साहित्यालाप/६—हिन्दी भाषा और उसका साहित्य

साहित्यालाप
महावीर प्रसाद द्विवेदी

पटना: खड्‍गविलास प्रेस, पृष्ठ ७८ से – १०८ तक

 

६—हिन्दी भाषा और उसका साहित्य।

इस विषय में अनेक लेख समाचार-पत्रों में प्रकाशित हो चुके हैं; पुस्तकें तक लिखी जा चुकी हैं। अतएव यहां पर, इस सम्बन्ध में, कुछ लिखना पिष्ट-पेषण ही होगा। तथापि, कई सज्जनों की प्रेरणा से हम भी, इस विषय में, कुछ लिखने के लिए विवश किये गये हैं । यह विषय गहन है; इसके लिए विशेष स्थल, विशेष विद्या बुद्धि और विशेष योग्यता अपेक्षित है। अतः, इस छोटे से लेख में, हम, यथाशक्ति और यथामति,स्थूल ही स्थूल बातों का विवेचन करेंगे।

पहले हम 'हिन्दी' शब्द की उत्पत्ति का विचार करना‌ चाहते हैं। हिन्दी के दो अर्थ हैं । एक 'हिन्दुओं की भाषा'; दूसरा 'हिन्द (हिन्दुस्थान) की भाषा'। ये दोनों अर्थ बहुत व्यापक हैं। दोनों ही यह सूचित करते हैं कि इस देश की प्रधान भाषा हिन्दी ही है । यदि इसे हिन्द की भाषा मानें तो यह सारे देश की भाषा हुई, और यदि हिन्दुओं की भाषा माने तो सारे हिन्दुओं की भाषा हुई । हिन्दू ही इस देश में और जातियों से अधिक बसते हैं । इसलिए, पहले अर्थ में भी हिन्दा की व्यापकता का गौरव, किसी प्रकार, कम नहीं। क्योंकि ऐसा कौन प्रान्त है जहां हिन्दू नहीं ? और ऐसी कौन जाति है जो हिन्दी नहीं समझती ! अतः, इस देश की यदि कोई एक भाषा हो सकती है तो वह हिन्दी ही है। 'हिन्द' शब्द फारसी भाषा का है। वह हिन्दुओं के देश ही का बोधक है। जान पड़ता है 'हिन्द' ही से अंगरेज़ी'इंडिया' शब्द की उत्पत्ति हुई है। फ़ारसी शब्द 'हिन्द' बहुत पुराना है। उसका प्रचार, इस देश में मुसलमानों के द्वारा हुआ। सम्भव है, इस देश के निवासी हिन्दुओं ही के नामानु-कूल फ़ारसवालों ने 'हिन्द' शब्द की उत्पत्ति की हो। संस्कृत के व्याकरण के अनुसार 'हिन्दी' शब्द की उत्पत्ति का विचार करने में पहले 'हिन्दू' शब्द को सिद्ध करना पड़ेगा, क्योंकि हिन्दुओं ही की भाषा का नाम 'हिन्दी' है। संस्कृत में एक धातु 'हिसि' है । उसका अर्थ 'हिंसा करना' है। इस 'हिसि' धातु से कतार्थक प्रत्यय करने से 'हिन्न' और 'हिंसक' आदि शब्द सिद्ध होते हैं । इन शब्दों में 'खण्डन' और 'परिताप' अर्थ के बोधक 'दो' और 'दूड़् ' धातुओं के योग से क्रमशः'हिन्दु' और 'हिन्दू' शब्द सिद्ध होते हैं । अतएव 'हिन्दू' शब्द का धात्वर्थ 'हिंसा करनेवालों को खण्डन करने अथवा सन्ताप पहुंचाने वाला' हुआ । यह उपपत्ति इस देश के सब मतवालों के अनुकूल जान पड़ती है। वेदान्त आदि षड्दर्शन तथा वैदिक, बौद्ध और जैन सिद्धान्तों के अनुयायी, सभी, व्यर्थ हिंसा न करना अपने मत का एक प्रधान अङ्ग मानते हैं । अतएव हिंसा करनेवालों से प्रतिकूलता करना उनके लिए स्वाभाविक ही है। 'हिन्दू' शब्द का प्रयोग संस्कृत के प्राचीन ग्रन्थों में भी मिलता है। एक स्थल में तो उसका अर्थ भी लिखा है। देखिए--
हीनञ्च दूषयत्येव हिन्दुरित्युच्यते प्रिये।

मेरुतन्त्र, २३वां प्रकाश ।

अर्थात् हीन लोगों पर जो दोषारोपण करे उसे हिन्दू कहते हैं। यह अर्थ भी हमारे पूर्वोक्त अर्थ से प्राय: मिलता है । भेद इतना ही है कि यहां पर हिंसक अर्थ न लेकर हीन अर्थ लिया गया है। फ़ारसी भाषा में 'हिन्दू' शब्द जो काले के अर्थ में व्यवहृत होता है वह मुसल्मानों की कृपा का फल है।

व्याकरण से जब 'हिन्दू' शब्द सिद्ध हो गया तब हिन्दुओं की भाषा 'हिन्दी' आप ही सिद्ध हो गई। उसके पृथक् सिद्ध करने की आवश्यकता न रही। तथापि वह एक दूसरे प्रकार से भी सिद्ध हो सकती है। यथा-'हिन्दू' शब्द से, स्त्रीलिङ्ग में तद्धित प्रत्यय करने से 'हैन्दवी' शब्द हुआ। उसके अपभ्रंश 'हिन्दवी','हिँन्दुई' और 'हिँदुई' हुए। 'हिंँदुई' तो अब तक कहीं कहीं बोला जाता है। होते होते इसी 'हिंँदुई' का 'हिन्दी हो गया।

इस देश में बोली-जाने-वाली भाषायें दो बड़े बड़े भागों में विभक्त हैं—एक आर्य भाषा, दूसरी द्राविड़-भाषा।

द्राविड़ भाषाओं में कनारी, तामिल, तैलंगी और मलायालम्मु ख्य हैं। ये भाषायें मदरास की और बोली जाती हैं। जहां से आर्य भाषा की उत्पत्ति है वहां से, द्राविड़ भाषा की उत्पत्ति नहीं, इसीलिए आर्य और द्राविड़ ये दो विभाग करने पड़े।

भाषा के मुख्य सात विभाग हो सकते हैं। यथा-हिन्दी, पज्जाबी, सिन्धी, गुजराती, मराठी, उड़िया और बँगला। इनके अतिरिक्त और भी कई विभाग किये जा सकते हैं, परन्तु वे विभाग गौण हैं और इन्हीं सातों के अन्तर्गत आ जाते हैं। इन सातों भाषाओं में हिन्दी सबसे प्रधान है। पूर्व में गण्डक नदी से लेकर पश्चिम में पञ्जाब तक, और उत्तर में कमायू से लेकर दक्षिण में विन्ध्याचल पर्वत के भी उस पार तक की प्रचलित भाषा हिन्दी ही है। सच तो यह है कि हिन्दी बोलने-वालों की सीमा नहीं बांधी जा सकती। वह देश-व्यापक भाषा है। उसके बोलने और समझनेवाले किस प्रान्त में नहीं ?

आदि में इस देश की भाषा संस्कृत थी। विद्वानों का‌ अनुमान है कि आज से कोई २५०० वर्ष पहले सर्वसाधारण के बोलचाल में इस भाषा का प्रयोग उठ गया। उसके अनन्तर प्राकृत भाषाओं का प्रचार हुआ। जो प्रकृति-स्वभाव से उत्पन्न हो उसे प्राकृत कहते हैं । अर्थात् ये प्राकृत भाषायें स्वाभाविक रीति पर, आप ही आप, संस्कृत से उत्पन्न हो गई थीं। इन प्राकृत भाषाओं के कई भेद हैं। उनमें महाराष्ट्री, सौरसेनी, मागधी अर्थात् पुरानी पाली, पैशाची और अपभ्रंश ये पांच मुख्य हैं। यद्यपि संस्कृत का बोलचाल उठ गये हज़ारों वर्ष हुए, तथापि विद्वान लोग अपने ग्रन्थ इसी भाषा में लिखते रहे और अब तक भी लिखते हैं। संस्कृत भाषा के प्रवीण पण्डित इसे, समय पड़ने पर, बोलते भी हैं। परन्तु गौतम बुद्ध ने सर्वसाधारण को अपने उपदेश प्राकृत ही में दिये। बौद्ध-सम्प्रदाय के ग्रन्थ
भी प्राकृत ही में हैं। जो प्रजामात्र की भाषा हो उसीमें उपदेश देना और उसीमें ग्रन्थ लिखना हितकर होता भी है। इस समय, हमारी भाषा हिन्दी है। अतएव विचारने की बात है कि यदि देहली दरबार का वृत्तान्त संस्कृत में लिखा जाय तो वह कितना लाभकारी होगा और उसे कितने लोग समझ सकेंगे?

हिन्दी भाषा में कई प्राकृत भाषाओं के बीज हैं, परन्तु विशेष करके वह सौरसेनी से उत्पन्न हुई है। प्राचीन समय में मथुरा और उसके आसपास का प्रदेश 'सूरसेन' कहलाता था। इसी प्रदेश की भाषा का नाम सौरसेनी था। स्वाभाविक रीति पर फेरफार होते होते इसी सौरसेनी से हिन्दी उत्पन्न हुई और क्रम क्रम से वह रूप प्राप्त हुआ जिस रूप में हम उसे, इस समय, देखते हैं। प्राकृत भाषाओं में भी अनेक शब्द संस्कृत के विद्यमान थे। उनमें से अनेक शब्द हिन्दी में भी वैसे ही बने हुए हैं और प्रतिदिन बोलचाल में आते हैं। उदाहरणार्थ, माता, पिता, पुत्र, कवि, पण्डित, क्रोध, लोभ, मोह, इत्यादि। बहुत शब्द प्राकृत के भी अपने पूर्व-रूप में बने हुए हैं, परन्तु विशेष करके वे परिवर्तित रूप में पाये जाते हैं। प्राकृत के परिवर्तित शब्द अनेक हैं। उदाहरण के लिए हम, यहां दो चार शब्द लिखते हैं:—

हिन्दी प्राकृत संस्कृत
काम कम्म कर्म्म
कान कण्ण कर्ण
हिन्दी प्राकृत संस्कृत
आठ अट्ठ अष्ट
हाथ हथ्थ हस्त
बात वत्ता वात्त
आज अज्ज अद्य
आग अग्गि अग्नि
दूध दुद्ध दुग्ध
कहा कहिओ कथितः

सम्पर्क से भाषाओं में परिवर्तन हुआ ही करता है। सहवास के अनुसार गुण-दोष आही जाते हैं। यह एक स्वाभाविक नियम है। हिन्दी में संस्कृत और प्राकृत शब्दों के मेल के सिवा, मुसलमानों के सम्पर्क से अनेक शब्द, फ़ारसी, अरबी और तुर्की तक के आ गये हैं। यह सभी जानते हैं। मुसलमानों के मेल से 'बदलना' और 'दागना' इत्यादि विलक्षण प्रकार की क्रियायें तक हिन्दी में बन गई हैं। भिन्न भिन्न भाषायें बोलनेवालों के योग से भाषाओं में अवश्यही परिवर्तन होता है। इस देश में योरप से पहले पहल पोर्त्तगीज़ लोग आये। उन्होंने भी कुछ शब्द हिन्दी में प्रविष्ट कर दिये। उनके द्वारा प्रयोग किये गये 'केमरा' (Camera) का 'कमरा' हो गया और हैमर (Hammer) से 'हथौड़ा' की उत्पत्ति हुई। अंगरेज़ों के योग से तो अनेक शब्द नये बने और प्रतिदिन बनते जाते हैं। 'अपील', 'डिगरी', 'इञ्च', 'फुट', 'जज', 'डाक्टर', 'कमिश्नर, 'अस्पताल', 'बोतल', इत्यादि शब्द अब हिन्दी बन बैठे हैं और गावों में स्त्रियां और लड़के तक
उनको बोलते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि यह हमारी हिन्दी संस्कृत, प्राकृत, अरबी, फ़ारसी, तुर्की, पोत्तुगीज़ और गरेज़ी आदि भाषाओं की खिचड़ी है। ऐसा होना कोई लज्जा,अथवा हानि, अथवा दोष की बात नहीं। प्राकृतिक नियमों के अनुसार, सम्पर्क से, भाषाओं में परिवर्तन हुआ ही करता है। इस जगत् में ऐसी एक भी भाषा न होगी जिसने किसी अन्य भाषा का एक भी शब्द न ग्रहण किया हो।

कोई कोई हिन्दी को नागरी कहते हैं। यह उनकी भूल है। नागरो कोई भाषा नहीं। नागरी एक लिपि विशेष का नाम है। नागर अक्षरों में जो लिपि लिखी जाती है उसे नागरी कहते हैं। नागरी अक्षरों में हिन्दी, फारसी, बङ्गला,गुजराती इत्यादि सभी भाषायें लिखी जा सकती हैं। अतएव यह स्मरण रखना चाहिए कि हिन्दी एक भाषा का नाम है और नागरी एक लिपि का।

हिन्दी-साहित्य का काल-निर्णय करने के विषय में हिन्दी लेखकों में कई बार वादविवाद हुआ है। इस प्रकार के वाद-विवाद से हम कोई विशेष लाभ नहीं देखते। यह एक अत्यन्त गौण विषय है। मुख्य विषय साहित्य की उन्नति करना है। हिन्दी का साहत्य बड़ी ही दुरवस्था को प्राप्त हो रहा है। उसकी अभिवृद्धि करने की इच्छा से अच्छे अच्छे ग्रन्थ लिखना इस समय अत्यावश्यक है। हिन्दी बोलनेवालों का यह परम धर्म है। काल-निर्णय के सम्बन्ध में शुष्क विवाद करते बैठना व्यर्थ काल-क्षय करना है। हिन्दी-साहित्य के, कई प्रकार से, कई भाग हो सकते हैं। हम समझते हैं कि यदि उसके—प्राचीन, माध्यमिक और आधनिक—ये तीन ही विभाग किये जायं तो भी उसकी विभाग-परम्परा नहीं बिगड़ सकती। ये तीन विभाग इस प्रकार किये जा सकते हैं।

१ प्राचीन—१२०० से १५७० ईस्वी तक।

२ माध्यमिक—१५७० से १८०० ईस्वी तक।

३ आधुनिक—१८०० से आज तक।

हिन्दी साहित्य के इन तीनों विभागों का उल्लेख, संक्षेप पूर्वक, यथाक्रम, हम यहां पर करते हैं।

प्रामाणिक रीति पर इसका, इस समय, पता लगाना बहुत कठिन है कि कब प्राचीन हिन्दी प्राकृत भाषा से उत्पन्न हुई, अथवा कब प्राचीन हिन्दी के साहित्य की सृष्टि हुई, और किस विषय की कौन पुस्तक पहले पहल लिखी गई। अवन्ती के राजा मान के यहां ८२६ ईस्वी में पुष्प नामक एक कवि था। सुनते हैं उसीने पहले पहल हिन्दी में कविता की। राजपूताना में वेणा-नामक एक हिन्दी का कवि ११९८ ईस्वी में हो गया है। जगनिक कवि, वेणा के भी पहले, अर्थात् ११८० ईसवी में विद्यमान् था। परन्तु इन कवियों का एक भी सर्वमान्य ग्रन्थ। किसी किसीका उल्लेख राजस्थान में है। किसीका कहीं; किसीका कहीं। किसीके दो चार पद्य मिले भी तो उससे वह ग्रन्थकार नहीं कहा जा सकता। इन बातों से इतना अवश्य
जाना जाता है कि हिन्दी की कविता नवीं शताब्दी में होने लगी थी। अतएव, जब तक और प्राचीन पुस्तकें उपलब्ध न हो तब तक बारहवीं शताब्दी में होनेवाले चन्द ही को प्राचीन हिन्दी के साहित्य का पिता कहना पड़ता है। चन्द का पृथ्वीराज रासौ ही, इस हिसाब से, प्राचीन हिन्दी का प्रथम ग्रन्थ है। परन्तु इस ग्रन्थ की छन्दो-रचना और आलङ्कारिक-वर्णन की प्रणाली इस बात का साक्ष्य अवश्य देती है कि चन्द के पहले हिन्दी के और कई कवि हो चुके हैं ।

यद्यपि पृथ्वीराज रासौ के अनेक स्थलों में सरस और चित्त को उत्तोजित करनेवाले वर्णन हैं, तथापि सब बातों का विचार करके यही कहना पड़ता है कि उसमें शब्दों का प्राचुर्य अधिक और अर्थ का प्राचुर्य्य कम है। प्राचीनता के विचार से रासौ हिन्दी बोलनेवालों के आदर का पात्र है। इतिहास के विचार से भी वह उपादेय है। इन बातों को सभी स्वीकार करेंगे। परन्तु काव्यांश में वह हीन है। इसका कारण एक तो यह है कि उसकी प्राचीन भाषा, जिसमें टवर्ग और द्वित्व से अधिक काम लिया गया है, कान को अच्छी नहीं लगती। दूसरा कारण यह भी है कि पढ़ने के साथ ही, सब कहीं,अर्थ का तत्काल बोध न होने से उसे पढ़ कर मन मुदित नहीं होता। वीर-रसात्मक काव्य होने के कारण, सम्भव है, चन्द ने जान बूझ कर टवर्ग अधिक प्रयोग किया हो और रचना में कठोरता उत्पन्न करने के लिए अक्षरों को द्वित्व भी शायद जान बूझ कर ही प्रदान किया हो। नामदेव, कबीर और दाद इत्यादि भक्तों ने भी हिन्दी साहित्य के इसी विगाग के अन्तर्गत पद्य रचना की है। कबीर और दादू की कविता का बड़ा आदर है, परन्तु इनकी कविता सरल नहीं। दादू के कोई कोई पद्य बहुत ही अच्छे हैं। यद्यपि वे प्राचीन हैं तथापि कहीं कहीं उनकी कविता में प्राचीनता के विशेष चिह्न नहीं , गुरु नानक का आदि ग्रन्थ ( अर्थात् गुरु नानक से लेकर गुरु अर्जुन तक का संग्रह ) भी हिन्दी साहित्य ही के अन्तर्गत समझना चाहिए, क्योंकि उसकी भाषा पज्जाबी की अपेक्षा प्राचीन हिन्दी से अधिक मिलती है। गुरु नानक की मृत्यु १५३८ ईस्वी में हुई। कबीर, दादू और नामदेव, ये तीनों महात्मा गुरु नानक से पहले हुए हैं। इनके अतिरिक्त १२०० और १५७० ईस्वी के बीच मीराबाई, सारङ्ग-घर और राना कुम्भ इत्यादि कई और कवियों ने भी कविता की है, परन्तु रासौ के समान उनके ग्रन्थ प्रसिद्ध नहीं हैं और उन सबका उल्लेख इस निबन्ध में आ भी नहीं सकता। हां,१५६०में मलिक महम्मद जायसी ने पद्मावत नामक एक अच्छा काव्य बनाया। वह अब तक आदर के साथ पढ़ा जाता है। उसकी भाषा रासौ की भाषा के समान यद्यपि क्लिष्ट नहीं,तथापि हिन्दी के माध्यमिक साहित्य में गिने जाने के योग्य सरल भी नहीं।

प्राचीन हिन्दी-साहित्य में गद्य का तो नाम ही न लीजिए। पद्य में भी दो ही चार ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। भाषा के वाङमय की समग्र सामग्री को साहित्य कहते हैं, दो चार काव्यों को

नहीं। परन्तु हमारे प्राचीन साहित्य की सामग्री बहुत ही थोड़ी है।

हिन्दी साहित्य के माध्यमिक विभाग में उसकी विशेष उन्नति हुई। सूरदास, तुलसीदास, केशवदास, व्रजवासीदास,बिहारी लाल इत्यादि प्रसिद्ध कवि इसी समय हुए। यदि इनके ग्रन्थ निकाल लिये जाय तो हिन्दी भाषा के साहित्य में प्रायः शून्य ही रह जाय। इस काल में दो एक ऐसे भी कवि हुए हैं जिनकी भाषा तुलसीदास आदि की भाषा से नहीं मिलती। परन्तु इन कवियों की प्रयोग की गई भाषा ऐसी नहीं है कि वह चन्द्र की भाषा से मिलती हो । अतएव हिन्दी के प्राचीन साहित्य की भाषा के साथ उसे आसन नहीं दिया जा सकता । उसमें यद्यपि अन्तर है, तथापि उसका झुकाव माध्यमिक कवियों ही की भाषा की ओर है।

इसी समय नाभा जी ने अपना भक्तमाल बनाया। माध्यमिक काल में ब्रजभाषा ने यद्यपि कवियों पर अपना पूरा पूरा अधिकार जमा लिया था और उस भाषा में ऐसे ऐसे ग्रन्थ निकलने लगे थे जो सर्व-साधारण की समझ में आ जायं,तथापि नाभा जी में यह बात नहीं पाई जाती। उनकी कविता बहुत विलक्षण है। किसी किसी का तो यह मत है कि यदि कृष्णदास और प्रियादास भक्तमाल की टीका न बनाते तो नाभा का भावार्थ समझने में बड़ी ही कठिनता उपस्थित होती । दुर्दैववश ये टीकायें भी विशेष सरल नहीं, तथापि मूल का आशय समझने में थोड़ी बहुत सहायता देती ही हैं। नाभा

जी की भाषा माध्यमिक काल के कवियों की भाषा से, क्लिष्टता में बढ़ी चढ़ी है।

इस समय हिन्दी के अनेक उत्तमोत्तम कवि हुए। परन्तु कविता ही की ओर सबका ध्यान रहा। कवियों का ध्यान कविता के सिवा और किस ओर हो सकता है ? छन्द, अलङ्कार,नायिकाभेद आदि पर भी अनेक ग्रन्थ, इसी समय, बने । भगवभ्दत्कों ने अपने अपने इष्ट देवता के गुण-गान से गर्भित अनेक पुस्तकें लिखीं। विहारीलाल ने अपने ७०० दोहों में श्रृंगार रस की पराकाष्ठा कर दी, सूरदास ने अपने पदों में भक्ति की पराकाष्ठा कर दी और भूषण ने अपनी कविता में वीर रस की पराकाष्ठा कर दी। सूर, तुलसी, बिहारी और केशव इस माध्यमिक साहित्य की आत्मा है; अन्य सहसावधि कवियों के होते हुए भी इनके बिना साहित्य-शरीर को निर्जीव ही समझना चाहिए।

जिस समय ब्रजभाषा के रूप में हिन्दी अपना आधिपत्य जमा रही थी उसी समय उसकी एक दूसरी शाखा उससे पृथक् हो गई। इस शाखा का नाम उर्दू है । उर्दू कोई भिन्न भाषा नहीं। वह भी हिन्दी ही है। उसमें चाहे कोई जितने फ़ारसी, अरबी और तुर्की के शब्द भर दे उसकी क्रियायें हिन्दी ही की नी रहती हैं; उसकी रचना हिन्दी ही के व्याकरण का अनुसरण करती है। चाहे कोई जो कुछ कहे,वली और सौदा के काव्यों में जो भाषा है, वही तुलसीदास और बिहारी लाल के भी काव्यों में है : 'मेरा बाप' के स्थान

में बाप मेरा' अथवा 'आप के हुक्म से' के स्थान में 'ब हुकम आपके' करने से कहीं भाषा दूसरी हो सकती है ? वही 'बाप',वही मेरा', वही 'हुक्म' और वही 'आप' दोनों प्रकार के उदाहरणों में विद्यमान हैं । लिखने की प्रणाली को बदलने अथवा उस में किसी अन्य भाषा के शब्दों का प्रयोग करने से मुख्य भाषा के अस्तित्व में कदापि अन्तर नहीं आ सकता। उर्दू दूसरी भाषा तभी गिनी जा सकती है जब उसके प्रेमी उसके सारे क्रियापदों को बदल दें और साथ ही हिन्दी व्याकरण के अनुसार बने हुए कारक चिह्नों को भी बदल दें। यह अब, इस समय, होना असम्भव जान पड़ता है। यदि कोई कहे कि जिसे हम शुद्ध हिन्दी कहते हैं वह भी उर्दू ही है तो हम उसे उन्मत्त अथवा भूमिष्ट कहेंगे! फ़ारसी और अरबी के शब्दों से मिली हुई उर्दू-नामधारिणी हिन्दी अभी कल उत्पन्न हुई है । १६वीं शताब्दी के पहले उसके साहित्य का नाम तक न था। परन्तु नवीं शताब्दी ही में हिन्दी में कविता होने लगी थी और बारहवीं शताब्दी के तो ग्रन्थ विद्यमान हैं। अतएव उर्दू साहित्य के कम से कम ५०० वर्ष पहले जिस भाषा के साहित्य का पता लगे वह भाषा उर्दू से उत्पन्न हुई किस प्रकार समझी जा सकती है। उर्दू-नामधारिणी हिन्दी में फ़ारसी और अरबी के शब्दों की अधिकता होने और देवनागरी अक्षरों को छोड़ कर फ़ारसी अक्षरों में उसके लिखे जाने से जो लोग उसे एक भिन्न भाषा समझते हैं वे बहुत बड़ी भूल करते हैं। वह कदापि भिन्न भाषा नहीं। वह भी सर्वथा हिन्दी हा है। संस्कृत

शब्दों की प्रचुरता होने से जैसे हमारी विशुद्ध हिन्दी कोई भिन्न भाषा नहीं हो सकती वैसे ही फ़ारसी आदिक विदेशी शब्दों की प्रचुरता होने से उर्दू-नामधारिणी हिन्दी भी कोई भिन्न भाषा नहीं हो सकती । अथवा रोमन किंवा बंँगला अक्षरों में लिखी जाने से जैसे विशुद्ध हिन्दी अन्य भाषा नहीं मानी जा सकती वैसे ही फ़ारसी अक्षरों में लिखी जाने से उर्दू भी कोई अन्य भाषा नहीं मानी जा सकती। इससे अधिक स्पष्ट और कौन दृष्टान्त हो सकता है ?

जब से मुसलमानों ने इस देश में पदार्पण किया, तभी से फ़ारसी शब्द हिन्दी बोलचाल में आने लगे! शब्दों के मेल का आरम्भ नवीं शताब्दी में हुआ। यही अनुमान सम्भव जान पड़ता है। क्योंकि अँगरेजों के आगमन से यदि हिन्दी में उनकी भाषा के शब्द बोले जाने लगे तो मुसलमानों के आने पर उनकी भाषा के शब्द भी अवश्य बोले जाने लगे होंगे। परन्तु १६वीं शताब्दी तक उन शब्दों का प्रयोग लिखने में नहीं हुआ। मुसलमान बादशाहों ने राज्य के दफ्तरों की भाषा फ़ारसी ही रक्खी थी , अतः जिसे अब हम उर्दू कहते हैं उसके प्रयोग की कोई आवश्यकता ही न थी। १६०० ईसवी के पहले जो मुसलमान कबि हुए हैं उन्होंने हिन्दी ही में कविता की है ; फ़ारसी के छन्दःशास्त्र के अनुकूल प्राय: एक भी छन्द उन्होंने नहीं लिखा । जव से टोडरमल ने लगान-सम्बन्धी नये नियम प्रचलित किये और हिन्दू-अधिकारियों को फ़ारसी पढ़ने के लिए विवश किया, तभी से फ़ारसी शब्द
हमारी लिखित भाषा और हमारी बोली में अधिकता से प्रयुक्त होने लगे। मुसलमानों के सम्पर्क से यद्यपि फ़ारसी शब्द बोलचाल में पहले से भी आने लगे थे तथापि उनका प्राचुर्य टोडरमल के समय ही से हुआ। अतएव यह कहना चाहिए कि, विशेष करके फ़ारसी शब्दों के प्रयोक्ता हिन्दू ही हैं। अब भी हम देखते हैं कि जब अंगरेजी पढ़े लिखे इस देश के लोग अपनी भाषा बोलते हैं तब वही अँगरेज़ी शब्दों का अधिक प्रयोग करते हैं। हिन्दी बोलते समय अंग्रेज लोग बहुत ही कम अँगरेज़ी शब्द काम में लाते हैं। यदि उनको कोई हिन्दी शब्द स्मरण नहीं आता तभी वे, विवश होकर, हिन्दी बोलते समय, अपनी भाषा का शब्द कह कर अपने मन का भाव प्रकट करते हैं । विद्वानों का मत है कि पहले पहल मुसलमान फ़ारसी मिली हुई हिन्दी बहुत कम बोलते थे। परन्तु जब से हिन्दुओं ने फ़ारसी पढ़ना आरम्भ किया और बोलचाल में वे फ़ारसी शब्द प्रयोग करने लगे तब से मुसलमान भी हिन्दुओं की उस ओर प्रवृत्ति देख उसी प्रकार की भाषा अधिक प्रयोग में लाने लगे। इससे यह फल निकला कि फ़ारसी मिली हुई हिन्दी (अर्थात उर्दू) की उत्पत्ति में पहले पहल हिन्दुओं की भी सहायता रही है।

'उर्दू' शब्द तुर्की भाषा का है। उसका अर्थ पड़ाव,डेरा अथवा तम्बू है। जब अमीर तैमूर देहली आया, तब उसने अपने पड़ाव का बाज़ार शहर में लगवा दिया। अतएव देहली का बाज़ार 'उर्दू ' कहलाया जाने लगा। तभी से इस
शब्द की उत्पत्ति हुई। अकबर के समय में जब अनेक देशों से अनेक जातियों के लोग देहली में एकत्र होने लगे और प्रतिदिन के हेलमेल से जब उन सबको परस्पर एक दूसरेसे बातचीत करने का काम पड़ने लगा तब एक नये प्रकार की बोली प्रचार में आई और वही क्रम क्रम से उर्दू के नाम से प्रसिद्ध हो गई।

अब प्रश्न यह है कि उर्दू की कविता कब से होने लगी। यह प्रश्न नहीं है कि फारसी मिली हुई हिन्दी कब से बोली जाने लगी, क्योंकि उसका कुछ कुछ प्रारम्भ नवीं शताब्दी ही में होगया था। और न यही प्रश्न है कि फ़ारसी अक्षरों में उर्दू कब से लिखी जाने लगी, क्योंकि किसी भाषा की लिपि का उत्पन्न होना गौण विषय है ; मुख्य विषय स्वयं उस भाषा का उत्पन्न होना है। प्रश्न यह है कि फ़ारसी के छन्दःशास्त्र के अनुसार, पहले पहल, हिन्दी में कब पद्यरचना हुई; क्योंकि उसी समय उस प्रकार के साहित्य की उत्पत्ति समझनी चाहिए जिस प्रकार के साहित्य को हम उर्दू का साहित्य कहते हैं। इस प्रकार की छन्दोरचना सोलहवीं शताब्दी में हुई। अर्थात् सोलहवीं शताब्दी की हिन्दी की एक शाखा हिन्दी से अलग होकर, और फ़ारसी के शब्दों को अपना साथी बना कर, उसी भाषा के छन्दोरूपी वस्त्र धारण करके पद्य के आकार में प्रकट हुई।

उर्दू के सम्बन्ध में हमको, यहां पर, कुछ विस्तार करना पड़ा। यह विषय विचारणीय था; इसीलिए हमको यहां

पर इतना लिखना पड़ा। उर्दू का साहित्य भी, एक प्रकार से, हिन्दी ही का साहित्य है। अतएव, आगे चलकर, हमको इस साहित्य पर अभी कुछ और लिखना पड़ेगा।

पूर्वोक्त कथन से यह सूचित हुआ कि माध्यमिक काल में हिन्दी साहित्य के दो भेद हो गये---एक ब्रजभाषा का साहित्य ; दूसरा उर्दू का साहित्य। इस काल में भी, उर्दू में दो एक ग्रन्थों को छोड़ कर, गद्य का कोई ग्रन्थ शुद्ध हिन्दी में नहीं बना। समस्त साहित्य छन्दोबद्ध ही रहा। विशेषता इस काल में इतनी हुई कि चरित, आख्यायिका और मनोरञ्जक कहानियों की उत्पत्ति कहीं कहीं होने लगी।

हिन्दी के आधुनिक साहित्य का जन्म उन्नीसवीं शताब्दी में हुआ समझना चाहिए। इस काल में मुख्य बात यह हुई कि लल्लूजी और सदल मिश्र ने गद्य में ग्रन्थ लिखने की परिपाटी प्रचलित की। लल्लू लाल और सदल मिश्र ने इस रचना का आरम्भ अवश्य किया और उसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं। परन्तु विशेष धन्यवाद के पात्र फोर्टविलियम कालेज के अधिकारी डाक्टर गिलक्राइस्ट हैं। उन्हींने कई हिन्दी और उर्दू के विद्वानों को अपने आश्रय में रक्खा और उनसे अच्छे अच्छे उपयोगी ग्रन्थ गद्य में लिखवाये। अतएव हम लोग,गद्य के सम्बन्ध में, पूर्वोक्त डाक्टर साहब के विशेष कृतज्ञ हैं।

आधुनिक हिन्दी साहित्य के सम्बन्ध में जो कुछ हुआ है और जो कुछ हो रहा है वह हिन्दी के प्रेमियों से छिपा नहीं। इसलिए इस निबन्ध में हम उसका विचार नहीं करना चाहते।
समाचारपत्र, मासिक पुस्तक, उपन्यास, प्रहसन, नाटक, जीवनचरित और समालोचनाओं का जन्म इसी काल में हुआ। परन्तु, जहां तक हम जानते हैं, साहित्य का वर्णन पुस्तकाकार आज तक किसी हिन्दी के ज्ञाता ने नहीं किया। हिन्दी की दशा बड़ी ही हीन हो रही है। अनेक विषय ऐसे हैं जिनमें एक भी हिन्दी का ग्रन्थ नहीं। अतएव, इस दशा में साहित्य के इतिहास बनने की आशा रखना व्यर्थ है। हमलोगों के आलस्य और निरुत्साह की सीमा नहीं। अपनी मातृभाषा से हमलोगों को कुछ भी रुचि नहीं। यह बड़े शोक और लजा की बात है। हमको पाश्चात्य पण्डितों की विद्याभिरुचि और उनके उद्योग को देख कर भी लज्जा नहीं आती। हम यात्रा-सम्बन्धी अथवा इतिहास-सम्बन्धी एक छोटी सी भी अच्छी पुस्तक नहीं लिख सकते ; परन्तु फ्रांस के विद्वान् दस हजार मील दूर बैठकर हमारी हिन्दी-भाषा का इतिहास लिखते हैं। यम० गार्सन० ड्रिटासी फ्रांस के निवासी थे । उन्होंने हिन्दी-भाषा का इतिहास लिखा है। यही नहीं, किन्तु १८५० से१८७७ ईस्वी तक इस भाषा में जो कुछ परिवर्तन हुआ और जो जो समाचारपत्र अथवा पुस्तकें नाम लेने योग्य निकलीं उनकी भी आलोचना उन्होंने की है। हार्नले, बीम और नियर्सन साहबों ने भी हिन्दी के सम्बन्ध में कुछ कम नहीं लिखा। परन्तु हमलोग मुंँह फैलाये बैठे हैं। कहीं दो चार उपन्यास लिख कर पेट पालने का हमने यत्न किया; कहीं एक आध मोहिनी अथवा रोहिणी नामक मासिक पत्रिका लिख कर

अपनी विद्वत्ता प्रकट की ;कहीं कभी वर्ष छः महीने के लिए एक समाचारपत्र निकाल कर सम्पादक बन बैठे ! बस यही किया !! और कुछ नहीं !!!

आधुनिक काल में जो कुछ उन्नति हिन्दी की हुई उसके विशेष कारण पण्डित वंशीधर बाजपेयी, बाबू हरिश्चन्द्र, राजा शिवप्रसाद और पण्डित प्रतापनारायण इत्यादि प्रसिद्ध प्रसिद्ध लेखक हैं । जीवन चरित, नाटक, समालोचना, मासिक पुस्तक और समाचारपत्र इत्यादि लिखना और निकालना पण्डित बंशीधर और बाबू हरिश्चन्द्र ही ने हम सबको सिखलाया। जो कुछ इस समय हिन्दी में देख पड़ता है उसका सूत्रपात प्राय: उन्हीं ने किया। नागरी-प्रचारिणी सभा भी, अब, इस समय, हिन्दी की बहुत कुछ उन्नति कर रही है। उसीके उद्योग से हिन्दी को गवर्नमेंट ने कचहरियों में स्थान दिया है।

इस समय देखने में आता है कि जो लोग किसी प्रकार समाचारपत्र अथवा पुस्तक लिखने के योग्य नहीं वे भी हाथ की चपलता दिखाये बिना नहीं रहते। यह बहुत बुरी बात है। मनुष्य को अपनी योग्यता अथवा अयोग्यता का विचार करके कोई काम करना चाहिए। इस प्रकार के लेखक अपना तो उपहास कराते ही हैं ; अपने साथ हिन्दी भाषा को भी कलङ्कित करते हैं। अतएव ऐसे लोगों को लेखनी कदापि न उठानी चाहिए। इस समय जो बुरे बुरे उपन्यास बनते जाते हैं उनका बनना बन्द होना चाहिए। जिस भाषा की उन्नति हुई है उसमें पहले उपन्यासों ही की अधिकता हुई है।
औपन्यासिक साहित्य सामान्य मनुष्यों को अधिक मनोरजक होता है। इसीलिए उसकी चाह अधिक रहती है। हमारा यह कदापि मत नहीं कि उपन्यास की शाखा साहित्य से निकाल दी जाय। हम यह कहते हैं कि बेसिर पैर की बातों से भरे हुए जैसे उपन्यास आजकल निकल रहे हैं उनका निकलना बन्द होना चाहिए।

नाटिका-भेद और रस तथा अलङ्कार के विवेचन से पूरित पुस्तकों की भी इस समय आवश्यकता नहीं। हम यह समझते हैं कि 'जसवन्त जसो भूषण' जैसे ग्रन्थों से भाषा को कुछ भी लाभ नहीं पहुंँचा। यदि इन ग्रन्थों के बनाने (अथवा बनवाने)और छपाने में जो धनव्यय किया गया वह जीवन चरित, इतिहास अथवा किसी वैज्ञानिक ग्रन्थ के लिए व्यय किया जाता तो भाषा का भा उपकार होता और धन का भी सद्व्यय होता। जैसे अंगरेज़ों ने ग्रीक और लैटिन भाषा की सहायता से अँगरेज़ी की उन्नति की और उन भाषाओं के उत्तमोत्तम ग्रन्थों का अनुवाद करके अपने साहित्य की शोभा बढ़ाई, वैसे ही हमको भी करना चाहिए। इस समय अंगरेज़ी का साहित्य अत्यन्त उन्नत दशा को प्राप्त है। अतएव हमको चाहिए कि उस भाषा के अच्छे अच्छे ग्रन्थों का अनुवाद करके हिन्दी के साहित्य की दशा को सुधारें। इस समय विज्ञान, इतिहास, यात्रा वर्णन,जीवन चरित और समालोचनाओं की हिन्दी में बड़ी भारी न्यूनता है। इस न्यूनता को पूरा करना हिन्दी बोलनेवालों का परम धर्म है।
कुछ दिनों से हिन्दी के लेखकों का ध्यान पद्य की भाषा की ओर गया है। अब तक हिन्दी का पद्य ब्रजभाषा ही में था। अब बोलचाल की भाषा में भी कविता होने लगी है। इस विषय की ओर पहले पहले बाबू अयोध्या प्रसाद का ध्यान गया। बोलचाल की भाषा में कविता अवश्य होनी चाहिए। कोई कारण नहीं कि हम लोग बोलें एक भाषा और कविता करें दूसरी भाषा में। बातचीत के समय जो जिस भाषा में अपने विचार प्रकट करता है वह यदि उसी भाषा में कविता भी करे तो और भी उत्तम हो । ब्रजभाषा बहुत काल से कविता में प्रयुक्त होती आई है। अतएव एकबारगी उसका परित्याग नहीं किया जा सकता । क्रम क्रम से बोलचाल की भाषा में पद्य का प्रचार होना उचित है। यदि नये प्रकार की कविता से लोगों का भलीभांति मनोरञ्जन हुआ तो काव्य में ब्रजभाषा का प्रचार किसी दिन आप ही उठ जायगा और सम्भव है कि शीघ्र ही किसी दिन ऐसा हो; क्योंकि एक अथवा दो जिले की भाषा पर देशभर के निवासियों का प्रेम बहुत दिन तक नहीं रह सकता।

इस निबन्ध को समाप्त करने के पहले हिन्दी की शाखा उर्दू के साहित्य के विषय में भी हम कुछ कहना आवश्यक समझते हैं।

उर्दू की उत्पत्ति यद्यपि देहली में हुई तथापि उसके साहित्य के जन्मदाता अच्छे अच्छे कवि पहले पहल दक्षिण के गोलकुण्डा और बीजापुर में हुए। अमीर खुसरू के अनन्तर शुजाउद्दीन नूरी ने उर्दू में कविता की। नूरी फैज़ी के मित्र थे। नूरी

गोलकुण्डा के नवाब सुलतान अबुलहसन कुतुबशाह के मन्त्री के पुत्र के शिक्षक थे। नूरी ने अनेक ग़ज़ले कही हैं। १५८१ और १६११ ईस्वी के लगभग गोलकुण्डा के नव्वाब कुली कुतुबशाह और अबदुल्ला कुतुबशाह ने भी उर्दू में कविता की और अनेक गज़लें, रुबाई, मसनवी और कसीदा बनाये। तहसीनुद्दीन ने 'कामरूप और कला' नाम की मसनवी और इबननिशाती ने 'फूलबन' नाम की कहानी इसी समय के लगभग लिखी।

इब्राहीम आदिलशाह ने, बीजापुर में, १५७९ से १६२६ ईस्वी तक राज्य किया। उसने 'नवरस' नामक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक का नाम यद्यपि शुद्ध हिन्दी है तथापि यह लिखी उर्दू ही में गयी। इब्राहीम आदिलशाह के अनन्तर अली आदिलशाह के समय में नसरती नामक कवि ने 'गुलशने इश्क' और 'अलीनामा' नाम के दो ग्रन्थ लिखे। यह कवि हिन्दू था। अलीनामा में उसने अली आदिलशाह का चरित खिला है।

दक्षिण में सबसे प्रसिद्ध उर्दू के दो कवि औरङ्गाबाद में हुए; उनके नाम वली और शीराज हैं । वली का काल १६८० और १७२० के बीच में है। वली को तो लोग "रेखता का पिता" ( बाबाय रेखता ) कहते हैं। यह बात सभी मानते हैं कि उत्तरी हिन्दुस्तान में उर्दू कविता की जो उन्नति १८वीं शताब्दी में हुई, उसका मूल कारण वली ही थे। उन्हींकी कविता को आदर्श मानकर और और कवियों ने कविता की।
औरंगजेब के राज्य-काल के अन्तिम भाग में वली देहली गये और वहां शाह गुलशन नामक विद्वान् की सलाह से उन्होंने फारसी के कवियों की उक्तियों को उर्दू में लिखना आरम्भ किया।

देहली के उर्दू-कवियों में ज़हीरुद्दीन हातिम पहले कवि थे। वे १६९९ में उत्पन्न हुए और १७९२ में मरे। हातिम के अनन्तर नाज़ी, मज़मून और आबरू ने उर्दू में कविता की। हातिम के दो दीवान प्रसिद्ध हैं। वह बहुत अच्छे कवि थे। रफीउस्सौदा, हातिम के शिष्य थे। उर्दू में सौदा का बड़ा नाम है। उनकी कविता सभी को प्रिय है। मीर तक़ी, खान आरज़ू, इनामुल्ला खां और मीरदर्द भी देहली में उर्दू के प्रसिद्ध कवि हुए हैं। नादिरशाह ने जब देहली को लूट लिया तब आरज़ू लखनऊ चले आये । वहीं उनकी मृत्यु हुई। उर्दू के कवियों में सौदा और मीर तक़ी सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। १८वीं शताब्दी के प्रारम्भ में सौदा का जन्म देहली में हुआ। उन्होंने हातिम से शिक्षा पायी। देहली के बिगड़ने पर सादा लखनऊ चले गये। वहां नवाब शुजाउद्दौला ने ६०००) रुपये साल की जागीर उन्हें दी। वे लखनऊ ही में मरे । उनकी मृत्यु १७८० ईस्वी में हुई। उन्होंने कई काव्य लिखे। उर्दू काव्य के जितने प्रकार हैं प्रायः सबमें उन्होंने कविता की है। सौदा की व्याज-स्तुति ( मज़म्मत ) सबसे अधिक प्रसिद्ध है। मीरतक़ी का जन्म आगरे में हुआ। परन्तु लड़कपन ही में वे देहली चले गये और वहां आरज़ू से कविता सीखी। सौदा की

मृत्यु के समय मीरतकी देहली ही में थे। १७८२ ईस्वी में वे लखनऊ गये ; वहां उनको भी एक अच्छी जागीर मिली। मीरतकी की मृत्यु १८१० ईस्वी में हुई। मीरतकी ने अनेक पुस्तकें लिखी हैं। उनमें से ६ दीवान हैं। गज़ल और मसनवी में मीरतक़ी सौदा से भी बढ़ गये हैं ; परन्तु कसीदा और मज़म्मत में सोदा ही का नम्बर पहला है।

सौदा और मीरतकी के समान मीर हसन (१७८६), मीर महम्मद सोज़ (१८०० ) और क़लन्दर-बख्श जुरात (१८१०) भी देहली से लखनऊ चले आये थे। ये भी अच्छे कवियों में गिने जाते हैं। मोर-हसन-कृत सिहरुल बयान और गुलज़ारे-इरम नामक दो पुस्तकें बहुत प्रसिद्ध हैं। जुरात ने दोहे और कवित्त भी लिखे हैं। मिस्कीन नामक कवि के मरसियों की बड़ी प्रशंसा है। नासिख़ की मृत्यु १८४१ और आतिश की १८४७ में हुई। इन दोनों कवियों ने गज़ल लिखने में अच्छा नाम पाया। फ़िसाने अजायब के कर्ता रजबअली बेग और अनीस लखनऊ की नवाबी के समय के अन्तिम कवि हुए हैं। वाजिदअलोशाह स्वयं कविता करते थे; कविता में वे अपना नाम अख्तर देते थे।

देहली के अन्तिम बादशाहों ने भी कविता की है। शाहआलम (१७६१-८०६) ने मनजूमे-अक़दस नाम का एक उपन्यास लिखा है। एक दीवान भी उन्होंने बनाया है। शाहआलम के लड़के सुलेमा शिकोह ने भी एक दीवान की रचना की है। बहादुरशाह (१८६२ ) ने भी कविता की है;
उन्होंने शेख इबराहीम ज़ौक़ से कविता सीखी थी। देहलो के अन्तिम कवियों में मुशफ्फ़ी का बड़ा नाम है। वे लखनऊ के रहनेवाले थे ; परन्तु १७७७ ईस्वी में वे देहली चले गये थे। वहां एक कवि-समाज स्थापित करके उन्होंने कविता की बहुत कुछ उन्नति की। मुशफफ़ी ने पाँच दीवान, एक उर्दू कवियों का तज़किरा ( जावनचरित ) और एक शाहनामा ( शाहआलम तक हुए बादशाहो का चरित ) बनाया। कयामुद्दीन और असदुल्ला खां ने भी कई पुस्तकें लिखी हैं।

आगरे के मीर वली-महम्मद (नजीर) भी अच्छे कवियों में गिने जाते हैं। नज़ीर के जोगीनामा, कौड़ीनामा, चूहानामा, बनजारेनामा कौन नहीं जानता ?

फ़ोर्ट विलियम कालेज़ कलकत्ता, के डाक्टर गिलक्राइस्ट ने जैसे लल्लू जी लाल और सदल मिश्र इत्यादि को शुद्ध हिन्दी में पुस्तके लिखने के लिए आश्रय दिया था, वैसे ही कई विद्वानों को उर्दू में पुस्तकें लिखने के लिए भी उन्होंने रखा था। उर्दू लिखनेवालों में से सैय्यद महम्मद हैदर बख्श ( हैदरी), मीर बहादुर अली ( हुसेनी), मीर अमनलुत्फ, हफ़ीजुद्दीन अहमद, शेरअली, काज़िम अली, मज़हर अली और निहालचन्द मुख्य थे। इन लोगों ने उर्दू में अनेक पुस्तकें लिखी हैं; जिनमें गुलज़ारे-दानिश, तारीख नादिरी, अखलाके-हिन्दी, बागो-बहार, चहारदरवेश, इख़वानुस्सफ़ा और शकुन्तला-नाटक प्रधान हैं।

जिस प्रकार शुद्ध हिन्दी के कवि संस्कृत के छन्दों का प्रयोग
अपनी कविता में करते हैं उसी प्रकार उर्दू के कवि फ़ारसी के छन्दों का प्रयोग करते हैं; उर्दू की कविता में नूतनता बहुत ही कम है। वही वही बातें बार बार कही जाती हैं। प्रत्येक कवि वहुधा एक ही विषय का पिष्टपेषण करता है और पुरानी उक्तियों को नये ढंग पर कहने का यत्न करके प्रायः विफलमनोरथ होता है। बड़ी बड़ी मसनवियों में भी कथाप्रसङ्ग का विचार कम, परन्तु कहने की प्रणाली और अलङ्कारों की योजना का विचार अधिक रहता है। संस्कृत के समान फारसी भाषा का साहित्य विस्तृत नहीं। अतएव फ़ारसी कवियों की प्रणाली और उनकी विचार-परम्परा, जिसका अनुसरण उर्दू कवि करते हैं, कहां तक नूतनता रख सकती है ?

गत मनुष्यगणना से यह सिद्ध है कि देवनागरी अक्षरों के जाननेवाले इन प्रान्तों में फ़ारसी अक्षरों के जाननेवालों से कई गुने अधिक हैं। उर्दू चाहे जितनी सरल हो, उसमें कुछ न कुछ फ़ारसी-शब्दों का मेल होता ही है। इन प्रान्तों के ग्रामीण और साधारण मनुष्य संस्कृत के कम कठिन शब्द चाहे समझ भी लें, परन्तु फ़ारसी के वे नहीं समझ सकते। क्योंकि फ़ारसी विदेशी भाषा है। संस्कृत, फिर भी, इसी देश की भाषा है। फ़िर उर्दू लिखने में जिन अक्षरों का प्रयोग किया जाता है वे अपूर्ण और भ्रम उत्पन्न करने वाले हैं। उनकी लिखावट ठीक ठीक पढ़ी नहीं जाती। इन कारणों से उर्दू की अपेक्षा शुद्ध हिन्दी ही का प्रचार होना प्रजा के लिए लाभकारी है। पिछली मनुष्यगणना की रिपोर्ट के लेखक कहते हैं कि नागरीप्रचारिणी सभा संस्कृत-शब्दों को अधिक काम में लाना ही भाषा को शुद्ध करना समझती है। यह उनकी भूल है। जहां तक हम जानते हैं, सभा कदापि यह नहीं करना चाहती ; और न कभी उसने ऐसा करने का यत्न ही किया। सभा ने उलटा,व्यर्थ संस्कृत शब्द लिखने के प्रतिकूल, अपना अभिप्राय प्रकट किया है। साहब के लिखने से जान पड़ता है कि आप 'हुक्म' और 'क़ायदा' इत्यादि शब्दों के समान फ़ारसी के शब्दों से भरी हुई भाषा ही के पक्षपाती हैं। आपने अपनी रिपोर्ट में हिन्दी का एक वाक्य लिखा है। वह वाक्य यह है-

"परन्तु उसमें एक कठिनाई पड़ती थी। मनुष्यमात्र की गणना की अपेक्षा थोड़ी ही गउओं को यह रोग था ; इस कारण इस चेप का बहुधा अभाव बना रहता था।"

यह बहुत ही बुरा वाक्य, उदाहरण के लिए चुना गया है। बुरी हिन्दी का यह एक अच्छा नमूना है। ऐसा न करना चाहिए था। साहब कहते हैं कि इस वाक्य के जो जो शब्द मोटे अक्षरों में दिये गये हैं ; उनमें से केवल दो शब्द उनके दफ्तर के हिन्दू-कर्मचारियों की समझ में आये। ये कर्मचारी,साहब के कहने के अनुसार, हिन्दी जानते थे। परन्तु हमारा अनुमान है कि वे बिलकुल हिन्दी नहीं जानते थे, नागरी अक्षर पढ़ चाहे भले ही सकते हों। वे अवश्य उर्दू के भक्त होंगे। इस वाक्य में 'अभाव' और 'मनुष्यमात्र ' ये दो शब्द कुछ कठिन हैं, परन्तु जिसने थोड़ी भी हिन्दी पढ़ी है और तुलसी
दासकृत रामायण भी पढ़ता और समझता है, उसे इस वाक्य का अर्थ समझने में कुछ भी कठिनता न पड़ेगी। साहब के कर्मचारियों के अनुसार 'परन्तु ' और ' कठिनाई ' भी कठिन शब्द हैं। उनके स्थान में यदि 'मगर' और 'मुश्किल' का प्रयोग होता, तो शायद वे झट उन्हें समझ जाते। इसी से अनुमान होता है कि वे करर्मचारी हिन्दी के नहीं किन्तु उर्दू के जाननेवाले हैं।

साहब उच्च हिन्दी के प्रतिकूल हैं। हमारा भी यही मत है और नागरी-प्रचारिणी सभा का भी। हां, परन्तु साथ ही उसके हिन्दी में फ़ारसी शब्दों के प्रयोग किये जाने की हम कोई आवश्यकता नहीं देखते। राजा शिवप्रसाद की हिन्दी शायद साहब को पसन्द हो; परन्तु उसमें फ़ारसी शब्दों का मेल है। फ़ारसी शब्दों के मेल के बिना भी सरल हिन्दी लिखी जा सकती है और ऐसी हिन्दी में यदि कहीं कहीं संस्कृत के 'कठिन','सकल','कष्ट', इत्यादि सीधे सादे शब्द आजायं तो हम कोई हानि नहीं समझते। बँगला और मराठी-भाषा में हज़ारों शब्द संस्कृत के होने पर भी जब बङ्गाली और मराठे उन्हें समझते हैं तब वैसे शब्द हिन्दी में होने से इस प्रान्तवाले उन्हें क्यों न समझ सकेंगे ? इसका कोई कारण नहीं देख पड़ता। पढ़े लिखे मुसलमानों को छोड़कर सारी प्रजा उर्दू की अपेक्षा शुद्ध हिन्दी को अधिक चाहती है। इसलिए हिन्दी को उर्दू का अनुकरण न करके स्वयं अपनी ही लिखावट को अधिक सरल करना चाहिए। पूर्वोक्त रिपोर्ट के लिखनेवाले सुपरिंटेंडेन्ट साहब आधुनिक हिन्दी को बोलचाल की भाषा नहीं बतलाते। वे उसे उच्च हिन्दी कहते हैं। उनका मत है कि जैसी हिन्दी लिखी जाती है वैसी बोली नहीं जाती। साहब स्वयं हिन्दी नहीं जानते इसमें कोई संशय नहीं। यदि वे जानते तो पूर्वोक्त वाक्य अपने कर्मचारियों से न पढ़ाते। इस दशा में, उनको हिन्दी के विषय में ठीक ठीक ज्ञान कदापि नहीं हो सकता। यह सत्य है कि कोई कोई लेखक अपने लेखों में संस्कृत-शब्द बहुत प्रयोग करके भाषा को क्लिष्ट कर देते हैं, परन्तु सरल लिखनेवाले भी हैं। फिर एक बात यह भी है कि बोलचाल की भाषा से लिखित भाषा में कुछ अन्तर अवश्य होता है। क्या सुपरिंटेंडेंट साहब कह सकेंगे कि जिस भाषा में उन्होंने अपनी रिपोर्ट लिखी है उसी प्रकार की भाषा में वे अपनी मेम साहबा अथवा अपने लड़के-लड़कियों से बातचीत करते हैं ? अथवा मेकाले,बेकन, लिटन, स्काट, ऐडिसन, बक इत्यादि सबकाल, सब कहीं, वैसी ही भाषा बोलते थे जैसी भाषा उन्होंने अपने ग्रन्थों में लिखी है ? हमारा मत तो इसके प्रतिकूल है। लिखते समय लेख को अधिक मनोरज्जक करने के लिए लेखक अच्छे अच्छे शब्द रखता है; परन्तु बोलने के समय इस बात का उतना विचार नहीं किया जाता। फिर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो उच्च भाषा ही में बातचीत करते हैं और उच्च भाषा ही में अपने मन में विचार-संग्रह करके उनको वैसे ही लिखते हैं। अतएव ऐसे विद्वानों के ऊपर जानबूझ कर उच्च और अस्वाभाविक
भाषा लिखने का दोष नहीं लगाया जा सकता। तथापि, जहां तक हो सके, विषय पर ध्यान रख कर, यथासम्भव, सरल ही भाषा लिखना उचित है।

इन प्रान्तों में शुद्ध हिन्दी जाननेवाले अधिक हैं। जब से गवर्नमेंट ने नागरी अक्षरों का प्रचार कचहरियों में किया तब से सर्वसाधारण का ध्यान इस ओर अधिक खिंँचा है। आशा है बहुत ही शीघ्र इसका अच्छा फल देखने में आवे। परन्तु इस भाषा में अच्छे अच्छे ग्रन्थों का अभाव है। बँगला, मराठी, गुजराती और तैलंगी आदि भाषाओं में, हम देखते हैं, एम० ए० और बी० ए० पास लोग लिखते हैं और ऐसा करना अपना गौरव समझते हैं; परन्तु इन प्रान्तों के विद्वान् कान में तेल डाले हुए बैठे हैं। यनसाइक्लो-पीडिया ब्रिटानिका नामक अँगरेज़ी की पुस्तक को खोलने से देख पड़ता है कि जो लोग यहां लफ़टिनेंट गवर्नर, गवर्नर और गवर्नर-जनरल तक रह चुके हैं उन्होंने भी उस पुस्तक में लेख दिये हैं। अपनी भाषा में लेख अथवा पुस्तकें लिखने से किसीकी प्रतिष्ठा कम नहीं हो जाती ; उलटा बढ़ती है। परन्तु हमारे प्रान्तवासी, अपनी लेखनी को घूंघुट की ओट में छिपाये हुए हैं ; उसे बाहर निकलने ही नहीं देते। यह लज्जा का विषय है; अथवा अपनी भाषा के दुर्भाग्य का विषय है। जिन विद्वानों को लिखने का सामर्थ्य भी है वे भी लेखनी नहीं उठाते। पण्डित मदनमोहन मालवीय ने कुछ काल तक हिन्दी की सम्पादकता भी की है और हिन्दी-सम्बन्धी पुस्तकें भी अंगरेज़ी में लिखी

हैं। आप अनेक देशहितकारी कामों में भी सदा लगे रहते हैं। दूसरोंको लिखने पढ़ने के विषय में उपदेश भी देते हैं। हिन्दी-प्रचार के लिए आपने जो उद्योग किया है वह किसी से छिपा भी नहीं है। तथापि, खेद के साथ कहना पड़ता है कि स्वयं एक पंक्ति तक अब आप, हिन्दी में, नहीं लिखते। हम जानते हैं, आपको सैकड़ों काम रहते हैं, परन्तु यदि वर्ष में आप एक भी लेख लिखें तो औरों के लिए वे उदाहरण हो जायं ; उनको देख कर दूसरे विद्वानों को भी लिखने का उत्साह हो। यदि वे स्वयं नहीं लिख सकते तो अपने परिचित, अपने मित्र, अथवा अपने पड़ोसी विद्वानों ही को उत्तेजित करके उनसे कभी कभी लिखवावें ; क्योंकि हिन्दी के ज्ञाता समर्थ हो कर भी यदि उसमें कुछ लिखने का यत्न न करेंगे तो उसकी उन्नति की आशा करना व्यर्थ है। मालवीयजी के लिए जो कुछ हमने लिखा वह कटाक्ष नहीं ; वह उलाहना है ; उलाहना भी नहीं, किन्तु प्रेमपूर्वक विनय है। उन्हींसे नहीं ; किन्तु हिन्दी लिखने की जिनमें शक्ति है ऐसे अंगरेजी में प्रवीण सभी विद्वानों से हमारी यह प्रार्थना है कि जब तक वे अपनी लेखनी का घूंघुट न खोलेंगे, जब तक वे अँगरेज़ी के अच्छे अच्छे ग्रन्थों का अनुवाद न करेंगे ; जब तक वे उत्तमोत्तम लेख न लिखेंगे, तब तक हमारी मातृ-भाषा हिन्दी का दरिद्र दूर न होगा।

[फरवरी-मार्च १९०३