साहित्य का उद्देश्य/13
अगर आज से पचीस तीस साल पहले की किसी पत्रिका को उठाकर आज की किसी पत्रिका से मिलाइए, तो आप को मालूम होगा कि हिन्दी
गल्प-कला ने कितनी उन्नति की है। उस वक्त शायद ही कोई कहानी छपती थी, या छपती भी थी, तो किसी अन्य भाषा से अनूदित। मौलिक
कहानी तो खोजने से भी न मिलती थी। अगर कभी कोई मोलिक चीज निकल जाती थी, तो हमको तुरन्त सन्देह होने लगता था, कि यह अनुवादित तो नहीं है। अनुवादित न हुई तो छाया तो अवश्य ही होगी। हमें अपनी रचना-शक्ति पर इतना अविश्वास हो गया था। मगर आज किसी पत्रिका को उठा लीजिए, उसमें अगर ज्यादा नहीं, तो एक तिहाई अंश कहानियों से अलंकृत रहता ही है। और कहानियाँ भी अनूदित नहीं, मौलिक। इस तेज चाल से दौड़ने वाले युग में किसी को किसी से बात करने की मुहलत नहीं है, मनुष्य को अपनी
आत्मा की प्यास बुझाने के लिए, कहानी ही एक ऐसा साधन है, जिससे वह जरा-सी देर में-जितनी देर में वह चाय का एक प्याला पीता या फ़ोन पर किसी से बातें करता है-प्रकृति के समीप जा पहुँचता है। साहित्य उस उद्योग का नाम है, जो आदमी ने आपस के भेद मिटाने और उस मौलिक एकता को व्यक्त करने के लिए किया है, जो इस जाहिरी भेद की तह में, पृथ्वी के उदर में व्याकुल ज्वाला की भांति, छिपा हुआ है। जब हम मिथ्या विचारों और भावनाओं में पड़कर असलियत से दूर जा पड़ते हैं, तो साहित्य हमें उस सोते तक पहुँचाता है,
जहाँ Reality अपने सच्चे रूप मे प्रवाहित हो रही है।और यह काम
अब गल्प के सिर आ पड़़ा है । कवि का रहस्य-मय संकेत समझने के
लिए अवकाश और शाति चाहिए । निबन्धो के गूढ तत्व तक पहुँचने के
लिए मनोयोग चाहिये । उपन्यास का आकार ही हमे भयभीत कर देता है,
और ड्रामे तो पढने की नही बल्कि देखने की वस्तु है। इसलिए, गल्प
ही आज साहित्य की प्रतिनिधि है, और कला उसे सजाने और सेवा
करने के और अपनी इस भारी जिम्मेदारी को पूरा करने के योग्य बनाने
मे दिलोजान से लगी हुई है । कहानी का आदर्श ऊँचा होता जा रहा
है, और जैसी कहानियाँ लिख कर बीस-पच्चीस साल पहले लोग ख्याति
पा जाते थे, आज उनसे सुन्दर कहानियों भी मामूली समझी जाती है।
हमे हर्ष है कि हिन्दी ने भी इस विकास में अपने मर्यादा की रक्षा की
है और आज हिन्दी मे ऐसे-ऐसे गल्पकार आ गये हैं, जो किसी भाषा के
लिए गौरव की वस्तु हैं । सदियो की गुलामी ने हमारे आत्म-विश्वास
को लुप्त कर दिया है, विचारो की आजादी नाम को भी नहीं रही ।
अपनी कोई चीज़ उस वक्त तक हमे नहीं जॅचती, जब तक यूरप के
आलोचक उसकी प्रशंसा न करे । इसलिए हिन्दी के आने वाले गल्प-
कारो को चाहे कभी वह स्थान न मिले, जिसके वे अधिकारी है, और इस
कसमपुरसी के कारण उनका हतोत्साह हो जाना भी स्वाभाविक है लेकिन
हमे तो उनकी रचनाओ मे जो आनन्द मिला है, वह पश्चिम से आई कहा-
नियो मे बहुतो मे नहीं मिला । संसार की सर्वश्रेष्ठ कहानियो का एक पोथा
अभी हाल मे ही हमने पढ़ा है, जिसमे यूरप की हरेक जाति, अमेरिका,
ब्राज़ील, मिस्र आदि सभी की चुनी हुई कहानियाँ दी गई है, मगर उनमे
आधी दरजन से ज्यादा ऐसी कहानियों नही मिली, जिनका हमारे ऊपर
रोब जारी हो जाता । इस संग्रह मे भारत के किसी गल्लकार की कोई
रचना नहीं है, यहाँ तक कि डॉ० रवीन्द्रनाथ की किसी रचना को
भी स्थान नहीं दिया गया । इससे संग्रहकर्ता की नीयत साफ जाहिर
हो जाती है । जब तक हम पराधीन हैं, हमारा साहित्य भी पराधीन
है, और अगर किसी भारतीय साहित्यकार को कुछ आदर मिला है
तो उसमे भी पश्चिमवालो की श्रेष्ठता का भाव छिपा हुया है,
मानो उन्होने हमारे ऊपर कोई एहसान किया है। हमारे यहाँ ऐसे
लोगो की कमी नही है, जिन्हे यूरप की अच्छी बाते भी बुरी लगती हैं
और अपनी बुरी बात भी अच्छी । अगर हम मे अात्म-विश्वास की कमी
अपना आदर नहीं करने देती, तो जातीय अभिमान की अधिकता भी
हमे असलियत तक नहीं पहुँचने देती । कम से कम साहित्य के विषय मे
तो हमे निष्पक्ष होकर खोटे खरो को परखना चाहिए। यूरप और अमे-
रिका मे ऐसे-ऐसे साहित्यकार और कवि हो गुजरे हैं और आज भी हैं,
जिनके सामने हमारा मस्तक आप से अाप झुक जाता है । लेकिन इसका
यह अर्थ नही है कि वहाँ सब कुछ सोना ही सोना है, पीतल है ही नहीं।
कहानिया मे तो हिन्दी उनसे बहुत पीछे हर्गिज नही है, चाहे वे इसे माने
या न माने । प्रसाद, कौशिक या जैनेन्द्र की रचनाओ के विषय मे
तो हमे कुछ कहना नहीं है । उनकी चुनी हुई चीजे किसी भी विदेशी
साहित्यकार को रचनात्रा से टक्कर ले सकती हैं। हम आज उन
गल्पकारो का कुछ जिक्र करना चाहते है, जो हिन्दी-गल्य-कला के
विकास मे श्रेय के साथ अपना पार्ट अदा कर रहे हैं, यद्यपि साहित्य
समाज मे उनका उतना आदर नही है, जितना होना चाहिए।
इन गल्पकारो मे पहला नाम जो हमारे सामने आता है वह है- भारतीय एम० ए० । इनकी अभी तक पॉच-छः कहानियाँ पढ़ने का ही हमें अवसर मिला है और इनमे हमने भावो की वह प्रौढ़ता, निगाह की वह गहराई, मनोविज्ञान की वह बारीकी और भाषा की वह सरलता पाई है कि हम मुग्ध हो गये हैं । 'हस' को पिछलो संख्या मे 'मुनमुन' नाम की उनकी कहानी अद्भुत है और हम उसे 'मास्टरपीस' कह सकते है । वह नवीनता और ताजेपन के पीछे नहीं दौड़ते, कहीं चमकने की सचेत चेष्टा नही करते, ऊँचे उड़ जाने की हवस उन्हे नहीं है । वह उसी दायरे मे रहते है, जिसका उन्होने कलाकार की ऑखो से अनुभव किया है, और उनके हृदय की सरसता उन साधारण दृश्यों में कुछ ऐसी सजीवता, कुछ ऐसा रस भर देती है कि पाठक पढ़ने के वक्त ऑखे बन्द करके उसका आनन्द उठाता है, और उसका मन कहता है कि इन दस मिनिटो का इससे अच्छा इस्तेमाल वह न कर सकता था। भारतीय महोदय विद्वान् हैं, हिन्दी के एम० ए० । पुराने कवियो को उन्होने खूब पढ़ा है । और उनकी रचनात्रो की टीकाएँ भी लिखी हैं। मौलिक सृष्टि की ओर उनका ध्यान हाल मे पाया है, और हमारे खयाल मे यह अच्छा ही हुआ । कच्ची लेखनी इस क्षेत्र मे जो ठोकरे खाया करती है, वह उन्हें नहीं खानी पड़ी।
भारतीयजी की कहानियो को अगर किसी पुराने स्कूल की कुल- बधू की उपमा दें, जिसकी जीवन धारा सेवा और त्याग के बीच मे शाति के साथ बहती है, तो श्री वीरेश्वरसिंह की कहानियों मे नये स्कूल की युवती का लोच और सिंगार है, जिसके लिए ससार केवल मर्यादाओं का क्षेत्र नहीं, अानन्द और विनोद का क्षेत्र भी है। इनकी कहानियों मे कुछ ऐसी शोखी, कुछ ऐसी सजावट, कुछ ऐसा बाकपन होता है कि युवक फड़क जाते हैं, और युवतियाँ अॉखें मुका लेती हैं । मगर, इनका दायरा अभी फैलने नहीं पाया है । हमने इनकी जितनी कहानियाँ पढ़ी हैं, अतीत जीवन के दो एक रसीले अनुभवो की झलक मिली है, मगर उनमे यह कुछ ऐसा जादू-सा भर देते हैं कि एक-एक वाक्य को बार- बार पढ़ने को जी चाहता है । बात मे बात पैदा करने मे इन्हे कमाल है और मामूली-सी बात को यह ऐसे सुन्दर, चुलबुले शब्दो मे कह जाते हैं कि सामने फूल-सा खिल जाता है । जैसे-जैसे अनुभवो की सीमा फैलेगी, इनकी रचनाओं मे प्रौढ़ता और गहराई अायगी, मगर हमे आशा है, इनका चुलबुलापन बना रहेगा और इस अनोखे रङ्ग की रक्षा करता रहेगा।
'उसी उपमा की रक्षा करते हुए, हम श्री भुवनेश्वर प्रसाद 'भुवन'
की रचनाओं में उस विधवा का तेज और कसक और विद्रोह पाते है,
जिसे समाज और ससार कुचल डालना चाहता हो । पर वह अकेली
सारी दुनिया को चुनौती देने खड़ी हो । भुवनजी से हमारा परिचय
विचित्र परिस्थिति मे हुआ ओर हमने उनके रोम-रोम मे वह असतोष,
बह गहरी सूझ, और मनोभावों को व्यक्त करने की वह शक्ति पाई,
जो अगर सयम से काम लिया गया, और परिस्थितियो ने प्रतिभा को
कुचल न दिया, तो एक दिन हिन्दी का उन पर गर्व होगा। उनके
मिजाज में एक सैलानोपन है और उन्हे अपने-आप मे डूबे रहने और
अपनी कटुताओ से सरल जीवन का कटु बनाने का वह मरज है, जो
अगर एक अोर साहित्य की जान है, तो दूसरी ओर उसकी मौत भी है।
यह ड्रामे भी लिखते हैं और इनके कई एकाकी ड्रामे हस मे निकल चुके
हैं। जिन्होने वह ड्रामे पढ़े हैं, उनको मालूम हुअा होगा कि उनमें
कितनी चोट, कितना दर्द और कितना विद्रोह है । भुवनजी उर्दू भी
अच्छी जानते है, उर्दू और हिन्दी दोनो ही भाषाओं में शायरी करते हैं,
और साहित्य के मर्मज्ञ है। उन पर भास्कर वाइल्ड का गहरा रङ्ग चढ़ा
हुआ है, जो अद्भुत प्रतिभाशाली होने पर भी कला की पवित्रता को
निभा न सका।
इन तोना स्रष्टाओ से कुछ अलग श्री 'अज्ञेय' का रङ्ग है। उनकी रचनाओ मे यद्यपि 'आमद' नही 'आबुर्द है, पर उसके साथ ही गद्य- काव्य का रस है। वह भावना प्रधान होती है, गरिमा से भरी हुई, अतस्तल की अनुभूतियो से रञ्जित एक नये वातावरण मे ले जानेवाली, जिन्हे पढ़ कर, कुछ ऐसा आभास होता है कि हम ऊँचे उठ रहे है। लेकिन उनका आनन्द उठाने के लिए उन्हे ध्यान से पढ़ने की जरूरत है क्योकि वे जितना कहती हैं, उससे कहीं ज्यादा बे कहे छोड़ देती हैं। काश, अज्ञेयजी कल्पना-लोक से उतर कर यथार्थ के संसार मे आते ।
इन्हीं होनहार युवकों मे श्री जनार्दनराय नागर है। हमारे युवको मे
ऐसे सरल, ऐसे शीलवान, ऐसे सयमशील युवक कम होंगे। उनके साथ
बैठना और उनकी आत्मा से निकले हुए निष्कपट उद्गारों को सुनना
अनुपम अानन्द है।कहीं बनावट नहीं, जरा भी तकल्लुफ नहीं । पक्का
ब्रह्मचारी, जिसे आजकल का फैशन छू तक नही गया । मिजाज मे
इन्तहा की सादगी इन्तहा की खाकसारी, जो दुनिया के बन्दों को भी
मानो अपने प्रकाश से प्रकाशमान कर देती है। वह युनिवर्सिटी का
छात्र होकर भी गुरुकुल के ब्रह्मचारियो का-सा आचरण रखता है । और
उसे खुद खबर ही नहीं कि वह अपने अन्दर कितनी साधना रखता है।
इनकी कई रचनाएँ हमने पढी है और प्रकाशित की है। इनके यहाँ
ओज नही है, चुलबुलापन नहीं है; पर जीवन की सच्ची झलक है, सच्चा
दर्द है ओर कलाकार की सच्ची अनुभूति है। इन्होने एक बडा उपन्यास
भी लिखा है, जिसमे इनकी कला पूर्ण रूप से प्रस्फुटित हुई है, और उसे
पढकर यह अनुमान भी नहीं किया जा सकता कि इसका लेखक एक
बाइस-तेइस वर्ष का युवक है ।
इन्हीं रत्नो मे हम प्रयाग के श्री त्रिलोकीनाथ मिच्चू का जिक्र करना
आवश्यक समझते हैं। इन्होने दो साल पहले 'दो मित्र' नाम की एक
मनोहर पशु-जीवन की कहानी लिखी थी। वह हमे इतनी भायी कि हमने
उसे तुरन्त 'जागरण' मे प्रकाशित किया। उसके बाद आपकी एक
कहानी 'पहाड़ी' नाम से 'माया' मे निकली । वह है तो छोटी-सी मगर
बडी ही मर्मस्पर्शी । इस अक मे आपकी जो 'आशा' नामक कहानी
छपी है, वह उनकी कला का अच्छा नमूना है। आपकी रचनात्रो मे
स्वस्थ यथार्थता और सहानुभूतिपूर्णता की अनुपम छटा होती है
और यद्यपि आप बहुत कम लिखते है पर जो कुछ लिखते है;
अच्छा लिखते है। आपकी इस कहानी मे सयत प्रणयं का इतना
सुन्दर चित्र है कि विषय मे कोई नवीनता न होने पर भी कहानी
यथार्थ बन गई है। हमारे पास ६० फीसदी कहानियाँ प्रणय-विषयक ही
आती है; पर प्रणय का इतना वीभत्स रूप दिखाया जाता है, या इतना
अस्वाभाविक-और बिहार के युवक लेखको ने मानों इस ढ़ग की
कहानियों लिखने का ठीका-सा ले लिया है-कि हमे उनको छापते संकोच
होता है और इस बात का खेद होता है कि इन भले आदमियों के हृदय
मे प्रेम की कितनी गलत धारणा जमी हुई है। यह विषय जितना ही
व्यापक है, उतना ही उसे निभाना मुश्किल है। छिछोरी लालसा को
प्रेम जैसी पवित्र साधना से वही सम्बन्ध है, जो दूध को शराब से है । प्रेम
का आदर्श रूप कुछ वही है, जो मिन्चू ने अपनी कहानी मे चित्रित
किया है।
यह सूची गैर मुकम्मल रह जायगी अगर हम राची के श्री राधा- कृष्णजी का उल्लेख न करे । आपकी कई रचनाएँ 'हस' और 'जागरण' मे निकल चुकी हैं और रुचि के साथ पढ़ी गई हैं। आपकी शैली हास्य- प्रधान है और बड़ी ही सजीव । प्रतिकूल दशाओं मे रहकर भी आपकी तबीयत मे मज़ाक का रङ्ग फीका नहीं होने पाया।
हमारी गल्प-कला के विकास मे युवकों ने ही नहीं कदम आगे
बढ़ाया है। युवतियों भी उनके साथ कथा मिलाए चल रही है । साहित्य
और समाज मे बड़ा नज़दीकी सम्बन्ध होने के कारण अगर
पुरुषो के हाथ मे ही कलम रहे, तो साहित्य के एकतरफ़ा हो जाने
का भय है । ऐसे पुरुष किसी साहित्य मे भी ज्यादा नहीं हो सकते, जो
रमणी हृदय की समस्याओ और भावो का सफल रूप दिखा सकें। एक
ही स्थिति को स्त्री और पुरुष दोनों अलग-अलग ऑखो से देख सकते
हैं और देखते है । पुरुष का क्षेत्र अब तक अधिकतर घर के बाहर रहा
है, और आगे भी रहेगा । स्त्री का क्षेत्र घर के अन्दर है, और इसलिए
उसे मनोरहस्याॅ की तह तक पहुँचने के जितने अवसर मिलते हैं, उतने
पुरुषो को नहीं मिलते। उनकी निगाहो मे ज्यादा बारीकी, ज्यादा
कोमलता, ज्यादा दर्द होता है । साहित्य को सर्वाग पूर्ण बनाने के लिए
महिलाओं का सहयोग लाजिमी है, और मिल रहा है। इधर कई बहनों
ने इस मैदान में कदम रखा है, जिनमे उषा, कमला और सुशीला, ये
तीन नाम खास तौर पर सामने आते हैं। श्रीमती उषा मित्रा बगाली
देवी है, और शायद उनकी पहली रचना डेढ़-दो साल पहले 'हंस' में
प्रकाशित हुई थी। तब से वह बराबर सभी पत्रिकाओं मे लिख रही हैं।
उनकी रचनाओं में प्राकृतिक दृश्यो के साथ मानव-जीवन का ऐसा
मनोहर सामजस्य होता है कि एक-एक रचना मे संगीत की माधुरी का
आनन्द आता है। साधारण प्रसगों मे रोमास का रग भर देने मे उन्हे
कमाल है। इधर उन्होने एक उपन्यास भी लिखा है, जिसमे उन्होने
वर्तमान समाज की एक बहुत ही जटिल समस्या को हल करने का सफल
उद्योग किया है और जीवन का ऐसा आदर्श हमारे सामने, पेश किया
है जिसमे भारतीय मर्यादा अपने कल्याणमयरूप की छटा दिखाती
है । हमे अाशा है, हम जल्द ही आपका उपन्यास प्रकाशित कर सकेंगे।
श्रीमती कमला चौधरी ने भी लगभग दो साल से इस क्षेत्र में पदार्पण किया है, और उनकी रचनाएँ नियमित रूप से 'विशाल-भारत' मे निकल रही है । नारी-हृदय का ऐसा सुन्दर चित्रण हिन्दी मे शायद ही और कहीं मिल सके । आप की हरेक रचना मे अनुभूति की-सी यथार्थता होती है । 'साधना का उन्माद', 'मधुरिमा' और 'भिखमंगे की बेटी' अादि उनकी वह कहानियाँ हैं, जो नारी हृदय की साधना, स्नेह और त्याग का रूप दिखाकर हमें मुग्ध कर देती हैं। आप कभी-कभी ग्रामीण बोली का प्रयाग करके अपने चरित्रों मे जान-सी डाल देती हैं। आपकी गल्पो का एक संग्रह 'साधना का उन्माद' नाम से हाल मे ही प्रकाशित हुआ है।
कुमारी सुशीला आगा की केवल दो कहानियों हमने पढ़ी हैं, लेकिन वह दोनो कहानियाँ पढ़कर हमने दिल थाम लिया । 'अतीत के चित्र' मे उन्होने नादिरा की सष्टि करके सिद्ध कर दिया है कि उनकी रचना- भूमि ज़रखेज़ है और उसमे मनोहर गुल-बूटे खिलाने को दैवी शक्ति है । कह नहीं सकते, वह इस शक्ति से काम लेकर साहित्य के उद्यान की शोभा बढ़ायेंगी, या उसे शिथिल हो जाने देगी । अगर ऐसा हुआ, तो साहित्य-प्रेमियों को दुःख होगा।
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