साहित्य का उद्देश्य/17
जिस तरह संस्कृति के और सभी अंगों में यूरोप हमारा पथ-प्रदर्शक है, उसी तरह साहित्य में भी हम उसी के पद चिन्हों पर चलने के आदी हो गये हैं। यूरोप आजकल नग्नता की ओर जा रहा है। वही नग्नता जो उसके पहनावे में, उसके मनोंरजनों में, उसके रूप प्रदर्शन में नजर आती है, उसके साहित्य में भी व्याप्त हो रही है। वह भूला जा रहा है कि कला संयम और संकेत में है। वही बात जो संकेतों और रहस्यों में आकर कविता बन जाती है, अपने स्पष्ट या नग्न रूप में वीभत्स हो जाती है। वह नंगे चित्र और मूर्ति बनाना कला का चमत्कार समझता है। वह भूल जाता है कि वही काजल जो आँखों को शोभा प्रदान करता है, अगर मुँह पर पोत दिया जाय तो रूप को विकृत कर देता है। मिठाई उसी वक्त तक अच्छी लगती है, जब तक वह मुंह मीठा करने के लिए खाई जाय। अगर वह मुह में ठूंस दी जाय, तो हमें उससे अरुचि हो जायगी। ऊषा की लाली में जो सुहानापन है, वह सूरज के सम्पूर्ण प्रकाश में हरगिज नहीं। मगर वर्तमान साहित्य उसी खुलेपन की ओर चला जा रहा है। जिन प्रसंगों में जीवन का माधुर्य है, उन्हें स्पष्ट और नग्न रूप में दिखाकर वह उस माधुर्य को नष्ट कर रहा है। वही प्रवृत्ति जो आज युवतियों को रेल और ट्राम में बार बार आईना देखकर ओठों और गालों के धूमिल होते हुए रंग को फिर से चमका देने पर प्रेरित करती है, हमारे साहित्य में भी उन विषयों और भावों को खोलकर
रख देने की गुदगुदी पैदा करती है, जिसके गुप्त और अस्पष्ट रहने में
ही कला का आनन्द है।
और यह प्रवृत्ति और कुछ नहीं, केवल समाज की वर्तमान व्यवस्था
का रूप मात्र है । जब नारी को इसका निराशाजनक अाभास होता है
कि उसके पास रूप के आकर्षण के सिवा और कुछ नहीं रहा, तो वह
नाना प्रकार से उसी रूप को संवार कर नेत्रो को आकर्षित करना
चाहती है । उसमे वह सौन्दर्य नही रहा, जो काजल और पाउडर की-
परवाह न करके, केवल श्राखो को खुश करने मे ही अपना सार न
समझकर अन्तस्तल की गहराइयों से अपना प्रकाश फैलाता है। वही
व्यापार बुद्धि जो आज गली गली, कोने कोने में अपना जौहर दिखा रही
है, साहित्य अोर कला के क्षेत्र मे भी अपना आधिपत्य जमा रही है।
आप जिधर जाइए आपको दीवारो पर, तख्तियो पर व्यापारियो के बड़े-बड़े
भड़कीले पोस्टर नजर आयेगे । समाचार-पत्रो मे भी तीन चौथाई स्थान
केवल विज्ञापनो से भरा रहता है। स्वामी को अच्छी सामग्री देने की
उतनी चिन्ता नहीं रहती, जितनी नफा देने वाले विज्ञापनहासिल करने की ।
उसके कनवेसर लेखको के पास लेख के लिए नही जाते । इसके लिए
तो एक कार्ड काफी है । मगर विज्ञापन-दाताअो की सेवा मे वे बराबर
अपने कनवेसर भेजता है, उनकी खुशामद करता है, और उसी देवता
को प्रसन्न करने मे अपना उद्धार पाता है । कितने ही अच्छे अच्छे पत्र
तो केवल विज्ञापन के लिए ही निकलते हैं, लेख तो केवल गौण रूप से
इसलिए दे दिये जाते हैं कि साहित्य के रसिकों को उन विज्ञापनो को
पढ़ने के लिए प्रलोभन दे सके । व्यापार ने कला को एक तरह से
खरीद लिया है। व्यापार के युग मे जिस चीज़ का सबसे ज्यादा महत्व
होता है, वह धन है । जिसके अन्दर जो शक्ति है, चाहे वह
देह की हो या मन की, या रूप की या बुद्धि की, वह उसे धन-देवता
के चरणों पर ही चढ़ा देता है । हमारा साहित्य भी, जो कला का
ही एक अंग है उसी व्यापार-बुद्धि का शिकार हो गया है । हम
किसी चीज़ की रचना इसलिए नहीं करते कि हमे कुछ कहना है, कोई
सन्देश देना है, जीवन के किसी नये दृष्टिकोण को दिखाना है, समाज
और व्यक्ति मे ऊँचे भावो को जगाना है अथवा हमने अपने जीवन मे
जो कुछ अनुभव किया है, उसे जनता को देना है, बल्कि केवल इसलिए
कि हमे धन कमाना है और हम बाजार मे ऐसी चाज रखना
चाहते है जो ज्यादा से ज्यादा बिक सके । जब एक बार यह
ख्याल दिल मे जम गया, तो फिर हम विचार-स्वातन्त्र्य और
भाव-स्वातन्त्र्य के नाम से ऐसी चीजे लिखते हैं, जिनके विषय मे जनता
को सदैव कुतूहल रहा है और सदैव रहेगा । ड्रामेटिस्ट और उपन्यासकार
और कवि सभी नग्न लालसा और चूमाचाटी से भरी हुई रचनाएँ करने
के लिए मैदान मे उतर आते है, और आपस मे होड-सी होने लगती है
कि कौन नई से नई चौकाने वाली बाते कह सुनाये, ऐसे-ऐसे प्रसग
उपस्थित करे कि कामुकता के छिपे हुए अड्डो मे जो व्यापार होते है वह
प्रत्येक स्त्री पुरुष के सामने आ जायें । कोई अाजाद प्रेम के नाम से,
कोई पतितो के उद्धार के नाम से, कामोद्दीपन की चेष्टा करता है, और
सयम और निग्रह को दकियानूसी कहकर मुक्त विलास का उपदेश देता
है । सत्य और असत्य की उसे परवाह नहीं होती । वह तो चौकाने वाली
और कान खड़े करने वाली बाते कहना चाहता है, ताकि जनता उसकी
कृतियों पर टूट पड़े और उसकी पुस्तके हाथो-हाथ बिक जायें । उसे गुप्त
से गुप्त प्रसंगो के चित्रण मे जरा भी संकोच या झिझक नही होती । इन्हीं
रहस्यों को खोलने मे ही शायद उसके विचार मे समाज का बेडा पार
होगा । व्रत और त्याग जैसी चीज़ की उसकी निगाह मे कुछ भी महिमा
नहीं है। नहीं, बल्कि वह व्रत, त्याग और सतीत्व को ससार के लिए
घातक समझता है। उसने वासनाओ को बेलगाम छोड़ देने में ही
मानवी जीवन का सार समझा है । हक्सले और डी० एच० लारेन्स और
डिकोबरा श्रादि, आज अग्रेजी साहित्य के चमकते हुए रत्न समझे जाते हैं,
लेकिन इनकी रचनाएँ क्या हैं ? केवल उपन्यास रूपी कामशास्त्र । जब
लेखक देखता है कि अमुक की रचना नग्नता और निर्लज्जता के
कारण धड़ाधड बिक रही है, तो वह कलम हाथ मे लेकर बैठता है और
उससे भी दस कदम आगे जा पहुँचता है । और इन पुस्तको की समाज
मे खूब अालोचनाएँ होती है, उनकी निर्भीक सत्यवादिता के खूब ढोल
पीटे जाते है । इस प्रवृत्ति को यथार्थवाद का नाम दे दिया जाता है,
और यथार्थवाद की आड़ मे आप व्यभिचार की, निर्लज्जता की, चाहे
जितनी मीमासा कीजिए, कोई नहीं बोल सकता। एक महिला कलम
लेकर बैठती है और अपने कुत्सित प्रेम-रहस्यो का कच्चा चिट्ठा लिख
जाती हैं । समाज मे उनकी रचना की धूम मच जाती है, दूसरे महोदय
अपनी ऐयाशियो की झूठी सच्ची कहानी लिखकर समाज मे हलचल
पैदा कर देते हैं । पुस्तको को अधिक से अधिक लाभप्रद बनाने के लिए,
सम्भव है, अपनी आत्म-चर्चा को खूब बढ़ा-बढा कर बयान किया जाता
हो । कामुकता का ऐसा नगा नाच शायद किसी युग में न हुआ हो।
दुकानो पर रूपवती युवतियाँ बैठाई जाती है । इसलिए कि ग्राहको की
कामुकता को उत्तेजित करके एक पैसे की चीज के दो पैसे वसूल कर
लिये जायें। ये युवतियों मानो वह चारा है, जिसे काटे में लगाकर
मछलियो को फसाया जाता है । जब सारे कुएँ मे ही भग पड़ गई है तो
कला और साहित्य क्यों अछूते बच जाते ? मगर यह सब उस सामाजिक
व्यवस्था का प्रसाद है, जो इस वक्त ससार मे फैली है। और वह
व्यवस्था है-'धन का कहीं जरूरत से ज्यादा और कहीं जरूरत से कम
होना । जिनके पास जरूरत से ज्यादा है, वह मानो समाज के देवता हैं
और जिनके पास जरूरत से कम है, वह हर मुमकिन तरीको से धनवानों
को खुश करना चाहते हैं। और धन की वृद्धि सदैव विषय विलास की
ओर जाती है । इसीलिए रूप के बाजार सजाए जाते हैं, इसीलिए नम
चित्र बनाए जाते हैं इसीलिए साहित्य कामुकता-प्रधान हो जाता है।
साहित्य के इस नए पतन। का एक कारण यह भी हो सकता है कि
आज कल पश्चिमी समाज मे फैशन की गुलामी और भोग लालसा के
कारण कितने ही लोग विवाह से कॉपते हैं, और उनकी रसिकता और
कोई मार्ग न पाकर कामोद्दीपक साहित्य पढ़कर ही अपने दिल को तसल्ली
दे लेती है। रूसी समाज को जिन लोगो ने देखा है, वे कहते है वि वहाँ
की स्त्रियों रंग और पाउडर पर जान नहीं देतीं और न रेशम और लेस
के लिए मरती है । उनके सिनेमा घरो के दरवाजो पर अर्ध नग्न पोस्टरो
का वह प्रदर्शन नहीं होता, जो अन्य देशों मे नजर आता है। इसका
कारण यह है कि वहाँ धन की प्रभुता किसी हद तक जरूर नष्ट हो
गई है, और उनकी कला अब धन की गुलामी न करके समाज
के परिष्कार मे लगी हुई है । हम ऊपर कह आये है कि आज यथार्थवाद
के पर्दे मे बेशर्मी का नंगा नाच हो रहा है । यथार्थवाद के माने ही यह
हो गए हैं कि वह समाज और व्यक्ति के नीच से नीच अधम से अधम और
पतित से पतित व्यवहारो का पर्दा खोले, मगर क्या यथार्थता अपने क्षेत्र मे
समाज और व्यक्ति की पवित्र साधनाओ को नहीं ले सकती ? एक विधवा के
पतित जीवन की अपेक्षा क्या उसके सेवामय, तपमय जीवन का चित्रण
ज्यादा मगलकारी नहीं है ? क्या साधु प्रकृति मनुष्यो का यथार्थ जीवन
हमारे दिलो पर कोई असर नहीं करता ? साहित्य मे असुन्दर का प्रवेश
केवल इसलिए होना चाहिए कि सुन्दर को और भी सुन्दर बनाया जा
सके। अन्धकार की अपेक्षा प्रकाश ही ससार के लिए ज्यादा कल्याण-
कारी सिद्ध हुआ है।