सौ अजान और एक सुजान  (1944) 
द्वारा बालकृष्ण भट्ट

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सातवाँ प्रस्ताव

सन्ततिः श्लाध्यतामेति पितृणां पुण्यकर्मभिः ।

अनंतपुर से ईशानकोण के दो कोस पर एक मठ था । यह मठ किसी प्राचीन देवस्थान में हो, इसका कहीं से कुछ पता नही लगता ; क्योंकि किसी पुराने लेख, इतिहास या पुराण मे इसकी कही चर्चा नहीं पाई गई। कितु साथ ही इसके यह भी कोई नहीं जानता कि कब से इस मठ की पूजा और मान आरंभ किया गया; न यही कोई बता सकता है कि किस बड़े सिद्ध या महात्मा का यह आश्रम या तपोभूमि है। इस मठ में किसी देवी-देवता की मूर्ति न थी ; न इसके समीप आप-पास कोई कुंड, देवखात, नदी, झरने आदि थे,


ॐ बाप-दादो के पुराय कर्म से संतान की उन्नति और प्रशंसा होती है। [ ३८ ]
जिससे हम इसे कोई पुराना तीर्थ कह सकें। इस मठ का कुल हलका पौन कोस के गिर्द में था। चारों ओर से लहलहे, सघन वृक्षों की शीतल छाया और ठौर-ठौर लताओं से छाए हुए कुंजों को रमणीयता मन को हरे लेती थी । ग्रीष्म का सताप और जाडे की कपकपी कभी वहाँ नाम को भी न व्यापती थी । बरसात के पानी का एक अच्छा लहरा घने वृक्षों की छाया में एक साधारण-सी बूंदाबांदी मालूम होती थी । बोध होता है, मानो ये सब विटप और लताएँ वर्षा, वात, शीत, आतप के निवारक इस मठ के लिये एक क़ुदरती छाता बन गए हैं । हम ऊपर लिख आए हैं कि वहाँ कोई देव-मंदिर या किसी देवता की प्रतिमा स्थापित न थी, जिससे तीर्थ होने का कोई चिह्न -वहाँ प्रकट होता हो ; किंतु तपोभूमि-सदृश उस स्थान का माहात्म्य ऐसा देखा जाता था कि वहाँ पहुंचते ही मन में सतोगुण का भाव आप-से-आप उदय हो आता था । मन कैसा ही उदासीन और मलीन हो, वहाँ जाने से प्रसन्न और प्रफुल्लित हो उठता था । इस आश्रम का मुख्य स्थान कई एक पुराने- पुराने वट वृक्षों के बीच एक मढ़ी-सी थी, जिसके भीतर गज-भर का लंबा-चौड़ा और आधा गज ऊँचा एक पक्का चबूतरा-सा बना था । यात्री या जियारत करनेवाले उसी चबूतरे की पान, फूल, मिठाई इत्यादि से पूजा करते थे। दस-बीस कोस के गिर्द में यह स्थान ऐसा प्रसिद्ध था कि
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दूर-दूर से लोग यहाँ मानमनौती करने आते थे । इस चबू- तरे के एक ओर एक धूनी-सी थी, जिसमें रात-दिन गुग्गुल, लोबान और चदन की लकड़ी सुलगा करती थी। लोग कहते हैं, यह अग्नि यहाँ द्वापर के अंत से आज तक नहीं बुझी, और अर्जुन ने जब खांडव वन जलाया था, तो उसकी परिशिष्ट अग्नि लाकर यहीं स्थापित कर दी, और प्रलय काल में जब महादेवजी के तीसरे नेत्र से अग्नि निकल- कर संपूर्ण विश्व को भस्मसात् करेगी, उसी में यह धूनी की आग भी मिलकर शिव की नेत्राग्नि को दोचंद भड़का देगी। इस मठ के पडे या पुजारी थोड़े-से जटाधारी काले-काले योगी या गुसाई लोग थे। वे ही यहॉ प्रधान या मुखिया थे। जो कुछ इस मठ में चढ़ता था, वह सब इन्ही लोगों में बॅट जाता था। आवारगी, उजड्डपन और असत् व्यवहार में ये गुसाई, भी और-और पडे तथा तीर्थलियों से किसी बात में कम न थे । इस स्थान के पुरातन और पवित्र होने में कोई संदेह नहीं; किंतु इन अपढ़ योगियों का दुराचरण देख घिन होती. थी, और यह मठ यहाँ तक बदनाम हो गया था कि बहुत-से भलेमानुस शिष्ट जन वहाँ आना या साल में जो कई मेले इस मठ के हुआ करते थे उनमें शरीक होना मर्यादा के विरुद्ध समझते थे । वैशाख और जेठ, दो महीने के प्रति मंगलवार को यहाँ बड़ी भीड़ होती थी। हजारों आदमी आस-पास के गाँव और नगर के यहाँ आते थे। सैकड़ों दुकानें
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लगती थीं। सबेरे से दस बजे रात तक इस मेले का ठाट रहता था।

हम अपने पाठकों को इसके पहले एक नए आदमी का परिचय दे चुके हैं, जो दोनो बाबुओं का मानो जीवन-सर्वस्व था, जिसके विना एक क्षण उन्हें कल न पड़ती थी, और बाबुओं को इसके चंगुल में देख भीड़-की-भीड़ ओछे-छिछोरे इसकी खुशामद में लगे रहते थे। उन्हीं मे इस मठ के बहुत-से योगी भी थे। इसलिये इस मठ में तो मानो वसंतराम का राज्य-सा था । जो-जो अत्याचार यहाँ आकर यह कर गुजरता था, वे बुरे तो सबको लगते थे, कई एक बूढ़े-बूढे गुसाई तो लहू का पूंट पीकर रह जाते थे पर उन बाबुओं के मुलाहिजे से कुछ न कहते थे । यद्यपि ऐसे-ऐसे छिछोरों के दु संग से इन दोनो बाबुओं की भी सब कलई दिन-दिन खुलती जाती थी, और सम्मान जैसा औवल दरजे के रईसों को मिलना चाहिए, उसमें भले लोगों के बीच नित्य-नित्य कमी होती जाती थी, तो भी पुराने सेठ सुकृती हीराचंद की पहली बातों को याद कर सभी चुप रह जाते थे । क्या अचरज, इन गुसाइयों को भी हीराचद ही की भलमनसाहत का खयाल आ जाता हो, जिससे ये लोग बसंता तथा इन बाबुओं का अनेक तरह का उपद्रव मठ के मेलों में देखकर भी चुप रह जाते थे। जो हो, हम प्रस्तुत का अनुसरण करते हैं।

एक बूढ़ा ब्राह्मण-'हाय-हाय! हॉफते-हॉफते कंठगत प्राण
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आ रहा है। झूठ कहते हों, तो हमारे सात पुरखा नरक में गिरे। न जानिए, आज किस कुसाइत में घर से निकले कि हाथ गरम होना कैसा एक फूटी झंझी से भी भेट न हुई। भीड़ और हुल्लड़ के घिस्संघिस्सा में अंग चूर-चूर हो गए। भला बचकर किसी तरह से बाहर निकल आए, मानो लाखों भर पाए। क्या कहते हो, ‘तो क्यों आया?’ अरे न आवें, तो क्या करें। एक तो गरीब दूसरे बड़ा कुनबा। अब भी क्या हीराचंद-से दानी और पात्रापात्र का विवेक रखनेवाले बैठे हैं, जो हम-ऐसों की दीनता पर पिघल उठेंंगे? ईश्वर इनका सत्यानाश करे, न जानिए कहाँ-कहाँ के ओछे-छिछोरे इकट्ठे हो गए कि हमारे बाबुओं को कुढंग पर चढ़ाय बिगाड़ डाला। सेठ के समय तो हम किसी के आगे हाथ पसारना कैसा, घर के बाहर कभी पाँव भी नहीं रखते थे। वही अब तुच्छ-से- तुच्छ आदमियों के सामने दिन-भर गिड़गिड़ाते फिरते हैं, तब भी साँझ को अच्छी तरह पेट-भर अन्न नहीं मिलता। आज इस मठ का मेला समझ आए थे कि किसी से दो-चार पैसे पा जायेगे, सो इस बसंता का सत्यानाश हो, पास का भी जो कुछ आज कमाया था, सब खो चले, और तन का एक-एक कपड़ा, देखो, चिरबत्ती हो गया। बचा की खूब पूजा भी की गई, जनम-भर याद रहेगा। अरे यह कहो, न जानिए किसकी पुन्याई सहाय लगी कि दोनो बाबू सँभलकर निकल भागे, नहीं तो सब इज्जत खाक में मिल जाती। और, कब [ ४२ ]तक बचे रहेंगे ? यही लच्छन हैं, तो एक दिन बढ़ई का हाथ गया दाखिल है । बकरे की मा कब तक खैर मनावेगी ? हा! सोने का घर खाक में मिला जाता है । क्या कहते हो, 'बड़े सेठ बाबुओं को तो चंदू के हाथ में सौंप गए थे ।' हॉ-हॉ, सौप तो गए थे, पर कटकरूप दुष्टों के रहते जब उस बेचारे की कुछ चलने पाती ? लाचार हो वह भी छोड़कर चला गया। चंदू-से गुनी, सुशील, भलेमानुस की तो जहाँ तक तारीफ की जाय, सब कम है। उसके सुयश की सुगधि के सामने बूढ़े बाबा मडन महाराज को हम लोग भूल ही गए थे। धिक । नराधम! पापी! कर्म चांडाल! तेरा इतना साहस ! हा-हा-हा! बचा पर खब पड़ी; स्त्रियों का भेख धर कैसा बइयरबानियों में जा मिला था । पूजा भी हुई, और अब पुलिस के चंगुल में पड़ गया है। वे लोग सब तके हई हैं, बसंतवा से भरपूर दाँव लेगे। सच है, बुरे काम का बुरा अंजाम । दोनो बाबू भी बसंता की इस दुष्ट अभिसंधि में अवश्य थे । कुशल हुई, जो इन्हें भी इसमें फंसते देख एक आदमी इनको उस भीड़ से किसी तरह अलग कर गाड़ी पर चढ़ाय ले भागा। यह आदमी कौन था, मैं अच्छी तरह न पहचान सका ; पर मुझे दूर से चदू का-सा चेहरा उसका मालूम हुआ। जो हो, अब हम भी घर जाय।"

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