साफ़ माथे का समाज/सन् 2000 में तीन शून्य भी हो सकते हैं!

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सन् 2000 में तीन शून्य भी हो सकते हैं!


अच्छे काम कहीं से भी, किसी भी दिन से शुरू किए जा सकते हैं। यदि मुहूर्त ही देखना है, वह भी सन् 2000 का तो पहली जनवरी से ही सही, अपने बिगड़ते पर्यावरण को सुधारने और उसे संवारने का काम शुरू किया जा सकता है। बीसवीं सदी में नहीं कर पाए तो चलिए इक्कीसी सदी में ही करें, पर करना तो पड़ेगा ही।

सन् 2000 में पूरे देश का, आपके हमारे शहर का, क़स्बे का, गांव का पर्यावरण कैसा होगा? शायद वैसा ही होगा जैसा वह 1999 में रहा है। 19-20 का अंतर पड़ सकता है 21वीं सदी में। उत्तर में जिन्हें निराशा का स्वर दिखता है, उनसे विनम्र अनुरोध है कि वे इस गंभीर विषय में कैलेंडर के जादू से दूजा कुछ नहीं देख पा रहे हैं।

31 दिसंबर 1999 की रात को लोग उसी तरह रजाई में दुबक कर सोए और उसी तरह अगले दिन सुबह उठे-जिस तरह वे इससे पहले सोते और जागते रहे हैं। तारीख़ ज़रूर बदली, 99 के बदले तीन शून्य। इससे ही पर्यावरण में कुछ बदलाव, सुधार आ जाएगा-इसकी गुंजाइश कम ही दिखती है। बिगड़ते पर्यावरण के मामले में बाकी सभी मामलों की तरह एक रात बीतने से अगले दिन, अगले दौर में कुछ अभूतपूर्व हो जाएगा [ १३७ ] क्या? भास्कर अपनी दैनिक गतिविधि उसी तरह चलाएगा। मात्र कैलेंडर के पन्ने पलट कर हम अपना घटिया पर्यावरण नहीं बदल सकते।

"हमने कुछ किया है बदलने लायक़" इससे ज़्यादा ज़ोर इस बात पर है कि “कैलेंडर कुछ कर देगा बदलने लायक"। इस आशा में हम कुछ समय ज़रूर बिता देंगे। और फिर समय बीतते क्या देर लगती है। जनवरी, फ़रवरी गई नहीं कि मार्च में देश के लगभग हर भाग में पानी का संकट ठीक 1999 की तरह पलट कर वापस आ जाएगा जो फिर सन् 2000 के मानसून से पहले मिटेगा नहीं।

तो क्या करें हम? अच्छा तो यही होगा कि तारीख़ या दिन गिनने के बदले हम अपने अच्छे कामों को गिनें। अच्छे काम कहीं से भी, किसी भी दिन से शुरू किए जा सकते हैं। यदि मुहूर्त ही देखना है, वह भी सन् 2000 का तो पहली जनवरी से ही सही, अपने बिगड़ते पर्यावरण को सुधारने और उसे संवारने का काम शुरू किया जा सकता है। बीसवीं सदी में नहीं कर पाए तो चलिए इक्कीसवीं सदी में ही करें, पर करना तो पड़ेगा ही।

अलवर (राजस्थान) के भांवता गांव ने सन् 2000 से कोई 13 वर्ष पहले अपने आसपास की पहाड़ियों पर, खेतों में गिरने वाली एक-एक बूंद को रोकने का काम शुरू किया था। अकाल का क्षेत्र था। कुओं में पानी 90 हाथ की गहराई पर। भांवता ने तरुण भारत संघ के साथ मिलकर अपने हिस्से का पानी रोकने के लिए पसीना बहाया। आज पूरा गांव छोटे तालाबों, बांधों से घिरा है। यहीं से एक नदी बहती है जो अब वर्ष भर सूखती नहीं। इन 13 वर्षों में भांवता गांव ने अतिवृष्टि से उत्पन्न एक बड़ी बाढ़ को भी झेला है और एक अकाल को भी-अकाल और बाढ़ के मामलों में सरकार करोड़ों रुपया फूंकती है पर भांवता जैसे कई गांवों ने सरकार को राहत दी है-एक पैसा भी ख़र्च नहीं करना पड़ा वहां। [ १३८ ]आज इस छेटे से गांव में देश की जल संसाधन मंत्री बिना बुलाए वहां का काम देखने आई हैं। राष्ट्रपति भवन में भी भांवता के काम की गूंज है। भांवता का काम करने वाले दसर्वी फेल श्री गोपाल सिंह राष्ट्रपति भवन में जल संकट दूर करने के लिए बुलाए गए हैं।

इसलिए कुछ समर्पण, कुछ अकल, कुछ पसीना चाहिए देश का पर्यावरण सुधारने के लिए। कैलेंडर के पन्ने भी जुड़ जाएं तो कोई हर्ज नहीं पर केवल कैलेंडर ताकते रहने से कुछ होगा नहीं। समय बीतते देरी नहीं लगती। सन् 2000 भी देखते-देखते आएगा-जाएगा। कुछ करेंगे नहीं तो पर्यावरण की हालत जैसी की तैसी ही नहीं, और भी ख़राब हो जाएगी। तब हमें सन् 2000 में तीन शून्य भी दिख सकेंगे। अच्छा हो हम इन शून्यों को भरने का काम करें। [ १३९ ]

साफ़ माथे का समाज


तालाब में पानी आता है, पानी जाता है। इस आवक-जावक का पूरे तालाब पर असर पड़ता है। वर्षा की तेज़ बूंदों से आगौर की मिट्टी धुलती है तो आगर में मिट्टी घुलती है। पाल की मिट्टी कटती है तो आगर में मिट्टी भरती है।

तालाब के स्वरूप के बिगड़ने का यह खेल नियमित चलता रहता है। इसलिए तालाब बनाने वाले लोग, तालाब बनाने वाला समाज तालाब के स्वरूप को बिगड़ने से बचाने का खेल भी उतने ही नियमपूर्वक खेलता रहा है। जो तालाब देखते-ही-देखते पिछले पचास-सौ बरस में नष्ट कर दिए गए हैं, उन तालाबों ने नियम से खेले गए खेलों के कारण ही कुछ सैकड़ों बरसों तक समाज का खेल ठीक से चलाया था।

पहली बार पानी भरा नहीं कि तालाब की रखवाली का, रख-रखाव का काम शुरू हो जाता था। यह आसान नहीं था। पर समाज को देश के इस कोने से उस कोने तक हज़ारों तालाबों को ठीक-ठाक बनाए रखना था, इसलिए उसने इस कठिन काम को हर जगह इतना व्यवथित बना लिया था कि यह सब बिल्कुल सहज ढंग से होता रहता था।

आगौर में क़दम रखा नहीं कि रख-रखाव का पहला काम देखने को