमनीयता प्रदर्शित की और अपने पद्यों में शब्द और भाव विन्यास के मोती पिरोये तो क्या लोक-ललाम को लोकोत्तर लीलाओं को ही रूपान्तर से प्रगट नहीं किया ? और यदि यह सत्य है तो बिहारी लाल पर व्यंग-वाण वृष्टि क्यों ? मयंक में धब्बे हैं, फूल में कांटे हैं तो क्या उनमें सत्यं' 'शिव' सुन्दरम्' का बिकास नहीं है ? बिहारी की कुछ कवितायें प्रकृति नियमानुसार सर्वथा निर्दोप न हो तो क्या इससे उनकी समस्त रचनायें निंदनीय हैं ? लोक-ललाम की ललामता लोकोत्तर है, इसलिये क्या उसका लोक से कुछ सम्बन्ध नहीं ? क्या लोक से ही उसकी लोकोत्तरताका ज्ञान नहीं होता ? तो फिर. लोकका त्याग कैसे होगा ? निस्संदेह यह स्वीकार करना पड़ेगा कि लोक का सदुपयोग ही वांछनीय है, दुरुपयोग नहीं। जहाँ सत्य, शिवं सुन्दरम् है वहां उसको उसी रूप में ग्रहण करना कवि कर्म है। बिहारीलाल ने अधिकांश ऐसा ही किया है, वरन मैं तो यह कहूंगा कि उनकी कला पर गोस्वामी जी का यह कथन चरितार्थ होता है कि सुंदरता कहँ 'सुंदर करहीं। संसार में प्रत्येक प्राणो का कुछ काय होता है। अधिकारी-भेद भी होता है। संसार में कवि भी हैं वैज्ञानिक भी हैं, दार्शनिक भी हैं, तत्वज्ञ भी हैं एवं महात्मा भी। जो जिस रूप में कार्यक्षेत्र में आता है, हमको उसी रूपमें उसे ग्रहण करना चाहिये और देखना चाहिये कि उसने अपने क्षेत्रमें अपना कार्य करके कितनी सफलता लाभ की। कविकी आलोचना करते हुये उसके दार्शनिक और तत्वज्ञ न होनेका राग अलापना बुद्धिमत्ता नहीं । ऐसा करना प्रमाद है, विवेक नहीं। मेरा विचार है कि बिहारी लाल ने अपने क्षेत्र में जो कार्य किया है वह उल्लेखनीय है एवं प्रशंसनीय भी। यदि उनमें कुछ दुर्वलतायें हैं तो वे उनकी वशेषताओं के सम्मुख माजनीय हैं, क्योंकि यह स्वाभाविकता है, इससे कौन बचा ?

बिहारीलाल को भाषा के विषय में मुझे यह कहना है कि वह साहित्यिक ब्रजभाषा है। उसमें अवधी के 'दीन', 'कोन' इत्यादि, बुन्देलखण्डी के लखवी और प्राकृत के मित्त ऐसे शब्द भी मिलते हैं। परन्तु उनकी संख्या नितान्त अल्प है। ऐसे ही भाषागत और भी कुछ दोप उसमें मिलते हैं। किन्तु उनके महान भाषाधिकार के सामने वे सब नगण्य हैं। वास्तव बात तो यह है कि उन्होंने अपने ७०० दोहों में क्या भाषा और क्या भाव, क्या सौन्दर्य, क्या लालित्य सभी विचार से वह कौशल और प्रतिभा दिख- लायी है कि उस समय तक उनका ग्रन्थ समादर के हाथों से गृहीत होता रहेगा जब तक हिन्दी भाषा जीवित रहेगी ।।

बिहारी लाला के सम्बन्ध में डाक्टर जीः ए: ग्रियर्सन की सम्मति नीचे लिखी जाती है:-

“इस दुरूह ग्रन्थ (बिहारी सतसई) में काव्य-गत परिमार्जन, माधुर्य्य और अभिव्यक्ति-सम्बन्धी विदग्धता जिस रूप में पाई जाती है वह अन्य कवियों के लिये दुर्लभ है। अनेक अन्य कवियों ने उनका अनुकरण किया है, लेकिन इस विचित्र शैलो में यदि किसी ने उल्लेख-योग्य सफलता पायो है तो वह तुलसीदास हैं, जिन्होंने बिहारी लाल के पहले सन् १५८५ में एक सतसई लिखी थी। बिहारी के इस काव्य पर अगणित टीकायें लिखी गई हैं। इसकी दुरूहता और विदग्धता ऐसी है कि इसके अक्षरों को कामधेनु कह सकते हैं"। १

३–त्रिपाठी बन्धुओं में मतिराम और भूषण विशेष उल्लेख योग्य हैं। इनके बड़े भाई चिन्तामणि थे और छोटे नीलकंठ उपनाम जटाशंकर । | The elegance, poetic flavour, and ingenuity of Expression in this difficult work, are considered to have been unapproached by any other poet. He has been imitated by numerous other poets, but the only one who has achieved any considerable excellence in this pecu- liar style is Tulsidas (No 128) who preceded him by writing a Sats- ai ( trcating of Ram as Bihari Lall's treated of Krishna ) in the year 1585A. D. ................

Behari's poem has been dealt with by innumerable commentatorso Its difficulty and ingenuity one : 0 great that it is called a veritable: 'Akshar Kamdhenu.'

Modern Vernacular Literature of

Hindustan P.75

चारों भाई साहित्य के पारंगत थे और उन्हों ने अपने समय में बहुत कुछ

प्रतिष्ठा लाभ की। आजकल कुछ विवाद इस विषय में छिड़ गया है कि वास्तव में ये लोग परस्पर भाई थे या नहीं, परन्तु अब तक इस विषय में कोई ऐसी प्रमाणिक मीमांसा नहीं हुई कि चिरकाल को निश्चित बात को अनिश्चित मान लिया जावे। चिंतामणि राजा-महाराजाओं के यहाँ भी आहत थे। उन्होंने सुन्दर रोति-ग्रन्थों की रचना की है, जिनका नाम 'छन्द-बिचार', 'काव्य-विवेक', 'कविकुल कल्पतरूं' एवं 'काव्य-प्रकाश, है । उनकी बनाई एक रामायण भी है। परन्तु वह विशेष आहत नहीं हुई । कविता इनकी सुन्दर, सरस और परिमार्जित ब्रजभाषा का नमूना है । इनको गणना आचार्यों में होती है। कहा जाता है कि प्राकृत भाषा की कविता करने में भी ये कुशल थे। कुछ हिन्दी रचनायें देखियेः-

१ चोखी चरचा ज्ञान की आछी मन की जीति ।
संगति सजन की भली नीकी हरि की प्रीति ।

२- एइ उधारत हैं तिन्हें जे परे मोह
महादधि के जल फेरे ।
जे इनको पल ध्यान धरै मन ते
न पर कबहू जम घेरे ।
राजै रमा रमनी उपधान
अभै बरदान रहै जन नेरे ।
हैं बल भार उदंड भरे हरि के
भुज दंड सहायक मेरे ।

३-सरद ते जल की ज्यों दिन ते कमल की ज्यों,
धन ते ज्यों थल को निपट सरसाई है ।
घन ते सावन की ज्यों ओप ते रतन की ज्यों ।
गुन ते सुजन की ज्यों परम सहाई है ।

चिन्तामनि कहै आछे अच्छरनि छंद की ज्यों,
निसागम चंद की ज्यों दृग सुखदाई है ।
नगते ज्यों कंचन बसंत ते ज्यों बन की,
यों जोवन ते तन की निकाई अधिकाई है।

नीलकण्ठजी की रचनायें भी प्रसिद्ध हैं । किन्तु वे अधिकतर जटिल हैं। एक रचना उनकी भी देखियेः-

तन पर भारतीन तन पर भारतीन,

तन पर भारतीन तन पर भार हैं ।

पूजैं देव दार तीन पूर्जे देव दार तीन,

पूर्जे देवदार तीन पूजैं देवदार हैं।

नीलकंठ दारुन दलेल खां तिहारी धाक,

नाकती न द्वार ते वै नाकती पहार हैं।

आँधरेन कर गहे, बहरे न संग रहे,

बार छूटे बार छूटे बार छूटे बार हैं ।

इनमें मतिराम बड़े सहृदय कवि थे। ये भी राजा-महाराजाओं से सम्मानित थे। इन्होंने चार रीति ग्रन्थों की रचना की है। उनके नाम हैं. ललित ललाम. रस-ग़ज, छन्दसार और साहित्यसार। इनमें ललित ललाम और रस राज अधिक प्रसिद्ध हैं । इनकी और चिंतामणि की भाषा लगभग एक ही ढंग की है दोनों में वैदर्भी रीनि का सुन्दर विकास है। इनकी विशेषता यह है कि सीधे सादे शब्दों में ये कूट कूट कर रस भर देते हैं। जैसा इनकी रचना में प्रवाह मिलता है वेसा ही ओज । जेसे सुन्दर इनके कवित्त हैं वैसे हो सुन्दर सवेये । इनके अधिकतर दोहे बिहारीलाल के टक्कर के हैं. उनमें बड़ो मधुरता पायी जाती है। यदि इनके बड़े भाई चिन्तामणि नागपुर के सूर्यवंशी भोंसला मकरन्दशाह के यहां रहते थे, तो ये बून्दी के महाराज भाऊसिंह के यहां समाहत थे । इससे यह सूचित होता है कि उस समय ब्रजभाषा के कवियों की कितनी पहुंच राजदर्बारों में थी और उनका वहाँ कितना अधिक सम्मान था। देखिये कविवर मतिराम बूंदी का वर्णन किस सरसता से करते हैं:-

सदा प्रफुल्लित फलित जहँ द्रुम बेलिन के बाग ।

अलि कोकिल कल धुनि सुनत रहत श्रवन अनुराग।

कमल कुमुद कुबलयन के परिमल मधुर पराग ।

सुरभि सलिल पूरे जहाँ बापी कूप तड़ाग ।

सुक चकोर चातक चुहिल कोक मत्त कल हंस ।

जहँ तरवर सरवरन के लसत ललित अवतंस।

इनके कुछ अन्य पद्य भी देखियेः-

गुच्छनि के अवतंस लसै सिखि
     पच्छनि अच्छ किरीट बनायो ।

पल्लव लाल समेत छरी कर
       पल्लव में मति राम सुहायो ।

गुञ्जन के उर मंजुल हार
       निकुंजन ते कढ़ि बाहर आयो।

आजु को रूप लखे ब्रजराजु को
         आजु ही आंखिन को फल पायो ।

कुंदन को रँग फीको लगै झलकै
       असि अंगनि चारु गोराई ।

आंखिन मैं अलसानि चितौनि
     मैं मंजु बिलासनि की सरसाई ।

को बिन मोल बिकात नहीं
    मतिराम लहे मुसुकानि मिठाई ।

ज्यों ज्यों निहारिये नेरे हवै नैननि
त्यों त्यों खरी निकरै सुनिकाई ।
चरन धरै न भूमि बिहरै तहांई जहाँ
फूले फूले फूलन बिछायो परजंक है।
भार के डरनि सुकुमारि चारु अंगनि मैं
करति न अंगराग कुंकुम को पंक है।
कहै मतिराम देखि वातायन बीच आयो
आतप मलीन होत बदन मयंक है ।
कैसे वह बाल लाल बाहर विजन आवै
बिजन बयार लागे लचकति लंक है।

मतिराम को कोमल और सग्स शब्द माला पर किस प्रकार भाव- लहरी अठखेलियां करती चलती है' इसे आप ने देख लिया। उनके सीधे सादे चुने शब्द कितने सुंदर होते हैं. वे किस प्रकार कानों में सुधा वर्षण करते, और कसे हृदय में प्रवेश करके उसे भाव-विमुग्ध बनाते हैं, इसका आनंद भी आप लोगों ने लेलिया। वास्तव बात यह है कि जिन महाकवियों ने ब्रजभाषा की धाक हिन्दी साहित्य में जमादी उनमें से एक मतिराम भी हैं। मिश्रबन्धुओं ने इनकी गणना नव-पत्रों में की है। मैं भी इससे सहमत हूं। इनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है, परंतु उसमें उन्होंने ऐसी मिठास भरी है जो मानसों को मधुमय बनाये बिना नहीं रहती। साहित्यिक व्रजभाषा के लक्षण मैं ऊपर बतला आया हूं। उनपर यदि इनकी रचना कसो जावे तो उसमें भाव और भाषा-सम्बन्धी महत्ताओं की अधिकता ही पायी जायगी न्यूनता नहीं। उन्होंने जितने प्रसून ब्रज- भाषा देवी के चरणों पर चढ़ाये हैं, उनमें से अधिकांश सुविकसित और सुरभित हैं और यह उनकी सहृदयता को उल्लेखनीय विशेषता है।