साहित्य का उद्देश्य/8
उपन्यास का विषय
उपन्यास का क्षेत्र, अपने विषय के लिहाज से, दूसरी ललित कलाओं से कहीं ज्यादा विस्तृत है। वाल्टर बेसेंट ने इस विषय पर इन शब्दों में विचार प्रकट किये हैं-
'उपन्यास के विषय का विस्तार मानव चरित्र से किसी कदर कम नहीं है। उसका सम्बन्ध अपने चरित्रों के कर्म और विचार, उनका देवत्व और पशुत्व, उनके उत्कर्ष और अपकर्ष से है। मनोभाव के विभिन्न रूप और भिन्न-भिन्न दशाओं में उनका विकास उपन्यास के मुख्य विषय हैं।'
इसी विषय-विस्तार ने उपन्यास को संसार-साहित्य का प्रधान अंग बना दिया है। अगर आपको इतिहास से प्रेम है, तो आप अपने उपन्यास में गहरे से गहरे ऐतिहासिक तत्वों का निरूपण कर सकते हैं। अगर आपको दर्शन से रुचि है, तो आप उपन्यास में महान् दार्शनिक तत्वों का विवेचन कर सकते हैं। अगर आप में कवित्व शक्ति है तो उपन्यास में उसके लिए भी काफी गुञ्जाइश है। समाज, नीति, विज्ञान, पुरातत्व आदि सभी विषयों के लिए उपन्यास में स्थान है। यहाँ लेखक को अपनी कलम का जौहर दिखाने का जितना अवसर मिल सकता है, उतना साहित्य के और किसी अंग में नहीं मिल सकता। लेकिन इसका यह आशय नहीं कि उपन्यासकार के लिए कोई बन्धन ही नहीं है। उपन्यास का विषय-विस्तार ही उपन्यासकार को बेड़ियों में जकड़ देता है। तंग सड़कों पर चलनेवालों के लिए अपने लक्ष्य पर पहुँचना उतना कठिन नहीं है, जितना एक लम्बे चौड़े मार्गहीन मैदान मे चलनेवालों के लिए।
उपन्यासकार का प्रधान गुण उसकी सृजन-शक्ति है। अगर उसमें इसका अभाव है, तो वह अपने काम में कभी सफल नहीं हो सकता। उसमें और चाहे जितने अभाव हों पर कल्पना-शक्ति की प्रखरता अनिवार्य है। अगर उसमें यह शक्ति मौजूद है तो वह ऐसे कितने ही दृश्यों, दशाओं और मनोभावों का चित्रण कर सकता है, जिनका उसे प्रत्यक्ष अनुभव नहीं है। अगर इस शक्ति की कमी है, तो चाहे उसने कितना ही देशाटन क्यों न किया हो, वह कितना ही विद्वान क्यों न हो, उसके अनुभव का क्षेत्र कितना ही विस्तृत क्यों न हो, उसकी रचना में सरसता नही आ सकती। ऐसे कितने ही लेखक हैं जिनमें मानव-चरित्र के रहस्यों का बहुत मनोरंजक, सूक्ष्म और प्रभाव डालनेवाली शैली में बयान करने की शक्ति मौजूद है लेकिन कल्पना की कमी के कारण वे अपने चरित्रों में जीवन का सञ्चार नहीं कर सकते, जीती-जागती तसवीरें नहीं खींच सकते। उनकी रचनाओं को पढ़कर हमें यह ख्याल नहीं होता कि हम कोई सच्ची घटना देख रहे हैं।
इसमें सन्देह नहीं कि उपन्यास की रचना-शैली सजीव और प्रभावोत्पादक होनी चाहिए, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हम शब्दों का गोरखधन्धा रचकर पाठक को इस भ्रम में डाल दें कि इसमें जरूर कोई न कोई गूढ़ आशय है। जिस तरह किसी आदमी का ठाट-बाट देखकर हम उसकी वास्तविक स्थिति के विषय में गलत राय कायम कर लिया करते हैं, उसी तरह उपन्यासों के शाब्दिक आडम्बर देखकर भी हम ख्याल करने लगते हैं कि कोई महत्त्व की बात छिपी हुई है। सम्भव है, ऐसे लेखक को थोड़ी देर के लिए यश मिल जाय, किन्तु जनता उन्हीं उपन्यासों को आदर का स्थान देती है जिनकी विशेषता उनकी गूढ़ता नहीं, उनकी सरलता होती है।
उपन्यासकार को इसका अधिकार है कि वह अपनी कथा को घटना वैचित्र्य से रोचक बनाये, लेकिन शर्त यह है कि प्रत्येक घटना असली ढाँचे से निकट सम्बन्ध रखती हो। इतना ही नहीं, बल्कि उसमें इस तरह घुल मिल गई हो कि कथा का आवश्यक अंग बन जाय, अन्यथा उपन्यास की दशा उस घर की-सी हो जायगी जिसके हर एक हिस्से अलग-अलग हो। जब लेखक अपने मुख्य विषय से हटकर किसी दूसरे प्रश्न पर बहस करने लगता है, तो वह पाठक के उस आनन्द में बाधक हो जाता है जो उसे कथा में आ रहा था। उपन्यास में वही घटनाएँ, वही विचार लाना चाहिए जिनसे कथा का माधुर्य बढ़ जाय, जो प्लाट के विकास में सहायक हो अथवा चरित्रों के गुप्त मनाभावों का प्रदर्शन करते हो। पुरानी कथाओं में लेखक का उद्देश्य घटना-वैचित्र्य दिखाना होता था; इसलिए वह एक कथा में कई उपकथाएँ मिलाकर अपना उद्देश्य पूरा करता था। सम्प्रतिकालीन उपन्यासों में लेखक का उद्देश्य मनोभावों और चरित्र के रहस्यों का खोलना होता है, अतएव यह आवश्यक है कि वह अपने चरित्रों को सूक्ष्म दृष्टि से देखे, उसके चरित्रों का कोई भाग उसकी निगाह से न बचने पाये। ऐसे उपन्यास में उपकथाओं की गुञ्जाइश नहीं होती।
यह सच है कि संसार की प्रत्येक वस्तु उपन्यास का उपयुक्त विषय बन सकती है। प्रकृति का प्रत्येक रहस्य, मानव-जीवन का हर एक पहलू जब किसी सुयोग्य लेखक की कलम से निकलता है तो वह साहित्य का रत्न बन जाता है, लेकिन इसके साथ ही विषय का महत्त्व और उसकी गहराई भी उपन्यास के सफल होने में बहुत सहायक होती है। यह जरूरी नहीं कि हमारे चरित्रनायक ऊँची श्रेणी के ही मनुष्य हों। हर्ष और शोक, प्रेम और अनुराग, ईर्ष्या और द्वेष मनुष्य-मात्र में व्यापक हैं। हमें केवल हृदय के उन तारों पर चोट लगानी चाहिए जिनकी झंकार से पाठकों के हृदय पर भी वैसा ही प्रभाव हो। सफल उपन्यासकार का सबसे बड़ा लक्षण है कि वह अपने पाठकों के हृदय में उन्हीं भावों को जागरित कर दे जो उसके पात्रों में हों। पाठक भूल जाय कि वह कोई, उपन्यास पढ़ रहा है-उसके और पात्रों के बीच में आत्मीयता का भाव उत्पन्न हो जाय।
मनुष्य की सहानुभूति साधारण स्थिति में तब तक जागरित नहीं होती जब तक कि उसके लिए उस पर विशेष रूप से आघात न किया जाय। हमारे हृदय के अन्तरतम भाव साधारण दशाओं में आन्दोलित नहीं होते। इसके लिए ऐसी घटनाओं की कल्पना करनी होती है जो हमारा दिल हिला दें, जो हमारे भावों की गहराई तक पहुँच जायँ। अगर किसी अबला को पराधीन दशा का अनुभव कराना हो तो इस घटना से ज्यादा प्रभाव डालनेवाली और कौन घटना हो सकती है कि शकुन्तला राजा दुष्यन्त के दरबार में आकर खडी होती है और राजा उसे न पहचान कर उसकी उपेक्षा करता है? खेद है कि आजकल के उपन्यासों में गहरे भावों को स्पर्श करने का बहुत कम मसाला रहता है। अधिकांश उपन्यास गहरे और प्रचण्ड भावों का प्रदर्शन नही करते। हम आये दिन की साधारण बातों ही में उलझकर रह जाते हैं।
इस विषय में अभी तक मतभेद है कि उपन्यास में मानवीय दुर्बलताओं और कुवासनाओं का, कमजोरियों और अपकीर्तियों का, विशद वर्णन वांछनीय है या नहीं; मगर इसमें कोई सन्देह नहीं कि जो लेखक अपने को इन्हीं विषयों में बाँध लेता है, वह कभी उस कलाविद् की महानता को नही पा सकता जो जीवन-संग्राम में एक मनुष्य की आन्तरिक दशा को, सत् और असत् के संघर्ष और अन्त में सत्य की विजय को मार्मिक ढंग से दर्शाता है। यथार्थवाद का यह आशय नहीं है कि हम अपनी दृष्टि को अन्धकार की ओर ही केन्द्रित कर दे। अन्धकार में मनुष्य को अन्धकार के सिवा और सूझ ही क्या सकता है? बेशक, चुटकियाँ लेना, यहाँ तक कि नश्तर लगाना भी कभी-कभी आवश्यक होता है। लेकिन दैहिक व्यथा चाहे नश्तर से दूर हो जाय मानसिक व्यथा सहानुभूति और उदारता से ही शान्त हो सकती है। किसी को नीच समझकर हम उसे ऊँचा नहीं बना सकते बल्कि उसे और नीचे गिरा देंगे। कायर यह कहने से बहादुर न हो जायगा कि 'तुम कायर हो।' हमें यह दिखाना पड़ेगा कि उसमें साहस, बल और धैर्य- सब कुछ है, केवल उसे जगाने की जरूरत है। साहित्य का सम्बन्ध सत्य और सुन्दर से है, यह हमें न भूलना चाहिए।
मगर आजकल कुकर्म, हत्या, चोरी, डाके से भरे हुए उपन्यासों की जैसे बाढ़ सी आ गयी है। साहित्य के इतिहास में ऐसा कोई समय न था जब ऐसे कुरुचिपूर्ण उपन्यासों की इतनी भरमार रही हो। जासूसी उपन्यासों में क्यों इतना आनन्द आता है? क्या इसका कारण यह है कि पहले से अब लोग ज्यादा पापासक्त हो गये हैं? जिस समय लोगो को यह दावा है कि मानव-समाज नैतिक और बौद्धिक उन्नति के शिखर पर पहुँचा हुआ है, यह कौन स्वीकार करेगा कि हमारा समाज पतन की ओर जा रहा है? शायद, इसका यह कारण हो कि इस व्यावसायिक शान्ति के युग में ऐसी घटनाओं का अभाव हो गया है जो मनुष्य के कुतूहल-प्रेम को सन्तुष्ट कर सकें-जो उसमें सनसनी पैदा कर दें। या इसका यह कारण हो सकता है कि मनुष्य की धन लिप्सा उपन्यास के चरित्रों को धन के लोभ से कुकर्म करते देखकर प्रसन्न होती है। ऐसे उपन्यासों में यही तो होता है कि कोई आदमी लोभ-वश किसी धनाढ्य पुरुष की हत्या कर डालता है, या उसे किसी संकट में फँसाकर उससे मनमानी रकम ऐठ लेता है। फिर जासूस आते हैं, वकील आते हैं और मुजरिम गिरफ्तार होता है, उसे सजा मिलती है। ऐसी रुचि को प्रेम, अनुराग या उत्सर्ग की कथाओं में आनन्द नहीं आ सकता। भारत में वह व्यावसायिक वृद्धि तो नहीं हुई लेकिन ऐसे उपन्यासों की भरमार शुरू हो गयी। अगर मेरा अनुमान गलत नहीं है तो ऐसे उपन्यासों की खपत इस देश में भी अधिक होती है। इस कुरुचि का परिणाम रूसी उपन्यास लेखक मैक्सिम गोर्की के शब्दों में ऐसे वातावरण का पैदा होना है, जो कुकर्म की प्रवृत्ति को दृढ़ करता है। इससे यह तो स्पष्ट ही है कि मनुष्य में पशु-वृत्तियाँ इतनी प्रबल होती जा रही हैं कि अब उसके हृदय मे कोमल भावो के लिए स्थान ही नहीं रहा ।
उपन्यास के चरित्रो का चित्रण जितना ही स्पष्ट, गहरा और विकासपूर्ण होगा उतना ही पढ़नेवालो पर उसका असर पडेगा, और यह लेखक की रचना-शक्ति पर निर्भर है। जिस तरह किसी मनुष्य को देखते ही हम उसके मनोभावो से परिचित नही हो जाते, ज्यो-ज्यो हमारी घनिष्ठता उससे बढ़ती है, त्यो-त्यों उसके मनोरहस्य खुलते है, उसी तरह उपन्यास के चरित्र भी लेखक की कल्पना मे पूर्ण रूप से नहीं पा जाते बल्कि उनमे क्रमशः विकास होता जाता है। यह विकास इतने गुप्त, अस्पष्ट रूप से होता है कि पढ़नेवाले को किसी तबदीली का ज्ञान भी नहीं होता । अगर चरित्रो मे किसी का विकास रुक जाय तो उसे उपन्यास से निकाल देना चाहिए, क्योकि उपन्यास चरित्रो के विकास का ही विषय है। अगर उसमे विकास-दोष है, तो वह उपन्यास कमजोर हो जायगा। कोई चरित्र अन्त मे भी वैसा ही रहे जैसा वह पहले था-उसके बल- बुद्धि और भावों का विकास न हो, तो वह असफल चरित्र है।
इस दृष्टि से जब हम हिन्दी के वर्तमान उपन्यासों को देखते है तो निराशा होती है । अधिकाश चरित्र ऐसे ही मिलेंगे जो काम तो बहुतेरे करते है, लेकिन जैसे जो काम वे आदि मे करते, उसी तरह वही अन्त मे भी करते हैं।
कोई उपन्यास शुरू करने के लिए यदि हम उन चरित्रो का एक
मानसिक चित्र बना लिया करे तो फिर उनका विकास दिखाने मे हमे
सरलता होगी। यह कहने की भी जरूरत नही है, विकास परिस्थिति के
अनुसार स्वाभाविक हो, अर्थात्-पाठक और लेखक दोनो इस विषय
मे सहमत हों । अगर पाठक का यह भाव हो कि इस दशा मे ऐसा नहीं
होना चाहिए था तो इसका यह अाशय हो सकता है कि लेखक अपने चरित्र
के अङ्कित करने में असफल रहा । चरित्रों मे कुछ न कुछ विशेषता भी
रहनी चाहिए। जिस तरह संसार मे कोई दो व्यक्ति समान नहीं होते,
उसी भॉति उपन्यास मे भी न होना चाहिए।कुछ लोग तो बातचीत या
शक्ल-सूरत से विशेषता उसन्न कर देते हैं, लेकिन असली अन्तर तो
वह है, जो चरित्रो मे हो ।
उपन्यास मे वार्तालाप जितना अधिक हो और लेखक की कलम से जितना ही कम लिखा जाय, उतना ही उपन्यास सुन्दर होगा। वार्ता- लाप केवल रस्मी नहीं होना चाहिए। प्रत्येक वाक्य को-जो किसी चरित्र के मुॅह से निकले-उसके मनोभावो और चरित्र पर कुछ न कुछ प्रकाश डालना चाहिए। बातचीत का स्वाभाविक, परिस्थितियों के अनुकूल, सरल और सूक्ष्म होना जरूरी है । हमारे उपन्यासो मे अक्सर बातचीत भी उसी शैली मे करायी जाती है मानो लेखक खुद लिख रहा हो । शिक्षित-समाज की भाषा तो सर्वत्र एक है, हॉ, भिन्न-भिन्न जातियों की जबान पर उसका रूप कुछ न कुछ बदल जाता है । बंगाली, मारवाडी और ऐंग्लो-इण्डियन भी कभी-कभी बहुत शुद्ध हिन्दी बोलते पाये जाते है। लेकिन यह अपवाद है, नियम नहीं। पर ग्रामीण बातचीत हमे दुबिधा मे डाल देती है । बिहार की ग्रामीण भाषा शायद दिल्ली के आस-पास का आदमी समझ ही न सकेगा।
वास्तव मे कोई रचना रच यता के मनोभाव का, उसके चरित्र का,
उसके जीवनादर्श का, उसके दर्शन का आईना होती है । जिसके हृदय
में देश की लगन है उसके चरित्र, घटनावली और परिस्थितियों सभी
उसी रग मे रॅगी हुई नजर आयेगी । लहरी आनन्दी लेखकों के चरित्रो
मे भी अधिकाश चरित्र ऐसे ही होगे जिन्हे जगत्-गति नहीं व्यापती । वे
जासूसी, तिलिस्मी चीजे लिखा करते हैं । अगर लेखक आशावादी है
तो उसकी रचना में आशावादिता छलकती रहेगी, अगर वह शोकवादी
है तो बहुत प्रयत्न करने पर भी, वह अपने चरित्रो को जिन्दादिल न
बना सकेगा। 'आजाद-कथा' को उठा लीजिये, तुरन्त मालूम हो जायगा
कि लेखक हॅसने-हँसानेवाला जीव है जो जीवन को गम्भीर विचार के
योग्य नही समझता । जहाँ उसने समाज के प्रश्नों को उठाया है, वहाँ
शैली शिथिल हो गयी है।
"जिस उपन्यास को समाप्त करने के बाद पाठक अपने अन्दर उत्कर्ष का अनुभव करे, उसके सद्भाव जाग उठे, वही सफल उपन्यास है। जिसके भाव गहरे हैं, प्रखर है-जो जीवन मे लद् बनकर नहीं, बल्कि सवार बनकर चलता है, जो उद्योग करता है और विफल होता है, उठने की कोशिश करता है और गिरता है, जो वास्तविक जीवन की गहराइयो मे डूबा है, जिसने जिन्दगी के ऊँच नीच देखे है, सम्पत्ति और विपत्ति का सामना किया है, जिसकी जिन्दगी मखमली गद्दो पर ही नहीं गुजरती, वही लेखक ऐसे उपन्यास रच सकता है जिनमे प्रकाश, जीवन और अानन्द-प्रदान की सामर्थ्य होगी।'
उपन्यास के पाठको की रुचि भी अब बदलती जा रही है। अब उन्हे केवल लेखक की कल्पनाओ से सन्तोष नहीं होता । कल्पना कुछ भी हो, कल्पना ही है । वह यथार्थ का स्थान नही ले सकती । भविष्य उन्ही उपन्यासो का है, जो अनुभूति पर खड़े हो ।
इसका अाशय यह है कि भविष्य मे उपन्यास मे कल्पना कम, सत्य अधिक होगा। हमारे चरित्र कल्पित न होगे, बल्कि व्यक्तियो के जीवन पर आधारित होगे । किसी हद तक तो अब भी ऐसा होता है; पर बहुधा हम परिस्थितियो का ऐसा क्रम बाँधते है कि अन्त स्वाभाविक होने पर भी वह होता है जो हम चाहते हैं। हम स्वाभाविकता का स्वॉग जितनी खूबसूरती से भर सकें, उतने ही सफल होते हैं, लेकिन भविष्य मे पाठक इस स्वॉग से सन्तुष्ट न होगा।
यो कहना चाहिए कि भावी उपन्यास जीवन-चरित्र होगा, चाहे किसी बड़े आदमी का या छोटे आदमी का । उसकी छुटाई बड़ाई का फैसला उन कठिनाइयो से किया जायगा कि जिन पर उसने विजय पायी है । हाॅ, वह चरित्र इस ढंग से लिखा जायगा कि उपन्यास मालूम हो । अभी हम झूठ को सच बनाकर दिखाना चाहते है. भविष्य मे सच को झूठ बनाकर दिखाना होगा । किसी किसान का चरित्र हो, या किसी देश- भक्त का, या किसी बडे आदमी का; पर उसका अाधार यथार्थ पर होगा। तब यह काम उससे कठिन होगा जितना अब है; क्योकि ऐसे बहुत कम लोग है, जिन्हे बहुत-से मनुष्यो को भीतर से जानने का गौरव प्राप्त हो।
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