सुखशर्वरी  (1916) 
किशोरीलाल गोस्वामी

छबीलेलाल गोस्वामी, पृष्ठ १ से – ६ तक

 

श्रीः


सुखशर्वरी

उपन्यास


श्रीमनिम्बार्कसम्प्रदायाचार्य

श्रीकिशोरीलालगोस्वामि-द्वारा

वङ्गभाषा के प्राशय से विशुद्ध आर्ययभाषा

में लिखित ।


"मम्मोधिः स्थलना स्थल जलधितां धूलीलवः शैलतां,
मेरुमृकणमातृणं कुलिशतां बज्रं तृणप्रायनाम्॥

वह्निः शानलनां हिमं दहनतामायानि यम्येच्छया. लोलादुर्ललिताद्धतव्यसनिन दैवाय तस्मै नमः ॥"

(क्षेमेद्रः)

श्रोछबीलेलालगोस्वामि-द्वारा

श्रीसुदर्शनप्रेस, वृन्दावन से

छपकर प्रकाशित ।


( सर्वाधिकार रक्षित)

दूमरी बार
मूल्य पांच आने।
संवत् १९७३

ऐतिहासिक उपन्यास

बङ्गसाहित्य सम्राट बाबू बङ्किमचन्द्र चटर्जी महोदय के सुप्रसिद्ध उपन्यास "राजसिंह" का यह सुन्दर हिन्दी अनुवाद है बङ्किम बाबू के लिखे हुए कुल उपन्यासों का यह शिरोभूषण है राज- कुमारी चञ्चल का लड़ापन और धर्मदृढ़ता, उदय- पुर के क्षत्रिय-कुलभूषण भारत गौरव महाराणा राजसिंह का आश्रितवात्सल्य और वीरत्व, माणिकलाल की चालाकी और प्रभुभक्ति, राजपूत कन्या जोधपुरी बेगम का जातीय जोश, औरङ्गजेब । का चरित्व चाचल्य मुसलमानों से राजपूतों का भीषण युद्ध और जेबुन्निसा प्रभृति मुगलराज-कन्याओं। का कुत्सित-चरित्र प्रभृति का चित्र इसमें बड़ी निपुणता से खींचा गया है। इस पुस्तक के पढ़ने से हृदय में कभी वीरता, कभी करुणा और कभी क्रोध उत्पन्न होता है। इतिहास की जानने योग्य बहुत सी बातें मालूम होती हैं। हम जोर देकर कहते हैं, कि ऐसा सुन्दर ऐतिहासिक उपन्यास हिन्दी भाषा में अबतक नहीं छपा था । मूल्य २॥ ढाई रुपए, डाक व्यय चार आने । 1-वा

Pथा

श्रीः


सुखशर्वरी

उपन्यास'


श्रीमनिम्बार्कसम्प्रदायाचार्य

श्रीकिशोरीलालगोस्वामि-द्वारा

वङ्गभाषा के प्राशय से विशुद्ध आर्ययभाषा

में लिखित ।


"मम्मोधिः स्थलना स्थल जलधितां धूलीलवः शैलतां,
मेरुमृकणमातृणं कुलिशतां बज्रं तृणप्रायनाम्॥

वह्निः शानलनां हिमं दहनतामायानि यम्येच्छया. लोलादुर्ललिताद्धतव्यसनिन दैवाय तस्मै नमः ॥"

(क्षेमेद्रः)

श्रोछबीलेलालगोस्वामि-द्वारा

श्रीसुदर्शनप्रेस, वृन्दावन से

छपकर प्रकाशित ।


( सर्वाधिकार रक्षित)

दूमरी बार
मूल्य पांच आने।
संवत् १९७३
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श्रीः प्रथम संस्करण की भूमिका । प्रेम और प्रेमत्व को सभी चाहते हैं, पर इसका उपाय बहुत कम लोग जानते होंगे। प्रेमिक प्रेम पाने के लिये व्याकुल तो होते हैं, सभी अपने लिये दूसरे को पागल करना चाहते हैं, पर अभी तक इसका उपाय कितनों ने नहीं जाना है। इसका अभाव केवल उपन्याम ही दूर करता है, इसलिये प्राचीनतम कवियों ने और सांप्रतिक यूरोपीय कवियों ने उपन्यास की सृष्टि की। जो बात झूठ-सच से नहीं होतो, तंत्र मंत्र यंत्र से नहीं बनती, वह प्रेम के विज्ञान " उपन्याम " से सिद्ध होती है। इसके बिना किसी को वश वा संमोहित नहीं कर सकते । इन सभों के साधन का एकमात्र प्रधान शस्त्र तंत्रस्वरूप उपन्यास ही है। इसके पढ़ने से मनुष्य के हृदय के ऊपर बड़ा असर होता है और सब बात बनजाती है। प्रेम उत्पन्न होने से उसको स्थिर करना चाहिए, उसीसे प्रकृत सुख मिलता है । इसलिये प्रेम को वृद्धि और उसके आस्वाद के लिये उपन्यास महौषधि स्वरूप है। जो प्रेम के पिपासू हैं, वे इसमें प्रेम को ज्वलन्तछबि देख कर शीतल होते हैं। जिसके हदय में सदा प्रेम की तरंग उठा करती है, और जिसका हदय प्रेम का नवविकसित कानन है, उसके लिये उपन्यास हृदयमणि के तुल्य है। ___ इसमें प्रेम की प्रबलता, प्रणय की उन्मत्तता, चाह की मत्तता, यौवन का पूर्ण बिकाश, लालसा का प्रबल प्रवाह, कामना का वेग, रम की तरंग, प्रीति की लहरी, सभी कुछ रहते हैं। इसीलिये कवियों ने साहित्यश्रेणी में उपन्यास को श्रेष्ठ गद्दी दी है। १ अक्तूबर, मन् १८६१ ई०) आरा रसिकानुगामी, श्रीकिशोरीलालगोस्वामी ।


श्री:

द्वितीय संस्करण की भूमिका ।

यह उपन्यास सन् १८८८ ई० में लिखा गया और सन् १८८१ ई० में भारतजीवन प्रेस में छपा था । आज ईश्वरानुग्रह से इतने दिनों के बाद यह दूसरी बार छापा जाता है। उपन्यासप्रेमियों ने इसे बहुत पसन्द किया है, इसलिये हम उनके कृतज्ञ हैं।

वृन्दावन }रसिकानुगामी,

११-८-१६ } श्रोकिशोरीलालगोस्वामी

श्री:

समर्पण।


दिव्यादिव्यतर-लोकङ्गता, चिरसौभाग्य-

वतीवती, सती-साध्वी-पतिव्रता-पदवाच्या, निज

भार्या के चिरस्मरणार्थ यह “सुखशर्वरी"

उसीके पुनीत नाम पर हम उत्सर्ग करते हैं।

श्रीकिशोरीलालगोस्वामी--

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