हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास/२/३ हिन्दी साहित्य का माध्यमिककाल/मीरा
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(क)
इस सोलहवीं शताब्दी में और भी कितने ही प्रसिद्ध कवि हिन्दी भाषा के हो गये हैं। उनकी रचनाओं का उपस्थित किया जाना इस लिये आवश्यक है कि जिससे इस शताब्दी की व्यापक भाषा पर पूर्णतया विचार किया जा सके। इसी शताब्दी में एक भक्त स्त्री भी कवियित्री के रूप में सामने आती हैं और वे हैं मीराबाई। पहले मैं उनकी रचनाओं को आपके सामने उपस्थित करता हूं! मीराबाई बहुत प्रसिद्ध महिला हैं। वे चित्तौड़ के राणा की पुत्रवधू थीं। परन्तु उनमें त्याग इतना था कि उन्हों ने अपना समस्त जीवन भक्ति भाव में ही बिताया। उनके भजनों में इतनी प्रवलता से प्रेम-धारा बहती है कि उससे आर्द्र हुए बिना कोई सहृदय नहीं रह सकता। वह सच्ची वैष्णव महिला थीं और उनके भजनों के पद पद से उनका धर्मानुराग टपकता है इसी लिये उनकी गणना भगवद्भक्त स्त्रियों में होती है। उस काल के प्रसिद्ध सन्तों और महात्माओं में से उनका सम्मान किसी से कम नहीं है। उनकी कुछ रचनायें देखिये:—
"मेरे तो गिरधर गुपाल दूसरा न कोई।
दूसरा न कोई साधो सकल लोक जोई।
भाई तजा बन्धु तजा तजा सगा सोई।
साधु संग बैठि बैठि लोक लाज खोई।
भगत देखि राजी हुई जगत देखि रोई।
अँसुअन जल सींचि सींचि प्रेम बेलि बोई।
दधि मथ घृत काढ़ि लियो डार दई छोई।
राणा विष प्यालो भेज्यो पीय मगन हेाई।
अब तो बात फैलि गई जाणै सब कोई।
मीरा राम लगण लागी हेाणी होयसो होई।
२––एरी मैं तो प्रेम दिवाणी मेरा दरद न जाणे कोय।
सूली ऊपर सेज हमारी किस विध सोणा होय।
गगन मंडल पै सेज पिया की किस विध मिलना होय।
घायल की गति घायल जानै की जिन लाई होय।
जौहरी की गति जौहरी जाने की जिन जौहर होय।
दरद को मारी बन बन डोलू वैद मिला नहि कोय।
मीरा की प्रभु पीर मिटैगी (जब) बैद सँवलिया होय।
३––बसो मेरे नैनन में नँदलाल।
मोहनि मूरति सांवरि सूरति नैना बने विसाल।
अधर सुधारस मुरली राजित उर बैजन्ती माल।
छुद्र घंटिका कटि तट शोभित नूपुर शब्द रसाल।
मीरा प्रभु संतन सुखदाई भक्त बछल गोपाल।
४––वंसी वारो आयो म्हारे देस।
थारी सांवरी सूरत बारी बैस।
आऊं आऊं कर गया साँवरा कर गया कौल अनेक।
गिणते गिणते घिसगई उँगली घिसगई उँगलीकी रेख।
मैं बैरागिन आदि की थारे म्हारे कद को सँदेस।
जोगिण हुइ जंगल सब हेरू तेरा नाम न पाया भेस।
तेरी सूरत के कारणे धर लिया भगवा भेस ।
मोर मुकुट पीताम्बर सोहै घूंघरवाला केस ।
मीरा को प्रभु गिरधर मिलि गये दुना बढ़ा सनेस ।
सरस कविता के लिये इस शताब्दी में अष्ट छाप के वैष्णवों का विशेष स्थान है। इनमें से चार महाप्रभु वल्लभाचार्य के प्रमुख शिष्य थे-सूरदास, कृष्णदास, परमानन्ददास, तथा कुंभनदास । और शेष चार नन्ददास, चतुर्भुजदास. छोतस्वामी तथा गोविन्दस्वामी, गोस्वामी विठ्ठल नाथ के प्रमुख सेवकों में से थे। इनमें से सूरदासजी की रचनाओं को आपलोग देख चुके हैं, अन्यों की रचनाओं को भी देखियेः-
कृष्णदासजी जाति के शूद्र थे किन्तु अपने भक्ति-वल से अष्टछाप के वैष्णवों में स्थान प्राप्त किया था। उनके रचित (१) 'जुगलमान चरित्र'(२) 'भक्तमाल पर टीका (३) भ्रमरगीत' और (४) प्रेम सत्व निरूप'नामक ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। उनका रचा एक पद देखिये:-
"मोमन गिरधर छवि पै अटक्यो।
ललित त्रिभंग चाल पै चलि
कै चिबुक चारु गड़ि ठटक्यो।
सजल श्याम घन बरन लीन है
फिरि चित अनत न भटक्यो।
कृष्णदास किये प्रान निछावर
यह तन जग सिर पटक्यो।
"तैं नर का पुराण सुनि कीना।
अनपायनी भगति नहिं उपजी भूखे दान न दीना।
काम न बिसम्यो, क्रोध न बिसम्यो, लोभ न छूट्यो देवा।
हिंसा तो मन ते नहिं छूटी बिफल भई सब सेवा।
बाट पारि घर मूंसि बिरानो पेट भरै अपराधी।
जेहि परलोक जाय अपकीरति सोई अविद्या साधी।
हिंसा तो मन ते नहिं छूटी जीव दया नहिँ पाली।
परमानंद साधु संगति मिलि कथा पुनीत न चाली।"
उनका एक पद और देखियेः-
"व्रज के विरही लोग बिचारे।
बिन गोपाल ठगे से ठाढ़े अति दुर्वल तन हारे।
मातु जसोदा पंथ निहारत निरखत साँझ सकारे।
जो कोई कान्ह कान्ह कहि बोलत अँखियन बहत पनारे।
यह मथुरा काजर की रेखा जे निकसेते कारे।
परमानंद स्वामि बिनु ऐसे जस चन्दा बिनु तारे।
कुंभनदासजी गौरवा ब्राह्मण थे। इनमें त्याग-वृत्ति अधिक थी। एकबार अकबर के बुलाने पर फतेहपुर सीकरी गये, परन्तु उनको व्यथित होकर यह कहना पड़ाः-
"भक्तन को कहा सीकरी सों काम।
आवत जात पनहियां टूटी विसरि गयो हरिनाम।
जाको मुख देखे दुख लागै तिनको करिबे परी सलाम।
कुंभन दास लाल गिरधर बिन और सबै बेकाम।"
"जो पै चोप मिलन की होय।
तो क्यों रहै ताहि बिन देखे लाख करौ किन कोय।
जो ए बिरह परस्पर ब्यापै जो कछु जीवन बनै।
लोक लाज कुल की मरजादा एकौ चित्त न गनै।
कुभनदास जाहि तन लागी और न कछू सुहाय।
गिरधर लाल तोहि बिन देखे छिन छिन कलप बिहाय।"
अष्ट छाप के वैष्णवों में कवित्व शक्ति में सूरदास जी के उपरान्त नंद-दास जी का ही स्थान है। आप की सरस रचनाओं पर ब्रजभाषा गर्व कर सकती है। कहा जाता है कि आप गोस्वामी तुलसीदास जी के छोटे भाई थे। इस की सत्यता में संदेह भी किया जाता है। जो हो, परन्तु पद-लालित्य के नाते वे गोस्वामी जी के सहोदर अवश्य हैं। हिन्दी संसार में उनके विषय में एक कहावत प्रचलित है-"और कवि गढ़िया नंददास जडिया ।' मेरा विचार है कि यह कथन सत्य है। उन्होंने अठारह ग्रन्थों की रचना की है। ‘रास पंचाध्यायों से इनकी कुछ रचनायें यहां उधृत की जाती हैं:-
“परम दुसह श्री कृष्ण बिरह दुख व्याप्योतिनमें।
कोटि बरस लगि नरक भोग दुख भुगते छिनमें।
सुभग सरित के तीर धीर बलबीर गये तहँ।
कोमल मलय समीर छविन की महा भीर जहँ।
कुसुम धूरि धूँधरी कुंज छवि पुंजनि छाई।
गुंजत मंजु मलिंद बेनु जनु बजत सुहाई।
इत महकति मालती चारू चम्पक चित चोरत।
उत घनसारु तुसारू मलय मंदारु झकोरत।
नव मर्कत मनि स्याम कनक मनि मय ब्रजबाला
वृन्दाबन गुन रीझि मनहुं पहिराई माला।"
तीन ग्रन्थ बनाये। उनकी रचना देखियेः-
"जसोदा कहा कहौं बात?
तुम्हरे सुत के करतब मोपै कहत कहे नहिं जात।
भाजन फोरि, ढारि सब गोरस, लै माखन दधि खात।
जौ बरजौं तौं आंखि दिखावै, रंचहुँ नाहिं सकात।
दास चतुर्भुज गिरिधर गुन हौं कहति कहति सकुचात।"
छीत स्वामी मथुरा के चोबे थे। जादू टोना से इनको बड़ा प्रेम था ।मथुरा में पांच चौथे गुण्डे माने जाते थे। ये उनके प्रधान थे। परन्तु श्री विट्ठलनाथ जी के सत्संग से उनके हृदय में भगवद्भक्ति का ऐसा प्रवाह बहा कि उनकी गणना अष्टछाप के वैष्णवों में हुई । इनका ग्रन्थ कोई नहीं मिलता,फुटकर रचनायें मिलती हैं। इनमें से एक पद्य नीचे दिया जाता है:-
"भई अब गिरिधर सों पहचान।
कपट रूप छलबे आये हो पुरुषोत्तम नहिं जान।
छोटो बड़ो कछू नहिं जान्यो छाय रह्यो अज्ञान।
छीत स्वामि देखत अपनायो विट्ठल कृपा निधान।"
गोबिन्द स्वामी सनाढ्य ब्राह्मण थे। उनकी भक्ति प्रसिद्ध है। वे बड़े आनन्दी जीव थे। विट्ठलनाथजी के मुख से भागवत के भगवल्लीला सम्बन्धी पदों को सुन कर कभी कभी उन्मत्त हो जाते थे। इनके भी फुटकर पद ही प्राप्त होते हैं। उनमें से एक यह है:-
प्रात समै उठि जसुमति जननी
गिरधर सुत को उबटि न्हवावति
करि श्रृंगार बसन भूषन सजि
फूलन रचि रचि पाग बनावति।
छुटे बंद बागे अति सोभित
बिच बिच चोव अरगजा लावति।
सूथन लाल फूँदना सोभित आजु
कि छवि कछु कहत न आवति।
विविध कुसुम की माला उर धरि
श्री कर मुरली बेत गहावति।
लै दरपन देखे श्री मुख को गोविंद
प्रभु चरनन सिर नावति।"
अष्टछाप के वैष्णवों के अतिरिक्त व्रजमंडल में दो ऐसे महापुरुष हो गये हैं जिनकी महात्माओं में गणना है। एक हैं स्वामी हित हरिवंश और दूसरे स्वामी हरिदास । हित हरिवंस जी ने राधा-वल्लभी सम्प्रदाय स्थापित किया था। इन्होंने 'राधा सुधानिधि' नामक एक संस्कृत काव्य की रचना भी की है। उनके ब्रजभाषा के ८४ पद्य बहुत प्रसिद्ध हैं। वास्तव में उनमें बड़ी सरसता है। उनके पद्यों में संस्कृत शब्द अधिक आते हैं। किन्तु उनका प्रयोग वे बड़ी रूचिरता से करते हैं । कुछ रचनायें उनकी देखिये-
१- आजु बन नीको रास बनायो।
पुलिन पवित्र सुभग जमुना तट मोहन बेनु बजायो।
कल कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि खग मृगसचुपायो।
जुवतिन मंडल मध्य श्याम घन सारँग राग जमायो।
ताल मृदंग उपंग मुरज डफ मिलिरस सिंधु बहायो।
सकल उदार नृपति चूड़ामणि सुख बारिद बरखायो।
बरखत कुसुम मुदित नभ नायक इन्द्र निसान बजायो।
हित हरिबंस रसिक राधापति जस बितान जगछायो।
२- तनहिं राखु सतसंग में मनहिं प्रेम रस भेव।
सुख चाहत हरिबंस हित कृष्ण कल्पतरु सेव।
रसना कटौ जु अनरटौ निरखि अन फुटौ नैन।
श्रवन फुटौ जो अन सुनौ बिन राधा जसु बैन।
स्वामी हरिदास ब्राह्मण थे। कोई इन्हें सारस्वत कहता है, कोई सनाढ्य । ये बहुत बड़े त्यागी और विरक्त थे। ये निम्बार्क सम्प्रदाय के महात्मा थे। इनके शिष्यों में अनेक सुकवि और महात्मा हो गये हैं। ये गान-विद्या के आचार्य थे। तानसेन और बैजू बावरा दोनों इनके शिष्य थे। ये वृन्दावन में ही रहते थे। और बड़ी ही तदीयता के साथ अपना जीवन व्यतीत करते थे। इनके पद्यों के तीन चार संग्रह बतलाये जाते हैं। उनके कुछ पद देखिये:-
१- "गहो मन सब रस को रस सार।
लोक वेद कुल कम्मै तजिये भजिये नित्य बिहार।
गृह कामिनि कंचन धन त्यागो सुमिरो श्याम उदार।
गति हरिदास रीति संतन की गादी को अधिकार।"
२- "हरि के नाम को आलस क्यों करत है रे।
काल फिरत सर साधे।
हीरा बहुत जवाहिर संचे कहा भयो हस्ती दर बाँधे।
बेर कुबेर कछू नहिं जानत चढ़े फिरत है काँधे।
कहि हरिदास कछू न चलत जब आवत अंतक आँधे।"