सुखशर्वरी  (1916) 
द्वारा किशोरीलाल गोस्वामी

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सुनशर्वरी। - PERSO9000899 चतुर्थ परिच्छेद. 000000000 - भागीरथी तट। "किमत्र चित्रं यत्सन्तः परानुग्रहताराः। न हि स्वदेहशैत्याय जायन्ते चन्दनद्रुमाः॥" (कालिदासः) नाथिनी भग्नगृह से निकल कर जाती थी कि उसके ( अ) कानों में यह भयानक शब्द,-'मा कात्यायनी ! कब - मैं नरबलि देकर निश्चिन्त होऊँगा ?'- बज्र सा सुनाई दिया। बालिका दौड़कर उसी अश्व के पीछे जा लकी और आड़ में से देखने लगी कि, 'पशुचर्म को पहिरे, . नरकपाल हाथ में लिये, भयानक रूप बनाये, पर्बताकार कापालिक उस भग्नगृह में घुसा!' यदि अनाथिनी क्षण भर भी वहां और बिलम्ब करती तो जरूर कापालिक के हाथों पड़ती। बालिका के कानों में कात्यायनी का नाम अमृत सा लगा, परन्तु कापालिक का जघन्य और हत्यारा रूप देख कर वह कांप उठी'! कापालिक के घर में जाते ही भय से अनाशिनी वहांसे भागी तो सही, पर भय से जल्दी जल्दी पांव नहीं उठते थे। जैसे स्वप्न में कोई आदमी भय के मारे भागने की चेष्टा करता है, परं उसका पैर नहीं उठता; उसी प्रकार अनाथिनी की दशा हुई। रह रह कर पीले फिर कर वह देखने लगी, और पत्रों के मर्मर शब्द से उसका कलेजा कांपने लगा । वह प्राणपण से दौड़ती दौड़ती पूर्वोक्त तिरमुहानी पर आ गई। अब आशा हुई कि प्राण बचेंगे, पर साथ ही भाई की चिन्ता ने चित्त चञ्चल कर दिया । उसने सोचा कि कोई काम भी नहीं सुधरा।' इत्यादि नाना चिन्ता करती करती वह आगे चली। कुछ दूर जाकर उसने देखा कि, 'किसी घर में आग लगी है!' परन्तु पास जाकर देखकर स्तम्भित हुई, क्योंकि वह आग बुढ़िया की कुटी में लगी थी! हाय! किसने अनाथिनी के सामान्य माश्रय को फंक दिया ? शब उस बाला [ २३ ]________________

उपन्यास । की क्या दशा होगी? पिता के वियोग पर अनाथिनी उस वृद्धा के आश्रय से स्वस्थ हुई थी, उसका अपत्यस्नेह देख कर अपना दुःख भूल गई थी, भाई के खो जाने पर भी बुढ़िया के समझाने से कुछ शान्त हुई थी। किन्तु हा ! अब शान्ति देनेवाली कुटीर भी नहीं है, और आश्वासन देनेवाली बुढ़िया भी नहीं है ! हा! अनाथिनी की क्या दशा होगी? ____ पाठक ! सुरेन्द्र की खोज में वृद्धा गांवों में गई थी, पर भाग्यों से हो वह इस समय यहां नहीं थी; नहीं तो भस्म होजाती। अब बालिका को ढाढ़स कौन दिलावै ? अनाथिनी ने समझा कि, 'किसी दुष्ट ने हमलोगों को भस्म करने के लिये ही इस कुटीर में आग लगाई होगी।' इत्यादि सोच कर रोती रोती वह समीपवर्ती गङ्गा के किनारे जा बैठी । रात्रि का समय था, पूर्णिमा का पूर्ण चन्द्र मन्द मन्द हंसता था, और स्वच्छ चाँदनी में टूटी फूटी सोपानावली दिखाई देती थी। बालिका एक साफ सीढ़ी पर बैठ, दीर्घनिश्वास लेकर कहने लगी,-" सब आस मिटी ! अब क्या ? भाई की चोरी, उसका न मिलना; हा! क्या वह फिर मिलैगा? सो तो नहीं हुआ! दो पहर के समय मेरे हृदय की तरह आकाश मेघाच्छन्न था, पर अब तो रजनीपति के प्रभाव से सघन-घनघटा अन्तर्धान होगई है, पर मेरी हदय की मेघराशि किस आशा से छिन्न. भिन्न होगी ? जब भाई की खोज में गई थी, तब मेरे मन में बड़ा दुःख होरहा था, किन्तु भाशा का मन्द मन्द दीपक बलता था, पर इस समय ? अब तो गाशा का दिया एकाएक बुझ गया, दुःख गाढतम होगया। पूर्णचन्द्र ! तुम्हारे उदय होने से मन पहिले कैसा हर्षित होतो था, किन्तु इस समय तुम्हारी कोमल किरण देखने से जरा भी आनन्द नहीं होता, वरञ्च मर्मभेदी दुःख और शरीर में दाह पैदा होती है । चित्त चाहता है कि अब तुम्हारा मंह न देखें, अंधेरे में दिन विताऊं । हा! उस सुन्दर युवा को क्यों नहीं अंधेरे घर से उद्धार किया ? अहा ! कैसी मनोहर मूर्ति थी ? पर शरीर दुर्बल और अंग श्रीहीन होगया था। हाय ! लौटने के समय उस जर्जर अश्व ही को क्यों नहीं बंधन से छुड़ाया ? मैं संसार में जन्म ले कर किसीका भी उपकार न कर सको। हाय ! Rom [ २४ ]________________

सुखशवरा । . Re - - onlunnnnn. + 1 + 1 + 1 + 1 + V s v • न जाने इस समय कैसा मन होगया है ! हा!!!" .... चिन्ता से भरी बालिका सीढ़ी उतर कर नीचे की सीढ़ी पर आगई । गङ्गा की कैसी शोभा है ? पूर्णिमा के पूर्णचन्द्र की प्रभा से प्रतिभात होकर जान्हवी का पवित्र जल चमचम करता था: मानो हँस रहा हो! बड़ा आल्हाद !! जलकण लिये शीतल समीर सनसना रही थी, और रह रह कर जल की तरङ्गों में आघात करती थी। . अनाथिनी ने बहुत देर तक चिन्ता करके आप ही आप कहा,-"गंगा मैया! अभागी लड़की का निवेदन सुनोगी ?" सरसर शब्द से घायु ने मानो पूछा, 'क्या?" जैसे प्रार्थनाकांक्षिणी कन्या प्यारी माता के पास किसी चीज को मांगती है, वा कोई गुप्त रहस्य प्रकाश करती है, उसी तरह अनाथिनी ने गङ्गाजी की ओर सिर झुका कर बड़ी करुणा से कहा,-"मां! या करके अभागिनी बेटी को क्या अपनी गोदी में लोगी ?" . उस समय जोर से हवा चली, गंगा में एक पर दूसरी तरङ्ग टक्कर मारने लगी, मानो भागीरथी अनाथिनी की बात सुनकर रुष्ट हुई। बालिका अपनी प्रार्थना सुनाकर न जाने क्या सोचने लगी, फिर बोली,-"मां! यदि मेरा हृदय कोमल न होता तो बलपूर्वक तुम्हारी गोदी में सोती। क्यों विधाता ने सरल हदय बनाया ? कर्म में इतना दुःख लिखा, तो हदय पत्थर सा क्यों नहीं बनाया ? नहीं तो आज तुम्हारे उदर में प्रवेश करके सब दुःख को एक दम भूल जाती और शान्ति पाती। आन पड़ता है कि पहिले जन्म में मैने बड़ा पाप किया था, उसीके फल भोगने के लिये बिधाता ने मेरे भाग्य में इतना दुःख लिखा है, अर्थात् मेरा हदय कोमल बनाया है। मां ! सुना है कि तुमने सैकड़ों मनुष्यों का उद्धार किया है, तब निःसहाय अबला कन्या पर क्यों नहीं दया होती ? मां! जब मैं सो जाऊं तो मुझे वायु के सहारे से अपनी गोद में ले लेना।" बालिका ने रोते रोते चन्द्रमा की ओर देखकर कहा,"निशाकर ! क्या तुम भी अभागिनी पर दया न करोगे ? प्रिय ! तुम जल्दी अस्त मत होना, नहीं तो सूर्योदय होने पर मैं फिसके द्वार पर खड़ी होऊंगी ?" [ २५ ]________________

उपन्यास। - - D o ornaw......... - innovavvvvvvAm/NMMouvviyinine बिचारी बालिका रोते रोते सब दुःख दूर करनेवाली निद्रा की गोद में लेट कर सो गई । निद्रा से भी मानो बालिका यही प्रार्थना करती थी कि, 'अनन्तकाल तक मेरी आंखों में नींद बनी रहै। अनाथिनी तो सो गई, फिर क्या हुआ? थोड़ी देर के बाद उसी घाट पर एक नाव आ कर लगी । उस पर एक पचास वर्ष के वृद्ध सवार थे। उनका रंग गोरा, शरीर दोहरा, हंसता चेहरा और ठाट-बाट अच्छा था। नाव पर से उतर कर सीढ़ी पर पाँव रखते ही वे चिहुंक उठे। उन्होंने देखा कि, 'निम्न सोपान पर एक बालिका पड़ी सो रही है!' "बालिका कौन है ? इतनी रात गए यहां क्यों पड़ी है ? " इत्यादि जानने के लिये चंचल होकर वे बालिका की दशा देख कर बहुत उदास हुए। उन्होंने देखा कि, 'बालिका का मुख पूर्णचन्द्रसा होने पर भी निराशा की गाढ़ मसीमयी मेघमाला से आच्छन्न है और मुंदे नयनों की कोर से वर्षाविन्द की तरह अश्रविन्द बरस रहे हैं ! ' अवश्य ही तय तक अनाथिनी के मन में चिन्ता को ज्वाला जलती होगी, क्योंकि मन सदा चंचल रहता है, कभी भी विश्राम नहीं करता । बहुत श्रम से और सय इन्द्रियां शिथिल हो जाती हैं, पर मन नहीं थकता । जान पड़ता था कि अनाथिनी की पहिलेवाली सब चिन्ताएं मिलकर भीतर आन्दोलन करती हों, इसीसे दुःखदायिनी चिन्ता के प्रताप से अनाधिनी सोई-सोई रो रही होगी। ___ अपरिचित व्यक्ति क्या करते ? 'तुरंत निद्रा भंग करनी भी उचित नहीं है, इत्यादि सोचते सोचते निर्निमेष लोचनों से वे ' उसकी ओर निहारने लगे। चन्द्र की चमकती किरण से उसके आंसू की लड़ी मोती सी झकझकाती थी। ___सहसा उन्होंने बालिका के अंचल में एक गांठ देखकर जलदी से खोला तो एक पत्र निकला । उसको देखते ही वे कांप उठे ! 'ऐं'-" ! "हरिहरशर्मा" यह तो मेरा ही नाम है ! और यह मेरे ही हाथ का लिखा पत्र है । मैने ही इसे लिखा था। ओः !जान पड़ता है, कि यही अनाधिनी है ! देखं बहुत दिन हुए, इससे खूब याद नहीं आता। वही होगी, ठीक वही है, पर यह यहां इस अवस्था में इस प्रकार को पड़ी है ? " [ २६ ]________________

२० सुखशवरी। and पाठक ! हरिहरबाबू को आपने चीन्हा ? उन्होंने घबड़ाकर जोर से पुकारा,-"बेटी ! अनाधिनी! ओः! यहां क्यों आई?" का अनाथिनी गहरी नीद में थी, सो पहिली पुकार में करवट बदली, दूसरी बार जाग उठी । समझो कि "या पिता पुकारते हैं !" पर मन में तुरन्त स्मरण हुभा कि, 'पिता तो स्वर्ग में हैं !' वह बहुतं डरी और निद्रा भी खुल गई। वह उठ बैठो और हरिहरबाबू की ओर एक बार देख कर उसने मंह नीचा कर लिया। - हरिहर,-"तुम्हीं अनाधिनी हो? तुम इस निर्जन भागीरथी के किनारे अकेली कैसे आई ?" अमाथिनी,-"मैं ही अनाथिनी हूं, भाग्य के दोष से मेरी यह दशा हुई !" .. हरिहर,-"ऐं ! तुम्ही अनाथिनी हौ ? तुम्हारे पिता कहां हैं ? सुरेन्द्र कहां है ?" ____अनाथिनी,-"पिता स्वर्ग गए और भाई को कोई चुरा ले गया ।" हरिहर,-"हा ! पिता स्वर्ग गए; यह कब ?" अनाथिनी,-"गत सोमवार की रात को।" हरिहर,-"किस जगह ?" अनाथिनी,-" पास ही के स्मशान में।" हरिहर,-"स्मशान में ! वहां क्यों ?" अनाथिनी,-"वे हमलोगों को संग लेकर अपने एक मित्र के घर जाते थे । डर से नाव पर नहीं गए, जंगल लांघ कर स्मशान में पहुंचे; पर वहां बहुत सुस्त होने से वहीं पर प्राण गया। हा!" हरिहर,-"हा ! बड़ा दुःख हुआ। पहिले तो व्याकुलता,-फिर मर्मभेदी दुःख, उस पर बुढ़ापा, तिसमें पथश्रम,-ये ही सब मित्र की मृत्यु के कारण हुए। हा! वे तो अब अनन्तकाल के लिये सुखी हुए । हाय, रामशङ्कर कैसा पतित और निष्ठुर है ! क्या ईश्वर उसे इसका प्रतिफल न देंगे! अवश्य ही देंगे ? हा ! सुरेन्द्र को कौन उठा लेगया ?" अनाथिनी,-"मैं पिता के मरने पर यहों, पास ही, एक बूढ़ी की कुटीर में भाई के संग रहती थी, क्योंकि और दूसरा आसरा नहीं था। वहां एक फकीर परसों रात को आया था, वही ले गया।" [ २७ ]________________

उपन्यास । हरिहर,-ठीक, ठोक!!” अनाथिनी,-"आपका नाम क्या है, श्रीहरिहर शर्मा ?" हरिहर,-बेटी ! तून कैसे जाना ? मैने तो तुझसे पहिले कुछ नहीं कहा था!" _अनाथिनी,-"आप पिता के लिये इतने दुःखित हुए। मैंने सुना था कि आपको छोड़कर मेरे पिता का दूसरा बंधु संसार में नहीं है। इतना कहकर बालिका रोने लगी। हरिहर,-"बेटी, अब न रो, मैं ही हरिहरशाहूं। तुम्हीलोगों की खोज में घर से निकला हूं । चुप रह । रामशङ्कर की दगाबाजी से तेग भाई हरा गया है।" पिता के एकमात्र उपकारी मित्र को देखकर अनाथिनी का मन भर आया, भक्तिरस से शरीर फूल उठा। वह फूट फूट कर रोने और हरिहर के चरण पर गिर कर भनेक बिलाप करने लगी। हरिहरथाबू बहुत ही मर्माहत हुए। उन्होंने धीरे धीरे अनाथिनी को उठाकर बहुत समझाया-बुझाया। कुछ देर में शान्त होकर अनाधिनी ने पूछा,-"पिता! सुरेन्द्र कैसे मिलेगा? मैं कहां___हरिहर,-'बेटी! वह जरूर मिलेगा। बिचारालय में मैं नालिश करूंगा, गवर्नमेन्ट अवश्य ही दुष्ट रामशङ्कर को दण्ड देगी और सुरेन्द्र को तुझे देगी। बेटी! तू मेरे घर की गृहलक्ष्मी होगी। आज से मेरे यहां सुख से रहियो ! भूपेन्द्र जब प्रदेश से फिरैगा तो उसके संग तेरा विवाह कर दूंगा।" गनाथिनी ने लजा से सिर झुका लिया । इनके पुत्र का नाम भूपेन्द्र था । अनन्तर दानों नाव पर सवार होकर भागीरथी का तर त्याग कर आनन्दपुर की ओर चले। autoritario न० (४) [ २८ ]________________

सुखशवरी। पज्जम परिच्छेद. विचारस्थान । "मुञ्चन्ति नैव साधुत्वं, साधवो दोनवत्सलाः । तथैव च खलत्वं स्वं, खलाः पापरताः सदा ॥" (व्यासः) KANTITY १७६५ ई० के वैशाख का महीना था और सोमवार का Mस दिन था। दस बज गए थे। कचहरी आनन्दपुर के पास थी । अशोक, मौलसरी, नीम आदि पेड़ों की SANSTREET'छाया से स्थान ठंढा और मनोहर था। प्रत्येक पेड के नीचे अपनी अपनी दरी बिछा कर कचहरी के अमले-फैले, वकील-मवक्किल आदि बैठे थे। एक इमली के पेड़ के नीचे चार फकीर बैठे आपस में कुछ बातें कर रहे थे। प्रथम,-"भाई मेहरबखश ! उसकी ऐसी हालत क्यों हुई?" द्वितीय,-"क्या जान भाई ! अल्लाह जाने ! शायद सौ रुपए के लोभ से।" प्रथम,-"अब वे रुपए कहां हैं ? क्या होगा, यह कौन कह सकता है ? अच्छा यह काम कब किया था ?" द्वितीय,-"नहीं कह सकता । उसका जमीदार के संग बहुत मेल है; सो कब यह काम किया! यह क्या अच्छा हुआ !" चतुर्थ,-"भाई यह बात कब हुई ?" तृतीय,-मैं जानता हूं; जिस दिन वहुत वर्षा हुई थी, उसी दिन यह काम हुआ था।" प्रथम,-"ठीक है, ऐसा ही होगा। ओह ! इसीलिये उस दिन वह हमलोगों के संग भीख मांगने नहीं गया था। अच्छा वह क्योंकर पकड़ो गया ?" . तृतीय,-"वह बड़े ताज्जुब की बात है !” द्वितीय,-"क्या, क्या ? कहो तो सही!" तृतीय,- 'शायद किसो चपरासी ने रात को वहां लुककर ये सब बातें सुनी थीं।” [ २९ ]________________

उपन्यास । सब manu aamadanimaasemouminumaanw a o प्रथम,--"चपरासी तो हमलोगों के महाल में कभी नहीं जाता, उस दिन कैसे गया था ? तृतीय,-"ठीक नहीं कह सकता, पर उस दिन किसीसे खबर पाकर हमलोगों की तरह भेस बनाकर और छिपकर उसने सब कुछ सुना था।" प्रथम,-"यह बात मन में नहीं फंसती,वह किससे कहता था?" ततीय,-"कदाचित् अपनी बहू से कहता होगा।" प्रथम,-"ओ! ठीक! जब वह अपनी स्त्री से कहता होगा, तब उसे पकड़ लिया होगा!" ततीय,-"हां भाई, मुगदिल!" प्रथम,-"अच्छा उससे क्या कहा था, शायद तुम्हें मालूम होगा।" ततीय,-'यह तो ठीक नहीं कह सकता।" चतुर्थ,-"ओ: ! मैं कुछ कुछ जानता हूं; कुछ कुछ कमा-सब कुछ जानता हूं।" तीनों,-"जल्दी कहो ! तुम सब जानते हो तो कहो न, सुनें।" चतुर्थ,-"पहले क्या कहूं?" तीनों,-"कहां लड़के को पाया था, यह कहो।" चतुर्थ,-"गंगाकिनारे, एक कुटी में।" तीनों,-"वह पाया कैसे गया?" . चतुर्थ,-"वहां एक बुढ़िया रहती थी, उसीने उनलोगों को टिकाया था। हमारे जमीदार-उन्हें तो तुम जानते ही हौ, कि वे किसीके सगे नहीं है! उन्होंने बुढ़िया तक का सर्वनाश कर डाला।" तीनों,-"क्या कहा ! क्या कहा!" चतुर्थ,-"क्या नहीं जानते ? उसकी कुटी को फंकफांकडाला।" तीनो,-"ठीक! अच्छा क्या बुढ़िया भी जल मरी?" चतुर्थ,-"उस समय वहां कोई नहीं था। तीनों,-"ये सब बातें जाने दो; यह कहीं कि सिपाही को किसने खबर दी ? " चतुर्थ,-"आनन्दपुर के एक जमीदार बलभद्रबाबू के मित्र हैं । उनके घर जाकर उस लड़के की बहिन ने कहा । उन्होंने गोइन्दे से ठीक ठीक हाल सुनकर कि, 'सुरेन्द्र को रामशंकर ही [ ३० ]________________

२४ सुखशर्वरी। ....... .. . . . . . . छिपाए हुए हैं, पुलिस में खबर ही कि, 'हरिपुर का एक फकीर सुरेन्द्र को चुरा ले गया है।' चपरासियों ने थाने का हुक्म पाकर हमलोगों के महल्ले में आकर खोजखाज की । उसी समय वह फ़कीर पकड़ा गया । क्यों ठीक है कि नहीं?" तीनों,--" ठीक है, क्यों भाई जमुर्रद !" चतुर्थ,-" और भी कुछ सुना है ? उसी जमीदार ने रामशंकरबाबू पर भी नोलिश की हैं।" तीनों.-"यह क्यों?". चतुर्थ,-" उसी लड़के के लिये। आज केवल उस फकीर ही का नहीं, हमलोगों के जमीदारबाबू का भी मुकदमा होगा। कहां तक कहूं, चलो कचहरी में सब जान पड़ेगा। आज एक भयानक उपद्रव होगा, क्योंकि उस फकीर का भाई जल भुनकर कचहरी में इधर से उधर घूम रहा है !" अब तक चारो ओर कोलाहल होता था, मजिष्ट ट साहय के इजलास पर आते ही कचहरी ने शान्तभाव धारण किया । ग्यारह बजे बिचार प्रारंभ हुआ। नाजिर, पेशकार आदि अपनी अपनी काररवाई करने लगे। पांच सात जोड़ो गाड़ियां तेजी से बरसाती में आकर खड़ी हुई। कई अपरिचित व्यक्ति उस पर से उतरे, उनमें सभी बेजान-पहचान के नहीं थे। पाठक ! देखिए हरिहरबाबू अनाथिनी को संग लेकर बिचारालय में पधारे हैं ! - रामशंकरशर्मा के देखने के लिये इच्छा होती है। देखिए. हरिहरशर्मा की दूसरी भोर वे खड़े हैं । क्या चीन्हा ? ये बड़े सिरवाले, स्थूलकाय, आपनूम के कुंदे, मांसपिंड विशेष रामशंकरबाबू दण्डायमान हैं ! सुरेन्द्र सुन्दर कपड़ा-लत्ता पहिरे एक किनारे बैठा है, क्या आपलोगों ने चीन्हा ? हा!-कैसा मलिन वस्त्र पहिरे अनाथिनी खड़ी है। दोनो बहिन-भाई एक ही जगह थे, पर सुरेन्द्र ने अनाथिनी को नहीं चीन्हा। मजिष्ट्रट साहब ने बिचार प्रारंभ किया, पीछे बद्धहस्त एक फकीर कटहरे में खड़ा किया गया, उसके चारो ओर प्रहरीगण सतर्क खड़े हुए थे। यह वही भिक्षुक था, जो रात को वृद्धा की कुटीर में से बालक सुरेन्द्र को चुरा लाया था। अन्यान्य कामों में एक घंटा बीता, HTRIYFFIPROPERTAINP [ ३१ ]________________

उपन्यास। - - - - - SAREENSERRHOSARNIVERSINHEHRAMRITERATUREBHEHRERROREA फिर विचारपति इस ओर झुके। मजिष्टट,-"मनसाराम ! तुम इस लड़के को क्यों चुरालाएथे ?" मनसाराम,-"जी, हजूर मां-बाप ! जिमीदार के हुकुम से ।": मजिष्ट ट,-" बाबूरामशंकरदास! क्या आपने सचमुच ऐसा हुकुम दिया था ? रामशर,-"जी हां! धर्मावतार!" मजिष्ट्रट,-"क्यों ऐसी आज्ञा दी ?" रामशङ्कर,-"दोनयंधु ! इम बालक के पिता मेरे परमात्मीय थे। मरने के समय घे इसे मुझे दत्तकपुत्र की तरह दे गए थे, इसलिये इस बालक को, और बलभद्रबाबू की मित्रता स्मरण करके उनकी कन्या को मैंने मादर से अपने घर में रक्खा था। एक दिन-न जाने क्यों-वह लड़की अपने भाई को लेकर चुपचाप रात के समय भाग गई, इसीलिये इस फकीर से इस बालक को मैंने मंगवा लिया।" __ मजिष्ट्रट,- फकीर को क्यों नियुक्त किया था ? खैरबलभद्रबाबू की मत्यु कब हुई थी ? रामशङ्कर,--" भिक्षुक सब जगह जाते हैं, “इसीसे फकीर को इस काम में रखा था।" मजिष्ट्रट,-" वह बात रहने दो, बलभद्रदास कप मरे हैं ?". रामशङ्कर,-"मृत्यु तो-मृत्यु! हां! दो मास हुगा होगा। मजिष्ट्रट,-"वे कहां मरे थे ?.. रामशङ्कर,-"मृत्यु ?-उनके घर ही मत्यु हुई थी।" मजिष्ट्रट,-"बाबू हरिहरप्रसाद ! आपको क्या वक्तव्य है ?" हरिहर,-'सब बातें बलभद्रबाबू की कन्या और पुत्र से पूछिए?" मजिष्ट्रेट.-"अनाथिनो ! तुम्हारे पिता कोमरे कितने दिन हुए ?". अनाथिनी,-"महाशय ! उस सोमवार की रात को ! " इस समय सुरेन्द्र ने बहिन को पहिचान कर हर्षपूर्वक आनन्दध्वनि मचाई । अनन्तर रामशंकर के पास से अनाथिनी के समीप जाकर बातें करने के लिये वह सुयोग खोजने लगा, पर कुछ नहीं हुओ, क्योंकि बिचारपति के अनुरोध से उसे चुप और शान्त होना पड़ा। मजिष्ट्रेट,-" अनाथिनी ! तुम्हारे पिता ने रामशंकरदास [ ३२ ]________________

सुखशर्वरी। -- को सुरेन्द्र अर्पण किया है ? " अनाथिनी,-" महाशय ! यह बात बिलकुल मिथ्या है । पिता की मृत्यु के समय रामशंकरदास कहां थे ? सुतरां बाबा सुरेन्द्र को उन्हें नहीं देगए हैं।" __ मजिष्ट्र ट,-'अनाथिनी ! तुम जरा चुप होजाओ। सुरेन्द्र ! तुम्हें अपने बाप की याद आती है ? " सुरेन्द्र.-" हां ! थोड़ी थोड़ी। मजिष्ट्रट,-" वे इस समय कहां हैं ? बता सकते हो ?" सुरेन्द्र,-" बाधा कहां ? बाबा स्वर्ग में हैं।" मजिष्ट्र दे,-" वहां वे कब गए हैं ? कह सकते हो ? " सुरेन्द्र,-"कब गए हैं! कब मरे हैं ! सो ठीक कह सकता हूं।" _मजिष्टट,-"अच्छा! कहो तो सही, वे कब मरे हैं ?" सुरेन्द्र,-" जिस दिन मेरे उस घर में बड़ी जाफत थो, उस दिन बाबा मुझे तीसरे पहर निमंत्रण जीमने ले गए थे। अनन्तर उसी दिन, रात को मुझे गोदी ले और जीजी का हाथ थाम कर बाबा घर से बाहर हुए । पथ में उन्होंने मुझे गोद से उतार दिया था। बाबा से मैंने पूछा कि, 'कहां जागोगे ? ' तो वे कुछ बोले नहीं। इसके बाद एक मरघट में पहुंच कर जीजी की गोद में सिर पर कर वे सो गए । थोड़ी देर के पीछे उन्होंने आंखें खोली, फिर बन्द कर ली । मैंने कितना पुकारा, परन्तु वे फिर नहीं बोले । तब मुझसे जीजी ने कहा कि, 'बाबा मर गए, स्वर्ग में गए।" बिचारक एक संभ्रान्त और चिन्ताशील व्यक्ति थे, और गाँव के समीप ही उनका बंगला था। उस दिन के 'भोज' की बात उन्हें स्मरण थी, सुतरां रामशंकरदास झूठे समझे गए। मंजिष्ट्र ट ने सुरेन्द्र से कहा,-"तुमने अच्छा इजहार दिया। हां तुम्हारे पिता कहां जाते थे, तुम कुछ जानते हो ?" _सुरेन्द्र,-"यह सब मैं कुछ नहीं जानता। बाबा ने जीजी से कहा होगा, वह जाने !" मजिष्ट्र ट,-"अनाथिनी ! तुम्हारे पिता घर छोड़कर कहां जाते थे? तुम जो कुछ जानती हो, सब कहो।" - अनाधिनी,-"महाशय ! पहिले रामशंकरदास मेरे पिता के [ ३३ ]________________

उपन्यास। - वस्तुतः मित्र थे। प्रायः दो बरस हुए कि, इन्होंने बाबा को ५००) रुपए उधार दिए थे । बाबा ऋणग्रस्त होकर सदैव ऋण चुकाने का उपाय सोचते थे। रामशंकर ने पिता का अभिप्राय समझकर एक दिन अपने घर उन्हें बुलाकर कहा कि, '५००) रुपए जो मेरे हैं, वे मुझे नहीं चाहिए; सुरेन्द्र को मुझे गोद दे दो । दिन स्थिर कर लिया है, मंगल के दिन अच्छा मुहूर्त है।' इस पर बाबा कुछ नहीं बोले; घर आकर सब बातें उन्होंने मुझसे कहीं, फिर वे बहुत रोने लगे।" मजिष्ट्रट,-"जब तुम्हारे पिता ने रामशंकरदास से कुछ भी नहीं कहा, तो उनकी इच्छा लड़का देने की होगी । क्यों कि 'मौनं सम्मतिलक्षणं'।" अनाथिनी,-'जी नहीं, कुछ भी इच्छा नहीं थी । वे बहुत ही दुखी हुए थे, इसीसे कुछ नहीं कह सके थे।" मजिष्ट्र ट,-"अच्छा, फिर ?" अनाथिनी,-"फिर उसी दिन रामशंकर ने बाबा को बुलाकर बहुतसी बातें कहीं । बाबा फिर चुप नहीं रह सके, बोले कि, "मैं कभी सुरेन्द्र को न दूंगा। भीख मांग कर भी आपके ऋण का परिशोध करूंगा, पर बालक न दूंगा; क्योंकि मुझे एक ही पुत्र है, इसलिये कैसे दूं? दरिद्र होने से क्या मैं दयाशून्य हूं?' यह बात कहकर घर आकर बाबा ने सब हाल मुझसे कहा। फिर उसी दिन रामशंकरदास सन्ध्या के समय मेरे घर आए और बोले कि.'बलभद्रदास ! इस विषय में अब मैं तुमसे मित्रता को व्यवहार न करूंगा।तुम्हारे पुत्र के लेने के लिये ही मैने रुपए उधार दिए थे।" .. निदान,वे क्रुद्ध होकर बहुत सी ऊटपटांग बातें कहकर चले गए। बाबा बहुत रोए, अनन्तर वे बोले कि,-'अब रोने से क्या होगा ? मेरे एक मित्र हैं, उन्हें यह हाल जनाऊं।वे अवश्य ही मेरी सहायता करेंगे। मैं उनके यहां जाऊंगा क्योंकि अब इस गांव में नहीं रहना चाहिए। जन्मभूमि होने से क्या होता है ? शत्रु तो बहुत हैं !'-यह बात कहकर चुपचाप उन्होंने अपने मित्र को पत्र लिखा। आशा लगाए लगाए उन्हें उत्कट पीड़ा हुई । अस्तु ठीक समय पर पत्र का जवाब मिला। मुझसे उन्होंने और कुछ नहीं कहा था। एक दिन उन्हीं मित्र के घर हमलोग जाते थे कि मर्घट में पहुंचकर बाबा [ ३४ ]________________

सुखशर्वरी। का परलोकवास हुआ 1" है. बात हुई और अनाथिनी की आंखों से आंसू बहने लगे; सुरेन्द्र भी चुप नहीं था। - मजिष्टे ट,-"ठीक है ठीक है !!! रामशङ्करदास ! तब तुम कैसे सुरेन्द्र को बलात्, अर्थात् बलभद्रदास की सम्मति बिना, नियमपूर्वक दत्तक ले सकोगे? सुरेन्द्र तुम्हारा कोई नहीं होसकता।" सहसा विचारक आर्तनाद करके कुर्सी पर से भूमि में गिर पड़े। क्यों कि एक तीखी छुरी उनके बगल में घुसी थी! सभोंने घबड़ाकर खिंचारक को उठाया। यह किसका काम था? उसी गर्भस्राव पापिष्ट रामशङ्कर के मादेश से मनसाराम के भाई खुराफातअली का! इस समय रामशङ्कर गायब होगए थे । बिचारक अस्पताल पहुंचाए गए और दो कान्सटेबिल रामशङ्कर की खोज के लिये दौडे। धीरे धीरे गोलमाल मिटा। हरिहरप्रसाद अनाथिनी और सुरेन्द्र को संग लेकर गाड़ी पर चढ़े। इसी समय एक बृद्धा गाडी के पास आकर खड़ी हुई। यह वहो वुढ़िया है, जिसने अनाथिनी को आश्रय दिया था। - वृद्धा को देख कर अनाथिनी ने आल्हाद से कहा,-"मां! तुम कहां गई थी ?" वृद्धा,-"एं, बेटी ! मैं तभी से सुरेन्द्र की खोज में मांघ गांध 'मारी मारी फिरती थी। किसीने कुटीर फंक दिया, तुम भी वहां न थी, और क्यो-" - अनाथिनी,-"मैं तो यह रही मां! आओ न,इसी गाड़ी पर! सब कोई एक ही जगह रहेंगी, आओ मां, चलो!" वृद्धा,-"बेटी! तुम्हें देख लिया, अब क्या ।" ३. हरिहरषाबू वृद्धा के उपकार की यात जानते थे, इसलिये . उन्होंने सादर उसे गाड़ी पर चढ़ा लिया। अनाथिनी,-"मां! तुम क्यों कचहरी आई थीं।" - वृद्धा,-"सुना था कि फकीर ने जो लड़का चुराया था, उसका विचार होगा: इसीसे यहां आई थी।" अनन्तर अनेक तरह की बातें करते करते सब कोई गए।

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