सुखशर्वरी  (1916) 
द्वारा किशोरीलाल गोस्वामी

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HTT1 ॐ अष्टम परिच्छेद -29 तरुतल। "जीवति जीति नाथे, मृते मृता या मुदा युता मुदिते । सहजस्नेहरसाला, कुलवनिता केन तुल्या स्यात् ॥" (शाधरः) startasthitoर्ग में अनाथिनी कुछ देख कर स्तंभित हुई ! उसने मा देखा कि, ' एक पेड़ के नीचे कोई मनुष्य सो रहा है !' यह देखकर वह जल्दी जल्दी उस पथिक के ४४४३५१६ पास गई । चन्द्रमा की स्वच्छ चांदनी में उसने देखा कि, 'उस निद्रित पुरुष के सब शरीर में " सरला सरला" लिखा है!' " सरला का नाम देखकर अनाथिनी ने सोचा कि, जान पड़ता है कि यही व्यक्ति मेरी सरला के लिये पागल और उदासीन हुआ है ! अहा ! सरला इसके प्रेम की सामग्री है ! उस प्रेमप्रतिमा को न पा कर ये उदासीन हुए हैं!ये यथार्थही उदासीन हैं !!! अहा ! ये संसाराश्रम छोड़ कर बन बन की धूल उड़ाते फिरते और दिन बिताते हैं !" हाय ! स्त्रीजन क्या इतनी निठुर होती हैं ? अबला का हृदय क्या ऐसा बज्रसा होता है ? रमणो का प्राण क्या इतना कठोर है ? यदि सरला आती तो उसे मैं दिखाती कि, 'तेरे प्रेम से बञ्चित होकर एक व्यक्ति ने उदासीन-वृत्ति धारण की है!' कितनी स्त्रियां पुरुष के लिये पागल हो जाती हैं, और कितनी चाह के पात्र को न पाकर उन्मादिनी होती हैं ! मैं यहां क्या कर रही हूं ? उपकार करनेवाले हरिहरप्रसाद के पुत्र का उद्धार करने में आई हूँ, मैं क्या उन्हें चाहती हूं ? हां!!! यह तो मैंने मन में संकला किया है कि, 'यदि उन्हें न पाऊंगी तो पागलिनी बन कर प्राण छोड़ दूंगी, वा जंगल-पहाड़ों में जहां-तहां डोला करूंगी!' हा ! ये उदासीन यहां क्यों आए ? ये क्या उस बंदी का कुछ हाल जानते हैं ? इनसे पूछ क्या? यदि ये उठकर कहें कि, 'बंदो तो कात्यायनी के चरण [ ४९ ]________________

उपन्यास। - whivvvvvvvvvvvvvu" में बलि होगया, अब इस पापमय पृथ्वी में नहीं है!' हा! तब मैं कहां जाऊंगी! यदि कभी सरला से भेंट हो तो उमसे मैं क्या कहूँगो ? जो कहीं हरिहरबाबू के संग मेरा साक्षात् हो तो उन्हें मैं पया जवाब देंगी? उदासीन को सोने ! भग्नगृह पास ही तो है, पहिले वहीं चलं। बंदो के भाग में वा मेरे कर्म में क्या बदा है, इसे देख : व्यर्थ किसीकी नींद क्यों खोलं?". . इसी तरह सोचते सोचते उदासीन को बिना जगाए ही अनाथिनी जल्दी से अग्रसर हुई, और भग्नगृह के समीप पहुंची। घर के भीतर जाकर उसने देखा कि, 'सब घर सूनसान पड़ा है ! जिसमें बंदी था, वह भी खुला झनझना रहा है, और कापालिक का भी कुछ पता नहीं है !' बंदी को न देख कर अनाथिनी पागल की तरह होगई ! वह सोचने लगी कि, 'हा! बंदी कहां गया और कापालिक किधर गया ?' इत्यादि सोच विचार करती करती वह जोर से चिल्ला कर पुकारने लगी,-" बंदी कहां है ? बंदी कहां है ? " पर किसीने कुछ उत्तर म दिया, केवल टूटे खंडहर ने प्रतिध्वनि से उत्तर दिया ! भग्नगृह कुछ अँधेरा था, इसलिये अनाथिनी को ऐसा जान पड़ा कि, 'मानों एक कोने में बंदो बँधा खड़ा है ! मानो कारागारा ही में से मुझसे बातें कर रहा है ! मानों अपनी हथकड़ी-बेंडी दिखाकर उसे तोड़ देने का अनुरोध कर रहा है !' अनाथिनी जो उस कल्पनाकृत बंदी के पास गई तो कहीं कुछ नहीं दिखाई दिया !!! वह उसकी केवल कल्पनामात्र रही। तब वह उन्मत्त की तरह बकती-झकती, टूटे-फूटे मन को बटोर कर भग्मगृह से बाहर हुई, और उसी वृक्ष के नीचे आई, जहां उदासीन सोता था; किन्तु हा! अब वह उदासीन कहां चला गया! अनाथिनी के मन में बड़ा दुःख हुआ कि, 'यहीं उदासीन को जगा कर क्यों न सब हाल पूछ लिया ? और सरला का समाचार सुना कर क्यों न उसकी उदासीनता दूर की ?' इस समय बंदी का विषय भूलकर वह उदासीन की खोज में इधरउधर भटकने लगी ! किन्तु फिर उसने सोचा कि, 'शायद उदासीन पांथनिवास में जाकर सरला से मिल गया हो!' यह सोच-समझ कर पांथनिवास की ओर वह चली । थोड़ी देर में यहां पहुंच कर वह बहुत घबरा गई, क्योंकि किसाने उस पाप HELLERS [ ५० ]________________

सुखशर्वरी। - ww - - AAMANNAAP.. rnrAAAAAAAvr. निवास में आग लगा दी थी और वह भस्म होरहा था! अग्नि सुवदना की कोठरी तक पहुंच गई थी, पर अनाथिनीजी पर खेलकर भीतर घुस गई। उसने सब कोठरियां देखीं, पर सभी खाली पड़ी थी। अनाथिनी के मन से अब उदासीन की सभी चिन्ता दूर हुई, केवल, 'सरला, सुबदना और प्रेमदास की दशा क्या हुई,' इसी सोच से वह अतिशय कातर होने लगी। उसने विक्षिप्तप्राय होकर चिल्लाकर पुकारा,-" सरला, सरला ! प्रेमदास, प्रेमदास ! सुबदना, सुबदना!!!" ... इसी समय न जाने किसने पीछे से उसका अंचल खींचकर चंचल होकर पूछा, "सरला. सरला! कहां है ? कहां है, सरला?" अनाथिनी ने मुख फेर कर देखा कि, "वही उदासीन सामने खड़ा है !!!" अनाथिनी क्या उत्तर देती ? ठहरकर उदास होकर बोली."सरला इसी घर में थी, इस समय शायद वह किसी दूसरी जगह गई है!" उदासीन ने आग्रह से पूछा,-"कौन सरला ? हरिहरबाबू को कन्या?" अनाथिनी,-"हां! वही! " अनाथिनी का प्रत्युत्तर सुनकर उदासीन हर्षित हुआ। इसी समय एक क्षीणस्वर उन दोनों के कानों में गया।तब दोनों उसस्थर को लक्ष्य करके दौड़े, और जाकर उन दोनों ने देखा कि,-"हाथपैर बँधा हुआ एक व्यक्ति पड़ा है! " __“यह कौन है ?" उन दोनों ने उसे चीन्हा; अनन्तर यत्न के सहित उसे एक निरापद स्थान में वे दोनों ले गए । [ ५१ ]________________


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नवम परिच्छेद. देवमंदिर। "सदा प्रदोषो मम याति जाग्रतः, सदा च मे निश्वसतो गता निशा। त्वया समेतस्य विशाललोचने, ममाघ शोकान्त करः प्रदोषकः ॥" (कलाधरः ESEबदना, प्रेमदास और सरला घर का जलना देखकर स अनन्योपाय होकर पान्थनिवास से भाग गए थे, SN अनन्तर उन तीनों ने समीपवर्ती देवमंदिर में आश्रय ESE लिया था। इस मंदिर में श्रीराधाकृष्ण की जुगल. जोड़ी बिराजती थी। अब तक आकाश में चन्द्रमा चमकता था। सरला सोच में डूबी थी कि, "अनाथिनी कहां है ? क्या वह अपने काम में सफल-मनोरथ हुई ?" सुबदना चिन्ता करती थी कि, "किसने मेरे पान्थनिवास में डाह से आग लगाई ?" और प्रेमदास विचारते थे कि, "अब मेरे साथ सुखदना क्यों नहीं हास. बिलास करती?" सवेरा हुआ और प्रेमदास मंदिर में जाकर श्रीराधाकृष्ण के दाम्पत्य सद्भाव की महिमा मन में सोचने लगे। उन्होंने मन में विचारा कि, "सुखदना के संग जो मेरा इस प्रकार मिलन हो तो मैं कितना सुखी होऊंगा ?" यही सोचते सोचते छिप छिप कर वे सुबदना की ओर देखने लगे। फिर राधा और कृष्ण का मन में स्मरण करके उन्होंने भक्ति से प्रणाम किया। धीरे धीरे सूर्य की असंख्य किरणों से पृथ्वी छा गई, और प्रेमदास मारे भूख के विकल होने लगे। ठाकुर के पुजारी का घर पास ही था; सो, प्रेमदास उनसे चावल-दाल आदि भोज्य-सामग्री मोल लेकर एक पेड़ के नीचे रसोई बनाने लगे। पहिले उन्होंने सरला और सुबदना को भोजन कराया, पर उनका जी काँपता था कि, "कहीं मुझे थोड़ा न बचे। किन्तु उनका भाग्य अच्छा था कि उन दोनों ने थोड़ा ही खाया। पीछे [ ५२ ]________________

सुसरापस। - आड़ में पालथो जमाकर सब सामग्री पेटरूपी मिशाल गड़हे में उन्होंने ढूंस ली। अब सूर्य्यदेव मध्याकाश में पहुंच गए थे। भोजन करके प्रेमदास ने बड़ी खोज-खाज पर एक तालाब देखा, और देह मांजने के लिये उममें वे कद पड़े ! सरला और सुबदना की अनेक चिन्ताएं दूर हुई, क्यों कि उसी समय वहां पर सानाधिनी पहुंच गई थी। पहिले तो सरला का मुंह सूख गया,फिर डरते डरते उसने अपने भाई का हाल पूछा। अनाथिनी ने कुछ उत्तर नहीं दिया, किन्तु यह खिलखिला कर हँसनेलगी। इतने दिनों में आज अनाथिनी के मुंह पर हँसी दिखाई दी थी। - सरला ने आह्लादित होकर पूछा,-"भैया कहां हैं? क्या उन्हें तुम छुड़ा लाई ? ऐं ! अहां तुमने उन्हें देखा था, वहीं थे ? किस अवस्था में वे थे? कापालिक ने उन्हें कैसे छोड़ा ?" . अनाथिनी ने सरला की सब बातों का उत्तर केवल एक अक्षर "ना!" से दिया। सरला ने उत्सुक होकर पूछा,-"भैया कहां थे, और अब वे कहां हैं ?" अनाथिनी.-"कहां थे! जहां हमलोग थीं. वहीं !" सरला कुछ चञ्चल होकर बोली,-"अरे ! मेरे तो प्राण गए और तुम्हें हँसी सूझी है ! इस समय हँसी को ताक पर धर दो। देखो तो सही! छोकडी ने भतार पाकर रसिकता की पराकाष्ठा दिखा दी!-बोलोजी, बोलो जल्दी! भैया कहां हैं ?" अनाथिनी ने फिर हँसकर कहा.-"पान्थनिवास की जिस कोठरी में हमलोग थीं, उसीके बगल में वे भी थे।" सरला,-"वहां उन्हें कौन लाया और कापालिक के हाथ से किसने छुड़ाया ?" अनाथिनी,-"एक उदासीन ने कापालिक के हाथ से उनका उद्धार किया ।" सरला,-"कौन उदासीन ? और कैसे छुड़ाया ?" अनाथिनी,-"एक दिन के उदासीन कापालिक के भग्नगृह के पास भ्रमण करते थे। रात्रि भीषण मूर्ति धारण किए बन में राज्य करती थी। उसी समय उन्होंने देखा कि, 'भागीरथी के [ ५३ ]________________

उपन्यास e किनारे एक कात्यायनी देवी की मूर्ति स्थापित है, उसके पदतल में एक अभागा शृङलाबद्ध औंधा पड़ा है, और देवी के सामने आसान मारे कापालिक ध्यान में मग्न है !' उदासीन बंदी को चोन्हते. थे, सो उसकी भयानक विपद देखकर उनका मन भर आया। फिर धीरे ले उस बंदी को गोद में उठा कर वहांसे के खसक दिए और कापालिक को उन्होंने खूब ही धोखा दिया। सरला,-"भई! उदासीन कौन? वे कहां हैं ? अहा! उदासीन बड़े उपकारी हैं। क्या वे बंदी मेरे भैया ही हैं! हां फिर?" अनाथिनी,-"फिर उदासीन उन्हें लेकर जाल से बाहर होते थे कि सहसा कोई बंदी को उनसे छीनकर अवश्य होगया!" सरला,-'कौन, कौन ?" अनाथिनी,-"वे दो डांक थे" सरला,-वे दोनों कौन थे ? और क्यों भैया को हर ले गए?" अनाधिनी,-"उदासीन से विदित हुआ कि, 'उन दोनों में से एक मुसटण्डा रामशङ्कर और दूसरा मजिष्ट्रट को घायल करनेवाला फकीर था। साला,-"रामशङ्कर, क्या सर्वनाश ! वह तो बाबा का जात. शत्रु है ! वह यहां कैसे आया ?" अनाथिनी,-'जबसे मजिष्ट्रट घायल हुए हैं, तबसे रामशङ्कर और वह फकीर जङ्गलों में छिपे डोलते हैं !" सरला,-"वे दानों भैया को कहां ले गए ? क्या किया ?" अनाथिनी,-"उन दुष्टों ने उनका दोनों हाथ-पांव बांध कर सुबदनां के पान्थनिवास में रक्खा था। पीछे हमलोग वहां गई थीं। ___ सरला,-"ठीक कल संझा को तीन आदमी वहां आकर तीन कोठरियों में टिके थे, यह तो सुना था, और देखो भी था कि एक जन का हाथ पैर बंधा था। पर अंधेरे के कारण उसे अच्छी तरह नहीं देख सकी। हाय ! उन्हीं दुष्टों ने पान्थनिवास में आग लगाई थी ?" अनाथिनी,-"हां उन्हीं दुष्टों ने तुम्हारे भाई के सर्वनाश करने के लिये पान्थनिवास में आग लगाई थी।" सरला,-"हां, भाई ! अब भैया कहां है ?" [ ५४ ]________________

सुस्वशर्बरी। mamIAvvvhnni..../NAANIMViv अनाधिनी, सरला ! भग्नगृह से आकर मैंने देखा कि, 'पांथनिवास जलता है !" मैंने भीतर जाकर तुमलोगों को वहां नहीं देखा, फिर बाहर आकर तुम्हारे भाई का आर्तनाद सुना, तब उदासीन की सहायता से तुम्हारे भाई को एक निरापद स्थाब में रख आई हूं। उनका कोई अनिष्ट नहीं हुआ है। उदासीन के अनन्त यत्न से उन्होंने आरोग्य लाभ किया है। पालकी भाड़ा करके उन्हें घर भेज कर तुमलोगों को खोजने मैं यहां आई हूँ।" सरलो,-" आह ! प्राण बचे! मई ! सखी ! तुम धन्य हो! भावी पति के उद्धार के लिये तुमने क्या नहीं किया ! अच्छा! . वे हमलोगों के परम उपकारी उदासीन कहां हैं ? गहा ! वे क्यों उदासीन हुए हैं ? " ___ अनाथिनी,- अपनी चाह की वस्तु नहीं पाने से इस कोमल सुकुमार वय में वे उदासीन हुए हैं।" सरला,-"चे किसे चाहते हैं ? अनाथिनी.-" किसे चाहते हैं ? अरे, एक सामान्य उदासीन की बात पूछकर तुम क्या करोगी?" सरला, “वाह भाई ! क्यों न पूछू ! वे हमलोगों के परम उपकारी हैं। यदि उनका तिल भर भी प्रत्युपकार मैं कर सकें तो अपने को धन्य समझ !" अनाथिनी,-" तुम उनका अशेष उपकार कर सकती हो परन्तु---- - सरला,-" परन्तु क्या ? अनाथिनी ! बताओ, मैं कैसा और कौन सा उनका उपकार कर सकती हूँ!" अनाथिनी,-"तुम अवश्य करोगी ?" सरला,-"कहँगी, प्राण जो देना पड़े तो वह भी अनाथिनी,-" स्वीकार करती हो न? केवल प्राण नहीं देना पड़ेगा, मन और प्राण दोनों देने पड़ेंगे !" सरला,-" यह क्या ? अनाशिनी!" अनाथिनी,-" तो फिर प्रतिज्ञा क्यों की ? अब उनकी अभिलाषा पूर्ण करो !" __यह कहती हुई गनाथिनी मन्दिर के बाहर आई और थोड़ी - --~rari sी । [ ५५ ]________________

MEE NHRIRAM MATERTRAILERTISEM E DERECASSES Ramanumaruaa m an अनाथिमी ने उदासान को निश्चय करा दिया था कि, ' सरला से जरूर तुम्हारा परिणय होगा; ' इससे उनका उदासीन भाव मिट गया था, और सरला से मिलने के लिये अनाधिनी के संग वे मन्दिर में आए थे । अनाथिनी ने उन्हें एक निभत-निवास में थोड़ी देर के लिये छिपा रक्खा था, और सरला के मन की परीक्षा लेने के लिये अकेली मन्दिर में गई थी। अब सरला के चित्त का मर्म जानकर और पहिला गबं दूर हुओ देखकर उपकारी की वाञ्छा पूरी करने के लिये वह यत्न करने लगी। उदासीन को देखते ही सरला थर्रा कर स्तम्भित होगई ! उसने मन में सोचा कि, "अहा यही व्यक्ति, जिसे पहिले अमादर करके बिदा कर दिया था, मेरे लिये उदासीन हैं ! ये ही मेरे प्रेम के भिखारी हैं ? ये ही सहोदर भाई के उद्धारकारी हैं ! धन्य भाग्य ! ____अनाथिनी सरला की अष्टपूर्व लज्जा देख, हस कर बोली,"सरला ! अपने पागल की इच्छा पूरी करी । ये तुम्हारे प्रेमाकांक्षी हैं ! उस दिन तुमने इन्हीं को न स्वप्न में देखा था ? स्वप्न में इन्हीं से न विवाह किया था ? ये तुम्हारे सच्चे पति हैं । पहिले जो अज्ञानता से इनके संग खोटाव्ययहार किया था, चरण थाम कर उसे क्षमा कराओ । सरला ! देखो ! अपनी प्रतिज्ञा न भूलना, जो अभी की थी।" सरला ने लब्बा से घंघटपट में मुख छिपा कर अपनी प्रतिज्ञा की सत्यता " मौनं सम्मतिलक्षणं " से दिखा दो । उसे आनन्दाथ के संग रोमाऊच हो आए ! उसने मन ही मन कहा, 'मैं अपनी प्रतिज्ञा जरूर पूरी करूंगी!' - अनन्तर सबने चलने की तयारी की, पर प्रेमदास बाजार गए थे, इसीसे थोड़ा ठहरना पड़ा। [ ५६ ]________________

4. सुखशर्वरी। v VAAAAnnu - vvvnavinrvvvv.injanavaronwrohnAnnanonv.ru 9009APANOPAN CENTER dhow दशम परिच्छेद प्रेमप्रसंग। "असारभूते संसारे, सारभूता नितम्बिनी । इति सञ्चिन्त्य वै शम्भुरङ्गि पार्वती दधौ ॥" . (कलाधरः) नजन र परम आह्लादित हुए । अनाधिनी छल करके टल गई थी। सो एकान्त में सरला और सुजनकुमार से जो प्रेम सम्भाषण हुआ, उसे लिखने का हमारा अधिकार नहीं है; यदि हृदय हो तो प्रेममयी प्रियपाठिकागण उसका मर्म स्वयं समझ लें । उदासीन का नाम सुजनकुमार था। सुबदना एक ब्राह्मण की कन्या थी। उसकी जब सात वर्ष की अवस्था थी, तो उसके विवाह की बात ठहरी; किन्तु अभाग्यवश सब बात पक्की होने पर ब्याह होने के एक दिन पहिले उसका भावी पति परलोक सिधारा ! अनन्तर जाति के कट्टर और पुराने टाइप के बकधार्मिक लोग सुबदना की माता के ऐसे विपक्ष हुए और बार-बार धमकाने लगे कि, 'यदि अब इस लड़की का पुनर्विवाह करेगी, तो तुझे जात से काट देंगे, क्योंकि यह विधवा होगई!' इत्यादि असभ्य बातें सुनकर सुबदना की मां नितान्त मृयमाणा हुई, पर वह बिचारी क्या करती, और सुबदना से ब्याह कौंन करता ? यह कौन सुनता या मानता कि, "पतित्वं सप्तमे पदे " के अनुसार सुबदना अभी बिलकुल क्वारी है और केवल वाग्दान भर हुआ है ! खैर ! सुबदना की मां अनाथ एकादश वर्ष की कन्या सबदना को छोड़कर मर गई । सबदना पढ़ी लिखी और धर्मभीरु थो । उसने प्राणपण से अपने सतीत्व की आज तक - रक्षा की, इसीसे हमने सबदना को भद्धविधवा लिखा था! सपदना पहिले ही से प्रेमदास को मन ही मन चाहती थी, पर भय से यह यात प्रगट नहीं करती थी। आज दैवी घटना से ऐसा समय आया कि सब बातें खुल गई, और प्रेमदास ने भी शास्त्ररीति से उससे ब्याह करना स्थिर किया । सुबदना अद्वितीय [ ५७ ]________________

Firint: titilittHTRA सुन्दरी होकर जो एक साधारण रूप और विद्या वाले दरिद्र प्रेमदास के ऊपर निछावर होगई, इसे केवल सच्ची चाह की महिमा जाननेवाली सहज ही अनुभव कर लेंगी। सुबदना प्रेमदास की बाट देखती हुई बाहर बैठी थी। थोडी देर में भयानक चीत्कार करते करते प्रेमदास भागते भागते, कांपते कांपते, हांफते हांफते सामने उपस्थित हुए !!! उनके इस अलौकिक काम से सभी चमत्कृत हुए. ! सुबदनी ने हँसकर पूछा,-"क्यों जी ! क्या बात है ?" प्रेमदास सुबदना की ओर देख कर कांपते का यते घोले,-"मैं जब पुष्करिणी में नहाने गया था, उसी समय दो सवार ! हाय भयानक तरवार की वर्षा !!! बड़े बली और और--- सबदना,-"अश्वारोही ?-क्या कहा ? घबड़ाओ मत, सम्हल कर धीरे धीरे कहो। प्रेसदास,-"उन लोगों ने मुझसे पूछा कि, 'रामशङ्कर को जानते हो ? वह कहां है, कह सकते हो' ? " सबदना,-"तो उन्होंने इतना ही पूछा, तुम अब इतना कांपते क्यों हो?" प्रेमदास,-"सबदना! वे डांट डांट कर मुझसे पूछते थे। दूसरा कोई होता तो उन यमदूतों के आगे से जीता जागता न फिरता।" सबदना ने हँसकर कहा,-"तो तुम कैसे फिरे ?" प्रेमदास,-मेरा श्रेष्ठ कुल में जन्म है, मैं ब्राह्मण हूं। वे दोनों यवन थे, क्या सर्वनाश!!!" सुबदना,-"तो तुम्हें ब्राह्मण जानकर छोड़ दिया ? ए ! " प्रेमदास,-"बस, और क्या?" सुबदना,-"प्रेमदास! तुम तो साहसी हौ, अब तुम्हारी हिम्मत क्या हुई ? अस्तु तुमने क्या उत्तर दिया ? ” प्रेमदास,-"सुबदना! पहिले मुझे बहुत साहस था, किन्तु मैने कहा कि, 'मैं रामशङ्कर को नहीं जानता, वह मेरा कोई नहीं है; मैंने उसे देखा भी नहीं, उसने भी मुझे न देखा होगा!" सुबदना,-"प्रेमदास ! तुम तो बड़े झूठे हौ ! रामशङ्कर तो तुम्हारे मालिक का बैरी है न ? " SHRIES [ ५८ ]________________

भन्मदास,-"सच कहकर प्राण थोड़े ही देना था ! " सुबदना,-वे पुलिसवाले होंगे । गच्छा उन्होंने क्या कहा ? और वे कहां गए ?" प्रेमदास,-"वे मेरी बात सुनकर खिलखिलाकर हंस पड़े और जङ्गल की ओर चले गए। " सुबदना,-"तो तुम इतना क्यों चिल्लाते थे ?" प्रेमदास,-"मैंने समझा कि तुम्हें तो वे नहीं उठा ले गए ! और आते आते उनके डर से चिल्लाया था। सुषदना,-"तो ऐसे डरपोक से मैं ब्याह न करूंगी!" प्रेमदास एकाएक मृयमाण होकर बोले,-"तो अब यम से भी मैं न डरूंगा।" . सुषदना ने हंसकर कहा,-"तो करूंगी।" प्रेमदास का मुख कुम्हिलाकर सहसा खिल गया। सुबदना के भी हर्ष की सीमा न रही ! उसने अपने हँसोड़ स्वभाव के लायक अच्छा पात्र पाया । अनन्तर सुखदना प्रेमदास के संग प्रेम की बातें करने लगी। उदासीन और सरला की बात सुनकर प्रेमदास बड़े खुश हुए, और सरला से हंसकर बोले कि, "देवी ! मुझे बर देने से तुम्हें भी तुरन्त बर मिला!" प्रेमदास की बातों से सभी प्रसन्न होते थे। अनन्तर सब कोई राधाकृष्ण को दण्डवत् करके चले। सरला ने सबदना को भी अपने संग ले लिया।

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यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।