स्त्रियों की पराधीनता
जॉन स्टुअर्ट मिल, अनुवादक शिवनारायण द्विवेदी

कलकत्ता: हरिदास एण्ड कम्पनी, पृष्ठ १ से – ८१ तक

 

स्त्रियों की पराधीनता।
पहला अध्याय।

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१––मै अपने छुटपन से,––उस समय से जब से कि मैं प्रत्येक सामाजिक और राजनैतिक विचार अपनी कसौटी पर पजोखने लगा, एक महत्त्वपूर्ण विषय जिस पर मैंने भली भाँति विचार कर लिया है––जिस पर मेरा निश्चय हढ़ हो चुका है, उस ही अपने निश्चय या सिद्धान्त को साफ तौर से खोल कर कहना इस निबन्ध का उद्देश है––अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन करना हो इसका मकसद है। मेरा यह सिद्धान्त,––मेरी यह धारणा समय के लम्बे प्रवाह में पड़ कर जैसे शिथिल नहीं हुई वैसे ही किसी प्रकार का लोट-फेर भी नहीं हुआ, यानी शुरू से आखिर तक इस विषय में मेरा मत नहीं बदला। हाँ, यह अवश्य हुआ कि मेरा सांसारिक अनुभव जैसे जैसे बढ़ता गया और मानसिक सम्पत्ति की जैसे जैसे वृद्धि होती गई-वैसे ही वैसे इस विचार में अधिकाधिक दृढ़ता आती गई-ज्यों ज्यों समय बीता त्यों त्यों यह विचार पक्का जान पड़ा। मैं जिस विषय का प्रतिदान करने चला हूँ, वह हमारी दृष्टि में इस प्रकार आता है कि, समाज में स्त्री पुरुषों के लिए जो एक दृढ़ नियम बना है, उसके अनुसार समाज का एक समुदाय (स्त्री-समाज) दूसरे समुदाय (पुरुष-समाज) के आधीन है। यानी हम में जो सामाजिक नियम दृढ़ता के साथ प्रचलित है उन सब में यह पहला है कि स्त्रियाँ पुरुषों के आधीन रहें। किन्तु, यह नियम, यह कायदा-मेरी समझ के अनुसार ग़लत है। संसार में उन्नति के बाधक जो थोड़े से कारण हैं उन सब में इसका पहला नम्बर है। इस अत्याचारी नियम का हमें त्याग करना चाहिए, और इसके स्थान पर 'समानता' की प्रतिष्ठा करनी चाहिए; क्योंकि संसार में स्त्री और पुरुष के हक़ बराबर हैं-यानी किसी के अधिकार कुछ कम और किसी के कुछ अधिक है ही नहीं। पुरुष-समुदाय किसी प्रकार विशेष अधिकार पाने का हकदार नहीं, अतः समानता होनी चाहिए।

२-जिस सिद्धान्त के प्रतिपादन का भार मैंने लिया है समाज के बड़े भारी प्रवाह को दूसरी ओर घुमा देने के लिए मैं जो तैयार हुआ हूँ,-मैं समझता हूँ कि केवल शब्दों के द्वारा वह प्रतिपादित नहीं होगा। मैं समझता हूँ कि मेरा काम कठिन है। जिस कठिनता की बात मैं कह चुका हूँ उसका अर्थ यह नहीं है कि मैं अपने सिद्धान्त की पुष्टि के लिए जो उदाहरण, जो दलीलें दूँगा वे सबल या स्पष्ट नहीं हैं। बल्कि मुझे इस काम में वैसी ही कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा, जैसी किसी राजनैतिक या सामाजिक प्रथा को दूर करने में होती है-या लोगों के दिलों में बैठी हुई मुर्दा रीति-रिवाजों को हटाने में जैसी मुश्किलें आती हैं। जहाँ किसी मत, धर्म या सम्प्रदाय के मानने वाले उसे अपने हृदय में चिपटाये होते हैं-वहाँ यदि कोई उसकी असारता साबित करने के लिए मज़बूत से मज़बूत प्रमाण उनके सामने रखता है, तो वह ढीला पड़ने के बदले उलटा मज़बूत होता है। क्योंकि यदि कोई मत, धर्म या सम्प्रदाय किन्हीं खास नियमों, तत्त्वों या उसूलों पर स्थापित किया गया हो तो उन नियमों, तत्त्वों या उसूलों को असार सिद्ध करने पर उसके भक्तों की आस्था उड़ जायगी-यानी यदि कोई मत किसी खास नियम पर रचा गया हो तो उस नियम को गलत साबित करने पर उस मत, का मन्दिर गिर पड़ेगा; पर यदि कोई मत लोगों की इच्छाओं पर-मनोवृत्तियों के झुकाव पर ही बना हो,-तो सबल और स्पष्ट प्रमाणों द्वारा जैसे जैसे वह निकम्मा साबित होता जायगा,-वैसे ही वैसे उसके भक्त-उसके मानने वाले उसके हिमायती,-अपना इरादा पक्का करते जायँगे कि हमारा मत तो बदलना ही नहीं चाहिए। वे अपने इरादे की जड़ हृदय के उस गहरे और अँधेरे स्थान में गाड़ते है जहाँ दलीलों और प्रमाणों की पहुँच नहीं होती-वे तर्क की तीखी तलवार को परम्परा के विश्वास की ढाल पर लेते हैं। ग़नीम उनके इस मज़बूत किले के जो जो हिस्से गिरा देता है उन्हें वे सुधारने के लिए तैयार रहते हैं-वे उसकी मरम्मत के लिए नई नई कल्पनाएँ निकाला करते हैं-नये नये ढँग सोचा करते हैं। पुराने रीति-रिवाज-पुराने आचार-विचार-पुराने नियम-उपनियम की रक्षा लोग सदा करते रहते हैं, लोगों को सब प्रकार की पुरानी बातों की रक्षा करने के लिए अनेक घटनाएँ मिलती है और उन्हें दृढ़ बनाने वाले कारणों की संख्या इतनी अधिक है कि आध्यात्मिक और व्यावहारिक स्थिति में बड़ा भारी परिवर्त्तन हो जाने पर भी, और अनेक विषयों में बहुत कुछ लौट-फेर हो जाने पर भी स्त्रियों के विषय में यह मत नहीं बदला, यह जैसा तब था वैसा ही अब भी है, किन्तु इस में आश्चर्य्य की कोई बात नहीं है। जैसे जंगली आदमी अपनी रीति-रिवाजों का कुछ सिर पैर न जानने पर भी उसे दृढ़ता के साथ सैंकड़ों बरस निबाहे जाते हैं-वैसे ही समाज में असार होने पर भी जो बातें छाती के ज़ोर पर निबाही जाती हैं, उन में उन जंगली रिवाजों से किसी प्रकार कमी न समझनी चाहिए।

३-जो मनुष्य किसी सर्वमान्य मत का खण्डन करने को खड़ा होता है उसके सिर बड़ा भारी बोझ होता है। सब से पहली बात तो यही है कि लोग उस की बात सुनते ही नहीं, यदि समाज उसकी बात सुनने को तैयार हो तो समझना चाहिए कि वह बड़ी सामर्थ्य वाला या भाग्यशाली है। वादी प्रतिवादी को कचहरी से फैसला पाने में जितनी कठिनाइयाँ उठानी पड़ती हैं उनसे कई दरजे ज़ियादा मुश्किलें इस बिचारे को इतनी सी बात के लिए उठानी पड़ती हैं कि लोग उसकी बात सुनने के लिए अपना थोड़ा-सा समय दें। यदि लोग उसकी बात सुनने के लिए ज़रा ठहर भी गये तो फिर उसे इस बात के लिए विवश करते हैं कि वह उनके माने हुए सिद्धान्तों के अनुसार ही अपनी बात सिद्ध करे। प्रत्येक विषय में सुबूत अस्तिपक्ष (affirmative side) को देने पड़ते हैं। यदि एक मनुष्य दूसरे पर ख़ून का इलज़ाम लगाता हो, तो इलज़ाम लगाने वाले का फर्ज़ होता है कि वह उसका ख़ूनी होना साबित करे। पर जिस आरोपी पर ख़ून का इलज़ाम लगाया गया है उसका फ़र्ज़ यह नहीं समझा जाता कि वह अपना निर्दोषपन साबित करे। जिन साधारण ऐतिहासिक घटनाओं की चर्चा लोगों में बहुत कम होती है, उनके विषय में भी जब मतभेद हो जाता है, तब नास्तिपक्ष का प्रमाण माँगने से पहले अस्तिपक्ष से प्रमाण माँगा जाता है यानी उस घटना के होने के सुबूत पहले देने पड़ते हैं, यदि सुबूत ज़ोरदार नहीं है तो दूसरे पक्ष से उसके विरुद्ध साबित करने को नहीं कहा जाता। इसी प्रकार साधारण मानवी व्यावहारिकता में स्वतंत्रता के विरुद्ध जो बोलता है, या जो मनुष्यों की स्वतंत्रता पर किसी प्रकार का अंकुश रखवाना चाहता है, उसके ही सिर अपनी बात को सिद्ध करने का बोझ समझा जाता है। यदि एक मनुष्य यह कहता हो कि फलाने वर्ग के मनुष्यों के अधिकार इतने न होने चाहिएँ और उसके बदले में दूसरे वर्ग वालों के अधिकार अधिक होने चाहिएँ,-तो लोग उसका कर्त्तव्य समझते हैं कि वह उस वर्ग को उन अधिकारों के अयोग्य सिद्ध करे-वह भली भाँति साबित कर दे कि वह वर्ग उन अधिकारों को भोगने योग्य नहीं है। सबसे पहले दर्शन शास्त्र से यह सूत्र निकला है कि मनुष्य मात्र को पूरी स्वाधीनता होनी चाहिए और किसी का पक्ष न होना चाहिये। फिर व्यक्ति की स्वाधीनता के विषय में यह नियम सब कहीं स्वीकार किया गया कि मनुष्य-समाज के कल्याण में जिन बातों से बाधा न हो उन सब में व्यक्ति पूरा स्वाधीन है। इस ही प्रकार यह सिद्धान्त भी सर्वमान्य हो गया कि न्याय की दृष्टि में सब मनुष्य समान होने चाहिएँ-यानी न किसी का पक्षपात किया जाय और न किसी का लिहाज़ माना जाय; हाँ, जहाँ न्याय और राजनीति के पेचीले कारण सिद्ध हों, उनसे भिन्न अन्य सब प्रसंगों में किसी के साथ भेद-भाव न रक्खा जाय-सब के साथ समान व्यवहार किया जाय। किन्तु मेरे इस सिद्धान्त में इस प्रकार का कोई सूत्र काम नहीं देगा। यदि मैं यह कहूँ,-"स्त्रियाँ पुरुषों के आधीन हैं, पुरुषों को स्त्रियों का अधिकार है; या राजनीति के योग्य पुरुष ही हैं, स्त्रियाँ उसके अयोग्य हैं, यह पक्ष पहला है अतएव अस्तिपक्ष हुआ, इसलिए प्रत्यक्ष प्रमाणों के द्वारा यह बात सिद्ध कर देनी चाहिए; यदि वे ऐसा न कर सकें या उनके सुबूत पूरे न हों तो उन्हें अपनी बात छोड़ देनी चाहिए," तो निस्सन्देह मेरी यह बात व्यर्थ होगी। इस ही प्रकार यदि मैं यह दलील पेश करूँ कि स्त्रियों से विशेष जिन अधिकारों को पुरुष स्वतंत्रता-पूर्वक भोगता है और स्त्रियाँ उन अधिकारों के अयोग्य समझी जाती हैं,—जिन लोगों का यह सिद्धान्त है उन्हें पुरुषों को विशेष अधिकारों के योग्य और स्त्रियों को उनके अयोग्य सबल प्रमाणों द्वारा साबित कर दिखाना चाहिए; क्योंकि वे एक तो स्त्रियों की स्वाधीनता के ख़िलाफ़ हैं, दूसरे पुरुषों के पक्षपाती हैं। इन दोनों तरीक़ों से तमाम सुबूत उन्हीं के ज़िम्मे पड़ते हैं; यदि वे अपने मत को निर्विवाद रूप से सिद्ध न कर सके-तो फ़ैसला उनके खिलाफ होना चाहिये,-यदि मैं इन्हीं बातों को पेश करूँ तो मेरी है,-जिस तत्त्व के आधार पर संसार के प्रचलित व्यवहारों की रचना की जाती है, जिस तत्त्व के सिद्धान्तों में घिर कर मनुष्य छोटे से बड़ा होता है, उस तत्त्व पर यदि बुद्धिवाद का पहला ही हमला हो, और बुद्धिवाद के तीखे प्रभाव से यदि वे अपने तत्त्व की रक्षा न भी कर सकें-फिर भी वे केवल इतने ही कारण से अपना मत कभी नहीं बदलेंगे-वर्तमान मनुष्य-समाज की दृष्टि से यह अशक्य है। कारण यह है कि अभी तक मनुष्यों को अपनी बुद्धि पर विश्वास नहीं है-लोग अभी तक अपनी शक्ति को साधक-बाधक प्रमाणों के तोलने योग्य नहीं समझते-अपनी बुद्धि को वे परिपक्व नहीं मानते। इस दशा पर पहुँचने के लिए अब तक जितना बुद्धि का विकाश हुआ है, इससे कहीं अधिक विकाश की आवश्यकता है। मेरे इस कहने का मतलब यह नहीं है कि बुद्धिवाद या तर्कशास्त्र पर लोगों का विश्वास कम है; बल्कि रूढ़ि या प्रवृत्ति पर जितना विश्वास होना चाहिए उससे कहीं अधिक है-इस स्थान पर समानता नहीं है, यही मेरा मतलब है। अठारहवीं शताब्दी के लोग जिस विचारशक्ति या सामञ्जस्य तत्त्व को जो सम्मान देते थे, उन्नीसवीं शताब्दी के लोग असामञ्जस्य या मनोवृत्ति को वह सम्मान देते हैं, यह एक अचम्भे में डाल देने वाली प्रतिक्रिया है। बुद्धि को उसके योग्य स्थान से पदभ्रष्ट करके हमने उसका स्थान नैसर्गिक प्रवृत्ति को दिया है, और अपने स्वभाव की जिन-जिन विचित्रताओं को हम सरल न कर सके उन सब को 'नैसर्गिक प्रवत्ति' का नाम देकर हमने छुट्टी पा ली। विचार-शक्ति के हारा खरेखोटे की जाँच का सच्चा रास्ता खुला रहने पर भी केवल प्रेरणा शक्ति के आधार पर बैठ रहना हानिकर है और अवनति का रास्ता है। करण की प्रेरणा को सर्वोत्तम मानना अत्यन्त हानिकारक है-यह समझना बड़ी भूल है,-और इस समय की अधिकांश प्रचलित भूलों का मूल भी यही है। जब तक मानसशास्त्र के यथार्थ ज्ञान का प्रचार पूर्ण रीति से न होगा तब तक इस प्रकार की ग़लतियाँ निर्मूल नहीं हो सकतीं, तब तक ऐसे प्रकार घटते ही रहेंगे। तब तक घटना, प्रकार, या विषय जिसके यथार्थ स्वरूप को हम नहीं समझ सकते उसे 'सृष्टि-क्रम' 'ईश्वरीलीला' 'कुदरती बात' आदि शब्दों से स्मरण करके अपने सिर से जवाबदारी का बोझ फेंकते रहेंगे। जब तक मानसशास्त्र के ज्ञान की उचित वृद्धि न होगी और ऐसी घटनाओं का यथार्थ स्वरूप समझ में न आवेगा, तब तक ऐसी बातें बन्द नहीं हो सकतीं।

अस्तु, मैं अपने ही विषय की बात कहूँगा, मेरे मार्ग में लोगों की प्रवृत्ति और रूढ़ि ही कठिनाइयाँ बनेंगी, इन्हें स्वीकार करके मैं आगे बढूंँगा। रूढ़ि और लोकाचार मेरे मत के विरुद्ध है। साथ ही मैं यह भी स्वीकार करता हूँ कि यह रूढ़ि या यह समझ 'सैंकड़ों बरस से अस्खलित रीति से चली आ रही है, किन्तु इस में रंच मात्र भी सन्देह नहीं है कि इसकी नींव न्याय और विवेचना पर नहीं रक्खी गई-बल्कि इसकी उत्पत्ति के कारण बड़े ही निराले हैं। साथ ही इसकी उत्पत्ति मनुष्य के उत्कृष्ट अंगों से नहीं हुई, बल्कि निकृष्ट अंगों से हुई है, यदि मैं इस बात को सिद्ध न कर सकूं तो लोग प्रसन्नता से मेरे ख़िलाफ़ फै़सला करें। यदि मैं यह सिद्ध न कर दूँ कि मेरा न्यायाधीश पक्षपाती है, तो अवश्य मेरे ख़िलाफ़ फै़सला किया जाय। इस बात से बहुत से मुझ से कहेंगे कि, इतनी जोखम तुम अपने सिर क्यों लेते हो-पर सचमुच यह जोखम नहीं है। क्योंकि इतनी सी बात सिद्ध कर देना तो मेरे सम्पूर्ण काम का एक सीधे से सीधा हिस्सा है।

५-जब कोई रूढ़ि, रस्म, आचार-विचार, प्रणाली या क्रिया सर्वसाधारण हो जाती है तब उसके साधारण-पन से यह अनुमान निकाला जाता है कि वह रूढ़ि या रस्म आदि सर्वथा मनुष्य-समाज की हितसाधक है, या एक समय ऐसा अवश्य था जब उससे समाज का हितसाधन होता था, और यह अनुमान बहुत सी बातों में सच्चा भी होता है। जो रूढ़ि प्रारम्भ में मनुष्य समाज की भलाई के लिए एक साधन के तौर पर पसन्द करके प्रचलित की गई हो या ऐसे भावों पर स्थापित की गई हो कि अमुक प्रकार के व्यवहार से अमुक हेतु साध्य होगा, इस प्रकार का अनुभव करने के बाद जो रूढ़ि पसन्द की गई होगी, या उससे शुभ फल होने का विश्वास करके जो रूदि प्रचलित की गई होगी,-उसके विषय में ऊपर वाला अनुमान वास्तव में ठीक उतरेगा। सब से आदि में जिस समय यह रूढ़ि चली कि स्त्रियाँ पुरुषों की आधीनता में रहें, उस समय सामाजिक व्यवहार चलाने के भिन्न-भिन्न मार्गों की भली भाँति परीक्षा करके यदि यह मार्ग निश्चित किया गया होता-अर्थात् अनेक मार्गों में से सब का अनुभव प्राप्त करने के बाद यह निश्चित सिद्धान्त बन गया होता कि स्त्रियों की पराधीनता वाला मार्ग ही सबसे अधिक अच्छा है-यानी कुछ समय तक पुरुषों को बिल्कुल स्त्रियों के आधीन करके परीक्षा करली होती,-तथा कुछ समय तक स्त्री-पुरुष के अधिकार सर्वथा समान रख कर पजोखा होता-और इस ही प्रकार कल्पनाके द्वारा जो जो नियम समाज चलाने के सूझ सकते हैं उन सब की परीक्षा भली भाँति की गई होती,-और उस परीक्षा के बाद उसके परिणाम-स्वरूप सामाजिक स्थिति सुधारने वाला कोई नियम सब से अच्छा पाया गया होता,-यदि परीक्षा के बाद यह निश्चय होता कि,-"स्त्रियों को सर्वथा पुरुषों के आधीन रखना चाहिए, उन्हें सार्वजनिक कामों में बिल्कुल हाथ न डालने देना चाहिए, वे स्वाधीनता के सर्वथा अयोग्य हैं, एक-एक स्त्री का भाग्य एक-एक पुरुष के पैर में ही बँधना चाहिए, न्याय के अनुसार उनका कर्त्तव्य यही बनाना चाहिए कि स्त्रियाँ पुरुषों की आधीनता में ही रहें," इस ही प्रकार की व्यवस्था सर्वोत्तम है, और दोनों पक्ष के हितसाधन का इससे कोई योग्य मार्ग नहीं, तो जिस समय यह प्रथा सब से पहिले पसन्द की गई, उस समय यह सर्वोत्तम थी, यह अनुमान सिद्ध करने के लिए इसकी सार्वत्रिकता, इसका साधारणपन उदाहरण के काम में आ सकता था, किन्तु इतना होने पर भी यह तो अवश्य ही होता कि जिन संयोगों और परिस्थितियों के आधार पर यह प्रणाली सर्वोत्कृष्ट मानी गई होती, वे संयोग समय की धारा के साथ नष्ट हो चुके होते या परिवर्तित हो गये होते-यदि परीक्षा के बाद भी स्त्रियों की पराधीनता स्थापित की गई होती तब भी समय के वेग में वे संयोग डूब गये होते,-किन्तु यह निश्चित है कि इस विषय में ऐसी कोई विधि नहीं की गई-बल्कि जो थोड़ा गहरा विचार करोगे तो मालूम होगा कि वास्तव में यह घटना ही औंधी रीति से घटी है। प्रथम तो स्त्रियो को पराधीनता के विषय में जो प्रबल लोकमत दिखाई देता है, वह केवल आनुमानिक कारणों पर अवलम्बित है; क्योंकि समाज ने अन्य किसी भी प्रणाली का कभी अनुभव नहीं किया, इसलिए कोई नहीं कह सकता कि समाज में स्त्रियो की पराधीनता अनुभव का परिणाम है। दूसरे बारीक दृष्टि से देखेंगे तो मालूम होगा कि स्त्री पुरुषों के बीच में असमानता रखने की विषम व्यवस्था को लोगों ने पुख़्ता विचार करके—दीर्घ दृष्टि करके-मनुष्य जाति के कल्याण का ध्यान धरके-समाज को मज़बूत पायों पर खड़ा करना सोचके नहीं की-इस प्रकार इसकी रचना हुई ही नहीं। सचमुच यदि लम्बे अतीतकाल पर दृष्टि डालोगे तो मालूम होगा कि इस प्रणाली से पहले किसी के ध्यान में मनुष्य-जाति के कल्याण या समाज-व्यवस्था की कल्पना तक नहीं उठी थी-जिन्होंने इस सम्बन्ध की नींव डाली वे सपने में भी समाज का नाम नहीं जानते थे। इस प्रणाली का मूल खोजने जायेंगे तो सब से पहले हमारी दृष्टि वहाँ पँहुचेगी जब अत्यन्त प्राचीन काल में सब से पहले मनुष्य जाति का सुधार होने लगा या उस समय से (स्त्री पुरुषों में परस्पर स्वार्थसिद्धि के कारण और पुरुषों से स्त्रियों में बल और शरीर कुछ कम होने के कारण) कोई एक स्त्री किसी एक पुरुष के आश्रय में रहना पसन्द करती थी। अब भी क़ायदे बनाने और व्यवहार-पद्धति निश्चित करने का यही उपाय है कि मनुष्यों में जैसा सम्बन्ध व्यवहार में प्रचलित होता है, फिर उस ही के अनुसार उस पर इमारत खड़ी की जाती है। अर्थात् एक समय में जो सम्बन्ध व्यवहार के एक अंग विशेष होकर प्रचलित होते हैं, उन्हें ही पीछे से कानून-क़ायदे की संज्ञा मिलती है और समाज में वे सम्मानित होते हैं। सम्मानित होने से वे नियम समाज में संरक्षित हो जाते हैं, केवल शारीरिक बल से अपने अधिकार स्थापित करने में जो टंटे-बखेड़े होते हैं वे ऐसी व्यवस्था से शान्त हो जाते हैं। इस प्रकार की प्रवृत्ति का परिणाम यह होता है कि अब तक जो मनुष्य निरुपाय होकर पराधीनता में पड़े थे, या जो जोर-ज़ुल्म से पराधीन रक्खे गये थे वे अब से नियमानुसार पराधीन समझ जाते हैं, अर्थात् उसके बाद वे क़ानूनन दास समझे जाते हैं। इतिहास में ग़ुलामी की जड़ इस ही प्रकार जमी है। प्रारम्भ में "लाठी उसकी भैंस" वाले नियम के अनुसार कमज़ोर आदमियों को बलवान् की ग़ुलामी में रहना पड़ता था, और बलवान् मनुष्य केवल अपनी शारीरिक सामर्थ्य पर निर्बलों को अपने आधीन रख सकता था। पर पीछे से ग़ुलामों के मालिक परस्पर अपनी रक्षा के लिए एक दूसरे से मिले-और सब ने अपनी सामर्थ्य मिला कर ऐसी व्यवस्था की कि एक दूसरे के ग़ुलाम और धन न हरण करें, इस ही प्रकार गुलामगीरी अपने अस्तित्त्व में आई। अत्यन्त प्राचीन काल में सम्पूर्ण स्त्री-वर्ग को और पुरुष-वर्ग के बड़े भारी भाग को इस ही प्रकार ग़ुलामी भोगनी पड़ती थी। यह नियम बहुत शताब्दियों तक रहा। इस काल में उच्च शिक्षा से शिक्षित होकर बहुत से मनुष्य सुज्ञानसम्मन्न हुए, किन्तु ऊपर कही हुई दोनों वर्गों की ग़ुलामी के विरुद्ध किसी को बोलने की हिम्मत न हुई, न किसीने इस प्रकार का ही प्रश्न उठाया कि समाज को उत्तम व्यवस्था के लिए इस प्रकार की गु़ुलामी आवश्यक भी है या नहीं। पर धीरे-धीरे इस प्रकार के विचार करने वाले पुरुष पैदा होने लगे; साथ ही मनुष्य समाज में और भी अनेक प्रकार के सुधार होते गये, इसका परिणाम यह हुआ कि योरुप के क्रिश्चियन राज्यों से पुरुषों की ग़ुलामी का सदा के लिए अन्त हो गया और स्त्रियों की ग़ुलामी का रूपान्तर होकर वह पराधीनता के मधुर वेष में वर्तमान है। किन्तु वर्तमान स्त्रियों की पराधीनता भी समाज का कल्याण सोच कर, अनुभव और परीक्षा के द्वारा स्थापित की हुई प्रणाली नहीं है-अर्थात् यह व्यवस्था भी समाज के द्वारा निश्चित होकर प्रचलित नहीं की गई। बल्कि स्त्रियों की वर्त्तमान पराधीनता उस ग़ुलामी का परिशिष्ट अंश है। यह ग़ुलामी जो आज ऐसा मधुर वेष और सौम्य रूप धारण किये दीखती है इसका कारण यह है कि जिन कारणों के प्रताप से मनुष्यों के आचार-विचार और व्यवहार में सुधार हुआ है, तथा मनुष्यों के पारस्परिक व्यवहार में न्याय और सहानुभूति का अधिक आदर किया गया है,-उन्हीं कारणों के व्यापार से मूल ग़ुलामी धीरे-धीरे सुधरती-सुधरती स्त्रियों की पराधीनता के सौम्य रूप को धारण कर सकी है। अपने अत्यन्त नीच पाशविक प्रारम्भ के असर के कारण इतने ज़माने पर ज़माने गुज़रते हुए भी वह ग़ुलामी अभी अस्तित्त्व-हीन नहीं हुई। केवल इतनी ही नींव पर यह रूढ़ि अभी तक टिक रही है, अन्यथा स्त्रियों की पराधीनता के विषय में कोई दार्शनिक अनुकूल अनुमान नहीं निकल सकता। यदि कोई अनुकूल अनुमान निकालने की कोशिश करेगा तो वह इतना भर कह सकता है कि, ऐसे दूषित मूल से उत्पन्न हुई अन्य रूढियाँ जब नष्ट होगईं तब केवल एक यही रुढ़ि अस्तित्त्व में रह सकी है, और स्त्री-पुरुषों में विषमता रखने वाली चाल "लाठी उसकी भैंस" वाले तत्त्व से प्रकट हुई है।

६-यह बात सुन कर लोगों को आश्चर्य होता है, यह बात भी हमारे लिए अच्छी है। इस ही के कारण सुधार का प्रवाह दिन प्रतिदिन आगे बढ़ता जाता है, और मानवी रीति-नीति सुधरती जाती है, हमें इसका विश्वास होता है। संसार में सबसे अधिक उन्नत दो एक देशों की दशा इस समय इस स्थिति पर पहुँच गई है कि उन्होंने "लाठी उसकी भैंस" वाला तत्त्व सर्वथा त्याग दिया है। यह न्याय अब किसी को पसन्द नहीं है, प्रत्येक देश में मनुष्यों का पारस्परिक सम्बन्ध इस न्याय का घोर विरोध करता है। इतना होने पर भी यदि किसी समय किसी को स्वार्थ के लिए "लाठी उसकी भैंस" वाले नियम पर चलने की आवश्यकता होती है, तो वह समाज की किसी न किसी भलाई का बहाना अपने आगे अवश्य रख लेता है। वस्तुस्थिति इस प्रकार की होजाने के कारण लोग अपने मन का समाधान करने लगे हैं कि अब केवल ज़ोर-ज़ुल्म से काम निकाल लेने के दिन बीत गये, और पहले समय के जो व्यवहार रीति-नीति के रूप में इस समय तक वर्तमान हैं, वे "लाठी उसकी भैंस" वाले नियम के अंश विशेष नहीं है। इस समय लोगों को रूढ़ियों, रीति-रिवाजों और पुरानी बातों के लिए यह लगता है कि प्रारम्भ में ये रीतियाँ चाहे जिस प्रकार से प्रचलित होगई हों, किन्तु वे मनुष्य-स्वभाव के अनुरूप अवश्य हैं, और मनुष्य-समाज की सर्वधा हित और कल्याण की साधक हैं,-पिछले लोगों की इस प्रकार की पक्की समझ होनी चाहिए-अन्यथा आज-कल के उन्नत काल में वे कभी टिक ही नहीं सकती थीं। किन्तु इस प्रकार का अनुमान करते समय लोग यह नहीं सोचते कि, जो आचार-विचार, रीति-रिवाज सबल पक्ष को तमाम अधिकार सौंप देता है-वह साधारणतया सजीव और चिरस्थायी होता है, और लोग उसके चिमटे रहते हैं, इस ही प्रकार जिन मनुष्यों को सत्ता या अधिकार प्राप्त होते हैं, उनकी भली या बुरी मनोवृत्तियाँ उन्हें सदैव प्रेरणा करती रहती हैं कि वे अधिकार सदा उन्हीं के हाथ में रहें। इसके अलावा ऊपर लिखा हुआ अनुमान करने वालों को शायद यह भी नहीं मालूम है कि ऐसी ख़राब रूढ़ियाँ धीरे-धीरे अस्त होती जाती हैं; उन में भी जो सब से अधिक निर्बल होती हैं और जीवन के दैनिक व्यवहारों से जिनका सम्बन्ध स्वल्प होता है वे सब से पहले नष्ट होती है, और बाक़ी बलवान् रूढ़ियाँ भी धीरे-धीरे निर्जीव होती है। ऊपर का विचार करने वालों के दिलों में शायद यह बात भी नहीं आती कि, शारीरिक और आर्थिक सामर्थ्य-सम्पन्न होने के कारण समाज का जो दल क़ायदे क़ानून को अपने अनुकूल बना लेता है, वह अनुकूलता तब तक नष्ट नहीं होती जबतक दूसरे पक्ष की सत्ता और शारीरिक सामर्थ्य पहले दल के समान नहीं हो लेती। बलवान् पक्ष से नियमों को अपने अनुकूल बनवा लेने योग्य शारीरिक सामर्थ्य आज तक कभी स्त्रियों को प्राप्त नहीं हुई, इसके अलावा और भी कई विशिष्ट कारणोंवश स्त्रियों की दशा आज तक जैसी की तैसी ही रही. इसलिए "लाठी उसकी भैंस" के तत्त्व पर स्थापित की हुई स्त्रियों की पराधीनता, अन्य सब रूढ़ियों से विशेष बलवान् होने के कारण सब से पीछे नष्ट होगी। दूसरे सैंकड़ों सामाजिक सम्बन्ध और रीति-रिवाज लोगों ने न्याय के अनुसार बदल डाले हैं, किन्तु शक्ति के नियमों पर रचे हुए सामाजिक सम्बन्धों में ये सम्बन्ध जैसे का तैसा चला आ रहा है-यदि स्त्रियों की प्रकृत निर्बलता और ऐसे ही कुछ कारणों पर विचार करेंगे तो यह स्वाभाविक ही मालूम होगा। सब प्रकार के संयोगों पर विचार करते हुए मालूम होगा कि यह ऐसा ही होना चाहिए था। लोगों के नियम-उपनियम और क़ायदे-क़ानून समय समय पर सुधरते रहने के कारण उनका जैसा नया स्वरूप बन गया है, उन में केवल यही रूढ़ि अपवाद के समान बच रही है, वह भी इन कारणों से स्वाभाविक ही है। जब तक स्त्रियों की पराधीनता की उत्पत्ति के सच्चे कारणों को लोग न समझेंगे, और उस पर वाद- विवाद होकर उनका सच्चा स्वरूप सब की दृष्टि के सामने न आवेगा, तब तक लोगों के ध्यान में यह बात भी न आवेगी कि इस उन्नति के ज़माने में स्त्रियों की पराधीनता ही एक कलङ्क शेष है। यह बात विशेष आश्चर्य दिलाने वाली भी नहीं है, क्योंकि पुराने ग्रीक लोग अपने राज्य को स्वतन्त्र मानते थे और उन्हें अपने व्यक्तिगत स्वातन्त्र्य का अभिमान भी था,-किन्तु इतना होने पर भी उन में ग़ुलामों का व्यापार प्रचलित था।

७-वास्तव में बात यह है कि पिछली चार-पाँच पीढ़ियों और अब के मनुष्यों को मानव-जाति की पूर्व-स्थिति का बिल्कुल ज्ञान नहीं है कि वह कैसी थी। इसलिए वे थोड़े से पुरुष जो ऐतिहासिक ज्ञान के मर्म्मज्ञ हैं, और वे सूक्ष्म निरीक्षक जो प्राचीन काल के मनुष्यों के नसूने स्वरूप अब भी अवशेष कुछ देशों के जंगलो मनुष्यों को भलीभाँति देख चुके हैं,-वे ही अपने मन में कल्पना कर सकते हैं कि अत्यन्त प्राचीन काल में मनुष्य-समाज की स्थिति किस प्रकार की होगी। अत्यन्त प्राचीन काल के जीवन-व्यवहार में "लाठी उसकी भैंस" और "ज़मीं जोरू ज़ोर की, ज़ोर घटे पर और की" न्याय का कितना अधिक प्राबल्य था-और लोग खुल्लमखुल्ला किस प्रकार इसका प्रतिपादन करते थे, यह बात इस समय के लोगों को विन्दु-विसर्ग मात्र भी मालूम नहीं है। मैं यह कहना नहीं चाहता कि उस समय के लोग इस न्याय को "उद्धतता" या "बेशरमी” से प्रकट करते थे क्योंकि ऐसे शब्दों से हम संकोच करते हैं। किन्तु यह भी सत्य है कि उस समय के लोगों में यह कल्पना भी कहाँ से हो सकती थी कि जो कुछ हम कर रहे हैं उस में कुछ बुराई का भी अंश है। किसी भूले-भटके तत्त्वज्ञानी या साधु पुरुष के हृदय में यह कल्पना कभी उठी होगी तो उठी होगी; बाक़ी लोगों को तो इसका ख़याल भी नहीं हो सकता था। इतिहास हमें मनुष्य-स्वभाव का बड़ा ही भद्दा अनुभव देता है। इतिहास देखने से मालूम होता है कि संसार की प्रत्येक जाति और क़ौम यह सिद्धान्त दृढ़ता के साथ मानती थी कि सम्पत्ति और सम्पूर्ण ऐहिक सुख केवल शारीरिक पराक्रम पर ही अवलम्बित है, शस्त्रधारी अथवा शारीरिक बल-सम्पन्न राजा या अधिकारी मनमाना ज़ुल्म करने पर भी जो उनका विरोध करता था उसकी वे पूरी दुर्दशा करते थे और मनुष्य की कल्पना के द्वारा जो कड़ी से कड़ी सज़ा सूझ सकती है वह उसे देते थे। अपने से कम सामर्थ्य वाले निम्न श्रेणी के मनुष्यों का भी कुछ हक़ है और उनके प्रति हमारा अमुक प्रकार का कर्त्तव्य है, उच्च श्रेणी वाले सबल मनुष्यों के हृदयों में यह कल्पना यदि कभी कुछ स्थान पाती थी तो उस ही समय कि जब उन्हें अपनी किसी अनुकूलता के लिए निर्बल मनुष्यों को कोई वचन देना पड़ता था। ऐसे वचन सौगन्द खाकर या विधि-पूर्वक प्रतिज्ञा करके करने पर भी अत्यन्त क्षुद्र कारण से या किसी छोटे-मोटे लालच के वश में होकर उच्च श्रेणी वाले सबल मनुष्य तोड़ देते थे और अपने वचन का निःशंक उल्लङ्घन कर डालते थे। यह क्रम मनुष्य-समाज में बहुत समय तक चलता रहा था, किन्तु निर्बलों के हृदयों में इससे निरन्तर चोटें अवश्य लगीं। प्राचीन काल का प्रजासत्तात्मक राज्यतन्त्र एक प्रकार का पारस्परिक समझौता था, या समान शक्ति वाले पुरुषों का एक गिरोह अपने लिए जो राज्यतन्त्र निर्माण करता था उसे प्रजासत्तात्मक राज्य के नाम से पुकारते थे। इस प्रकार प्रजासत्ताक राज्यतन्त्र "लाठी उसकी भैंस" वाले न्याय से कुछ भिन्न प्रकार के बन्धनों से जकड़ा हुआ मनुष्यों का पारस्परिक सम्बन्ध है-इतिहास में केवल शक्ति से कुछ भिन्न यह पहला ही उदाहरण है। यद्यपि "बलवान् के दो भाग" वाला न्याय राज्य के निवासी और ग़ुलामों में वैसे का वैसा ही बना था, फिर भी कुछ अंशों में प्रजासत्ताक राज्य और प्रजा तथा अन्य आस-पास के राज्यों से कुछ ऐसा ही सम्बन्ध था, इतना होने पर भी इस पेचीली घाटी में से शक्ति के नियम को स्थानभ्रष्ट करने वाली क्रिया पैदा हुई, उस समय से ही कहना चाहिए कि मनुष्य-स्वभाव की वास्तविक उन्नति प्रारम्भ हुई; क्योंकि पीछे से जिन आवश्यक अंगों की पूर्ति हुई उन मनोवृत्तियों का प्रादुर्भाव उस ही समय से होने लगा था; और एक बार उनके प्रादुर्भाव हो जाने पर फिर पोषण का ही काम बाकी रह गया था। सब से पहले स्वाधीन राज्यों में ही इस बातका ख़याल पैदा हुआ था कि यद्यपि ग़ुलाम लोकसत्ताक राज्यतन्त्र के भागीदार नहीं हैं फिर भी एक मगुष्य होने के कारण एक मनुष्य के समान हकदार हैं। यहूदी लोगों के क़ायदों में यह बात मिलाई गई थी कि ग़ुलामों के प्रति उनके मालिकों का अमुक-अमुक कर्त्तव्य है और उन्हें वह पूरा करना चाहिए। स्टोइक (The Stoics)*[] लोगों ने सबसे पहले इस तत्त्व को नीतिशास्त्र में मिलाया और प्रकट में लोगों को इसकी शिक्षा दी। ईसाई मत का पूर्ण प्राबल्य होने के अनन्तर इस सिद्धान्त को न मानने वाला पुरुष भाग्य से ही कहीं दिखाई देता था, और कैथोलिक सम्प्रदाय के प्रकट होने के बाद तो इसकी शिक्षा देने वाले और इसे पालन कराने वाले पुरुष पैदा न हुए हों यह असम्भव है। इस प्रकार की दशा होने पर भी क्रिश्चियन मतावलम्बियों को ग़ुलामी के विरुद्ध आन्दोलन करने में बड़ा भारी प्रयत्न करना पड़ा था। एक हजार वर्ष से भी अधिक समय तक ईसाई धर्म ग़ुलामी को उठाने के प्रयत्न में लगा रहा। फिर भी जितनी सफलता इसे होनी चाहिए थी उतनी न हुई। इसका कारण यह नहीं है कि क्रिश्चियन धर्म का प्रभाव कम था। बल्कि इसकी शक्ति बड़ी प्रबल हो गई थी। इसका प्रभाव इतना बढ़ा हुआ था कि राजा और उमराव अपनी अपार सम्पत्ति धार्मिक प्रभावना के लिए दे डालते थे। इस धर्म की शिक्षा पर विश्वास रख कर, हज़ारों मनुष्य अपनी आत्मा को मुक्त करने के लिए अपने जीवन के सम्पूर्ण ऐहिक सुखों और लालसाओं का परित्याग कर देते थे और दरिद्रावस्था स्वीकार करके भक्ति और प्रार्थना में जीवन बिता देते थे। इस धर्म की शक्ति इतनी व्याप्त थी कि पैलेस्टाइन वाली महापुरुष की समाधि को विधर्मियों के हाथ से मुक्त करने के लिए हज़ारों-लाखों वीर यूरोप और एशिया के समुद्रों और पर्वतों को लाँघते हुए अपनी जान की परवा न करके आ जुटे थे। इसकी सामर्थ्य ऐसी अलौकिक थी कि इसकी आज्ञा के आधीन होकर बड़े-बड़े सार्वभौम राजा अपनी अत्यन्त प्रेमपात्री रानी का सम्बन्ध सदा-सर्वदा के लिए त्याग देते थे, क्योंकि धर्माध्यक्ष यह सिद्धान्त निकालते थे कि इस रानी के साथ वाला सम्बन्ध सात पीढ़ी के भीतर का है, अतएव शास्त्र-निषिद्ध है (किन्तु वास्तव में वह सम्बन्ध चौदह पीढ़ी से भी परे का होता था)। क्रिश्चियन धर्म का इतना प्रबल प्रताप होने पर भी वह मनुष्यों को पारस्परिक युद्ध करने की नीच मनोवृत्तियों पर अंकुश नहीं रख सका; और लोग जो अपने ग़ुलामों और निर्बल आश्रितों पर अत्याचार करते थे उसे किसी प्रकार दूर न हटा सका। फौजी ताक़त से कमज़ोर राज्यों को जीत कर ग़ुलाम बनाना और जीती हुई प्रजा पर अत्याचार करना इन में से किसी बात को भी प्रबल धार्मिक शक्ति न रोक सकी। इस घोर अशान्ति को रोकने की इच्छा भी लोगों की नहीं मालूम होती, किन्तु जब एक ज़बर्दस्त ताक़त सब की स्वाधीनता हड़प लेती तब यह खटपट शान्त होती थी। इस प्रकार जब संसार में राजाओं की वृद्धि हुई तब लोगों का निजू कलह ठण्डा पड़ा, किन्तु इस समय से राजा-राजा में और राज्यपद पाने के लिए उत्तराधिकारियों में वही शक्ति का नियम प्रधान बन गया। जिस समय से लड़ाई के लिए क़िलेबन्दियाँ की जाने लगीं और कोट के द्वारा रक्षित नगरों में धनसम्पन्न और शौर्यशाली पुरुषों की वृद्धि होने लगी, तथा मध्यम श्रेणीवाले लोगों के रिसाले और पलटनें युद्ध के लिए शिक्षित किये जाने लगे-तभी निर्बल और सामान्य वर्ग वाले मनुष्यों पर से उमरावों का कड़ा ज़ुल्म कुछ अंशों में कम हुआ। ज़ुल्म भोगनेवाला यह वर्ग बहुत बार अपने वैर का बदला लेना नहीं भूला; जब से उन्हें अपनी शारीरिक सामर्थ्य दिखाने का अवसर मिला तब से बहुत समय पीछे तक बलवान् उमरावों का जुल्म वैसे ही होता रहा। इस प्रकार का अन्याय-अत्याचार यूरोप के अन्यान्य देशों में फ्रान्स को राज्य क्रान्ति के समय तक प्रचलित था। केवल इङ्गलैण्ड में मध्यम श्रेणी वालों का संप अच्छे ढाँचे पर होगया था और नियमों में भी उचित परि वर्त्तन होगया था। यहीं से लोक-सत्ताक राज्य की नींव डाली गई जिससे तमाम झगड़ा शान्त होगया।

८-मनुष्य-जाति की उत्पत्ति से एक बड़े लम्बे अर्से तक लोगों के साधारण व्यवहार में शक्ति का नियम यानी "लाठी उसकी भैंस" प्रचलित रहा है; इससे भिन्न प्रकार का न्याय किन्हीं ख़ास प्रसङ्गों पर विशेष कारणों से ही संगठित हुआ है-और वह बहुत कम कहीं दिखाई पड़ता है। इसके साथ ही हम इस बात का भी दिग्दर्शन ऊपर करा चुके हैं कि जब से लोग पारस्परिक व्यवहार में किसी नीति-मार्ग का अनुसरण करके चलने की आवश्यकता समझने लगे-उस समय को भी कोई लम्बा ज़माना नहीं गुज़रा। जिन रूढ़ियों और रीति-रिवाजों की उत्पत्ति बलात्कार के नियम पर हुई है उन रूढ़ियों को कोई विचारज्ञ और होशियार आदमी, अपने समय में प्रचलित करना कभी योग्य न समझेगा, किन्तु वैसी रूढ़ियाँ और रीति-रिवाज सुधरे हुए ज़माने में भी अनेक पीढ़ियों तक मौजूद रहते हैं और लोगों में वे सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं-और लोगों को न इसकी ख़बर होती है और न उनकी समझ में आता है। अब से केवल चालीस वर्ष पहले*[] इङ्गलैण्ड में कायदे के अनुसार लोगों को इजाज़त थी कि वे अपने बाप दादे की सम्पत्ति के समान ग़ुलामों की खरीद-फरोख़्त करें और यह चाल तो अब तक थी कि आदमी को चुरा कर दूर-देश लेजाते थे और वहाँ उससे मौत के बिछौने पर सोने तक बेरहमी के साथ काम करवाते थे। बलात्कार के नियम का यह अत्यन्त उग्र और अन्तिम स्वरूप है। बलात्कार के नियम का यह भयङ्कर और निन्द्य व्यापार उन मनुष्यों को भी बुरा लगे बिना नहीं रह सकता जो अनियन्त्रित राज्यसत्ता के सब से अधम कार्य को भी क्षमा करने के लिए तैयार रहते हैं: तथा जो मनुष्य निष्पक्ष बुद्धि से विचार करेंगे उन्हें तो इसके स्मरण मात्र से ही रोमाञ्च हो आवेगा। फिर यह स्थिति अत्यन्त प्राचीन काल की नहीं है, बल्कि अपने आप को उन्नत गिनने वाले और ईसाई धर्म का अभिमान रखने वाले इङ्गलैण्ड देश में थोड़े समय पहले यह प्रथा थी, और उस प्रथा के अनुकूल सरकारी क़ायदा था-इस बात का प्रमाण देने वाले बहुत से मनुष्य तो अब तक जीते भी होंगे। इस ही प्रकार अँगरेज़ों के बसाये हुए अमेरिका के आधे से अधिक भाग में कुछ समय पहले ही ग़ुलामी की चाल थी,-वह चाल केवल चाल ही न थी, बल्कि ग़ुलामों के खास बाजार थे जिन में घी शक्कर की तरह उनकी ख़रीद-फरोख़्त होती थी और उन बाज़ारों में ग़ुलाम पहुँचाने के लिए बड़े-बड़े कारख़ाने थे जो दूसरे देशों से निर्दोष आदमियों को पकड़ पकड़ कर ग़ुलामी का बाज़ार आबाद रखते थे। ऐसी स्थिति होने पर भी साधारण लोगों का उनसे विशेष सम्पर्क न रहने के कारण लोकमत उनके विरुद्ध था। ख़ास करके इङ्गलैण्ड में ग़ुलामी के व्यापार को पसन्द करने वालों की तादाद बहुत ही कम थी; क्योंकि यह तो प्रकट ही था कि गुलामों के व्यापार का उद्देश्य धन कमाना था और जिन लोगों को इस प्रथा के प्रचलित रहने में लाभ था उनकी संख्या देश के लोगों से बहुत ही कम थी, तथा जिनका इससे किसी प्रकार सम्पर्क न था वे इसे तिरस्कार की दृष्टि से ही देखते थे। मैं समझता हूँ कि यह सब से अधम दृष्टान्त सब के समाधान के लिए काफ़ी होगा। किन्तु यदि और भी किसी उदाहरण की आवश्यकता हो तो एकसत्ताक राज्यतन्त्र की ख़ूबियाँ देखिए। समग्र देश भर की प्रजा पर बिना किसी रोक-टोक और क़ायदे-क़ानून के एक मनुष्य जो मनचाही हुकूमत करे उस ही का नाम एकसत्ताक राज्यतन्त्र है; यह एकसत्ताक राज्यतन्त्र संसार में कितने लम्बे अर्से तक टिका रहा! इस समय इङ्गग्लैण्ड ही नहीं बल्कि सब देशों का विश्वास हो चुका है कि फौज की मदद से एक आदमी जो लाखों-करोड़ों आदमियों पर राज्य भोगता है, वह "लाठी उसकी भैंस" के नियम का दूसरा प्रकार है। इसके अलावा एकसत्ताक राज्य-पद्धति की कोई उत्पत्ति हो ही नहीं सकती। इतना होने पर भी कुछ देशों को छोड़ कर प्रायः सब कहीं आज भी बड़े बड़े राज्यों का स्वामी एक ही सनुष्य है, और जिन देशों से दस प्रकार की एकसत्ताक राज्यपद्धति उठाई गई है उन्हें कोई लम्बा काल नहीं बीता; इसके अलावा प्रत्येक देश के प्रत्येक श्रेणी वाले मनुष्यों में से और ख़ास करके आमीर-उमराओं में से ऐसे बहुत पाये जाते है जो अब भी एक मनुष्य के आधीन होना पसन्द करते हैं। मतलब यह है कि कोई पद्धति या प्रणाली एक बार लोगों में रूढ़ होजानी चाहिए-फिर वह लोगों के दिलों में अपने लिए बहुत कुछ जगह कर लेती है। यह पद्धति कभी सर्वव्यापिनी न हो सकी होगी, और इतिहास में इससे भिन्न प्रकार की पद्धतियाँ एक ही समय में मिलती हैं, तथा वे उदाहरण उस समय की अत्यन्त पराक्रमी और आबादी में सब से अधिक पहुंँची हुई जातियों में से ही मिलते हैं। फिर भी वह पद्धति रूढ़ हुई इसीलिए लोगों के दिलों में इतनी जगह कर सकी।

अब ज़रा इसका दिग्दर्शन कीजिए कि लोग जिसका पक्षपात करते हैं वह एकसत्ताक राज्यतन्त्र कैसा होता है। निरंकुश होकर उस सम्पूर्ण राज्य को एक आदमी भोगता है, प्रत्यक्ष रीति से उस राज्य के द्वारा केवल एक ही आदमी का फ़ायदा दीखता है,-उस आदमी को लोग राजा कहते हैं; और बाक़ी जो लाखों-करोड़ों उस राज्य में होते है वे सब उसके आधीन होते हैं, उनकी संज्ञा प्रजा है। जो मनुष्य राज्य भोगता है और जिसे बाद में राज्य मिलने की उम्मीद होती है, उन दोनों को छोड़ कर उस राज्य के सब मनुष्य पराधीन होते हैं; और पराधीनता वास्तव में मनुष्य की बेइज्ज़ती है। अब ऊपर वाले उदाहरण से सोचो कि स्त्रियों की पराधीनता में और एकसत्ताक राज्य की पराधीनता में क्या अन्तर है। इस बात से यह मत ख़याल करना कि मैं अभी स्त्रियों की पराधीनता के योग्यायोग्य पर विचार किये डालता हूँ। इस स्थान पर मैं केवल इतना ही सिद्ध करना चाहता हूँ कि ऊपर दिखाये हुए पराधीनता के प्रकार बहुत ही कमज़ोर थे और वे अधिक समय तक टिकने वाले न थे-फिर भी आज तक टिके हुए हैं। अर्थात् अनियन्त्रित एकसत्ताक राज्यपद्धति के द्वारा केवल एक ही आदमी का लाभ होता है और इसे नष्ट कर डालने पर बाक़ी सब को लाभ पहुँचता है, किन्तु इतना होने पर भी एकसत्ताक राज्यपद्धति टिकी हुई है और इसका समर्थन करनेवालों की संख्या भी अल्प नहीं है। फिर जिस स्त्रियों की पराधीनता से प्रत्येक पुरुष का कुछ न कुछ लाभ है, वह पराधीनता यदि बड़े लम्बे समय तक टिकी रहे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।

आदमी के मन की यह एक स्वाभाविक चाल है कि वह हुकूमत की डोर अपने हाथ में चाहता है। प्रत्येक मनुष्य अपने हाथ में कुछ अधिकार होने से अपने आप को बड़ा समझता है, और अधिकार पाने की हौंस प्रत्येक को होती है। स्त्रियों को अपनी आधीनता में रखने का लोभ केवल एक ही मनुष्य या एक ही देश वालों को नहीं होता बल्कि सम्पूर्ण पुरुष-समाज स्त्री-समाज को अपने अधिकार में रखना चाहता है। स्त्रियों को अपनी आधीनता में रखना, यह एक ही प्रकार का लोभ है, और केवल इस ही के लिए पुरुष इस सत्ता को दृढ़ता से अपने अधिकार में नहीं रक्खे हुए हैं। जैसे बड़े-बड़े राज्यों में राजकीय पक्ष सिद्ध करने के लिए बहुत कुछ प्रकार घटा करता है, किन्तु जिस प्रकार उससे कुछ नेताओं और मुखियों का ही लाभ होता है और बाक़ी के लिए वह काण्ड किसी मतलब का नहीं होता, इस विषय में वह प्रकार भी नहीं होता। किन्तु एक कुटुम्ब का नेता, और फिर वह चाहे कहीं का नेता होना चाहता हो,-ऐसे प्रत्येक मनुष्य को अधिकार प्राप्त करने की हौंस होती है और इसमें उसका निजू स्वार्थ मिला होता है। कोई राजा हो चाहे रंक और भिखारी हो चाहे उमराव उसकी इच्छा इस प्रकार की होती ही है। संसार में अधिकार ऐसी लुभाने-वाली चीज़ है कि उसके प्राप्त करने और उसका उपभोग करने की प्रत्येक की इच्छा होती है। यद्यपि सत्ता का लोभ प्रत्येक मनुष्य को होता है, किन्तु जिनके साथ उसका निकट से निकट सम्बन्ध होता है, जिनके साथ उसे अपना सम्पूर्ण जीवन बिताना पड़ता है, यदि वे मनुष्य उसकी आधीनता में न रह कर स्वाधीनता से बरतें तो उसके निजू हित और स्वाधीन व्यापार में अन्तर पड़ना सम्भव है, इसलिए उन मनुष्यों को अपने अधिकार में रखने की इच्छा सब से अधिक प्रबल होती है। ऊपर केवल सत्ता के ज़ोर पर जिन अधिकारों के प्राप्त करने के उदाहरण दिये गये हैं, उनकी रचना केवल अन्याय, अत्याचार और ज़ुल्म पर हुई थी, साथ ही उनका अस्तित्व टिकाये रखने वाले कोई सबल कारण भी न थे, फिर भी उन्हें नष्ट करने में इतनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और इतना समय लगा,-ऐसी दशा में यदि स्त्रियों की पराधीनता केवल अन्याय के ऊपर ही रची गई हो तब भी उसके नाश होने में अधिक से अधिक समय लगे और बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़े तो इसमें आश्चर्य्य ही क्या है?

फिर इस विषय में एक बात और भी विचारने योग्य है कि इस समय जिस वर्ग के हाथ में अधिकार है उसे स्वाधीन और अपने अनुकूल साधनों की कमी नहीं है, उनके हाथ में इतना बड़ा अनुकूल साधन है कि यदि वे चाहें तो यह विरोध अपने आधीन-वर्ग के सामने उपस्थित ही न होने दें। प्रत्येक स्त्री प्रत्येक पुरुष की आधीनता और देख-रेख में रहती है; और देख-रेख ही क्यों, स्त्री पुरुष के बिल्कुल क़ाबू में रहती है। स्त्री का जितना अधिक निकट सम्बन्ध पुरुष से होता है उतना किसी स्त्री के साथ भी नहीं होता, इसलिए स्त्री-समाज को पुरुष-समाज के विरुद्ध आन्दोलन करने का कोई साधन मिल ही नहीं सकता, और पुरुष को अपने क़ाबू में करने योग्य सामर्थ्य स्त्री में होती ही नहीं। बल्कि पराधीन होने के कारण स्त्री को ऐसी ग़रज़ बनी रहती है कि वह अपने स्वामी की प्रसन्नता प्राप्त करे और ऐसी नम्र होकर चले कि पति की आँखों में किसी प्रकार न खटके। राजकार्यों में हम बहुत बार देखते हैं कि लोग बड़े ऊँचे अधिकारियों को कभी घूस देकर और कभी किसी प्रकार का भय दिखा कर अपना काम निकलवाया करते हैं। यदि स्त्री-समाज की ओर देखोगे तो प्रत्येक स्त्री घूस और भय की चक्की में पिसती हुई दीखेगी। स्वामिवर्ग के ख़िलाफ़ और आन्दोलन की मुखिया बनने वाली और आन्दोलन में शामिल होनेवाली स्त्रियाँ अपने सब प्रकार के सुखों से हाथ धो सकती हैं। अधिकार और ज़ोर-जुल्म से जिन्हें पराधीनता प्राप्त हुई हो, और उस पराधीनता में लाचारी से विवश होकर जो अपना सिर भी न उठा सकते हों––ऐसी पराधीन दशा यदि किसी वर्ग की है तो वह केवल स्त्री-वर्ग की ही है। स्त्रियों के पराधीन रखने के अन्यान्य कारणों का उल्लेख मैंने अभीतक नहीं किया; फिर भी जिन मनुष्यों में विचार करने योग्य बुद्धि होगी उनके ध्यान में यह बात तो आ ही गई होगी कि वास्तव में स्त्रियों की पराधीनता अन्याय है और जिन अयोग्य रीतियों में यह अधिकार सम्पादन किया गया है––वे स्वाभाविक रीति से ही अधिक समय तक टिकने वाले हैं। हम जब सोचते हैं कि ऊपर कहे हुए बहुत से निन्द्य प्रकार बहुत से सुधरे हुए देशों में अब भी प्रचलित हैं, और बहुत से देशों से अभी-अभी उठे हैं-तब जिसका मूल सब से अधिक गहरा जमा है, वह स्त्रियों की पराधीनता यदि किसी देश में कुछ शिथिल हो गई तो आश्चर्य्य ही है। पराधीनता को स्थायी रखने वालों की संख्या सबसे अधिक ज़ोरदार है और तमाम प्रतिष्ठित पुरुष इस ही पक्ष में हैं।

९-कदाचित् लोग मेरे दृष्टान्तों पर आक्षेप करेंगे यह-तर्क उठावेंगे कि अयोग्य रीति में अधिकार सम्पादन करने के जो उदाहरण मैंने ऊपर दिये हैं, वे पुरुषों के द्वारा स्त्रियों की पराधीनता के विषय में घटने योग्य नहीं हैं। क्योंकि ऊपर वाले सब उदाहरण ज़ोर, जुल्म और अत्याचार के परिणाम हैं, और स्त्रियों पर पुरुषों का अधिकार तो स्वाभाविक है। पर मैं उनसे पूछता हूँ कि जिनके हाथ में अधिकार होता है, क्या उन्हें कभी ऐसा भी मालूम हुआ करता है कि मेरा बर्ताव स्वाभाविक नहीं है? फिर एक समय ऐसा भी था जब लोगों ने मनुष्यों के केवल दो ही विभाग कर रक्खे थे-एक सबसे छोटा विभाग मालिकों का था और दूसरा सब से बड़ा विभाग ग़ुलामों का था-और इस पर मज़े की बात यह थी कि मनुष्य-जाति का यह वर्गीकरण विचार-सम्पन्न पुरुषों को स्वाभाविक ही मालूम होता था। अरि स्टॉटल (अरस्तू) के समान बुद्धिमान् विचारज्ञ भी, जिसके द्वारा मनुष्यों के ज्ञान-भाण्डार की असीम वृद्धि हुई है, निःशङ्ग होकर अपने ऐसे ही विचार प्रकट करता था; और लोग स्त्रियों की पराधीनता के विषय में जो सुबूत देकर इसे स्थायी रखना चाहते हैं, उन्हीं सुबूतों के आधार पर अरिस्टाॅटल ने अपना सिद्धान्त स्थिर किया था। वे सबूत ऐसे होते हैं कि, प्रकृति से मनुष्य-जाति के दो भाग होते हैं। बहुत से मनुष्य प्रकृति से स्वाधीनता के योग्य होते हैं और बहुत से परतन्त्र प्रकृति के होते हैं। ग्रीक लोग प्रकृति से स्वाधीनता के योग्य होने वाले मनुष्यों में से हैं और थ्रेशिया (Thracians) तथा एशिया-खण्ड के जङ्गली आदमी परतन्त्र प्रकृति के हैं-और इसलिए थ्रेशिया और एशिया-खण्ड वाले मनुष्य ग्रीक लोगों के ग़ुलाम होने के लिये बने हैं। फिर हमें अरिस्टाॅटल तक जाने की ज़रूरत ही क्या है? दक्षिण युनाइटैड स्टेट्स में ग़ुलामों के मालिक भी तो इन्हीं दलीलों से गुलामी का प्रतिपादन करते थे; और ये बातें हमारे अनुभव में बहुत ताजी हैं कि लोग अपनी स्वार्थ-बुद्धि की योग्यता सिद्ध करने में और अपनी मनोवृत्तियों के न्यायपुर: सर बताने वाली दलीलो में कितनी बहुतायत से चिमटे रहते हैं, इस ही प्रकार उस समय के लोग ग़ुलामी को न्यायसङ्गत बताने के पक्ष में थे। क्या उन्हीं लोगों ने इस बात को सिद्ध करने में ज़मीन-आसमान के कुलावे नही मिला दिये कि कुदरत से काले रंग वाले आदमी गोरों की ग़ुलामी के लिए ही पैदा हुए हैं; काले लोगों पर गोरों का स्वामित्व रहना स्वाभाविक है*[]। काले लोग प्रकृति से ही स्वतन्त्रता के योग्य नहीं है, और उन्हें गोरों के दास बन कर रहना लाभदायक है, प्रकृति ने अपनी सृष्टि के लिये यही व्यवस्था की है, इन बातों को सिद्ध करने के लिए क्या उन्होंने कोई कसर उठा रक्खी थी? उन्हीं लोगों में ज़ोर के साथ इस बात को कहने वाले आदमी भी थे कि, दुनिया के जिस हिस्से में तुम्हें यह नज़र पड़ जाय कि हाथ से काम करने वाले मज़दूर आज़ाद है तो वहीं कुदरत के ख़िलाफ़ समझ लो।

इस ही प्रकार एकसत्ताक राज्यतन्त्र के पक्षपाती सदा से यह प्रतिपादित करते आये हैं कि अनेक प्रकार की राज्य-प्रणालियों में अकेली यही प्रणाली स्वाभाविक है; इसका कारण यह है कि यह पद्धति अत्यन्त प्राचीनकाल से चले हुए कुटुम्ब-शासन के नमूने पर स्थापन हुई है और समाज की व्यवस्था बनी रखनेके लिये यह अत्यावश्यक और उपयोगी है। एक कुटुम्ब में जो स्थान पिता का है वही राज्य में राजा का है। इसके साथ ही यह बात भी है कि जिन्हें दूसरों को अपने अधिकार में रखने की हौंस होती है, उन्हें यदि दूसरे की सत्ता के समर्थन से अन्य कोई योग्य कारण या दलील नहीं मिलती, तब उन्हें "लाठी उसकी भैंस" वाला नियम भी स्वाभाविक ही मालूम होता है। वे इस बात को साबित करते हैं कि जो ज़ियादा ताक़त वाला है वह अधिक अधिकार भोगे होगा। लड़ाई में जो पक्ष जीतता है वह भी यही कहता है कि हारने वालों को जीतने वालों के आधीन ग़ुलाम बन कर रहना चाहिए, यही न्याय है, यही प्रकति की आज्ञा है। इस ही बात को यदि सीधे शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि कमज़ोर आदमियों को बलवानों के अधिकार में रहना चाहिये।

इतिहास में जो समय मध्ययुग ( Middle ages) के नाम से प्रसिद्ध है, उस समय के मनुष्य स्वभाव का जिन्हें थोड़ा-बहुत अनुभव होगा, उन्हें मालूम होगा कि उमराव लोग अपने से नीची श्रेणी वाले मनुष्यों को अपने ताबे में रखना कितना स्वाभाविक समझते थे, और नीची श्रेणीवाले लोग उनकी बराबरी करने लगें, या उनसे अधिक अधिकार भोगने की इच्छा करें, तो इस प्रकार की कल्पना ही उन्हें बड़ी विलक्षण और सृष्टिक्रम-विरुद्ध जान पड़ती थी। और पराधीनता भोगने वाले निचले वर्ग को भी यह बात विलक्षण मालूम होती थी। बहुत समय के बाद निम्न श्रेणी वालों ने झगड़-झगड़ा कर कुछ स्वाधीनता प्राप्त की थी, किन्तु उस दशा में भी उच्च वर्ग वालों के सहभागी होने का दावा उन्होंने कभी नहीं किया। उनके प्रयत्न का उद्देश केवल इतना ही था कि उच्च वर्ग वाले जो उन पर बेरोक-टोक ज़ुल्म करते थे उसकी कोई हद होनी चाहिये। ऊपर कही हुई इन सब बातों का सार यह निकलता है कि लोग जिसे "सृष्टिविरुद्ध" या "अस्वाभाविक" कहते हैं उसका मतलब सिर्फ "रूढ़िविरुद्ध" होता है; और जो बातें प्रचलित रूढ़ि और प्रचलित नियमों के अनुसार होती हैं वे सब लोगों को स्वाभाविक ही मालूम होती हैं-लोगों को उनके विषय में कुदरती-पन का ही सपना आया करता है। इस ही प्रकार स्त्रियों की पुरुषों के आधीन रहने की चाल सर्वव्यापिनी और मामूली होने के कारण, इस चाल के ख़िलाफ़ जो कुछ कहा जायगा वह अपने आप लोगों को अस्वाभाविक और सृष्टिविरुद्ध मालूम होगा। पर एक-एक क़दम पर हम इस बात का अनुभव कर सकते हैं कि लोगों को इस तरह की समझ का बन जाना ही रूढ़ि है। पृथ्वी के दूर-दूर के देशों को जब इङ्गलैण्ड का परिचय मिलता है और वे सब से पहली बार सुनते हैं कि इस देश पर रानी का राज्य है-तब उन्हें इतना अचम्भा होता है जितना और किसी प्रकार नहीं हो सकता। यह बात उन्हें इतनी अचम्भे से भरी मालूम होती है, इतनी अस्वाभाविक और सृष्टिक्रम-विरुद्ध जान पड़ती है कि एकदम उनके मानने में ही नहीं आती; पर इङ्गलैण्ड वालों को यह बात अचम्भा या अस्वाभाविक नहीं मालूम होती क्योंकि इससे वे परिचित हैं; पर इन्हीं अँगरेज़ों की यह बात अस्वाभाविक मालूम होगी कि औरतें पार्लिमेण्ट में बैठें और फौजों में भर्ती हों। दूसरी ओर पुराने समय में युद्ध और राजकार्य में स्त्रियों का भाग लेना लोगों को अस्वाभाविक नहीं मालूम होता था, क्योंकि यह बात उस समय प्रायः सर्वमान्य थी। उस समय के लोगों की धारणा थी कि अधिकारी-वर्ग की स्त्रियाँ अपने स्वामियों से शारीरिक सामर्थ्य के सिवाय अन्य किसी बात में कम न होनी चाहिएँ। ग्रीक लोगों की प्राचीन दन्तकथाओं में ऐमेज़ोन (Amazons) नामक युद्ध-कुशल स्त्रियाँ प्रसिद्ध हैं, इस ही प्रकार स्पार्टन लोगों ने अपनी स्त्रियों की वीरता के उदाहरण प्रत्यक्ष देखे थे, इसलिये उन्हें स्त्रियों का स्वातन्त्र्य उतना विस्मयकारक नहीं मालूम होता था। न्याय और क़ायदे की दृष्टि से एक स्पार्टन स्त्री एक ग्रीक राज्य की स्त्री से अधिक स्वाधीन नहीं थी, किन्तु प्रत्यक्ष व्यवहार में उन्हें ज़ियादा आज़ादी थी, और व्यायाम तथा शारीरिक श्रम के कारण उनके शरीर पुरुषों के समान सबल और चुस्त होते थे, इसे उन्होंने बहुत बार प्रत्यक्ष उदाहरणों से भी सिद्ध कर दिया था। प्लेटो (अफ़लातून) ने अपना या सिद्धान्त कि, सामाजिक और राजनैतिक विषयों में स्त्री-पुरुषों को समान अधिकार होने चाहिएँ-स्पार्टा देश की स्त्रियों को ही देख कर बनाया होगा, इस में सन्देह नहीं। १०-अब कदाचित् कोई यह प्रश्न उठावेगा कि पुरुष स्त्रियों के जो अधिकार भोगता है, उस में अन्य प्रकार की सत्ताओं के अधिकारों से एक मुख्य भेद यह है कि इस सत्ता में ज़ोर-जुल्म का नाम भी नहीं है। स्त्रियाँ पुरुषों के अधिकारों को प्रसन्नता से मञ्जूर करती हैं; स्त्रियाँ पुरुषों के अधिकारों को एक दिन भी दोष नहीं देतीं, बल्कि इस अधिकार को पुरुष स्त्रियों की इच्छा और सम्मति से ही भोगते हैं। सब से प्रथम तो अधिकांश स्त्रियाँ इसे स्वीकार ही न करेंगी। जब से ऐसी स्त्रियों की सँख्या बढ़ने लगी है जो लेखों के द्वारा अपने मानसिक भावों को प्रकट कर सकती हैं तब ही से अपनी सामाजिक दशा पर असन्तोष प्रकट करनेवाली स्त्रियों की तादाद भी बढ़ी है, और इस समय तो बुद्धिमान और विचारज्ञ स्त्रियों को अपना नेता बना कर हज़ारों स्त्रियाँ पार्लिमेण्ट में प्रविष्ट होने और वहाँ अपनी सम्मति देने का अधिकार प्राप्त करने की कोशिश में हैं। साथ ही यह विवाद भी एक अर्से से चल रहा है कि पुरुषों को जितने विषयों की शिक्षा दी जाती है स्त्रियों को भी उन सब विषयों की शिक्षा दी जानी चाहिए, और इस विषय में उन्हें बहुत कुछ सफलता मिल भी चुकी है। और जिन उद्योग-धन्धों में नियमानुसार उन्हें प्रविष्ट होने की आज्ञा नहीं है, उन में प्रविष्ट होनेका प्रयत्न वे लगातार दृढ़ता के साथ कर रही हैं। यूनाइटेड स्टेट्स में स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार दिलाने के लिए नियमित सभाएँ होती हैं और इस आन्दोलन को देशव्यापी बनाने के लिए कई संस्थाएँ स्थापित हुई हैं। इङ्गलैण्ड में यद्यपि बड़े ज़ोर-शोर का आन्दोलन नहीं शुरू हुआ, फिर भी कई बड़ी-बड़ी सभाएँ इस प्रयत्न में लगी हैं और स्त्रियों के समान अधिकार की बात चल रही है। उनका उद्देश यह है कि पार्लिमेण्ट में सभासद बन कर देश के शासन में वे भी भाग ले सकें। अपनी पराधीनता की जञ्जीर तोड़ने के लिए अमेरिका और इङ्गलैण्ड को ही स्त्रियाँ प्रयत्न नहीं कर रही हैं, बल्कि, फ्रान्स, इटली, स्विज़रलैण्ड और रशिया में भी यह प्रयत्न चल रहा है। इसके अलावा जो स्त्रियाँ इस आन्दोलन में प्रत्यक्ष रीति से भाग नहीं लेतीं और अपनी महत्त्वाकांक्षा को मन ही मन दाब रखती है उनकी संख्या कितनी अधिक होगी यह बताना सर्वथा अशक्य है। फिर इस बात के मानने के सबल कारण है कि यदि पुरुषों की ओर से स्त्रियों में निरन्तर ऐसे भाव न ठूँसे जायँ कि स्त्रियों को यह महत्त्वाकांक्षा शोभा नहीं देती इसलिये इसे त्याग देना चाहिए, तो अवश्य स्त्रियाँ अपनी स्वाधीनता जल्दी ही लौटा लेवें।

फिर एक बात और ध्यान देने योग्य है कि जो वर्ग सर्वथा पराधीन होता है, वह कभी नहीं माँगता कि मुझे एक बार ही सम्पूर्ण स्वाधीनता मिल जाय। जब साइमन डी-माण्टफोर्ट (Simon-de-Montfort) ने सर्वसाधारण के प्रतिनिधियों को सब से पहिली बार पार्लिमेण्ट में निमन्त्रण दिया था, उस समय क्या किसी को सपने में भी यह ख़याल हुआ था कि ये कुछ प्रतिनिधि ऐसे शक्तिशाली हो सकेंगे कि ज़रा इच्छा करत ही प्रधान मण्डल को बना और बिगाड़ सकेंगे, और राजकार्य में वे राजा पर भी हुकूमत कर सक़ेंगे? उन सब में जो सब से अधिक महत्त्वाकांक्षी होगा, उसकी कल्पना में भी उस समय यह बात न आई होगी कि उच्च वर्ग वाले उमराव अवश्य एक लम्बे अर्से से इस अधिकार के भोगने की आशा कर रहे थे; किन्तु साधारण लोगों की इच्छा केवल इतनी ही थी कि राज्य की निरंकुश होकर कर बढ़ाने की सत्ता किसी मर्यादा के भीतर होनी चाहिए, और सरकारी अधिकारी जो प्रजा पर मनमाना अत्याचार करते थे वह बन्द होना चाहिए। राजनीति के विषय में प्रकृति का यह नियम मालूम होता है कि जो लोग पुराने समय से प्रचलित किसी सत्ता के आधीन हो जाते हैं, वे प्रारम्भ में उस प्रत्यक्ष सत्ता के विरुद्ध कुछ नहीं बोलते, किन्तु उस सत्ता का दुरुपयोग न हो या उसका हाथ जुल्म तक न पहुँचे-यही प्रारम्भ में वे माँगा करते हैं। इस ही प्रकार अपने स्वामियों के अमानुषी व्यवहार के विरुद्ध बहुत सी स्त्रियाँ कहने को तैयार हैं, किन्तु जब वह दोष प्रकट किया जाता है तब पुरुष नाराज़ होते हैं और स्त्रियाँ सन्तप्त के लिये उन्होंने शिक्षा के साधनों का स्वाधीनता-पूर्वक ख़ूब ही उपयोग किया। प्रत्येक स्त्री के दिमाग़ में छुटपन से ही यह बात ठूँस-ठूँस कर भर दी जाती है कि उसकी रहन-सहन उसका चाल-चलन और व्यवहार बिल्कुल भिन्न प्रकार का होना चाहिए। उन्हें छुटपन से सिखाया जाता है कि अपनी इच्छा के अनुसार रहना, और केवल अपने अन्तःकरण की ही आधीनता मान कर चलना स्त्री-जाति को शोभा नहीं देता। बल्कि स्त्रियों के लिए यह बात सब से अच्छी है कि वे दूसरों की इच्छा के आधीन होकर चलें। नीतिशास्त्र उन्हें उपदेश देता है कि स्त्रियों का जीवन तो दूसरों के लिए ही है; प्रत्येक व्यवहार में स्त्रियों को समझ लेना चाहिए कि हम कोई चीज ही नहीं है; और उन्हें समझ लेना चाहिए कि हमारा कर्त्तव्य तो केवल दूसरों के प्रेम की पात्री बन जाना मात्र है*[]। व्यवहार-शास्त्र भी स्त्रियों को यही उपदेश देता है कि पुरुषों की इच्छा के अनुसार बर्ताव करना ही स्त्रियों के लिये कुदरती बात है। स्त्रियों को जो दूसरों से प्रेम करने को शिक्षा दी जाती है, वह भी बहुतों से प्रेम करने की नहीं होती। बल्कि एक तो वह उस मनुष्य के साथ प्रेम करने योग्य समझी जाती है जिसके पैर में उसकी तक़दीर की रस्सी बाँधी जाती है और दूसरे अपने बालबच्चों से प्रेम करना उस का कर्त्तव्य समझा जाता है। क्योंकि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों का सम्बन्ध बच्चों से अधिक होता है। अब इस विषय में तीन बातें विचार करने योग्य हैं। प्रथम तो स्त्री-पुरुषों में एक दूसरे का स्वाभाविक आकर्षण, दूसरे स्त्रियों को प्रत्येक विषय में अपने स्वामियों पर ही आधार रखना पड़ता है,-क्योंकि स्त्रियाँ जो कुछ सुख और जो कुछ स्वाधीनता भोग सकती हैं वह केवल अपने स्वामियों की प्रसन्नता ही पर पा सकती हैं-और जब तक वह अपने स्वामी की इच्छा के अनुसार चलती हैं तभी तक उन्हें कुछ आजादी मिलती है; तीसरे स्त्रियों का जन्म सार्थक होना, उनको सम्मान मिलना, उनके सामाजिक रुतबे में कुछ बढ़ाना-आदि बातें स्थूल रूप से स्त्रियों को केवल अपने स्वामियों से ही मिलती है। जब हम इन तीनों बातों पर विचार करते हैं, तब स्त्रियों को पुरुषों की प्रेमपात्री बनना ही चाहिए, उनकी प्रसन्नता प्राप्त करनी ही चाहिए, पति के मन-चाहे ढँग से रहना ही चाहिए,-इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। स्त्रियों के मन पर अधिकार करने का जब यह पूरा ढँग (शिक्षा) पुरुषों के हाथ लग गया तब उन्होंने अपने स्वार्थ-साधन के लिए ऐसे तरीक़े से इसका उपयोग जारी रक्खा कि जिस से वह सब से अधिक असरकारक हो और इसकी सैंकड़ों युक्तियाँ उन्होंने निकाल लीं। इस साधन के द्वारा स्त्रियों को सर्वथा अपने आधीन बनाये रखने के लिए पुरुषों ने उपदेश करना शुरू किया कि,-"यदि तुम्हें स्वामियों को अपने वश में करना हो, स्वामियों की दृष्टि में सबसे अधिक सुन्दरी दीखने की इच्छा हो, उन की प्रसन्नता प्राप्त करना चाहती हो तो तुम्हें नम्रता, सहन-शीलता, सन्तोष, भक्ति, पति में श्रद्धा, आज्ञाकारिणी बनना-आदि-आदि गुण सीखो। और किसी विषय में पति की इच्छा विरुद्ध न होकर उसकी इच्छा के अनुसार चलो।" ऐसे-ऐसे जिन अचूक साधनों के द्वारा पुरुषों ने स्त्रियों को पराधीन बनाया है, यदि इन्हीं साधनों का उपयोग ग़ुलामों पर किया जाता, तो मनुष्य-जाति जिस ग़ुलामी को उठा देने से विजयी बनी है-वह उठती या नहीं, इस में बहुत संदेह है। यदि प्रत्येक प्लीबीअन (Plebeian)*[] युवा को यह शिक्षा दी जाती कि,-"अपने स्वामी की प्रसन्नता प्राप्त करना ही अपने जीवन का उद्देश है। अपना स्वामी अपने को एक कुटुम्बो की तरह माने, और अपन उसके सम्पूर्ण प्रेम के पात्र बन कर रहें, अपनी सेवा का सब से अच्छा बदला यही है, यही सब से बड़ा पारितोषिक है।" यदि प्रत्येक प्लोबीअन युवक के मन में यह लोभ पैदा करा दिया गया होता, और यदि उनमें सब से विशेष बुद्धिमान् और महत्त्वाकांक्षी युवकों को यह विश्वास करा दिया गया होता कि उन्हें यह उत्कृष्ट पदार्थ मिलेगा; तो इसके मिलने पर, वे अपने मालिकों की इच्छा और स्वार्थ के विरुद्ध निस्सन्देह कुछ न करते। वे अपने मालिकों के लाभ को छोड़ कर दूसरी किसी बात को अपने मन में जगह न देते। यदि उनके हृदयों को इस प्रकार अपनी ओर झुका लिया गया होता तो आज स्त्री-पुरुषो में जो स्थूल भेद दिखाई देता है वही पेट्रोशिन और प्लीबीअनों में दीखता। और किसी इक्के-दुक्के विचारशील पुरुष को छोड़ कर बाक़ी सब मनुष्यों को यह बात स्वाभाविक ही मालूम होती, मनुष्य-प्रकृति में स्वभावसिद्ध जान पड़ती, अपरिहार्य मालूम होती- इस में ज़रा भी सन्देह नहीं है।

१२-ऊपर दी हुई निर्दिष्ट विचार-शैली से यह बात तो सब को साफ़ तौर पर मालूम हो गई होगी कि वर्त्तमान रूढ़ि चाहे जैसी सर्वमान्य या सर्वसाधारण हो, किन्तु केवल उसकी सर्वमान्यता से ही सामाजिक और राजकीय विषयों में स्त्रियों को पुरुषों के आधीन रखने की व्यवस्था प्रकृतिसिद्ध या स्वाभा भिक नहीं सिद्ध होती और उसके पक्ष में इस प्रकार का कोई अनुमान नहीं बाँधा जा सकता। पर आगे बढ़ कर मैं यह सिद्ध करना चाहता हूँ कि, इतिहास-क्रम और दिनों दिन सुधार की ओर बढ़ने वाली मनुष्य-जाति की वृत्ति, यदि इन दोनों को सामने रख पर विचार करेंगे तो स्त्री-पुरुषों में आज जो अधिकार-वैषस्य की प्रथा प्रचलित है-इस प्रथा के अनुकूल कोई अनुमान उसमें से न निकलेगा, बल्कि इसके विरुद्ध अनुमान ही पैदा होगा। यदि आज तक के मनुष्य-जाति के उन्नति-क्रम को हम सोचें और यह विचारें कि इस समय के लोगों का विचार-प्रवाह किस ओर बह रहा है—तो साफ़ मालूम होगा कि भूतकाल की अयोग्य रूढ़ियों जैसे एक के बाद एक बन्द होती गई वैसे ही स्त्रियों की पराधीनता भी अवश्य बन्द होनी चाहिये; क्योंकि यह प्रथा आने वाले समय के लिए असंगत और अयोग्य है।

१३-इन बातों को हल करने के लिए इन प्रश्नों का सोच लेना आवश्यक है कि इस ज़माने का विशेष लक्षण क्या है? प्राचीनकाल की परिपाटी, लोक-व्यवस्था, जीवन-प्रवृत्ति और इस ज़माने की परिपाटी, लोक-व्यवस्था, जीवन-प्रवृत्ति में मुख्य भेद कौन-कौन से हैं? आज जो प्राचीनकाल से मुख्य भेद है वह यह है कि, मनुष्य जिस स्थिति में पैदा होता है उस ही स्थिति में अन्त तक नहीं रह सकता; ऐसे नियम और ऐसी रूढ़ियाँ आज नहीं है कि जिनके कारण जन्म से मृत्यु तक मनुष्य अपनी अवस्था न बदल सके। अपनी बुद्धि के अनुसार आज जो मनुष्य जिस काम को करना चाहता है उसे आज़ादी के साथ कर सकता है; आज आदमी इस बात के लिए स्वाधीन है कि उसे जैसे अनुकूल साधन प्राप्त हो वैसे ही वह उन्हें काम में लाकर अपनी हालत सुधार ले। पुराने समय में समाज की व्यवस्था कुछ और ही नियमों पर चल रही थी। जिस मनुष्य का जन्म जिस कुल और जिस जाति में होता था वह मरने तक उस ही कुल और उस ही जाति में रक्खा जाता था; क़ायदे और रूढ़ियाँ उसे ज़रा भी इधर-उधर न होने देती थीं, और विशेष करके तो उसे अपनी स्थिति सुधारने के साधन ही दुर्लभ थे। जैसे मनुष्यों में कुछ आदमी काले रंग के पैदा होते हैं और कुछ गोरे रंग के-वैसे ही उस ज़माने में बहुत से आदमी ग़ुलाम बन कर जन्म लेते थे; यानी जिस बालक का जन्म ग़ुलाम के पेट से होता था वह आजन्म ग़ुलाम ही होता था और स्वाधीन नागरिक के घर पैदा होने वाला बालक स्वाधीन समझा जाता था*[]। जिस बालक का जन्म उमराव के घर होता था वह जन्म-भर उमराव गिना जाता था और सामान्य मनुष्य के घर पैदा होने वाला बालक आजीवन सामान्य श्रेणी में ही समझा जाता था।जिस बालका का जन्म पेट्रीशिअन वर्ग में होता था वह पेट्रीशिअन और जिसका प्लीबीअन के घर जन्म होता था वह प्लीबीअन ही रहता था। एक दास या ग़ुलाम के पेट से पैदा हुआ मनुष्य अपनी बुद्धि और प्रयास से ऊँचे वर्ग में नहीं जा सकता था, उसे स्वाधीनता नहीं मिल सकती थी; अपने मालिक की मरजी के अलावा स्वाधीनता पाने के लिए उसके पास कोई उपाय नहीं होता था। इतिहास जिस समय को मध्ययुग कहता है उसके अन्त तक योरूप के सभी देशों में वह उमराव या श्रेष्ठ पद नहीं प्राप्त कर सकता था जिसका जन्म उन वंशों में नहीं हुआ है; और मध्ययुग के अन्त में भी राजाओं की सत्ता विशेष होने के कारण साधारण श्रेणी वाले उमराव-पद पर पहुँच सकते थे। उमराव-वर्ग में भी यह ज़बर्दस्त रिवाज थी कि बड़ों की पैदा की हुई तमाम मिलकियत का वारिस सिर्फ बड़ा लड़का ही हो सकता था और बाप अपने बड़े बेटे को उसके हक़ से नहीं हटा सकता था। अर्थात् अपने पूर्वजों की पैदा की हुई सम्पत्ति को अपने मनचाहे ढंग से तकसीम नहीं कर सकता था। इस नियम के निश्चित होने में भी एक बड़ा लम्बा अर्सा लगा था। हुनर और व्यापार-धन्धा भी वही कर सकते थे जो उस व्यापारिक या कार्यकारी मण्डल (Guild) में पैदा होते थे, और जो मनुष्य उस में पैदा नहीं होते थे और मण्डल जिन्हें अपने में नहीं मिलाता था वे एक निश्चित हद तक क़ानून के अनुसार व्यापार-धन्धा नहीं कर सकते थे। और जो धन्धे या व्यापार महत्त्व के समझे जाते थे उनके विषय में महाजन जो नियम निश्चित कर देता था या उसके विषय में जो रीति चला देता था उस ही के अनुसार वह काम चलाना पड़ता था। इतिहास में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है कि अपने कारोबार में, किसी काम के तरीक़ों को लौट-फेर करने में, या किसी नई तरकीब के खोज निकालने में लोगों को कड़ी से कड़ी जेल की सज़ा भोगनी पड़ी है। पर आज उस ही योरुप-खण्ड में, जहाँ किसी नई बात का सोचना ही अपने सिर मौत बुलाना था, तमाम बातें नई और उस ज़माने के खिलाफ मालूम होती हैं। आज किसी देश की गवर्नमेण्ट या राजा उस बात का निश्चय नहीं करते कि कला-कौशल के काम को किस जाति वाले करें, किस ढंग से करें और कौनसी पद्धति का अनुसरण करें। आज प्रत्येक व्यक्ति इस बात के लिए स्वाधीन है कि वह अपने आपको जिस काम के योग्य समझे वह प्रसन्नता से करे। इङ्गलैण्ड में पहले क़ानून था कि कारीगरी के काम करने वालों को एक नियत समय तक अनुभवी कारीगर के पास उम्मीदवारी करनी पड़ेगी, पर यह कानून अब रद कर दिया गया; इसका कारण यह है कि अब लोगों की समझ होगई है कि यदि किसी को अपना काम चलाने के लिए अनुभव और शिक्षा लेने की आवश्यकता ही होगी तो वह अपने आप काम सीखेगा, पर इसके लिए कानून बनाने की आवश्यकता ही क्या है। पुराने ज़माने में लोगों का ख़याल था कि व्यक्ति की पसन्द पर बहुत ही कम काम छोड़ने चाहिएँ। जो सत्ता के स्वामी होते थे वे सोचते थे कि हम लोगों से ज़ियादा अक्लमन्द-विचक्षण हैं, इसलिए किस व्यक्ति का हित किस काम में है, उसे जिस तरीक़े से करने पर उसे लाभ होना सम्भव है, उसके लिए इन सब बातों का निर्णय हमें पहले से ही कर डालना चाहिए, और यदि उसे स्वतन्त्रता-पूर्व्वक उसकी मन्शा के मुताबिक़ करने दिया जायगा तो उससे ज़रूर भूलें होंगी। इस ज़माने में यह समझ बहुत कुछ उड़ गई है। हज़ारों बरसों के अनुभव के बाद लोगों का यह पक्का विश्वास हो गया है कि जिस काम में जिस व्यक्ति का प्रत्यक्ष लाभ हो, उस काम को उस ही की मरज़ी पर छोड़ देना चाहिए; ऐसा करने पर ही वह काम अच्छे से अच्छे ढँग पर हो सकता है; और यदि दूसरों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए सरकार बीच में हाथ डालेगी तो उस काम में अवश्य हानि ही होगी। इस निश्चय पर पहुँचने में मनुष्य-जाति को बड़ा समय लगा है, और इस पद्धति के विरुद्ध जितने प्रकार की पद्धतियाँ कल्पना में लाई जा सकती हैं, उन सब का अनुभव प्राप्त करके, जब सब के परिणाम में हानि हुई, तभी लोगों ने इस निश्चय के अनुसार काम करना निश्चित किया। इस समय जो देश उन्नत और ज्ञानसम्पन्न कहे जाते हैं उन सब में, हुनर और उद्योग-धन्धे के विषय में ऊपर लिखा सिद्धान्त ही काम में लाया जाता है, और इसलिए इस समय जो मनुष्य जिस धन्धे को करना चाहता है उसमें किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं आता। कोई मनुष्य यह सिद्ध करना नहीं चाहता कि एक काम के जितने न्यारे-न्यारे तरीक़े हैं वे सभी अच्छे हैं, या सभी आदमी सब कामों को ख़ूबी के साथ कर सकते हैं। बल्कि लोगों की यह धारणा बन चुकी है कि हर एक धन्धे की पसन्द आदमी की मन्शा पर छोड़ देने से वह उसीतरीके को पसन्द करेगा जो सब से अच्छा होगा, और जो आदमी पूरे तौर पर जिस कामके लायक होता है-उस ही के हाथ में वह काम जाता है। उदाहरण के तौर पर जो आदमी मज़बूत शरीर वाला होता उसही के हाथ लुहार का धन्धा जाता है, इसलिए इस तरह के कानून की कोई ज़रूरत नहीं है कि कमज़ोर आदमी लुहारी का काम नहीं कर सकते। काम पसन्द करने की आज़ादी और अनियन्त्रित स्पर्धा इन दो कारणों से लुहारी के काम को वे ही पसन्द करेंगे जो मोटे-ताज़े और ताक़त वाले होंगे; और जिन आदमियों में ज़ियादा ताक़त न होगी वे लुहारी का काम न करके जिस काम के लायक़ होंगे उसे तलाश कर लेंगे क्योंकि ऐसा करने पर ही उन्हें ज़ियादा से ज़ियादा फ़ायदा हो सकेगा। इस ही सिद्धान्त के अनुसार लोगों की धारणा हो गई है कि, किसी ऐसे-वैसे कारण पर ही नियमानुसार किसी को किसी काम के अयोग्य बना देना एक सत्ताधीश का योग्य कार्य नहीं है––अर्थात् गवर्नमेण्ट इस बात का निर्णय करे यह उचित नहीं। यदि कहीं कभी इस बात का सरल कारण भी मिल जाय कि अमुक वर्ग के मनुष्य अमुक कार्य के योग्य नहीं हैं, फिर भी वह मानने के लिए कोई कारण नहीं मिल सकता कि यह अनुमान सब जगह समान रीति से ही लागू हो सकेगा। यदि थोड़े समय के लिए हम इस बात को स्वीकार भी कर लेवें कि बहुत से उदाहरणों में से कोई इस प्रकार का अनुमान सच होगा, फिर भी ऐसे अपवाद रूप थोड़े बहुत उदाहरण निकल ही आवेंगे जिनमें यह अनुमान पूरा नहीं उतरता होगा, और इस बात के लिए ही उनके विषय में नियम बनाने की प्रथा का काम में लाना––यानी अपनी-अपनी शक्ति का सब से अधिक लाभ उठाने की व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर अङ्कुश रखना तथा उसके मार्ग में बाधाएँ खड़ी करना, उन-उन व्यक्तियों के प्रति अन्याय का बर्ताव करना है, उनका नुक़सान करना है, बल्कि उससे मनुष्य-समाज की भी हानि है। दूसरी ओर जो मनुष्य सचमुच उस काम के अयोग्य होगा, वह अपने आप उस काम में हाथ न डालेगा; काम की ओर प्रेरणा करने वाले जो हेतु मनुष्य के भीतर होते हैं, वे हेतु ही उस काम से उसे हटावेंगे, फिर भी यदि कोई मनुष्य बिना विचार अयोग्य काम को शुरु कर ही देगा तो परिणाम में उसे बिल्कुल लाभ न होगा, और इस लिए अपने आप उससे हाथ खींच लेगा।

१४-यदि अर्थशास्त्र और व्यवहारशास्त्र का यह नियम सत्य न हो, प्रत्येक मनुष्य किस काम के योग्य है और किसके अयोग्य है इसका निर्णय उन व्यक्तियों की अपेक्षा गवर्नमेण्ट या उसके अधिकारी विशेष दक्षता से कर सकें, तो इस सिद्धान्त को जैसे बने वैसे लोग जल्दी से छोड़ देवें और उसी पुराने व्यवहार को काम में लावें। यदि यह बात सत्य हो तो सरकार प्रत्येक विषय के कानून बना डाले, और अमुक वर्ग के मनुष्य इस काम के योग्य है और अमुक वर्ग वाले अयोग्य-यही पुराना नियम फिर प्रचलित हो जाना अच्छा है। पर यदि इस सिद्धान्त के सत्य होने में हमारी दिल-जमई होगई हो, तो हमें अपने सभी विषयों में इसका प्रयोग करना चाहिए। और अमुक मनुष्य उच्चकुल में न उत्पन्न होकर नीचकुल में उत्पन्न हुआ, अथवा गोरे मा-बाप के पेट से न पैदा होकर काले रङ्ग वाले मा-बापों के यहाँ जन्मा, इसलिए वह जन्मभर कुछ नियमित नीच कार्य करने ही के लिए पैदा हुआ है, अथवा वह आमरण अमुक प्रकार के नीच सामाजिक अधिकारों का ही पात्र है, यह बात जैसी हमें अन्याय-भरी मालूम होती है, उसही प्रकार किसी मनुष्य प्राणी को लड़के का जन्म न मिलकर लड़की का जन्म मिला, केवल इतने ही कारण से उसके लिए यह निर्णय कर देना कि वह अमुक प्रकार की सामाजिक स्थिति के लिए ही बनी है, या कुछ इज्ज़त-आबरू के काम करने के दरवाजे़ उसके लिए बन्द कर देना-यह काम भी उतने ही अन्याय और अत्याचार से भरा समझना चाहिए। पुरुषों की ओर से जो इस प्रकार का दावा किया जाता है कि अमुक-अमुक अधिकारों में स्त्रियों की अपेक्षा पुरुष ही विशेष योग्य है, यदि हम ज़रा देर के लिए इसे मान लेवें, यानी यह स्वीकार कर लेवें कि पुरुष स्त्रियों में विशेष योग्यता वाले होते हैं। फिर भी पार्लिमेण्ट के सभासद बनने के लिए जो नियम निश्चित है कि उसकी इतनी योग्यता होनी चाहिए, उसे अमुक-अमुक नियम पूरे करने चाहिएँ,-उन निश्चित नियमों को कानून का स्वरूप देने के विरुद्ध जो दलीलें पेश की जाती हैं-वे ही दलीलें इस विषय पर भी समान लागू है। मानलो कि, कोई मनुष्य पार्लिमेण्ट के सभासद होने के सर्वथा योग्य है, पर सभा ने योग्यता के विषय में जो-जो नियम निश्चित कर दिये हैं, उनमें से एक दो को पूरा न कर सकने के कारण वह पार्लिमेण्ट का सभासद नहीं हो सकता। यदि प्रत्येक बारह में भी इस प्रकार का एक उदाहरण बन जाता हो, तो उससे सम्पूर्ण देश का नुकसान है, और ऐसे हज़ारों अयोग्य यदि न चुने जायँ तो विशेष लाभ नहीं। क्योंकि यदि चुनने वाले मण्डल का संगठन ऐसा होगया हो कि वे अपनी रुचि के अनुसार अयोग्य मनुष्यों को ही चुनें तो वास्तव में अयोग्य उम्मीदवारों की बन आवेगी-और ऐसों की कमी भी नहीं होती। साधारण रीति से स्थिति इस प्रकार की होती है कि यदि चुनाव का क्षेत्र किन्हीं विशेष रीतियों से संकुचित नहीं किया जाता, तब भी कठिन और महत्त्व के कामों के योग्य जितने मनुष्यों की आवश्यकता होती है उससे कम ही मिलते हैं। सुयोग्य मनुष्यों की तो सदा कमी होती ही है, इसलिए चुनाव के क्षेत्र को किन्हीं रीतियों से संकुचित या मर्यादित किया जाय, अर्थात् जैसी योग्यता वाले मनुष्यों की आवश्यकता हो, वैसी कड़ी शर्तें रक्खी जायँ, और इस प्रकार चुनाव के योग्य मनुष्यों की संख्या छोटी कर डाली जाय-तो इस रीति का परिणाम यह होगा कि बहुत बार योग्य से योग्य मनुष्य चुनाव में न आसकेंगे, और ऐसा होने से उन मनुष्यों के द्वारा जो मनुष्य समाज का कल्याण होना था वह नहीं होगा। साथ ही अयोग्य मनुष्य जो समाज के गले पड़ने होंगे वे पड़े हींगे।

१५-आज-कल के सुधरे हुए देशों के क़ायदे-क़ानून और समाज-व्यवस्था के नियम देखने से मालूम होता है कि, किसी मनुष्य को किसी सामाजिक स्थिति में जन्म धारण करने के कारण किन्हीं विशेष अधिकारों से वञ्चित नहीं रहना पड़ता। इस नियम में एक स्त्रियाँ और दूसरे राजा, बस ये दो ही अपवाद है। राजपद के सम्बन्ध में आज भी वही तरीक़ा चला जाता है कि जो मनुष्य राजकुटुम्ब में पैदा हुआ हो वही राजा हो सकता है, राजकुटुम्ब से भिन्न कोई मनुष्य सिंहासन का उत्तराधिकारी नहीं होता और राजघराने का भी वही मनुष्य राजा होता है जो वारिस समझा जाता है। केवल एक राजपद को छोड़ कर बाक़ी सम्पूर्ण अधिकार और हर एक सामाजिक लाभ उठाने की स्वाधीनता प्रत्येक मनुष्य की है। निस्सन्देह बहुत से अधिकार और लाभ ऐसे हैं जो बिना द्रव्य के प्राप्त नहीं हो सकते, किन्तु द्रव्य-प्राप्ति के सम्पूर्ण द्वार प्रत्येक व्यक्ति के लिए खुले है; तथा ऐसे बहुत से उदाहरण हमारे सामने मौजूद हैं कि साधारण कुल में जन्म लेकर लोग धनी बने हैं। यह बात तो है ही कि भाग्य सब के अनुकूल नहीं होता, और इसलिए बहुत से मनुष्यों को उच्च श्रेणी में जाते हुए अनिवार्य कठिनाइयाँ आती हैं। किन्तु यह तो निस्सन्देह है कि नियम की कोई ऐसी बाधा नहीं है जिससे किसी-किसी वर्ग वाले किसी अधिकार को न पा सकें, या किन्हीं विशेष कामों के लिए कोई वर्ग अयोग्य समझा जाय; अर्थात् नियम या लोकमत से स्वाभाविक कठिनाइयों में कृत्रिम कठिनाइयांँ नहीं मिलाई जातीं।

ऊपर कहा गया है कि राजपद इस नियम का एक अपवाद है, और इसे प्रत्येक मनुष्य बात-चीत करते समय अपवाद ही कहता है। इस बात को प्रत्येक मनुष्य जानता है कि राजपद का जो कुछ खटराग पूरा करने के लिए इस जमाने में रीति-रिवाज और व्यवहार प्रचलित हैं और जैसी नाम मात्र की सर्वमान्यता उसे दी गई है। यह कुछ विशेष बातों के लिए समझ-बूझ कर पसन्द करना पड़ा है। इन विशेष बातों के महत्त्व के विषय में अर्थात व्यवस्था की आवश्यकता के सम्बन्ध में भित्र-भिन्न व्यक्तियों के तथा भिन्न-भित्र प्रजाओं के मन्तव्यों में भेद है, यह सत्य है, किन्तु ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो इन विशेष कारणों के अस्तित्त्व को स्वीकार न करता हो। यद्यपि कुछ विशेष महत्त्व के कारणों से राजपद के समान सर्वोच्च सामाजिक अधिकार प्रजा मात्र की स्पर्धा के लिए खुला नहीं रक्खा गया, केवल राजपरिवार में पैदा हुए मनुष्यों के लिए ही वह रक्षित रक्खा गया है, और इस रक्षितपन के कारण यह सामान्य नियम का अपवाद जैसा मालूम होता है, फिर भी इस समय के सम्पूर्ण स्वाधीन राज्यों ने अनेक युक्ति-प्रयुक्तियों के द्वारा इस अधिकार को केवल नाममात्र का ही रख दिया है, और वास्तविक रीति से देखते हुए यह सब उसी मूल नियम को पोषण के लिए रक्खा है; क्योंकि राजा के पीछे बड़ी-बड़ी शर्तें लगी हैं, अपने राज्य पर हुकूमत करते हुए राजा पर इतने बन्धन पड़ जाते हैं कि उसके हाथ में राज्याधिकार तो केवल नाममात्र के ही रह जाते हैं, केवल नाम मात्र का राज्य उसके हाथ में रहता है। राज्य की प्रधान सत्ता मन्त्री (सेक्रेटरी) के हाथ में होती है, और इस मन्त्री के पद तक पहुँचने के लिए सर्वसाधारण को पूरी स्वाधीनता है। इस बात से यह सिद्ध होता है कि इस ज़माने में केवल स्थिति में जन्म होने के कारण यदि किसी को अधिकारों से वञ्चित किया जाता है तो वे केवल स्त्रियाँ ही हैं। इस उदाहरण के समान अचम्भे में डाल देने वाला उदाहरण और कोई नहीं दीख सकता। संसार भर की मनुष्य-जाति के आधे भाग को केवल जन्म के कारण अधिकारों के अयोग्य बताना कितने दुःख की बात है। स्त्रियों के विषय में पुरुषों का निश्चय किया हुआ प्रतिबन्ध इतना अनुल्लंघनीय है कि वे चाहे जितना परिश्रम करें, सम्पत्ति प्राप्त करें, चाहे जितनी विद्या सम्पादन करें, और चाहे जितनी ज्ञान और बुद्धि सम्पन्न हो, किन्तु उन्हें स्त्री-देह मिलने के कारण-वे किसी प्रकार अपनी नालायकी फेंक कर लायक बन ही नहीं सकती। जो मनुष्य राज्य को स्थापन किये हुए धर्म को नहीं मानते वे भी कुछ अधिकार और ओहदों के लिए अयोग्य समझ जाते हैं, किन्तु वे मनुष्य भी पीछे से अपने धर्म को बदल कर राज्य-धर्म को स्वीकार करलें तो उनके लिए फिर सब मार्ग खुल जाते हैं, अर्थात् पहले का धर्म-भेद भी जन्म-भर उनका मार्ग नहीं रोकता। तथा इंग्लैण्ड और योरुप के अन्य देशों में तो केवल धर्म-भेद के कारण अयोग्य समझने की प्रथा प्रायः उठ गई है, इसलिए इस समय केवल जन्म के कारण बड़े-बड़े अधिकारी के अयोग्य किसी को खोजेंगे तो केवल स्त्रियाँ ही मिलेंगी।

१६-इस बात से सब के ध्यान में आगया होगा कि वर्त मान समय की समाज-व्यवस्था में स्त्रियों की सामाजिक पराधीनता एक कलङ्क के समान रह गई है। जो नियम समाज में सामान्य और सर्वमान्य है उसके उल्लङ्घन का केवल एक यही उदाहरण है। पुराने आचार-विचार नष्ट होजाने पर भी यह प्रथा अवशिष्ट है; और इस अवशिष्ट अंश में ही संसार का विशेष लाभ छिपा है। हम यह अभिमान करते हैं कि संसार में सुधार का प्रवाह दिन पर दिन आगे की ओर बढ़ रहा है, पर स्त्रियों की पराधीनता से इसमें बड़ा भेद है। सुधार के तेज़ प्रवाह में पहले की तमाम ख़राब बातें बह गईं और उनके स्थान पर प्रत्येक बात न्याय और हित के मूल पर स्थापित की गई है। इतना सब कुछ होने पर भी स्त्रियों की पराधीनतावाली हानिकारक चाल आज तक जैसी की तैसी अटल है। इन दोनों बातों को ध्यान में रख कर जब हम मनुष्य-स्वभाव की प्रवृत्ति का सूक्ष्म निरीक्षण करते हैं, तब आश्चर्य हुए बिना नहीं रहता। स्त्रियों की पराधीनता वाली रूढ़ि अत्यन्त प्राचीन काल से चली आ रही है, तथा इसका प्रसार मनुष्य मात्र में है, इन दोनों कारणों से हम इस रूढ़ि के विरुद्ध मत देने में हिचक जाते हैं, पर ऊपर बताई हुई विसंगतता को जब हम सोचते हैं, तब इस रूढ़ि के विरुद्ध अनुमान करने के बहुत से कारण मिल जाते हैं, यदि यह भी न सही तो, जब इस प्रकार का प्रश्न उपस्थित होता है कि राज्यसत्तात्मक राज्यपद्धति और प्रजासत्तात्मक राज्य पद्धति इन दोनों में अच्छी कौन सी है, तब यह कहना ही पड़ता है कि दोनों के पक्ष में सबल प्रमाण है, इस ही प्रकार इस विषय में कहना चाहिए कि रूढ़ि के पक्ष में अनुमान करने से जितने कारण है उसके विपक्ष में भी उतने ही है; अर्थात् दोनो ओर की दलीलें बराबर ज़ोरदार है।

१७-मैं लोगों से सिर्फ़ इतना ही चाहता हूँ कि इस विषय का विवेचन करने में, मनुष्य मात्र में प्रचलित रूढ़ि भौर लोकमत जो इसके पक्ष में है, केवल इन दोनों बातों पर ही ध्यान न देते हुए, इसका निर्णय गुण-दोषों की विवेचनापूर्वक वादविवाद करके न्याय और नीति के अनुसार करना चाहिए, जिस प्रकार मनुष्य-जाति की अन्य सामाजिक व्यवस्थाओं के भले-बुरे का निर्णय करते समय इन सवालों को वाद विवाद पूर्वक निश्चित करते हैं कि वह व्यवस्था मनुष्य-जाति का कल्याण कर सकती है या नहीं, उस व्यवस्था के द्वारा उत्पन्न होने वाले परिणाम शुभ हैं या अशुभ, जिस प्रकार हम उन सामाजिक व्यवस्थाओं का निर्णय मनुष्य-जाति के कल्याण पर ध्यान रख कर करते हैं उस ही प्रकार इस विषय का निर्णय करते समय भी लिङ्ग-भेद को एक ओर घटाकर मनुष्य-जाति के कल्याण को लक्ष्य में रखते हुए इस पर विचार करें; तथा इस पर जो वाद-विवाद किया जाय वह केवल शाब्दिक न होना चाहिए बल्कि गहरा और सबल हो। वाद-विवाद करते समय केवल ऊपर के अनुमान पर सन्तोष न करके प्रत्येक दलील के मूल तक पहुँचना चाहिए। उदाहरण के तौर पर यदि कोई शब्दों में कहे कि,-"मनुष्य-जाति का अनुभव ही इसके अस्तित्त्व की पूरी साक्षी है" तो इससे कुछ नहीं हो सकता। जिस दशा में लोगों को केवल एक ही पद्धति का अनुभव हुआ है, उस दशा में यह कह देना कि दो पद्धतियों में से अमुक अच्छी है, और अनुभव के अन्त में लोगों ने यह निर्णय किया है-यह बात ज़रा भी उचित नहीं मालूम होती। कदाचित् कोई यह प्रश्न करेगा कि स्त्री पुरुषों की समानता प्रतिपादन करने वाला मत केवल कल्पना पर बनाया गया है, तो उसके विरुद्ध मत की दीवार भी केवल कल्पना पर ही खड़ी की गई है, इसे ध्यान में रखना चाहिए। प्रत्यक्ष अनुभव से केवल इतनी ही बात सिद्ध होती है कि इस पद्धति की छाया में रह कर मनुष्य-जाति अस्तित्त्व में बनी रह सकती है तथा हमारी आँखों से देखते हुए वर्तमान सुधार और उन्नत दशा को पहुँच सकी है, पर यह जितना अनुभव मिल चुका है उस पर से कोई यह नहीं कह सकता कि स्त्रियाँ पराधीन रक्खी गईं, इसलिए ही इतनी-उन्नति सरलता-पूर्वक प्राप्त की जा सकी है, अथवा यदि स्त्रियाँ स्वाधीन कर दी जातीं तो मनुष्य-जाति की उन्नति इतनी सरलता-पूर्वक नहीं होती। सच बात तो यह है कि हमारा अनुभव ऐसा बना है कि जैसे-जैसे सुधार की धारा आगे-आगे बढ़ती गई वैसे ही वैसे स्त्रियों की सामाजिक दशा है कि जो भेद किसी प्रकार बनावटी न साबित हो वह स्वाभाविक है। शिक्षा और बाह्य संयोग से प्रत्येक में जो जो बातें फिर आ मिली हों, उन्हें छोड़ देना चाहिए, और उनके छोड़ देने पर बाकी जो गुण बचें वे स्वभावसिद्ध या प्रकृतिदत्त है। इस विषय का सम्पूर्ण और यथार्थ ज्ञान प्राप्त किये बिना कि मनुष्य-चरित्र किन-किन नियमों के व्यापार का परिणामरूप है, स्त्री और पुरुष के बीच में प्रकृतिसिद्ध भेद वास्तव में कोई है या नहीं, यही जानने का अधिकार किसी को नहीं है, तब यह प्रतिपादन करने की बात तो दूर है कि प्रकृतिसिद्ध भेद फलाने-फलाने है। इस विषय के अत्यन्त महत्त्व का होने पर भी किसी ने इसके अभ्यास की ओर ध्यान नहीं दिया इसीलिए इस विषय का यथार्थ ज्ञान भी किसी को नहीं है; इसलिए इस विषय पर निर्णय को राय देने का हक़ भी किसी को नहीं है। इस समय तो केवल कल्पना या अनुमान बाँधा जा सकता है; और चरित्र-संगठन के विषय में मानसशास्त्र का जितना कम या ज़ियादा ज्ञान है उतने दो प्रमाण में यह तर्क खोटा या खरा होगा।

२१-स्त्री और पुरुष का भेद किन-किन कारणों से उत्पन्न हो सका है, इस विषय का यथार्थ ज्ञान तो एक ओर रहा, किन्तु वास्तव में ये भेद है कौन-कौन से, इस सम्बन्ध में हमारा जो ज्ञान है वह भी बहुत ही कम और कच्चा है। इस विषय का निर्णय करते समय मानसशास्त्र-वेत्ता को इस बात से बहुत सहायता मिल सकती है कि वैद्यक विद्या के जानकारों और शरीरशास्त्र-वेत्ताओं ने स्त्री और पुरुषों के शरीर के, कौन-कौन से भेद बताये हैं और उन्हें वे कितने अंशों में निश्चित कर सके हैं। पर हम लोगों में ऐसा कोई भूला-भटका ही मनुष्य होगा जो शरीरशास्त्रज्ञ होकर मानसशास्त्र, को भी जानता हो। इसलिए स्त्रियों का मनोधर्म अर्थात् मानसिक विशेष गुण सामान्य पुरुषों के उस ज्ञान से विशेष हो ही नहीं सकता। इस विषय का पूर्ण प्रमाण न मिलने का एक और भी कारण है। इस विषय का वास्तविक ज्ञान केवल स्त्रियों को ही हो सकता है, किन्तु स्त्रियों ने आगे बढ़कर अपने हृदय की बात संसार से कभी नहीं कही; और उनके मुँह से जो थोड़े-बहुत शब्द निकले भी हैं, वे सच्चे हार्दिक शब्द न होकर सिखाये हुए है, इसलिए विश्वास के योग्य नहीं। मूर्ख स्त्रियों का मतलब समझना कुछ सरल है, क्योंकि मूर्खता विशेष करके सब कहीं एक सी ही होती है, और मूर्ख मनुष्यों के जैसे विचार विशेष करके उनमें प्रविष्ट होते हैं, उनके आस-पास वाले मनुष्यों के विचार और मनोधर्म पर जो प्रभाव पड़ता है-वह उनके विचारों से कुछ-कुछ अनुमान में लाया जा सकता है। किन्तु जिन का मत और जिनके विचार स्वतःसिद्ध और अपने आप पैदा होते हैं, उनके भाव जानने का काम उतना सरल नहीं होता। अन्य स्त्रियों की बात तो जाने दीजिए किन्तु ऐसे मनुष्य ही बहुत कम मिलेंगे जो अपने ही घर की स्त्रियों के स्वभाव और मनोधर्म को साधारण रीति से भी जानते हों। मैं इस बात को स्त्रियों की बुद्धि या कर्तृत्वशक्ति को उद्देश करके नहीं कह रहा हूँ; बल्कि स्त्रियों को भी अपना ज्ञान नहीं होता, क्योंकि जब तक किसी को अपनी शक्तियों के पजोखने का अवसर न मिले तबतक वह खुद भी नहीं समझ सकता कि मैं क्या कर सकता हूँ और क्या नहीं। मेरा मतलब सिर्फ़ यह है कि स्त्रियाँ खयाल करती होंगी, और उनके कुटुम्बी पुरुषों को भी इसका यथार्थ ज्ञान नहीं होता कि उनके मन में कैसे विचार उठते होंगे। अधिकांश मनुष्यों को स्त्रियो से शरीर-सम्बन्ध होने के कारण यह मालूम होता है कि हम स्त्रियों के स्वभाव के विषय में सब कुछ जानते हैं। उन मनुष्यों में यदि बारीक जाँच करने की शक्ति हो, और भिन्न-भिन्न स्वभाव वाली अनेक स्त्रियों से उनका अति निकट सम्बन्ध हो, तो स्त्रियों के स्वभाव का थोड़ा बहुत भाग उनकी नजर में आ सकता है, किन्तु स्वभाव का सम्पूर्ण भाग तो उनकी दृष्टि में आ ही नहीं सकता, क्योंकि ऐसे पुरुषों के सामने स्त्रियाँ अपने स्वभाव तथा चरित्र का भला रूप प्रकट ही नहीं करतीं, बल्कि जहाँ तक बन पड़ता है हमें छिपाने का प्रयत्न करती है। पुरुष को यदि स्त्री के प्रभाव देखने की पूरी अनुकूलता मिलती है तो केवल अपनी स्त्री के; क्योंकि एक तो इस बात की जाँच का उसे पूरा अवसर मिलता है, दूसरे परस्पर दोनों सहानुभूति रखने के कारण हृदय खोलकर बातें करने में विशेष संकुचित नहीं होते; यदि वास्तविक रीति से देखेंगे तो पुरुष को स्त्रियों के बारे में जो कुछ ज्ञान मिलता है वह इस ही प्रकार से। पुरुष को स्त्रियों के स्वभाव का जो कुछ अनुभव मिलता है, उसे केवल अपनी स्त्री से ही प्राप्त होता है, अर्थात् अन्य स्त्रियों के स्वभाव का अभ्यास वह नहीं कर सकता। इसलिए स्त्री-स्वभाव के विषय में हम जो कुछ अनुमान करते हैं वह केवल एक स्त्री से प्राप्त हुए छोटे से कारण पर। फिर उस बात को भी निःशङ्क होकर नहीं कह सकते कि उसे स्त्री-स्वभाव का जो कुछ अनुभव हुआ है वह यथार्थ भी है या नहीं। उस अनुभव के कुछ अंशों के यथार्थ होने का अनुमान किया जा सकता है जो उस स्त्री से प्राप्त हो जिसके स्वभाव में सामान्यता न होकर कुछ जानने योग्य विशेषता हो; और स्वभाव को परखने वाला पुरुष जज के समान सब प्रकार की योग्यता रखता हो, और वह योग्यता सहृदयता, प्रेम और मिलनसारी के स्वभाव में परिवर्तित हो तथा अपनी स्त्री के प्रत्येक मनोधर्म को बिना प्रयास वह जान पाता हो, अथवा स्त्री की उसके सामने हृदय खोल कर निःसंकोच बातें करने में कोई रुकावट न हो-इस प्रकार अनुभव प्राप्त करके जो पुरुष स्त्री-स्वभाव के बारे में कुछ सम्मति देगा तो वह कुछ ज़ोरदार हो सकती है। मेरी समझ के अनुसार तो इस प्रकार के सब संयोगों का मिलना महा कठिन काम है। बहुत से दम्पति ऐसे देखने में आते हैं जो सांसारिक व्यवहार में एक मन से और परस्पर एक दूसरे का लाभ सोचते हुए अपना संसार चलाते हैं; किन्तु इनमें परस्पर एक दूसरे के हृदय को परखने का गुण एक साधारण दृष्टि से देखने वाले मनुष्य की अपेक्षा विशेष नहीं होता। जिन स्त्री-पुरुषों में परस्पर सच्चा प्रेम भी होता है, उस सम्बन्ध में भी पुरुष के मन में अधिकार भोगने का लोभ, और स्त्री के मन में अपनी पराधीनता का ख़याल, इन दोनों विरोधी बातों के कारण परस्पर पूरा विश्वास नहीं होता, और इसलिए स्त्री अपने हृदय की गहरी से गहरी बात कभी प्रकट नहीं कर सकती। मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि स्त्री अपने हृदय के जिन विचारों को पति से छिपा रखती है उन्हें वह जान-पूछ कर ही छिपाती है, किन्तु जिन विचारों को वह अपने सर्वथा हित चाहने वाले सुहृद से कह सकती है, उन्हें नहीं कहती। स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध से मिलता-जुलता पिता-पुत्र का सम्बन्ध है, उस सम्बन्ध में यही प्रकार दीखता है। पिता-पुत्र का एक दूसरे पर अपार प्रेम होता है, पर प्रेम होने पर भी बहुत बार यह देखा जाता है कि पुत्रके विषय में पिता को जितनी जानकारी होती है, उससे कहीं ज़ियादा हाल उसके मित्रों को मालूम होता है। ऐसा होने का कारण यह है कि जिन दो मनुष्यों में स्वामी-सेवक या ज्येष्ठ-कनिष्ट का सम्बन्ध होता है उनमें हृदय खोल कर बोलने-चालने का कभी अवसर ही नहीं आता; क्योंकि उनका सम्बन्ध इसके ख़िलाफ़ है। अपने अधिकारी के मन में अपने विषय में जो कुछ उच्च विचार होते हैं, या जो कुछ उसका स्नेह होता है, उसमें किसी प्रकार का अन्तर न होने देने के लिए प्रत्येक मनुष्य ऐसा चौकन्ना रहता है कि वह चाहे जैसा प्रामाणिक और सच्चा हो फिर भी अधिकारी के सामने अपने उन्हीं विचारों को प्रकट करता है जो उसे अच्छे लगा करते हैं, इसलिए यह बात दावे से कही जा सकती है कि जिनमें कुछ भी ऊँच-नीच का सम्बन्ध होता है वे परस्पर हृदय का हाल नहीं जान सकते; और जो समान अवस्था वाले या दिली दोस्त होते हैं वे ही एक दूसरे के मन की बात समझ सकते हैं और वे ही एक दूसरे को वास्तविक रूप से पहचान सकते हैं। फिर स्त्रियों की बात तो इससे कहीं निराली है। स्त्रियाँ दूसरों के अधीन होती हैं, इतना ही नहीं, बल्कि-"जिससे पति की आत्मा प्रसन्न हो, पति को सब प्रकार से सुख हो, ऐसे बर्ताव के लिए ही हमारा जन्म हुआ है; और हमें ऐसा एक भी काम नहीं करना चाहिए जो पति की मन्शा के ख़िलाफ़ हो" इस तरह की समझ उनके पैदा होते ही बना डाली जाती है, और इसी तरह की शिक्षा उन्हें जन्म-भर चारों ओर से दी जाती है। इन सब बाधक कारणों के होते हुए, जिसके स्वभाव, विचार और मनोधर्म का पूरा अनुभव प्राप्त करने के लिए विशेष अनुकूलता मिलती है-उस अपनी स्त्री के विषय में भी ऊपर कही हुई अनिवार्य बाधाएँ आती ही हैं। इसके अलावा जब हम इस बात पर विचार करते हैं कि एक स्त्री के स्वभाव को जान जाने पर क्या इतने ही से समग्र स्त्रीवर्ग के स्वभाव की जानकारी पूरी हो सकती है? तो यह कभी सम्भव नहीं; उस ही प्रकार कदाचित् कोई मनुष्य किसी एक सामाजिक स्थिति वाली या एक देश वाली बहुत सी स्त्रियों के स्वभाव का ज्ञान प्राप्त करे, तो इतने ही कारण से क्या यह कहा जा सकेगा कि उसने प्रत्येक सामाजिक स्थिति वाली या प्रत्येक देश की स्त्रियों के स्वभाव का ज्ञान प्राप्त कर लिया? पर यह भी होने का नहीं; यदि मान भी लिया जाय कि ऐसा ज्ञान एक मनुष्य प्राप्त कर सकता है, तो यह बात तो निर्विवाद स्वीकार की जायगी कि वह ज्ञान इतिहास को एक ही युग का है। इन सब बातों को सामने रख कर हम दृढ़ता के साथ कह सकते हैं कि भविष्य की बात को एक ओर छोड़ कर केवल वर्तमान स्त्रियों के स्वभाव, विचार और सम्बन्ध के विषय में जो कुछ ज्ञान हम प्राप्त कर सकते हैं, वह निरा अधूरा और अनुमानों से भरा हुआ होगा, और जब तक स्त्रियाँ ही अपने हृदय की बात कहने में समर्थ न हों, उन्हें ऐसे सबल साधन न मिलें कि जिनके आधार पर वे अपनी बातें प्रकट करें-तब तक इस स्थिति पर यों ही काला परदा पड़ा रहेगा।

२२-ऐसा समय अभी तक नहीं आया, और ऐसा समय जब कभी आवेगा, तब वह धीरे ही धीरे आवेगा। स्त्रियों को शिक्षा मिलते हुए थोड़ा ही समय बीता है, उन्हें जो कुछ कहना हो उसे वे निडर होकर कह सकती हैं,-इसे भी समाज ने अभी-अभी ही स्वीकार किया है। स्त्रियों की साहित्य-विषयक प्रवृत्ति की सफलता का आधार पुरुषों की प्रसन्नता पर अवलम्बित होने के कारण, पुरुषों के हृदयों में चुभने वाले विचार प्रकट करने की हिम्मत बहुत कम स्त्रियाँ कर सकी है। स्त्रियों की बात तो एक ओर रही, पुरुष-लेखक भी प्रचलित रीति-रिवाज, आचार-विचार, धर्म, सम्प्रदाय और सर्वसाधारण में पूर्ण रूप से प्रचलित बातों के विरुद्ध कलम उठाते हुए हिचकते हैं, और जिन ग्रन्थकारों ने निर्भीक होकर लिखा है उनके विरुद्ध कटाक्ष अब तक बन्द नहीं हुए, फिर जिन स्त्रियों के ऐसे विचार बना डाले गये हैं कि प्रचलित लोक-रीति और प्रचलित बातों के ज़रा ख़िलाफ़ होना भी पाप है, उन स्त्रियों के पढ़-लिख कर लिखे हुए कुछ ग्रन्थों और लेखों से यह आशा रखना ही व्यर्थ है, कि उनमें उनके गहरे हार्दिक विचारों का चित्र होगा। इन बातों से मालूम होगा कि स्त्री-ग्रन्थकार के मार्ग में कितनी बाधाएँ और विघ्न है। मेम डी स्टेइल (Mme. de stail) नामक एक विदुषी स्त्री फ्रान्स देश में हो गई है। इस प्रतिष्ठित स्त्री ने जो ग्रन्थ लिखे हैं, उनके कारण देश के साहित्य में उसका नाम बहुत उच्च है। इसके लिखे हुए प्रसिद्ध ग्रन्थ डेलफीन (Delphine) के मुख-पृष्ट पर जो सांकेतिक वाक्य दिया गया है वह, Un homme pent biaver I' opinion; une femnae doit s'y soumettre अर्थात् "लोक-मत को कुचल कर चलने का साहस पुरुष-वर्ग ही कर सकता है; किन्तु स्त्री-वर्ग को तो उसके सामने सिर झुकाकर ही चलना पड़ता है।" इस समय स्त्रियों के हाथ का जो कुछ लिखा हुआ देखने में आता है, उस से साफ़ मालूम होता है कि इसमें उन्होने केवल पुरुषों की खुशामद की है। और स्त्रियों में कुमारी-वर्ग दो द्वारा*[] जितने लेख लिखे जाते हैं, उनमें अधिक का उद्देश अच्छा पति प्राप्त करना ही होता है बहुत बार तो कुमारी और विवाहिता दोनों ही प्रकार की स्त्रियाँ अपने ग्रन्थों में पुरुषों की इतनी खु़ुशामद करती हैं कि उन ग्रन्थों के द्वारा स्थापित की हुई स्त्रियों की पराधीनता से अत्यन्त नीच प्रकृति वाले पुरुषों का ही मनोरञ्जन हो सकता है। किन्तु यह प्रणाली अब पहले की अपेक्षा कम दिखाई देती है। दिन पर दिन ग्रन्थ और लेख लिखनेवाली स्त्रियाँ अधिक स्पष्ट-वक्ता बनती जाती हैं; और अपने वास्तविक विचार प्रकट करने में दिन पर दिन अधिक उत्सुक मालूम होती दीखती हैं। दुर्भाग्य से इंगलैण्ड की स्त्रियों की कृत्रिमता इतनी बढ़ गई है कि उनके जो विचार लेखों के द्वारा प्रकट होते हैं उनमें अपने निज के अनुभव और स्वावलोकन की मात्रा बहुत ही कम होती है, और दूसरों से पाये हुए उधार ज्ञान का और बाहरी संस्कारों का भाग ही अधिक होता है। यह तरीका धीरे-धीरे कम ज़रूर होगा, पर समाज-संगठन में जब तक फेर-फार न होगा, पुरुष प्रकृत शक्ति की परीक्षा जितनी स्वाधीनता से कर सकते हैं, उतनी ही स्वाधीनता और उतने ही साधन जब तक स्त्रियों को न मिल जायँगे तब तक यह तरीक़ा भी नष्ट न होगा-किसी न किसी रूप में बना ही रहेगा। जब ऐसा समय आ जायगा, अर्थात् स्वाधीनता-पूर्वक स्त्रियों की बुद्धि-विकाश के सब साधन सुलभ हो जायँगे, तथा अपने हार्दिक विचार यथेष्ट रीति से प्रकट करने की पूरी स्वाधीनता जब उन्हें मिल जायगी- उस ही समय स्त्री-स्वभाव का वास्तविक ज्ञान हमें मिल सकता है और अन्य बातों की व्यवस्था भी उस ही समय उसके अनुसार की जा सकेगी, इससे पहले नहीं।

२३-इतना समय इस विषय के निरूपण में लिया गया है कि स्त्रियों के वास्तविक स्वभाव को समझने में पुरुष अक्षम है,-अन्य विषयों के समान इस विषय में भी पुरुष जो सिद्धान्त बना चुके हैं वह निर्मूल अतएव अनुमान से बढ़ कर नहीं हो सकता। स्त्रियाँ किन-किन कामों के योग्य हैं और किन-किन के अयोग्य है, तथा व्यवहार में उन्हें कितने हक़ दे देना योग्य और लाभदायक है-इन सब बातों का निश्चय करने के लिए जिस यथार्थ ज्ञान के सम्पादन करने की ज़रूरत है उसके योग्य साधनों के अभाव के कारण पुरुष को इस आवश्यक और अत्यन्त महत्त्व के विषय का ज्ञान प्राप्त होना सम्भव नहीं। यदि वास्तविक रीति से देखेंगे तो पुरुषों को इसका कहुत ही कम ज्ञान है, किन्तु पुरुष ऐसा ढोंग करते हैं मानो उन्हें इस विषय का पूरा ज्ञान है। जब तक इसी प्रकार की स्थिति बनी रहेगी तब तक इस विषय पर जैसा चाहिए वैसा विवेचन होना ही सम्भव नहीं। यह हर्ष का विषय है कि, संसार में स्त्रियों का स्थान कौनसा है इसका निश्चय करने के लिए इस प्रकार के ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। क्योकि वर्त्तमान समय की समाज-व्यवस्था पर दृष्टि रखते हुए यदि इस विषय पर विचार करेंगे तो मालूम होगा कि इसका निर्णय स्वयं स्त्रियों को ही करना चाहिए। समाज में अपना स्थान कौनसा है, इस प्रश्न का निर्णय स्त्रियों को अपने अनुभव और अपनी बुद्धि से करना चाहिए। कोई एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों का समुदाय क्या-क्या करने के योग्य है, इसका निर्णय करने वाला केवल एक ही साधन है, और वह यह है कि उसे उसके मनचाहे काम के करने की आज्ञा देनी-उसे अपनी आज़माइश करने की स्वाधीनता देनी। इसके सिवा अन्य किसी भी उपाय से इसका उत्तम निर्णय हो ही नहीं सकता। इस ही प्रकार जो मनुष्य इस बात का निर्णय करने में प्रवृत्त हो कि, अमुक मार्ग का अनुसरण करने पर उसे सुख होगा, या उसका अनुसरण न करने पर सुख होगा, यदि इसका कोई निश्चय करना चाहेगा तो निश्चय पर पहुँचने के लिए कोई साधन उसके हाथ ही न लगेगा।

२४-यह बात हमें अच्छी तरह समझ रखनी चाहिये कि यदि हम स्त्रियों को पूर्ण स्वाधीनता दे देंगे तो केवल इतने ही कारण पर स्त्रियाँ उस काम को करने में प्रवृत्त कभी न होंगी जो उनके स्वभाव के प्रतिकूल है, स्वाधीनता मिलने पर अपनी वास्तविक इच्छा के विरुद्ध नहीं जा सकतीं। मनुष्यों को प्रकृति के बीच में रुकावट डालने की आदत छोड़ देनी चाहिए। मनुष्यों को ऐसे व्यर्थ के हाथ पैर पीटने छोड़ देने चाहिए कि वे सृष्टि के हेतु को निष्फल कर सकेंगे, या प्रकृति अपने मनोरथ को पूरा न कर सकेगी-वह तो हो ही नहीं सकता। जिस काम को स्वाभाविक रीति से स्त्रियाँ करने के योग्य ही नहीं है, जिस काम में वे सर्वथा असमर्थ है-उस काम के लिए उन्हें मना करना, सर्वथा निरर्थक और अनुपयोगी है। इस ही प्रकार जो काम ऐसे होंगे जिन्हें स्त्रियाँ पुरुषों से अच्छा नहीं कर सकेंगी, उन कामों में भी क़ानूनन रोकने की अपेक्षा पुरुषों की स्पर्द्धा ही काफी होगी क्योंकि कोई यह माँगता ही नहीं कि तुम स्त्रियों पर विशेष दया-दृष्टि रक्खो और उन्हें प्रोत्साहन दो। माँगना सिर्फ यह है कि तुमने प्रत्येक काम में पुरुषों को जो विशेष अनुकूलता कर दी है, उसे रद्द कर दो। जिन स्त्रियों की बुद्धि ऐसी होगी जो अन्य कामों और अन्य प्रवृतियों में विशेष चल सकती होंगी, तो स्वाभाविक रीति से वे उन प्रवृतियों की ओर विशेष लक्ष्य देंगी, उन कामों में सबसे अधिक भाग लेंगी, इसके लिए क़ानून बनाने की ज़रूरत नहीं है और समाज के द्वारा नियम निश्चित करने की भी आवश्यकता नहीं है। अनियंत्रित स्पर्द्धा के नियम के अनुसार जिस काम की ओर स्त्रियों की प्रवृति अब से अधिक होगी, अर्थात् जिसे स्त्रियाँ सबसे अधिक पसन्द करती होंगी, उस काम को केवल अपने ही अधिकार में कर लेने के लिए वे अपने आप अधिक उत्सुक होगी; और यह बात तो स्पष्ट ही है कि स्त्रियाँ जिस काम के सर्वथा योग्य होंगी, उसे ही वे सब से अधिक पसन्द करेंगी। इस तरह काम का बँटवारा हो जाने पर अर्थात् स्त्री-पुरुषों के बीच इस प्रकार काम का विभाग हो जाने पर दोनों की बुद्धि केवल समाज के हित की ओर झुक जायगी-यह निर्विवाद है।

२५-स्त्रियों के विषय में पुरुष-वर्ग का सामान्य सिद्धान्त यह है कि प्रकृति से स्त्रियों के लिए दो कर्त्तव्य निश्चित हुए एक पत्नी के रूप में और दूसरा मातृ-रूप में। किन्तु समाज की जो प्रस्तुत व्यवस्था है, तथा व्यवहार में मनुष्यों का जो बर्ताव देखने में आता है; उन दोनों पर विचार करेंगे तो इस बात को मानने के कारण मिल जायँगे कि लोगों का सच्चा मतलब इससे विरुद्ध है। पुरुषों की बातों से ऐसा मालूम होता है कि वे स्त्रियों के लिए जिन कर्त्तव्यों का होना प्रकृतिदत्त बताते हैं, वे वास्तव में स्त्रियों के स्वभाव से प्रतिकूल हैं; क्योंकि ऊपर कहे हुए दो कर्त्तव्यों के अलावा भी और काम करने की आज़ादी यदि उन्हें हो, यानी अपनी पसन्द के मुताबिक़ जीवन-निर्वाह के और काम भी वे पूरी आजादी से कर सकती हों, या जिस काम में उनका मन लगता हो उसमें अपनी विद्या, बुद्धि और समय का उपयोग पूरी आज़ादी के साथ कर सकती हों,-तो जो काम उनके स्वभाव के अनुकूल कह कर उनके गले बाँध दिये जाते हैं, उन्हें वे राज़ी से नहीं करेंगी-इस बात को पुरुष जानते होने चाहिएँ। यदि पुरुष-वर्ग का स्त्रियों के प्रति यही ख़याल हो तो उन्हें प्रकट कर देना चाहिए। आज तक स्त्रियों को पराधीन रखने के विषय पर जितने लेख, पुस्तकें लिखी गईं और व्याख्यान दिये गये उनका छिपा हुआ मतलब निम्नलिखित ही है, किन्तु यदि कोई पुरुष खुले-खुले भी यह प्रतिपादन कर कि,-"समाज-संगठन को बनाये रखने के लिए यह अत्यावश्यक है कि स्त्रियाँ विवाह करके सन्तान उत्पन्न करें। यदि स्त्रियों का यह कर्त्तव्य न बनाया जाय तो राज़ी-ख़ुशी से वे इसे करने को तैयार नहीं हो सकतीं, इसलिए उनका यह कर्त्तव्य बनाना जरूरी है।" यदि यह बात साफ़ कह दी जाय तो इसके गुण-दोष पर विचार करना और भी अधिक सरल हो जाय। गुलामी का प्रतिपादन करने वाले साउथ कैरोलीना और ल्युज़ियाना (Sonth Carolinn and Louisiana) प्रान्त वाले ग़ुलामों के मालिक भी इस ही प्रकार के सिद्धान्त का प्रतिपादन करते थे। वे कहते थे कि,-"कपास और गन्ने की खेती के बिना काम नहीं चल सकता। और गोरे मनुष्य उसका काम कर नहीं सकते। यदि हबशी (निग्रो) आज़ाद कर दिये जायँगे तो फिर उन्हें चाहे जितना वेतन दिया जाय वे ऐसा काम न करेंगे। इसलिए उन्हें पराधीन रख कर दबाव से कास लेना ही उत्तम है।" ज़ोर-ज़ुल्म (Impressment) से जहाज़ के ख़लासी बनाने के विषय में भी यही कहा जाता था कि,-"देश की रक्षा के लिए लड़ाके जहाजों पर काम करने के लिए ख़लासियों का होना जरूरी है। विशेष करके ऐसे प्रसंग आते हैं जब लोग राज़ी से ख़लासीगीरी करना पसन्द नहीं करते। इसलिए उन्हें ज़ोर-जु़ुल्म से इस में दाखिल करना चाहिए।" इस तर्क का उपयोग लोग व्यवहार में कितना अधिक करते हैं। यदि इस तर्क में एक छिद्र न रहा होता तो आज-कल भी इसका उपयोग मजे में किया जाता; इस सिद्धान्त की भूल इस प्रकार प्रकट होती है कि,-"ख़लासियों के परिश्रम के अनु सार उनका योग्य वेतन देने की बात सबसे पहले कही। एक दूकानदार की नौकरी करने पर उसे जो वेतन मिल सकता है, उतना ही वेतन उसे तुम्हारी नौकरी करके भी प्राप्त होना चाहिए। इस प्रकार करने से दूसरे कारखाने वालों को जैसे मज़दूर मिलने में दिक्कत नहीं होती वैसे ही तुम्हें भी न होगी।" इसका जवाब क्या हो सकता है? "ऐसा करने की हमारी इच्छा नहीं है" बस, यही उत्तर है। पर इस समय दीन मनुष्यों की रोज़ी पर पत्थर फेंकते हुए लोगों को दया आती है, तथा यह करने की उनकी इच्छा भी नहीं होती-इसलिए यह रीति बन्द होगई। जो लोग स्त्रियों के जीवन-निर्वाह के तमाम रास्तों को बन्द करके केवल एक विवाहित मार्ग ही खुला रखना चाहते है, वे भी इसी अपवाद के पात्र हैं। स्त्रियों को इस प्रकार पराधीन बनाये रखने के लिए जो समर्थन किया जाता है उसका साफ़ मतलब यह ज़ाहिर होता है कि पुरुष ऐसा कुछ नहीं करते जिससे स्त्रियों को विवाहित दशा अपने आप ही पसन्द हो, और इसीलिए स्त्रियों की दृष्टि में ऐसी कोई बात इस स्थिति के विषय में नहीं आती कि जिससे वे स्वयं इसके पक्ष में हों। यदि हम किसी मनुष्य को कुछ इनाम देने को कहें और साथ ही उसे यह भी बता देवें कि "लेना हो तो यह ले, नहीं तो और कुछ न मिलेगा," तो इसका मतलब यह होता है कि हम जो इनाम दे रहे हैं वह खुद हमें ही अच्छा नहीं लगता; नहीं तो हम उसे इस बात की आज़ादी क्यों नहीं दे देते कि वह जो कुछ चाहे सो माँगे। मुझे मालूम होता है कि जितने पुरुष औरतों को आज़ादी देने के ख़िलाफ़ है उन सब के हृदयों में भी कुछ ऐसी ही बातें चक्कर मारती रहती हैं। उन आदमियों के बारे में मेरा यह भी ख़़याल होता है कि उन्हें यह डर तो नहीं होगा कि शायद आज़ाद होने पर औरतें विवाह करना पसन्द हीं न करें, बल्कि उनको हृदयों में यह डर जरूर बना रहता होगा कि शायद औरतें यह हठ ठानलें कि विवाह करना हो तो बराबरी के हक़ पर करो; या जिन औरतों में कुछ भी समझ और बुद्धि होगी वे यह मान बैठें कि विवाह करके वेफ़ायदे एक आदमी के ग़ुलाम बनने से क्या लाभ-इसलिए वे और किसी धन्धे या व्यवसाय से अपना जीवन-निर्वाह करना जियादा पसन्द करें। और यदि सचमुच विवाहका अर्थ यही होता हो कि अपनी स्वाधीनता खोकर दूसरों की ग़ुलाम बन जाना, और अपनी तमाम सम्पत्ति पर दूसरे का अधिकार करा देना-तो जिन पुरुषों के मनों में औरतों की आज़ादी से डर है वह सच्चा है और सकारण है। यदि स्त्रियों को उत्तम से उत्तम प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाले कामों के करने की पूरी आज़ादी हो, तो कोई उच्च प्रवृति के गुणों वाली, या दूसरे इज्ज़त के काम करके अपने जीवन-निर्वाह की शक्ति रखने वाली स्त्री विवाहित जीवन को पसन्द नहीं करेगी-इसे मैं भी मानता हूँ,-केवल जो स्त्रियाँ विलक्षण मोह-जाल में लिपटी होंगी और जिन्हें अपने शरीर का ज्ञान या विचारशक्ति न होगी और पुरुषों के सिवाय और कुछ देखती ही न होंगी-उनकी बात न्यारी है। और जो पुरुष यह पक्का इरादा कर बैठे हों कि स्त्रियों को विवाहित दशा में ही रखना और उन्हें सब तरह से अपनी ताबेदार ही बनाना-तो स्त्रियों को विवाह के सिवाय और किसी धन्धे या उद्योग में न लगने देने वाली उनकी युक्ति या पॉलिसी-युक्ति के लिहाज़ से पसन्द करने योग्य है। पर सचमुच जो यह बात ऐसी ही हो तो, स्त्रियों के मन पर पड़े हुए गहरे काले अज्ञान के परदे को शिक्षा के द्वारा हटाने का प्रयास करना निरी मूर्खता है-बड़ी भारी भूल है। स्त्रियों को जो साधारण और उच्च शिक्षा दी जाती है उसकी ज़रा भी आवश्यकता न थी। जो स्त्रियाँ समाचार-पत्र और पुस्तकें पढ़ सकती हैं वे इस स्थिति के लिए काँटे के समान हैं और जो लेखों और पुस्तकों के द्वारा अपने विचार प्रकट करने की शक्ति रखती हैं, वे ऐसी समाज-व्यवस्था के लिए सर्वथा असंगत है। समाज की इस स्थिति में क्षोभ पैदा करने वाली हैं। और स्त्रियों को केवल ऐसी ही शिक्षा देनी चाहिए थी कि जिससे वे घर की लौंडी और ज़नानख़ाने की बाँदी का ही कर्त्तव्य पूरा कर सकतीं। उन्हें ऐसी ही शिक्षा देनी चाहिए थी। इसके अलावा जो और-और प्रकार की शिक्षा स्त्रियों को दी गई यह बड़ी भारी भूल होगई। यही मानना चाहिए।

  1. * प्राचीन ग्रीक लोगों में स्टोइक नामक एक तत्त्ववेत्ताओं का पन्थ था। उनका सिद्धान्त था कि आत्म-संयम के द्वारा मनोविकारों को मारना चाहिए और इन्द्रियजय प्राप्त करना चाहिए। इस विश्व का कर्ता परमात्मा है, उसका उद्देश शुभ है, इसकी योजना प्राणिमात्र के सुख के लिए है और मंगलमय है।
  2. * पाठकों को स्मरण रखना चाहिए कि मूल ग्रन्थ सब से पहली बार १८६९ ई॰ में प्रकाशित हुआ था। इङ्गलैण्ड में जो लोग सेना या नौसेना में भरती होते थे उन्हें ज़बरदती विदेश ले जाने की चाल थी, उसे Impressment कहते थे।
  3. * इस अवसर पर हमारे देश में "एल्बर्ट बिल" को पास करते समय अँगरेज़ों ने जो अधाधुन्ध मचा दी थी उसका स्मरण हुए बिना नहीं रहता। साथ ही हमारा यह सिद्धान्त भी अभी-अभी ढीला पड़ा है कि शूद्र लोग उच्चवर्ण वालों की दासता के लिए ही पैदा हुए हैं।
  4. * हमारे शास्त्रों में "न स्त्रीस्वातन्त्र्यमर्हति" (मनु अ॰ ५, श्लो॰ ३) "न मजेत स्त्रीस्वातन्त्र्य" (मनु॰ अ॰ ५, १४८) "स्वातन्त्र्य न क्वचित् स्त्रिय" (याज्ञवल्क्य॰ १ श्लोक ८५) आदि तो हैं ही, किन्तु स्त्री बाल्यावस्था में माता-पिता की आधीनता में रहे, विवाह के अनन्तर पति की पराधीनता में रहे और वृद्धावस्या में जवान पुत्र की आधीनता में रहे। यदि विधवा हो जाय और कोई निकट-सम्बन्धी न हो तो "तेषामभावे ज्ञातय" (याज्ञवल्क्य) जाति की आधीनता में रहे-किन्तु किसी समय भी स्त्री स्वाधीन न हो।
  5. * रोम के प्राचीम इतिहास में दो प्रकार के मनुष्य हैं, एक पेट्रोशिअन दूसरे प्लीबीअन। पेट्रोशिअन राज्यधिकारी वर्ग था और इसने सब राजकीय अधिकार दबा लिये थे, तथा प्लीबीअन लोगों को इनकी ग़ुलामी में रहना पड़ता था। इसलिए दोनों में परस्पर झगड़ा चला ही करता था, किन्तु अन्त में प्लीबीअन लोगों की राजकीय अधिकार मिल गये थे।
  6. * प्राचीन काल में हमारे देश में "आर्य" और "अनार्य" का भेद जन्म से ही माना जाता था। इस ही प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण भी जन्मभेद की नींव पर ही स्थापित हैं। विश्वामित्र जैसे क्षत्रिय से ब्राह्मण बने ऐसे उदाहरण दो ही चार मिलते हैं-पर यह भी जन्म-भेद की दृढता का प्रमाण है।
  7. * भारत के सिवाय और कहीं बाल विवाह नहीं है। पूर्ण युवा न होने तक स्त्री-पुरूषों का विवाह नहीं होता। इसीलिए योरप की स्त्रियाँ कुमारी दशा में ही लेखिका और ग्रंथकार बन जाती हैं। तथा इस स्थल को बहुत सी बातें योरप की ही समाज-व्यवस्था से सम्बन्ध रखती हैं।