साहित्य का उद्देश्य/39
उपन्यास और गल्प के क्षेत्र में, जो गद्य-साहित्य के मुख्य अंग हैं, समस्त संसार ने रूस का लोहा मान लिया है, और फ्रान्स के सिवा और कोई ऐसा राष्ट्र नहीं है, जो इस विषय में रूस का मुकाबला कर सके। फ्रान्स में बालजाक, अनातोल फ्रान्स, रोमा रोलाँ, मोपासाँ आदि संसार प्रसिद्ध नाम हैं, तो रूस में टालस्टाय, मैक्सिम गोर्की, तुर्गनीव, चेखाव, डास्टावेस्की श्रादि भी उतने ही प्रसिद्ध हैं, और संसार के किसी भी साहित्य में इतने उज्ज्वल नक्षत्रों का समूह मुशकिल से मिलेगा। एक समय था कि हिन्दीं में रेनाल्ड के उपन्यासों की धूम थी। हिन्दी और उर्दू दोनो ही रेनाल्ड की पुस्तकों का अनुवाद करके अपने को धन्य समझ रहे थे। डिकेंस, थैकरे, लैम्ब, रस्किन आदि को किसी ने पूछा तक नहीं। पर अब जनता की रुचि बदल गई, और यद्यपि अब भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो चोरी, जिना और डाके आदि के वृत्तान्तों में आनन्द पाते हैं लेकिन साहित्य की रुचि में कुछ परिष्कार अवश्य हुआ है और रूसी साहित्य से लोगों को कुछ रुचि हो गई है। आज चेखाव की कहानियाँ पत्रों में बड़े आदर से स्थान पाती हैं और कई बड़े-बड़े रूसी उपन्यासों का अनुवाद हो चुका है। टालस्टाय का तो शायद कोई बड़ा उपन्यास ऐसा नहीं रहा, जिसका अनुवाद न हो गया हो। गोर्की की कम से कम दो पुस्तकों का अनुवाद निकल चुका है। तुर्गनीव के Father & Son का 'पिता और पुत्र' के नाम से अभी हाल में दिल्ली से अनुवाद प्रकाशित हुआ है। टालस्टाय की 'अन्ना' का अनुवाद काशी से प्रकाशित हुआ है । डाटावेस्की की एक पुस्तक का अनुवाद निकल चुका है। इस बीच मे अंग्रेजी या फ्रेच साहित्य की कदाचिन् एक भी पुस्तक का अनुवाद नहीं हुआ । जिन लेखको ने रूस को उस मार्ग पर लगाया, जिस पर चलकर आज वह दुखी संसार के लिए आदर्श बना हुआ है, उनकी रचनाएँ क्यों न आदर पाये ?
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नागरी लिपि समिति ने जितने उत्साह और योग्यता के अपनी कठिन जिम्मेदारियो को पूरा करना शुरू किया है. उससे अाशा होती है कि निकट भविष्य मे ही शायद हम अपना लक्ष्य प्राप्त कर ले। और हर्ष की बात है, कि समिति के प्रस्तावो और आदेशो का उतना विरोध नही हुआ, जितनी कि शका थी । राष्ट्रीय एकीकरण हमे इतना प्रिय हो गया है कि उसके लिए हमसे जो कोई भी माकूल बात कही जाय, उसे मानने के लिए हम तैयार हैं । शिरोरेखा के प्रश्न को भी समिति ने जिस खूबसूरती से हल किया है, उसे प्रायः स्वीकार कर लिया गया है । शिरो- रेखा नागरी अक्षरो का कोई आवश्यक अग नहीं। जिन ब्राह्मी अक्षरो से नागरी का विकास हुआ है, उन्हीं से बंगला, तामिल, गुजराती आदि का भी विकास हुआ है; मगर शिरोरेखा नागरी के सिवा और किसी लिपि मे नहीं। हम बचपन से शिरोरेखा के आदी हो गये हैं और हमारी कलम जबर्दस्ती, अनिवार्य रूप से ऊपर की लकीर खींच देती है, लेकिन अभ्यास से यह कलम काबू में की जा सकती है । इसमे तो कोई सन्देह नहीं कि शिरोरेखा का परित्याग करके हम अपने लेखक की चाल बहुत तेज कर सकेंगे और उसकी मन्द गति की शिकायत बहुत कुछ मिट जायगी और छपाई में तो कहीं ज्यादा सहूलियत हो जायगी। रही यह बात कि बिना शिरोरेखा के अक्षर मुंडे और सिर-कटे से लगेगे, तो यह केवल भावुकता है । जब आखें बेरेखा के अक्षरों की आदी हो जायॅगी, तो वही अक्षर सुन्दर लगेंगे और हमे आश्चर्य होगा कि हमने इतनी सदियों तक क्यो अपनी लिपि के सिर पर इतना बड़ा व्यर्थ का बोझ लादे रखा।