साहित्य सीकर/२०—मौलिकता का मूल्य

प्रयाग: तरुण भारत ग्रंथावली, पृष्ठ १३८ से – १४० तक

 

२०—मौलिकता का मूल्य

कुछ समय से, हिन्दी साहित्य में; मौलिक रचना का महत्व खूब गाया जा रहा है। ऐसी रचनाओं की कमी ही नहीं; प्रायः अभाव ही सा बताया जा रहा और ज़ोर दिया जा रहा है कि सामर्थ्य रखनेवाले लेखकों को मौलिक ही पुस्तकों की रचना करनी चाहिये। इस पर प्रश्न हो सकता है कि "मौलिक" विशेषण का अर्थ क्या है? कोशकार कहते हैं कि जिस वस्तु का मूल अर्थात् जड़ उसी में हो उसी को मौलिक कहते हैं। मतलब यह कि जिस पुस्तक में और कहीं से कुछ भी न लिया गया हो वही मौलिक है।

यह तो "मौलिक" शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ हुआ। इसी अर्थ को शायद ध्यान में रखकर हिन्दी-साहित्य से संबन्ध रखने वाली प्रतिष्ठित संस्थायें मौलिक पुस्तकों के कर्त्ताओं को बड़े-बड़े पारितोषिक देने की घोषणा करती हैं। परन्तु जब मौलिक मानी गई पुस्तकें जाँच करने वाले साहित्यशास्त्रियों के सामने जाती हैं तब और ही गुल खिलता है। तब तो वे लोग यदाकदा औरों की लिखी हुई मूल पुस्तकों के भाष्यों और टीकाओं को भी मौलिक समझकर भाष्यकारों और टीका-लेखकों को भी उपहार का पात्र निश्चित कर देते हैं। इससे या तो यह सूचित होता है कि कोशकारों का किया हुआ, मौलिक शब्द का अर्थ परीक्षक पण्डितों को मान्य नहीं या पुस्तकें भेजने वाली और उपहार देने वाली संस्था के मौलिक-रचना-सम्बन्धी नियमों के परिपालन की उन्हें परवा नहीं। इससे यह भी सूचित होता है कि औरों के कथन को अपनी भाषा में अच्छी तरह समझा देने वाले या उसकी व्याख्या करने वाले लेखक भी मौलिक लेखक ही के सदृश महत्व रखते हैं।

संसार में ज्ञान की उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। मनुष्यों पर अपने पूर्ववर्ती पुरुषों के ज्ञानोपदेश का असर पड़े बिना नहीं रहता। यही हाल लेखकों का भी है। किसी विषय पर कुछ लिखने वाले लेखक के हृदय में उन विषय की दृष्टपूर्व पुस्तकों के भाव जरूर ही जागृत हो उठते हैं। जिसने कालिदास या भारवि या शेक्सपियर आदि महाकवियों के काव्यों का परिशीलन किया है वह यदि उन्हीं काव्यों में वर्णित विषयों पर कविता लिखने बैठेगा तो यह सम्भव नहीं कि उसकी रचना में उनके भावों की कुछ न छाया न आ जाय। इस दशा में सर्वतोभाव से मौलिक रचना परम दुस्तर है। ऐसे लेखक दुनिया में बहुत ही थोड़े हुए हैं जिन्होंने अपने पूर्ववर्ती ग्रन्थकारों के संचित ज्ञान से, अपनी रचनाओं में, कुछ भी लाभ न उठाया हो। सर जगदीशचंद्र बसु ने कितने ही नये-नये और अद्भुत-अद्भुत आविष्कार किये हैं और उनका विरेचन बड़े-बड़े ग्रन्थों में किया है। आप उनकी पुस्तकों को पढ़िए। आप देखेंगे कि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती विज्ञान-वेत्ताओं के द्वारा संचित ज्ञान से कितना लाभ उठाया है। यह कोई नई बात नहीं। यह बात लेखक या विज्ञानवेत्ता की न्यूनता या क्षुद्रता की भी द्योत्तक नहीं। दूसरों के द्वारा प्राप्त ज्ञान से लाभ उठाने की परिपाटी तो परम्परा ही से चली आ रही है। और, पूर्वजों के इस ऋण से बचने का कोई उपाय भी तो नहीं। सभी लेखक—सभी ग्रन्थकार—अपने पूर्ववर्त्ती पंडितों के ज्ञान से अपनी ज्ञान-वृद्धि करते चले आ रहे हैं। यह क्रम आज का नहीं, बहुत पुराना है और सतत जारी रहेगा। यदि ऐसा न होता तो मनुष्य-समुदाय आज ज्ञानार्जन की जिस सोपान-पंक्ति पर पहुँचा है उस पर कदापि न पहुँचता।

अतएव विवेचक जनों को देखना चाहिये कि जो पुस्तक उनके हाथ में है या जिसकी वे समालोचना करते आ रहे हैं उसमें ज्ञानवर्धन की कुछ सामग्री है या नहीं। अर्थात् जिन लोगों के लिये वह लिखी गई है उनके लिये वह सामग्री उससे अच्छे रूप में अन्यत्र सुलभ है या नहीं। यदि है और हाथ में ली हुई पुस्तक में कुछ भी, किसी तरह की, विशेषता नहीं तो उसे महत्वहीन समझना चाहिये। यदि यह बात नहीं और यदि उस पुस्तक से उसके विषय के किसी भी अंश की कमी दूर हो सकती है तो यह अवश्य ही अवलोकनीय है।

[दिसम्बर, १९२६