साहित्य का उद्देश्य
प्रेमचंद

पृष्ठ २७४ से – २७७ तक

 
समाचारपत्रों के मुफ्तखोर पाठक
 

जहाँ विदेश से निकलनेवाले पत्रों के लाखों ग्राहक होते हैं वहाँ हमारे अच्छे से अच्छे भारतीय पत्र के ग्राहकों की संख्या कुछ हजारों से अधिक नहीं होती। यह एक विचारणीय बात है। जापान का ही एक उदाहरण लीजिये। यह तो सबको मालूम है कि जापान भारतवर्ष का षष्टमाश ही है, फिर भी जहाँ भारत से कुल ३५०० पत्र प्रकाशित होते हैं, वहाँ जापान से ४५००, और यह ४५०० भी ऐसे पत्र है जिनके प्रकाशन की संख्या हजारो नहीं लाखों की है। 'ओसाका मेनीची' नाम का एक दैनिक पत्र है। उसके कार्यालय की इमारत ही तैतीस लाख रुपये की है। 'ओसाका ओसाही' और 'टोकियो नीची' नामक दो पत्र भी इसी कोटि के हैं। एक-एक पत्र के कार्यालय में दो तीन हजार तक आदमी काम करते हैं और उनका जाल संसार भर में फैला हुआ है। जिस पत्र के कार्यालय में चार छः सौ आदमी काम करते हैं, उसकी तो वहाँ कोई गणना ही नहीं होती। कई पत्र तो वहाँ ऐसे हैं जो पचास लाख तक छापे जाते है और दिन में जिनके आठ-आठ संस्करण निकलते है और जिनको वितरण करने के लिए हवाई जहाजों से काम लिया जाता है। यह है जापानी पत्रों का वैभव। और इस वैभव का कारण है वहाँ की शिक्षित जनता का पठन प्रेम और सहयोग। वहाँ के प्रत्येक पाँच आदमियों में आपको एक आदमी अखबार पढ़ने वाला अवश्य मिलेगा। पूंजीपति से लेकर मजदूर तक, बूढ़े से लेकर छोटे बच्चे तक, पत्रों को स्वयं खरीद कर पढ़ते हैं। फुरसत के समय को वे लोग
बेकार के हसी-मजाक, खिलवाड़ या गाली-गलौज मे नहीं,अखबारों के पढ़ने मे बिताते है । जिस प्रकार वे अपनी शारीरिक भूख के लिए अन्न को आवश्यक समझते है, उसी प्रकार वे अपनी आत्मा की भूख के लिए पत्रों को खरीदकर पढना जरूरी समझते है। उन्होने पत्रो का पढना अपना एक अटल नियम बना रखा है। जो मनुष्य जिस रुचि का होता है, अपनी रुचि के पत्र का ग्राहक बन जाता है और उस पत्र से अपना ज्ञान-वर्द्धन और मनोरजन करता है। वहाँ के लोग पत्रो को खरीद कर पढ़ते है। कहीं से मागकर नहीं लाते । वे दूसरो के अखबार को जूठन समझते हैं। यही कारण है कि वहाँ के पत्रो के ग्राहको की संख्या पचास लाख तक है। जब हम यह समाचार पढ़ते हैं और भारतीय पत्रो की ओर दृष्टिपात करते हैं तो दाॅतों तले उँगली दबाने लगते हैं । कहते हैं विदेश के लोग पत्र निकालना जानते है । वे लोग शिक्षा मे और सभी बातो मे हमसे आगे बढ़े हुए है। उनके पास पैसा है। यह सभी बातें सही हो सकती है। किन्तु भारतीय पत्रों की प्रकाशन सख्या न बढ़ने का केवल यही कारण नहीं है कि भारतीय विद्वान पत्र निकालना नही जानते, वे शिक्षा मे पिछडे हुए है और पत्रो को खरीदने के लिए भारतीय जनता के पास पैसा नहीं है । यह दलीले कुछ अशो में ठीक हो भी सकती है; पर भारतीय पत्रो के न पनपने का एक और भी प्रबल कारण है।

हमारे यहाँ ऐसे लाखो मनुष्य हैं, जो पैसे वाले है, जिनकी अार्थिक स्थिति अच्छी है, जो शिक्षित है, और जिन्हे पत्रो को पढते रहने का शौक भी है । पर वे लोग मुफ्तखोर हैं । पत्रो के लिए पैसा खर्च करना वे पाप समझते है । या तो पत्रो को खोज-खाजकर अपने मित्रो और परिचित लोगों के यहाँ से ले आयेंगे, या लाइब्रेरियो मे जाकर देख आयेगे। लेकिन उनके लिए पैसा कभी न खर्च करेंगे । सोचते है जब तिकड़मबाजी से ही काम चल जाता है तो व्यर्थ पैसा कौन खर्च करे। यह दशा ऐसे लोगों की है जो हजारो का व्यवसाय करते हैं और व्याह

शादी या अोसर मोसर मे अधे बनकर धन व्यय करते रहते है। ये लोग बीड़ी और सिगरेट मे, पान और तम्बाकू मे, नाटक और सिनेमा मे, लाटरी और जुए मे, चाय और काफी मे और विविध प्रकार के दुर्व्यसनो मे अपनी आमदनी का बहुत बड़ा हिस्सा फूक सकते है, किन्तु पत्रों के लिए एक पाई भी खर्च नही कर सकते । जीभ के स्वाद के लिए बाजारो मे मीठी और नमकीन चीजो पर ये लोग रुपये खर्च कर सकते है पर पत्रो को भूलकर भी नहीं खरीद सकते। इसके विपरीत, खरीदनेवालो को मूर्ख समझते है, यद्यपि उन्हीं की जूठन से इनका काम चलता है। अगर बहुत हिम्मत की तो किसी लाइब्रेरी के मेम्बर बन गये और लाइब्र रियन को अपनी मीठी बातो मे फंसाकर नियम के विरुद्ध अनेक पुस्तके और पत्र पढने के लिए ले गये । और भाग्यवश यदि किसी लेखक से परिचय हो गया, या अपनी तिकडम से किसी पत्र सम्पादक को साध लिया तो कहना ही क्या, कालं का खजाना उन्हे मिल गया। इस प्रकार ये लोग अपना मतलब निकाल लेते है। इससे आगे बढ़ना ये लोग मूर्खता समझते है । भारतीय पत्रों के प्रति इन लोगो के प्रेम, कर्तव्य पालन और सहानुभूति का कितना सुन्दर उदाहरण है ! क्या ऐसा सुन्दर उदाहरण आपको ससार के किसी भी देश मे मिल सकेगा ? धन्य हैं ये लोग और धन्य है अपनी भाषा के प्रति इनका अनुराग!

इन लोगो की यही दुवृत्ति भारतीय पत्रो के जीवन को सदैव सकट मे डाले रहती है। यह लोग जरा भी नहीं सोचते कि यह प्रवृत्ति समाचार पत्रो के लिए कितनी भयानक और हानिकर सिद्ध हो सकती है। इनकी इस प्रवृत्ति के कारण ही भारतीय पत्र पनपने नहीं पाते। जहाँ विदेशी पत्रो की निजी इमारतें लाखो रुपयो की होती हैं और उनके कार्यालयों मे हजारो आदमी काम करते हैं, वहाँ हमारे भारतीय पत्रों के कार्यालय किराये के, साधारण, या टूटे-फूटे मकानों में होते हैं और कहीं कहीं तो उनमे काम करने वाले मनुष्यो की संख्या एक दर्जन भी नहीं होती । नाम मात्र के लिए कुछ इने गिने पत्र ही ऐसे है जिनके कार्यालय
मे काम करने वाले दो सौ के लगभग या कुछ ही अधिक हो। ऐसे लोगो की कृपा के कारण हो भारतीय पत्रो का यह हाल है। कही-कहीं तो बेचारा एक ही आदमी सम्पादक, मुद्रक, व्यवस्थापक, प्रकाशक और प्रूफरीडर है। ससार के लिए यह बात नयी और आश्चर्यजनक है। यह सब इन भारतीय मुफ्तखोर पाठको की कुवृत्ति का ही परिणाम है, लेकिन अब इन मुफ्तखोर तथा अपनी भाषा के साथ अन्याय करने वालों को कुछ लज्जा आनी चाहिए। उन्हें मालूम होना चाहिए कि वे लोग भारतीय पत्रो का गला घोट रहे है और उन्हे ससार के उपहास और व्यग की एक वस्तु बना रहे है । जब कि ये लोग बडी-बड़ी रकमे व्यर्थ के कामो मे फूॅक सकते है तो कोई कारण नहीं कि ये अपने देशीय पत्रो के लिए एक छोटी सी रकम खर्च करके उनके प्राणा की रक्षा न कर सके।

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