सौ अजान और एक सुजान
बालकृष्ण भट्ट

पृष्ठ ३१ से – ३६ तक

 

छठा प्रस्ताव

किमकार्य कदर्याणाम् ×


ग्रीष्म की ऋतु है। जेठ का महीना है। दोपहर का समय है। सब ओर सन्नाटा छा रहा है। तिग्मांशु की तीखी खर- तर किरणों से समस्त ब्रह्मांड तच लोह-पिड का अनुहार कर रहा है। क्या स्थावर, क्या जंगम, यावत् पदार्थ सब पानी-ही-पानी रट रहे हैं । जिसे छुओ, वही अंगारे-सा गरम बोध होता है, मानो त्वंगिद्रिय शीत-स्पर्श से निराश हो जल में शैत्य गुण का निर्देश करनेवाले (शीतस्पर्शवत्याप.) कणाद महामुनि की बुद्धि का भ्रम मान बैठी है । एक तो अत्यंत दंडायसान दिन, उसमें ललाटंतप चंडांशु के प्रचंड आतप के ताप से संतप्त, शीतलच्छाया का सहारा लिए हुए, यह जंगम जगत् भी स्थिर भाव धारण कर, मौन अवस्था मे, दुःखदायी ग्रीष्म के उच्चाटन का मानो मंत्र-सा जप रहा है।


  • लक्ष्मी जब आने लगाती है, तो नारियल के फल में पानी के समान

आती है। भीतर पानी इकट्टा रहता है, बाहर किसी को नहीं पता लगता। वही जब जाती है, तो हाथी के खाए कैथे के समान होता है। कै्था समूचा हाथी लीद कर देता है, पर भीतर बसूदा गायब रहता है।

x दुष्ट तथा नीच के लिये, कोई ऐसा बुरा काम नहीं है, जिसे वे न कर सकें।
जंगम जगत् की इस मौन दशा में कभी-कभी पुराने खँडहरों पर बैठी चील का भयंकर किकियाना जो कानों को व्यथा पहुँचा रहा है, सो मानो बीच-बीच उस उच्चाटन मंत्र की सुमिरनी पूरी होने का पता देता है। प्रत्येक गृहस्थ के यहाँ घर-घर सब लोग भोजन के उपरांत विश्राम-सुख का अनुभव कर रहे हैं, नींद आ जाने पर पंखा हाथ से छुट गया है, खर्राटे भरने लगे हैं । स्त्रियाँ गृहस्थी के काम-काज से छट: कारा पाय दुधमुंहे बालकों को खेला रही हैं। कोई-कोई बालक-बालिकाओं को इकट्ठ कर उनके रिझाने की कहानियाँ कह रही हैं । कोई-कोई रूपगर्विता बार-बार दर्पन में मुख देख-देख वेश-भूषा की सजावट कर रही हैं । कोई-कोई बड़ी जंगरैतिन गृहस्थी का सब काम शेष होते देख जेठ के दीर्घ दोपहर की ऊब दूर करने को सूप की फटकार से अपने परोसी के विश्राम में विक्षेप डाल रही हैं। हवा के साथ लड़नेवाली कोई कर्कशा न लड़ेगी, तो खाया हुआ अन्न कैसे पचेगा, यह सोच अपने परोसियों पर बाण-से तीखे और रूखे वचन की वर्षा कर रही है । कोई सरला सुशीला घर की पुरखिन अपनी बहू-बेटियों को एकत्र कर उन्हें अच्छे-अच्छे उपदेश दे रही है। कोई पढ़ी-लिखी एकांव में बैठी तुलसी-कृत रामा- यण या सूर के पदों का अभ्यास कर रही है । कोई कोम लांगी अपनी प्यारी सखी को कसीदा या कारपेट सिखाती हुई परस्पर प्रेमालाप के द्वारा मध्याह्न के निकम्मे घंटों को सफल

कर रही है। खेलवाड़ी बालक, जिन्हें इस दोपहर में भी खेलने से विश्राम नहीं है, गप्प हॉकते हुए-दूसरे-दूसरे खेल का बदोबस्त कर रहे हैं । बॅगलों पर साहब लोगों के पदाघात का रसिक पंखाकुली, अपने प्रभु के पादपद्मको मौनो बारंबार झुक-झुक प्रणाम करता-सा ऊँघ रहा है; पर पंखे की डोसे हाथ से नहीं छोड़ता । सहिष्णुता और स्वामिभक्ति में बढ़ सौहार्द इसी का नाम है।

अस्तु, ऐसे समय रंगीन कपड़ा सिर पर डाले अठखेली चाल से एक नौजवान आता हुआ दूर से देख पड़ा। धीमे स्वर से कुछ गाता हुआ चला आ रहा था । ज्यों-ज्यों पास आता गया, इसकी पूरी-पूरी पहचान होती गई। पहले इसके कि हम इसका कुछ परिचय आपको दें, यह, निश्चय जान रखिए कि चदू-सरीखे बुद्धिमानों के सदुपदेश के अकुर का बीजमार करनेवाला अकालजलदोदय के समान यही मनुष्य था । यद्यपि अनतपुर मे सेठ के घराने से इस कदर्य का पुराना संबंध था, कितु सेठ हीराचंद के जीते-जी इसका केवल आना-जाना-मात्र था। इसके घिनौने काम और दुरा चार से हीराचंद सदा घिन रखते थे । इस कारण जब-तब इसे ऐसी फटकार बतलाते थे कि सेठ के घराने से अत्यंत घिष्ट-पिष्ट रखने की इसकी हिम्मत न होती थी। पाठकजन यह सेठजी के पूज्य पुरोहित के घराने का था। नाम इसका वसंतराम था, पर सब लोग दसे बसता-बसंता कहा करते
थे। नाक फसड़ी, होठ मोटे, आँखे घुच्चू-सी. माथा बीच में गडढेदार, चेहरा गोल, रंग काला मानो अंजन-गिरि का एक टुकड़ा हो । पढ़ना-लिखना तो इसके लिये "काला अक्षर भैस बराबर" था। जब यह मा के गर्भ में था, तभी इसके बाप ने यमपुर को राह ली। केवल नाम-मात्र के ब्राह्मण इन पुरोहितों की पहले तो सृष्टि ही निराली होती है कि पुरोहिती कर्म से जीनेवाले सौ-पचास इकटू किए जाय, तो बिरले एक-दो उन में ऐसे निकलेंगे, जो आवारगी, उजड़पन और छिछोरेपन से खाली होंगे । विद्या, गुण अथवा किसी प्रकार की योग्यता का तो जिक्र ही क्या, उनमें साधारण रीति की मनुष्यताही हो, तो मानो बड़ी कुशल है । तब इस रंडा पुत्र का कहना ही क्या । इस अभागे को तो जन्म ही से कोई कुछ कहने-सुनने- वाला न था।

एकेनापि कुपुत्रेण कोठरस्थेन वहिना ;

दह्यते तद्वनं सर्वं कुपुत्रेण कुलं यथा * ।

कुपुत्रों में भी यह उस तरह का कुपूत न था कि खोडर में रक्खी आग के समान केवल अपने ही कुल को भस्म करे, अपिच जहाँ-जहाँ इसकी थोड़ी भी पैठ या संचार हो गया, वहॉ वहाँ इसने भरपूर अपना-सा उस घरानेवालों को कर दिखाया। यह सदा इसी ताक में रहा करता था कि किस


  • किसी एक खोडर में रक्खी हुई आग से जैसे कुल वन जल जाता है, वैसे कुल मे कुपुत्र के उपजने पर समस्त वंश-का-वंश नष्ट हो जाता है। घराने में कौन-कौन नए केडे हैं। उन्हें किसी-न-किसी तरह

अपने ढंग पर चढ़ाय खातिरखाह गुलछरें उड़ाया करता, जब देखा, अब यहाँ कुछ सार न रहा, तो निर्गधोज्झित पुष्प के समान उसे त्याग भ्रमर के समान दूसरा ठौर ढूँढ़ने लगता । इस क्रम से इसने न जानिए कितने कुलप्रसूत नई उमर- वालों का शिकार कर अमीर शिकारी के फन मे पूरा उस्ताद हो रहा था। इन बाबुओं को तो इसने ऐसा फंसा रक्खा था कि इसके विना उन्हे एकदम चैन न पड़ती, मानो दोनो बाबुओं का यह बसंता सर्वस्व हो गया था। और, यह ऐसा चालाक था कि जिस ढंग पर चाहता काठ के खेलौने के माफिक दोनो को दुलकाता फिरता । हम पहले लिख आए हैं कि यह पढ़ा-लिखा न था, तब हबशियों के-से इसके मोटे- मोटे होठों पर बड़े-बड़े और चौड़े दांतों को देख "क्वचिदन्ता भवेन्मूर्ख" सामुद्रिक के इस लक्षण में कचित् शब्द की चरितार्थता मानो इसी के लिये रक्खी गई थी ; बड़े दॉत- वाले कोई मूर्ख देखे गए, तो यही। दूसरे इसकी कंजी ऑखें साखी दे रही थी कि कदर्यता इसमें किस दर्जे तक पहुंची हुई है। पाठक, आप बसंता से भरपूर परिचय कर रखिए, अभी आपको इससे बहुत काम पड़ना है, क्योंकि हमारे इस किस्से के कई एक नायक प्रतिनायकों में चंदू का प्रतिनायक यही होता रहेगा। चंदू-सा सुपात्र, भलामानुस और बसंता के समान नटखट कुपात्र कहीं बिरले पाओगे। यों बाबू साहब बराय नाम काठ के उल्लू बनाकर थाप दिए गए थे, असल में मानो हीराचंद का वलीअहद यही बन बैठा था, और उनके धन का सब सुख भोगनेवाला यही अपने को मानता था। ऐसे दोपहर के समय यह क्यो घर से निकला, और क्या इसका मनसूबा था, इसका रहस्य जानने को कौन न उकताता होगा; किंतु सहसा किसी रहस्य का उद्घाटन उपन्यास-लेखकों की रीति के विरुद्ध है, इससे इस प्रस्ताव को यही समाप्त करते हैं।

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