स्त्रियों की पराधीनता/भूमिका
भूमिका।
विश्व-विजयी सम्राट् नैपोलियन ने एक अवसर पर कहा था कि, "जो कुछ प्राचीनता की ओट में आ जाता है, लोग उसे अन्याय होने पर भी न्याय ही कहा करते हैं," यह बात मुर्दा रीति-रिवाजों और आचार-विचारों के लिए अक्षरशः सत्य है। जो जाति सुधार की धारा से दूर रहती है उसकी निर्बलता उसे मौत की ओर ही घसीटती है। संसार में कोई समय ऐसा नहीं आता जब मनुष्य अपनी दशा समान ही रख सके; या तो उसे संसार के प्रवाह में पड़ कर आगे बढ़ना होगा और या आगे बढ़ने वालों की ठोकरों से कुचल कर मौत का निवाला बनना होगा। यह प्रकृति का नियम है कि, विश्व में योग्यतम की जीत होगी; और अयोग्य केवल इस श्रेणी वाले व्यक्तियों की दया पर जीवित रहेंगे। अयोग्यों को अपने जीवन से कुछ भी लाभ नहीं हो सकता, क्योंकि वे योग्य व्यक्तियो के हाथ के खिलौने होते है। और इस अयोग्यता की सबसे पहली पहचान यही है कि, जो अपनी उत्पत्ति ख़ास नारायण की नाभि से सिद्ध करने में तो ज़मीन आसमान के कुलावे मिलादें, किन्तु व्यावहारिक जीवन में अणुमात्र सुविधा न होते हुए भी इस ओर से निपट निरंजन बने रहें। यद्यपि अपनी प्राचीनता का गर्व बुरा नहीं है, फिर भी 'अति सर्वत्र वर्जयेत्'। हमारे हिन्दू समाज में प्राचीनता का रोग बड़ा ही बुरा पैठा है। हमारी यह मामूली आदत है कि हम जो कुछ देखते हैं, जो कुछ सुनते हैं, जो कुछ विचारते है---उस सब में अपनी आँखों पर प्राचीनता का चश्मा चढ़ाये रहते हैं। हम किसी बात को देखने, सुनने और जानने से पहले ही
अपनी प्राचीनता को आगे रक्खे रहते हैं: यदि उसके किसी अंश से हमारी प्राचीनता का कोई भाग सिद्ध होता है तब तो हमारे आनन्द की सीमा नहीं रहती और यदि उसका मत विपक्ष में हुआ तो एकादशी करते हुए भी कोसना तो हमारे ही हिस्से में है। हम अपनी बड़ी रूढ़ियों को तो क्या छोटी-मोटी को भी लाभ ही की दृष्टि से देखते हैं; उसका त्याग करना हमारे लिए हिमालय लांघना है। "यद्यपि शुद्ध लोकविरुद्ध नाचरणीयं नाकरणीयम्” यही तो
हिन्दू समाज की पुरानी और परम प्यारी चीज़ है। किन्तु इस जीते-जागते संसार में हमारी इस गलग्रह वाली नीति का कौनसा स्थान हो सकता है? हम ऐसे लकीर के फ़कीर बन कर संसार में कितने दिन सिसकते रहेंगे? "स्वधर्मे निधनं श्रेयः पर धर्मो भयावहः" हमारा यह बड़ा भारी डर हमारे हृदय का पिंड किस दिन छोड़ेगा? रूढ़ियों से जकड़े हुए मनुष्य दोही प्रकार से जीते रह सकते हैं, या तो वे इतने सशक्त हों कि जिससे दूसरों को अपने हाथ का खिलौना बना सकें और या मोल लिये हुए गुलामों की तरह सशक्त व्यक्ति की चरण-सेवा भक्तिपुरस्सर किया करें। इन दो प्रकार की जीवनियों के अलावा रूढ़ियों से जकड़े हुए व्यक्तियों की और कोई जीवनी नहीं हो सकती। किन्तु ये दोनों दशाएँ 'उन्नति' शब्द का अपवाद है। इस नियम में हृदय और मस्तिष्क की शक्तियों में बड़ा भारी अन्तर है, अर्थात् इस नियम में मस्तिष्क की शक्ति हृदय की शक्ति के क़ाबू में है-किन्तु वास्तविक स्थिति होनी वह चाहिए जिस में दोनों समान हों। न कोई किसी का मालिक बने और न किसी को गुलाम बनना चाहिए "A man of virtuous soul commands not, nor obeys." यही स्थिति उन्नति का पहला सोपान है। किन्तु रूढ़ि का राज्य तो इससे बहुत दूर है। जिस समाज का ध्येय यह न हो कि, 'हम सदैव असत्मार्ग का त्याग करते रहेंगे और उपकारी नियमों को पालन करना सीखेंगे,' वहाँ सर्वोच्च "समानता" वाली स्थिति का आना ही असम्भव है। दुर्भाग्य से हमारे समाज का हृदय, मन और आत्मा तक रूढ़ियों से सना है; हमारे जीवन का कोई भाग स्वाधीन नहीं, हम आकण्ठ रूढिमग्न है। चीन देश की पुरानी प्रथा के अनुसार जैसे स्त्रियों को लोहे के जूते पहना कर उनके पाँव छोटे कर डाले जाते थे, वैसे ही हिन्दू-सन्तान को जन्म से ही रूढ़ियों का जामा पहनाया जाता है जिससे उसके हृदय और आत्मा के विकाश पर घना काला परदा गिर जाता है। पथरीली जमीन पर उगे हुए वृक्षों की जड़ों के प्रयास जैसे व्यर्थ जाते है और वे सिर पटक कर भी वृक्ष को पानी की बूँदें नहीं नसीब करा सकतीं,-इसी प्रकार हिन्दू-समाज के कुछ उन्नतमना पुरुषों के प्रयास सर्वथा व्यर्थ जाते हैं। रूढ़ि रूपी पत्थर उन्हें जलकणों से नहीं मिलने देते, जिससे वे समाज रूपी वृक्ष को हरा भरा कर सके। समाज का एक स्थान पर ठहरना ही उसका अवसान है, यही बात दूसरे शब्दो में यो कही जा सकती है कि लोग जिसे पूर्ण शान्ति कहते है आज हिन्दू-समाज की भावनाएँ एक आलसी के हवाई महलों से अधिक कीमती नहीं है। एक उडाऊ-खाऊ पुत्र जैसे अपने पिता की सम्पत्ति बरबाद करके पाँच आदमियों में अपने उन दिनों का बखान करता है, तथा उसकी बातों का जितना मूल्य हो सकता है-आज के हिन्दू समाज का और उसकी बातों का उससे अधिक मूल्य नही हो सकता। जिस घड़ी की नियमित कूक चौबीस घण्टो की होती है-उसकी चाबी का समय बीत जाने पर जैसे उस की चाल बेसुरी हो जाती है,-आज हिन्दू-समाज की आवाज़ उस चाबी-बीती हुई घडी से अधिक नहीं है। यह निश्चित है, ध्रुव है, कि हम सर्वाङ्गसुधार के बिना अब जीवित नहीं रह सकते। या तो हमें समय का साथ देना होगा अन्यथा कुचले जाने से हम नहीं बच सकते।
सुधार की आवाज़ हमारे समाज से निकलने लगी है, पर अभी जिस परिमाण से उसमें शीघ्रता आनी चाहिए उसका सौवां हिस्सा भी नहीं है। कुलीनता और वर्ण-भेद की ठसक अभी हम में जमी है, जन्म के कारण अस्पृश्य और नीच अभी हमारे यहाँ माने जाते हैं, गुण-कर्म अभी हमारे यहाँ परमात्मा के ठेकेदारों के ही हाथों में है, धन्धों और व्यवसायी में हमारे यहाँ ऊँच-नीच का डंका बजता है। तत्त्ववेत्ता मिल के शब्दों में ये बातें सुधार के पहले अंग में ही उठ जानी चाहिएँ थीं, क्योंकि इनकी उत्पत्ति 'लाठी उसकी भैंस' वाले जबर्दस्ती के नियम पर हुई है। दूसरे शब्दों में जिसे अन्याय कहते हैं वही इस प्रकार की ऊँच-नीच की उत्पत्ति का स्थान है। निर्बल या अधीनस्थ वर्ग का कोई क़ानून या नियम नहीं हुआ करता, बल्कि सशक्त या विजेता लोगों की इच्छा ही उनके लिए क़ानून होती है। जिस समय राज्य की सत्ता ताक़त पर चलती है, उस समय सत्ताधीशवर्ग की इच्छा ही उनके अधीनों के लिए नियम बनती है, फिर चाहे वे शूद्र हों, अस्पृश्य हों, दास हों, स्त्रियाँ हों या विजित देश के निवासी हों-सब के लिए वही नियम होता है। जिस समय आर्य कहाने वाले लोगों के हाथ में सत्ता थी उस समय उन्होंने अनार्यों के साथ खूब ही मनमानी की थी। उनके शेषांश शूद्र और अस्पृश्य वर्ग है। जब इस प्राथमिक सुधार में ही हमारे समाज की यह दशा है तब हम उसकी गति को अतिमन्द कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी। इस दशा में 'स्त्रियों की पराधीनता' वाला प्रश्न इस समाज में उठाना-नीचे खड़े हुए को हिमालय की एवरेष्ट चोटी की ओर दिखाने से बढ़ कर मूल्य वाला नहीं हो सकता। अत्यन्त निर्बल रोगी जैसे घी के पाक को हज़म नहीं कर सकता-स्त्रियों की पराधीनता के विषय में हिन्दू-समाज से हमें उतनी ही आशा है। किन्तु हमारा सब उत्साह युवक-समाज पर अवलम्बित है, उसी से आशा है और उसी के लिए यह काम है।
हमने स्त्रियों की स्वाधीनता का बुरी तरह से नाश किया है। हमारा धर्म यही है कि स्त्रियाँ स्वाधीन न हों, 'न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति' (मनु॰ अ॰ ९, श्लो॰ ३,) 'न भजेत् स्त्री स्वातन्त्रतंय (मनु॰ अ॰ ५, श्लो॰ १४८) 'स्वातन्त्र्यं न क्वचित् स्त्रियं' (याज्ञवल्क्य॰ अ॰ १, श्लो॰ ८५) आदि हमारे शास्त्रीय वचनों में स्त्रियो की स्वाधीनता का पूर्ण अभाव है। 'ढोल गँवार शूद्र पशु नारी + ये सब ताड़न के अधिकारी' (तुलसीदास)। इतना ही नहीं, स्त्रियों की पराधीनता हमारे यहाँ बेहद है।
"सप्तवर्षाभवेत्गौरी......"(शीघ्रबोध) आदि से हमने इस बात को धर्म का अङ्ग भी बना डाला कि सात, नौ या ग्यारह वर्ष की आयु में उनका विवाह होही जाय। अपनी नाबालिग सन्तान का, धर्मका नाम लेकर, इस तरह जीवन भ्रष्ट करना किसी समाज के अच्छेपन की निशानी होही नहीं सकती। फिर विवाहित हिन्दू स्त्री की जैसी मिट्टी पलीत की गई है-वह वर्णनातीत है। हिन्दू स्त्री पति की आजीवन क्रीतदास है, और क्रीतदास से अधिकता यह है कि वह धर्म, शास्त्र और समाज की चक्की में ऐसी कुचली गई है कि उसमें स्वाधीन मन, स्वाधीन हृदय और स्वाधीन मस्तिष्क का कुचला बनाया गया है। सम्पूर्ण हिन्दू-शास्त्र स्त्रियों को एक स्वर से पति-भक्ति, पतिनिष्ठा, पतिसेवा, पतिपरमात्मा, पतिदेवता, पतिसर्वस्व का पाठ पढ़ाते हैं, उन्हें पतिपरायणा या पतिमयी बनाते हैं। दूसरी ओर, ये शास्त्र पतियों को स्त्रियों का आदर करना भी सिखाते है; किन्तु एक तो वे स्वाधीन हैं, दूसरे स्त्रियों की सत्ता के स्वामी हैं, तीसरे स्त्रियों के लिए ऐसे शास्त्र निर्माण करने वाले भी इसी वर्ग वाले है-इसलिए हमारे समाज में पुरुष-वर्ग वाला प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को उन अंकुशों की दाब में नहीं समझता। किन्तु स्त्रियों से मनसावाचाकर्मणा पतिभक्ति का बोझ ढुवाया जाता है। यह अन्याय तभी दूर हो सकता है जब स्त्रियों को भी वे ही अधिकार प्राप्त हों जो पुरुषों को हैं। अन्यथा इस अन्याय का प्रतीकार और किसी प्रकार से होही नहीं सकता। इस प्रकार हिन्दू-धर्म्मशास्त्रो के अनुसार हिन्दू नीतिके अनुसार और प्रचलित हिन्दू-गृहस्थ-व्यवहार के अनुसार यदि स्त्रियों के दुर्भाग्य का चित्र खींचा जाय तो सैंकड़ों पृष्ठों में भी उसका पूरा होना सम्भव नहीं। स्त्रियों के विषय में प्रचलित छोटी-मोटी कुरीतियों की तो संख्या ही सैकड़ों पर है। स्वयं हमारी जाति में ठहरौनी की प्रथा प्रचलित है, जिसमें कुलीन मातापिता लड़की के मातापिता से ठहरा कर धन लेते है। सती स्नेहलता के समान अनेक देवियां इस प्रथा पर बलि हो चुकीं, पर अब भी यह प्रचलित है-इससे बढ़ कर रुढ़ि की उपासकता का और क्या उदाहरण होगा? हमारे देश के वैश्य समाज और विशेष कर जैनसमाज में रुपयों से ख़रीद कर ही लड़कों का ब्याह किया जाता है, उक्त दोनों समाजों में ऐसे हज़ारों व्यक्तियों की तादाद है, जो आजीवन इसी असंगतता के कारण अविवाहित रहे हैं। एक ओर मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट में ऐसे अंकों की संख्या हज़ारों हैं जिनमें एक वर्ष के बालक बालिकाओं का विवाह हुआ है। ऐसी सैंकड़ों मोटी-मोटी कुरीतियां हैं। इन सब दुर्गुणों से घिर कर हिन्दू-गृहस्थों का व्यक्तिगत जीवन आनन्दप्रद होना असम्भव है। ऐसी स्थितियों से घिरे हुए हिन्दुओं का जीवन सुधरना नामुमकिन है।
इन सब कुरीतियों की गठरी अपने सिर पर लादे हुए हिन्दू-समाज उन्नति की ओर अग्रसर नहीं हो सकता। जिनका घर सुधरा हुआ नहीं उनके लिये बाहर कुछ सुधर ही नहीं सकता। उनके सभी क्षेत्र संकुचित होंगे-फिर चाहे वे सामाजिक हों या राजनैतिक। हम यह नहीं कह सकते कि राजनैतिक सुधार होने पर सामाजिक सुधार हुआ करते हैं या सामाजिक होने पर राजनैतिक, किन्तु यह बात निश्चित और ध्रुव है कि एक का सुधार चाहने वालों को दूसरे का सुधार करना ही होगा। इसमें जितनी देर होगी उतनी ही समाज की हानि होगी। फिर हिन्दू-समाज में समाज से सर्वथा बहिष्कृत 'विधवाओं' की ख़ासी तादाद है, जिन्हें हम उपेक्षा की दृष्टि से देखते है। पर यह प्रकृति का नियम है कि जिससे लाभ नहीं होता उससे हानि अवश्य होती है। उस हानि से तभी बचा जा सकता है जब उसे लाभ के रूप में बदला जाय अन्यथा हानि अवश्यम्भावी होती है। मैल लग जाने पर जैसे शरीर मोटा न होकर कृश और कदर्य होता है वैसे ही विधवाओं की उपेक्षा करके भी हिन्दू-समाज उनकी हानि से नहीं बच सकता। इसका बुरा परिणाम समाज के लिए अवश्यम्भावी है। हिन्दू-समाज को अपने शास्त्रों का चाहे जितना अभिमान हो किन्तु वह इस हानि से नहीं बच सकता। और एक अग्रशोची मनुष्य उन शास्त्रों को साष्टाङ्ग नमस्कार किये बिना नहीं रह सकता जिन्हों ने विधवा की दशा ऐसी बना डाली है:पति के स्वर्गवासी होने पर स्त्री सह-गमन अर्थात् आग में जल कर प्राण त्याग करे। 'मृतेभर्तरि या नारी समारोह हुताशनम्' तथा 'शुभाचारा वर्गलोके महीयते*[१]' आदि। स्त्री के सहगमन का फल क्या है? यदि पुरुष महा पातकी हो और हत्या आदि दोषों से भी युक्त हो तो स्त्री के सहगमन करने से वह उन दोषों से मुक्त होकर स्वर्गगामी होगा†[२]। शास्त्रों ने दया करके गर्भवती, रजस्वला, बालिका और बच्चेको दूध पिलाने वाली स्त्रियों को सतीपन के बन्धन से मुक्त किया है‡[३]।
मुग़ल-सम्राट अकबर के समय से इस सती प्रथा के बन्द करने का प्रयास किया गया था। किन्तु§[४] प्रायः सभी देशों में यह प्रथा जैसे-तैसे प्रचलित||[५] रही। अँगरेजी राज्य के प्रारम्भ काल ही से इस प्रथा की ओर विशेष लक्ष्य दिया गया।
सब से पहले यह नियम बना कि सती होने के लिए सरकारी आज्ञा ली जाय। सती होनेवाली स्त्री अपने होश-हवास में हो; उसे किसी प्रकार का मादक द्रव्य खिला कर या फुसला कर*[६] सती होने पर उद्यत न किया जाय। अँगरेज़ी प्रारम्भ काल में यही नियम था और इसकी तहक़ीक़ात पुलिस के द्वारा होती थी। किन्तु इस नियम के विपरीत कई बार ऐसा हुआ कि जब विचारी विधवा अग्नि के असह्य कष्ट से लौटी तब दूसरे लोगों ने उसे ज़बर्दस्ती चिता पर ढकेल दिया या उसके कपड़ो में ऐसे ज्वालाग्राही पदार्थ रख
दिये कि चिता के पास जाते ही वे जल उठे और लोगों ने उसे सती कह कर चिता की ओर ढकेल दिया†[७]। उस समय तक कोई ऐसा कानून नहीं था जिससे हिन्दू सती को रोका गया हो। बल्कि हिन्दू-शास्त्रों के अनुसार ही हिन्दू सती को गर्भ आदि की दशा में रोका जाता था‡[८]। जिस सती होने वाली स्त्री का बालक तीन वर्ष से कम आयु वाला होता था, उसकी जवाबदारी और बच्चे की परवरिश का प्रतिज्ञापत्र घर वालों से लिखा लिया जाता था§[९]।
यदि पति की मृत्यु के समय स्त्री वहाँ उपस्थित न हो और वह स्त्री सती होना चाहती हो तो पति का शव एक दिन तक रक्खा जा सकता था, व्यास-संहिता में इसका अच्छा वर्णन है। किन्तु यह व्यवस्था ब्राह्मणों के ही लिए है। "मृतं सारमादाय ब्राह्मणी वह्निमाविशत्" +। अन्य
वर्षो में 'अनुयमन' की प्रथा विशेष थी। पति का मृत्य- समाचार सुन कर उसका दुपट्टा, खडाऊँ, कटार या और कोई वस्तु लेकर सती हो जाने का नाम अनुगमन है। हिन्दू-शास्तों ने आत्मघात को पाप माना है, किन्तु सहगमन के समय में ऋग्वेद की ज्ञृचाओं का पाठ होता था और उस पाप का इछ क्षालन माना जाता था। ब्रह्मपुराण में इसकी विशेष व्याख्या की गई है. हिन्दू-शास्त्रो के अनुसार सती की सहायता करना पाप नहीं है। हिन्दू सती के दर्शन को अहोभाग्य समझते हैं ||। किन्तु अँगरजी
- -कोल. डाय. सा. २, पृ० ४५९।
+-१८२५ ई० में पूने में एक तैलिन सती हुई थी। Steel's Hindoo Law and custom (1868) page 174. समाचार-पत्रो में ऐसी यहुत घटनाएं देखने में आती हैं।
+-व्यास-सहिता, अध्याय १, सोक ५३ ।
&-कोल°डाय० भा० २, पृ० ४५६ ।
|| सुप्रसिद्ध चित्तौरगढ़ में तीन बार कई कई सौ रानियों का साका हुआ है। महाराष्ट्र देश में 'थेउर' का स्थान भी इस ही प्रकार प्रसिद्ध है। न्यायानुसार सती होना बन्द हुए बहुत वर्ष बीते*[१०]। इस समय भी कभी-कभी सती होने की बात सुनाई पड़ जाती है। आज-कल की सामाजिक धारणा इस प्रकार की है कि व्यक्ति समाज के हित के लिए बना है, इसलिए प्रत्येक अवस्था में समाज को लाभ पहुँचाते जाना भी उसका कर्तव्य है। किन्तु देशी राज्यों में यह प्रथा सहसा बन्द नहीं हुई;-१८३९ ई॰ में महाराज रणजीत सिंह के साथ कई रानियाँ सती हुईं। नेपाल के महाराज जङ्गबहादुर के साथ भी कई रानियाँ सती हुई थीं।
सती के अलावा हिन्दू-शास्त्रों ने विधवा का दूसरा मार्ग नियोग कहा है। यदि पति की मृत्यु के समय स्त्री निपुत्री हो तो वह अपने पति को पुत्रवान् की गति प्राप्त कराने के लिए, इष्ट बन्धुओं की सम्मति से, ज्येष्ठ वा कनिष्ट देवर तथा इनके न होने पर सगोत्रजसे-"एकमुत्यादयेत्युत्रं न द्वितीयं कथंच न†[११]" किन्तु यह पुत्रोत्पत्ति कर्त्तव्य ही समझ कर होनी चाहिए, लालसा की तृप्ति के लिए नहीं। यदि, "वर्तेयातां तु कामतः" तो पति को स्वर्ग-प्राप्ति की जगह "तावुभौ पतितौ स्याताम्"‡[१२] वे दोनों नरक में जायेंगे।
कई स्मृतिकारों का मत है-"क्षेत्रभूतास्मृता नारी बीजभूतः स्मृतः पुसान्*[१३]" तथा, "क्षेत्रिकस्यैव तहीजं न वप्ता लभते फलम्†[१४]" अन्य स्मृतिकारों का मत होते हुए भी मनु का कहना है कि:-"पशुधर्मो विगर्हितः‡[१५]" अतः वेदसम्मत नहीं है। क्योंकि, "नोहाहिकेषु मंत्रेषु नियोगः कीर्त्वते क्वचित्§[१६]" इतना होते हुए भी नियोग की प्रथा भारत में वेणु राजा ॥[१७] के समय से प्रचलित हुई। वेणु राजा ने, "कामोपहत चेतनः" होकर नियोग-विधिको चलाया, तब से नियोग को, "विगर्हन्तिसाधवः ¶[१८]" अर्थात्-"नान्धस्प्निन्विधवानारी नियोक्तव्या हिजातिभिः៛[१९]" कलियुग में किसी वर्ण के लिये भी नियोग सशास्त्र नहीं। वृहस्पति संहिता में इसका अच्छा विवेचन है¤[२०]। किन्तु उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक उड़ीसा में यह प्रथा प्रचलित थी↓[२१]।
गतभर्तृका, बाला, तरुणी, वृद्धा, सापत्य या निरपत्य कैसी ही स्त्री हो, "न द्वितीयश्च साध्वीनां क्वचिङ्गर्त्तोपदिश्यते*[२२]" इतना ही नहीं, हिन्दू-शास्त्र कहते हैं,—"न तु नामापि गृह्वीयात् पत्यौ प्रेते परस्वतु†[२३]" तथा "न विवाह विधायुक्तं विधवा वेदनं पुनः‡[२४]" किन्तु निम्न जातियों में इस नियम की रक्षा नहीं हो सकी। पुराने जमाने में भी संयुक्त प्रान्त, गुजरात, महाराष्ट्र और बंगाल में निम्न जातियों में पुनर्विवाह होता था§[२५]। किन्तु उच्च वर्णी के लिये, "सेह निन्दामवाप्नोति पतिलोकाच्च हीयते॥[२६]"। महाराष्ट्र देश के इतिहास में लिखा है कि पेशवाओं के समय में पुनर्विवाह पर कर लिया
जाता था। किन्तु अब सन् १८५६ ई॰ के १५ वें एक्ट के अनुसार उच्च वर्ण की स्त्रियों को पुनर्विवाह की आज्ञा है।
पुनर्विवाह की चर्चा सब से पहले ब्रह्मसमाज के प्रवर्तक राजा राममोहन राय ने उठाई थी और पीछे से पण्डित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने यह विषय उठाया। पुनर्विवाह पर विद्यासागर का सब से पहला लेख १८५४ ई॰ में निकला था, तब से अब तक इस विषय पर वाद-विवाद होते हुए समाज में दो पक्ष हो गये हैं। उत्तर भारत में इस विषय को सबसे पहले ऋषि दयानन्द ने उठाया, और अब उनकी स्थापित की हुई आर्यसमाज ही इस विषय को चला रही है।
जब भारतीय विधवाओ को पुनर्विवाह की आज्ञा नहीं, नियोग पशुधर्म है, तब सती होने के सिवाय क्या और कोई मार्ग नहीं है? कात्यायन ऋषि के मतानुसार जो विधवा परमात्मा पर विश्वास रख कर आत्मसंयम से जीवन व्यतीत करती है वह अरुन्धती के समान है। मनु ने विधवा के ऐसे जीवनक्रम पर लिखा है, "मृतेभर्तरि साध्वी स्त्री ब्रह्मचर्ये व्यवस्थिता। स्वर्गगच्छत्यपुत्राऽपि.. .."†[२७]। आदि वचनों से स्वर्ग की प्राप्ति बताई है। विष्णुसंहिता में लिखा है कि, जिसे ब्रह्मचर्य से रहना अशक्य मालूम होता हो उसे चिता पर जल कर मरना ही चाहिए‡[२८]। यदि वह जीवित रहे तो भी, "त्यक्तकेशा तपसा शोधयेहपुः"§[२९]। इसके अलावा ताम्बूल, शैया, अभ्यंग तथा आहार-विहार से सदा के लिए किनारा कर लेवे ¶[३०]। पति की मृत्यु के अनन्तर विधवा को पुत्र की देख-रेख में रहना चाहिए, क्योंकि, "मृत भर्तरि पुत्रस्तु
- —कील° डाय° भा° २, पृ° ४६५।
वाच्योमातु रक्षिता*।" यदि पुत्र न हो या छोटा हो तो
श्वसुरग्रह या पिटग्रह में रहना चाहिए; किन्तु स्वाधीन
कभी न रहना चाहिए। यदि पति का ऐसा कोई निकट
सम्बन्धी न हो तो "तेषामभाव ज्ञातयः" + यदि वे भी न हो
तो देश का रक्षक (राजा) उनका पालन करे । हिन्दू विधवा
और विशेषतः विकेशा को न्यायालय में साक्षी देने न जाना
होगा।
यह तो हिन्दू विधवा को निजू दशा के विषय में हुआ, अब सम्पत्ति से उसके सम्बन्ध में हिन्दू-शास्त्र जो कुछ आज्ञा देते हैं उसका भी ज़रा दिग्दर्शन कर लेना अनुचित न होगा। हमारे शास्त्रों ने विधवा के लिए सम्पत्ति के इस प्रकार भाग किये हैं :-(१) पति की सम्पत्ति पर विधवा का हक, (अ) वारिस, (ब) हिस्सा, (क) दत्तक, (च) अन्नवस्त्र, (२) सम्पत्ति का उपभोग, और (३) मृत्युके अनन्तर उस सम्पत्ति का विभाग। पति को उत्तर क्रिया और श्राद्ध का अधिकार पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, दत्तक और विधवा को क्रम से है !!
- -मनु० अ०९, श्लो०५।
†-"न स्त्रीखातन्वामहर्ति" "खातन्वा न कचित् स्त्रियः" "न भजेत् स्त्री स्वातन्त्रा"।
+-याज्ञवल्का, अ०१ श्लो० ८५।
ş-Sir T. Strange's Hindoo Law (1830) Vol. 2nd page 482.
॥-निर्णयसिन्धु के मतानुसार उत्तर क्रिया का हक पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, और दत्तक की है, इन चारों के न होने पर विधवा की है।
ग यदि पहले चारों न हों तो विधवा को है और वह भी निय- सित । यदि पति का कुल अविभत्त है तो विधवा केवल अन्नवस्त्र की ही हकदार है †। स्मृतिकारों के मतानुसार यह हक भी तभी तक माना जा सकता है जब तक विधवा सदा- क्षारिणे बनी रहे। हिन्दू-धर्म के अनुसार एक पुरुष अनेक विवाह भी कर सकता है, उन सब की विधवा दशा में सम्पत्ति की अधिकारिणी ज्येष्ठा ही होती है और दूसरियों का भरण- पोषण करना उसका कर्तव्य होता है । "प्रथमा धर्मपत्नी च द्वितीया रतिवर्धिनी'। ज्येष्ठा आयु के लिहाज़ से नहीं मानी जाती, किन्तु जिसके साथ वेद-विधि से सब से पहले विवाह हुआ हो वही ज्येष्ठा है।
हिन्दू-धर्मशास्त्रों में सीधा अपने नाम से हिन्दू विधवा का सम्पत्ति पर कोई हक नहीं है, किन्तु सन्तान के पालन के बहाने से है। यदि बाँट करते समय विधवा गर्भवती हो तो उसे हिस्सा दिया जायगा, किन्तु यदि बाद में पुत्र पैदा हो, तो उस दिये हुए हिस्से का फिर से हिस्सा किया जा सकता है।
- -बहत्पति-साहिता के मतानुसार माता के जीवित रहते पुत्र का हक नही
है। धर्मशास्त्र और वेदान्त के अनुसार स्त्री पति को अर्धाङ्गिनी है- यह एक हिन्दू रुढि मौ होगई है अर्थात् पति के आधे अङ्ग के जीवित रहते उसको सम्पत्ति पर और किसी का अधिकार नहीं हो सकता (को० डा0 भा० ३, पृ० ४५८)
†-इस में बङ्गाल के दायभाग का समाविश नही है।
+-दक्ष-सहिता, अ० ४ श्लोक १५ । यदि गर्भवती विधवा का हिस्सा सम्पत्ति पर पहले न लगाया गया हो तो पीछे पुत्र के उत्पन्न होने पर लगाया जा सकता है। दक्षिण भारत को कुछ शूद्र जातियों में यह चाल थी कि, एक पुरुष की जितनी स्त्रियाँ हों वे सब अपनी सन्तान के नाम पर पति की सम्पत्तिका समान भाग बँटा लेती थी ।।
यदि कोई पुरुष बिना सन्तान के मर जाय तो उसकी सम्पत्ति के मालिक (दायद) रिश्तेदार हैं। यदि किसी को अपनी सम्पत्ति को यह गति न मंजूर हो तो वह दत्तक (गोद) ले सकता है। हिन्दू-शास्त्रों ने बिना पुत्र वाले की सद्गति नहीं मानी है, इसी की पूर्ति के लिए दत्तक की चाल चली थी। कई सौ वर्ष पहले दत्तक लेने का अधिकार केवल पुरुषों को ही था। किन्तु धीरे-धीरे विधवाओं के दत्तक लेने की प्रथा चल पड़ी। दत्तक पुत्र धर्मशास्त्र के अनुसार माता और पिता दोनों को पिण्डदान कर सकता है। किन्तु विधवा विशेष करके पति के नाम पर ही दत्तक ले सकती है, अपने पर नहीं। दत्तक लेने में विधवा को (शायद) रिश्तेदारों की आज्ञा लेनी आवश्यक है। विधवा जैसे दत्तक ले सकती है वैसे ही दे भी सकती है, बल्कि देने में विधवा को अधिक कठिनाई नहीं है।
- -हिन्दू दायभाग। याज्ञवल्क्य ।
†-Sır T. Strange's Hindoo Law (1830) Vol. I. P. 205
+-हिन्द, विधवा के लिए इस समय हाईकोर्ट में यही मत माना जाता है अपने पति की सम्पत्ति पर विधवा का सीधा हक नहीं है, किन्तु उसका जो कोई वारिस हो, उससे अन्न-वस्त्र का हक है। यदि विधवा सब के साथ रहै तब तो सब के बराबर उसका भरण-पोषण होताही जायगा। किन्तु यदि वह न्यारी भी रहना चाहे तो अपना कुछ मासिक करवा सकती है। धर्मशास्त्र के अनुसार यह रकम इतनी होनी चाहिए कि जिससे अपना अन्न-वस्त्र का गुज़ारा करके विधवा पति की श्राध क्रिया भी कर सके। यदि पति की सम्पत्ति इतनी कम हो कि जिसले विधवा का निर्वाह न हो सके तो इसका भार रिश्तेदारी पर है।
पति की स्थावर सम्पत्ति बाग, मकान, जमीन, कुआ आदि का विधवा के जीवित रहते इतना ही हक़ है कि वह उसकी उपज का उपभोग करे। किन्तु उसे नष्ट नहीं कर सकती अर्थात् उस मिल्कियत को किसी प्रकार नुकसान नहीं पहुंचा सकती। यदि बेचने या गहने रखने की नौबत ही आ जाय तो सब काम रिश्तेदारों की सलाह से होगा। पति के वार्षिक बाद या कन्या के विवाह में वह बेचा जा सकता है।
विधवा की मृत्यु के अनन्तर जो स्थावर या अस्थावर सम्पत्ति होगी वह सब रिश्तेदारों की होगी। केवल उसका निज का (स्त्रीधन) जो कुछ होगा उस पर लड़की का हक हो सकेगा। क्योकि पुत्री के पिण्डों में पिता की अपेक्षा माता का अंश अधिक होता है। पतिके वारिसों का उस पर कोई हक नहीं है।
पति की जीवित दशा में तो हिन्दू स्त्री का कोई अधि- कार है ही नहीं, किन्तु उसकी विधवा दशा में भी उस पर कैसा अमानुषी व्यवहार किया जाता था, सो हम संक्षेप से ऊपर लिख चुके । पाठकों के लिए विचार का मौका है कि वे पुरुषों के बनाये धर्मशास्त्र की दृष्टि से देख लेवें कि इस में पुरुषों का पक्ष अधिक लिया गया है या कम ? हमारी बुद्धि जहाँ तक विचार करती है-यह न्याय धर्म का नाम लेकर सर्वथा पक्षपात से भरा हुआ है। हिन्दू देवियाँ धर्म का नाम लेकर अन्याय से गुलामी ( Bondage) में डाली जाती है, और उनके हक अनुदारता से क्षुद्र कर दिये जाते हैं। भाज-कल का उन्नत यूरोप किसी समय ऐसे ही क्षुद्र विचारों में डूब रहा था, स्त्रियाँ ऐसी ही दासता में पड़ी हुई थौं। संसार में सब से प्रथम उन्नति करने वाले “ग्रीस" और "रोम" में भी यह दशा थी। ग्रीस को पूर्ण उन्नति के समय में स्त्रियों के विषय में एक लेखक ने लिखा है:-
"स्त्रियाँ प्रायः मकान के पिछले भाग में रहती हैं, पुरुषों के साथ उनका मिलना-जुलना असम्भव है। उनका घूमना फिरना प्रायः घर ही के भीतर हो लेता है। यदि किसी समय वे बाहर जाती हैं तो एक आदमी उनके साथ जाता
- --मनु० अ०३ श्लो०४६ ।
है। विवाह में स्त्रियों की सम्मति नहीं ली जाती। पति और पुत्र की सेवा के अलावा वे और किसी बात में हाथ नहीं लगा सकती[३१]"।
दो हज़ार वर्ष पूर्व ग्रीस में स्त्रियों को जो दशा थी आज दो हज़ार वर्ष बाद हमारे देश में स्त्रियों को वही दशा है। अपनी पुरानी तरक्की का फूटा नकारा पीटने वाला हमारा समाज, यदि आँखें रखता है––यदि हृदय रखता है तो वह देखे कि उसने अपने हाथ में आये हुए अधिकारों को किस बुरी तरह से कुचला है। जो व्यक्ति आज्ञापालन करना नहीं जानता वह आज्ञा देने का अधिकारी नहीं हो सकता। जो स्वयं उदारतापूर्वक दूसरों को अधिकार नहीं दे सकते, उनका दूसरों से अधिकार पाने की आशा रखना हँसी की बात है। पुरानी रूढ़ियों पर हम जैसे लकीर के फ़कीर बने है, वैसी जाति इस समय संसार में और कोई नहीं है। यदि हमें ज़रा से सुधार करने की आवश्यकता होती है,––यदि हमें एक कदम आगे बढ़ने की ज़रूरत होती है तो हम अपने सैंकड़ो वर्ष के पुराने शास्त्रों के जीर्ण-शीर्ण पृष्ठ लौटने लगते हैं––प्राचीन रूढ़ि और लोगो का मुंह ताकने लगते है––यह हमारी सब से बड़ी आत्मिक कमजोरी है, बुज़दिली है। हमारी यह श्रद्धा बड़ी भूल भरी है कि हमारे शास्त्रों में जो कुछ है वह सर्वथा अच्छा ही अच्छा है––इस ज़माने में वह कल्याणकारक ही है। पुनर्जन्म के मानने वाले भी इस बात से नाहीं नहीं कर सकते कि, आत्मा एक होने पर भी अनादि काल तक उसी शरीर से काम नहीं चला सकता, एक निश्चित अवधि के बाद उसे भी शरीर बदलना ही पड़ता है। कोई गवर्नमेण्ट एकबार क़ानून बना कर सदा उसी से काम नहीं चला सकती––उसे भी समय और आवश्यकता के अनुसार सब बातों में परिवर्तन करते रहना पड़ता है। कोई मनुष्य एक दिन भोजन करके उससे बहुत दिन टेर नहीं कर सकता––उसे नित्य भोजन करना पड़ता है और समय तथा आवश्यकता के अनुसार उसमें परिवर्तन करते रहना पड़ता है। जो इस परिवर्तन के महत्त्व को नहीं जानता, वह संसार में जीवित नहीं रह सकता। किन्तु हमारा हिन्दू-समाज अपने लिए जो सामाजिक नियम बना चुका था––उन्हीं के सहारे चल कर वर्तमान संसार का मुक़ाबिला करना चाहता है। पुरानी गूदड़ी चीथड़ों की थिगली लगाते-लगाते हद से ज़ियाद बोझल और घिनौनी बन गई है, पर भिखारी जैसी अपनी उस परम प्यारी गुदड़ी में दो चार चीथड़े और टाँक देना अपना कर्त्तव्य समझता है वैसे ही हिन्दू-समाज अपने पुराने ढकोसलों से भरे रीति-रिवाजों को बोझल होने पर भी सिर पर लादे तरक्की के पहाड़ पर चढ़ना चाहता है! समाज का यह प्रयास तिलों के साथ बालू मिला कर तेल निकालने के समान है। जैसे अपनी पुरानी-धुरानी चीजों के अतिशय प्यारी होने पर भी बिना उनमें आग लगाये प्लेग से छुटकारा नहीं होता, वैसे ही अपनी निरर्थक रीति-रिवाजों और व्यवहारों को एक दम बिना छोड़े-बिना सर्वाङ्गपरिवर्तन किये हिन्दू-समाज का निस्तार नहीं हो सकता। उस परिवर्त्तन में विशेष करके स्त्रियों के जिन अधिकारों की अमर्यादा की गई है-उनका चारु रूप से परिवर्तन करना होगा। इसे छोड़ कर कोई रस्ता है ही नहीं। इसमें जितना विलम्ब किया जायगा, समाज के उन्नत होने में भी उतना ही विलम्ब होगा।
आज समझदार मनुष्य की आँखों से स्त्रियों का महत्त्व छिपा नहीं है। यूरोप के भीषण संग्राम में अबलाओं का कार्य देखने योग्य है। पुलिस, डाक, तार, रेल, कारखाने, दूकान, कार्यालय आदि सब कहीं स्त्रियों की महिमा प्रत्यक्ष दीख रही है। सामाजिक या राजनैतिक किसी बात में भी स्त्रियों को पीछे छोड़े अब काम चल ही नहीं सकता। अब हमें इस समय के लिए उपयोगी और आवश्यक नवीन शास्त्र बनाने होंगे। शङ्कर और कपिल के सिद्धान्तों को पढ़ने की जगह मिल और स्पेन्सर को पढ़ना होगा। बद्रीनारायण और जगन्नाथ की यात्रा की जगह न्यूयार्क और लण्डन को पवित्र तीर्थ मान कर यात्रा करनी होगी। प्राचीन शास्त्रों का उपयोग प्राचीन इतिहासों से बढ़ कर नहीं होगा। हिन्दू-समाज को शीघ्र ही इस परिवर्तन को तेज़ धार में बहना होगा––इसलिए उसकी सन्तान के हाथ में हम तत्त्ववेत्ता मिल के विचार रखते हैं। यद्यपि आज हिन्दू समाज के लिए ये विचार कुएँ में बैठे हुए मनुष्य के लिए हिमालय की एवरेस्ट चोटी के समान है। किन्तु वह समय अधिक दूर नहीं है जब हमें इस मार्ग पर चलना होगा।
मिल की वर्णन-शैली और रचना-पद्धति बड़ी क्लिष्ट है। बहुत कुछ सरल करने पर भी भाषा में भावों की क्लिष्टता रही ही है। मिल संसार के उन दूरदर्शी महात्माओं में से है जिनकी संख्या इस धराधाम पर अत्यल्प होती है। मिल आधुनिक संसार का ऋषि है। और एक ऋषि जैसे संसार को आगे से आगे सचेत कर देता है वैसे ही मिल की भी यह गम्भीर वाणी है। मिल की एक पुस्तक "स्वाधीनता" के नाम से सरस्वती-सम्पादक श्रद्धेय पं॰ महावीरप्रसाद जी द्विवेदी लिख चुके हैं। उसके दो संस्करण हुए हैं। यह मिल को दूसरी पुस्तक मातृभाषा के मन्दिर में, आज मैं रखने का साहस करता है। यदि यह मेरे समाज के विचारों में कुछ भी परिवर्तन कर सकी तो मैं अपना श्रम सफल समझूँगा।
देहली, |
शिवनारायण द्विवेदी। |
फरवरी, १९१६ ई॰ |
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- ↑ *-दक्ष-संहिता, अ॰ ४ श्लो॰ १९। श्रीयुत मन्मथनाथदत्त का धर्मशास्त्र-(१९०८ ई॰)
- ↑ †-विवादमगार्णव में इसका पूर्ण समर्थन है। इस ग्रन्थ का अंगरेजी अनुवाद कोलब्रुक साहब ने किया है। सम्पूर्ण ग्रन्थ तीन भागों में विभक्त है। इसका नाम "कोलब्रुक्स डायजेृस" है।
- ↑ ‡-कोल॰ डाय॰ भा॰ २, पृ॰ ४५१।
- ↑ §-कोल॰ डाय॰ भा॰ २, पृ॰ ४५६-४५७।
- ↑ ||. Steel's Hindoo Law and Custom (1868) page 174. again-Cranfurd's Sketches of the Hindoos (1792) Vol. 2nd. page 17-33
- ↑ *-II. Bom Rep. 95.
- ↑ †-Sir Thomas Strange's Hindoo Law (1830) Vol. Ist. page 239.
- ↑ ‡-I Bom. Rep P. 95.
- ↑ §-Sir T. Strange's Hindoo Law (1830) page 240
- ↑ *-१८२९ ई॰ के १७ वें रेग्युलेशन के अनुसार सती होना और उसकी मदद करना दोष है।
- ↑ †-मनु॰ अ॰ ९, श्लोक ६०।
- ↑ ‡-मनु॰ अ॰ ९, श्लोक ६३। यम-संहिता का अवतरण। को॰ डाय॰ भा॰ २ पृ॰ ४६८।
- ↑ *-मनु॰ अ॰ ९, श्लोक ३३।
- ↑ †-मनु॰ अ॰ श्लोक ५४।
- ↑ ‡-मनु॰ ९, श्लोक ६६।
- ↑ §-मनु॰ अ॰ ९, शोक ६५।
- ↑ ॥-वोपदेव की श्रीमद्भागवत। ब्रह्मर्षियों ने इसी वेणु को सिंहासनच्युत किया था।
- ↑ ¶-मनु॰ अ॰ १, श्लोक ६७-६८।
- ↑ ៛-मनु॰ अ॰, श्लोक ६४।
- ↑ ¤-कील॰ डाय॰ माग २, पृष्ठ ४७५।
- ↑ ↓-कील॰ डाय॰ भाग ३, पृष्ठ २७६ की टिप्पणी।
- ↑ *—मनु॰ आ॰ ५, श्लोक १६२।
- ↑ †—मनु॰ अध्याय ५, श्लोक १५७।
- ↑ ‡—मनु॰ अध्याय ९, श्लोक ६५।
- ↑ §—Mayne's Hindoo Law (1892) page 98.
- ↑ ॥—मनु॰ अध्याय ५, श्लोक १६१।
- ↑ †—मनु° अ° ५, श्लो° १६०।
- ↑ ‡—विष्णुसंहिता, अ° २५, श्लो° १४।
- ↑ §—व्यास-संहिता, अ° १, श्लो° ५३।
- ↑ ¶-कोल° डाय° भा° २, पृ° ४६०।
- ↑ Hill's essæys on the institution & of the States of ancient Greece, page 266