साफ़ माथे का समाज/नर्मदा घाटी: सचमुच कुछ घटिया विचार
नर्मदा घाटी: सचमुच कुछ घटिया विचार
हत्या से कुछ दिन पहले नर्मदा सागर बांध का शिलान्यास करते हुए श्रीमती इंदिरा गांधी ने कहा था कि वे इन बड़े बांधों के पक्ष में नहीं हैं पर विशेषज्ञ उन्हें बताते हैं कि इनके बिना काम चलेगा नहीं। लेकिन अब कुछ विशेषज्ञ ही नेताओं, अखबारों और लोगों को बताने लगे हैं कि इन बड़े बांधों के बिना काम ज़्यादा अच्छा चलेगा। मध्यप्रदेश शासन में सिंचाई सचिव रह चुके एक प्रशासक ने पिछले दिनों प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखकर नर्मदा घाटी में बन रहे बड़े बांधों-सरदार सरोवर (गुजरात) और नर्मदा सागर (मध्यप्रदेश) की ओछी योजनाओं का ब्योरा दिया है और बताया है कि इन बांधों से होने वाले लाभ का जो दावा किया है वह पूरा होगा नहीं, इनके कारण उजड़ने वाले लोगों से जो वादा किया है वह निभाया नहीं जा सकेगा और कुल मिलाकर नुकसान इतना ज़्यादा होगा कि 21वीं सदी के विकास के लिए तैयार की जा रही नर्मदा घाटी कहीं बीस हज़ार साल पीछे न ठेल दी जाए।
गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और एक हद तक राजस्थान के विकास के लिए बन रहे ये भीमकाय बांध एक किस्म से अश्वमेध यज्ञ के घोड़े हैं। इनकी लगाम छूने तक का दुस्साहस किसी ने किया नहीं था। लेकिन यज्ञ को लेकर तीनों राज्यों के नेताओं और विशेषज्ञों में भारी मतभेद थे: इस बहस में कौन कितनी आहुति देगा और उसके लाभ का बंटवारा किस अनुपात में मिलेगा, 33 बरस बीत गए। सन् 1946 में शुरू हुई बहस में तीनों राज्यों के नेताओं और विशेषज्ञों की दो पीढ़ियां बदल गईं पर प्रकृति को आर्थिक तराज़ू पर नक़ली बांट रख कर तौलने की नज़र नहीं बदली। इनकी तीसरी पीढ़ी को भी यही लगता रहा कि कमबख्त नर्मदा हमसे बिना पूछे 3454 अरब घन मीटर पानी खंबात की खाड़ी में बहा ले जा रही है। इस पर बड़े-बड़े बांध बना लें तो 2500 से 3300 मेगावाट बिजली मिल जाएगी और कोई 23 लाख हैक्टेयर में सिंचाई हो जाएगी। लेकिन इतने लाभकारी यज्ञ की कीमत बहुत थी। यहां डूबने वाली क़ीमती सवा लाख हेक्टेयर ज़मीन और वन तथा कोई डेढ़ लाख लोगों की बात नहीं हो रही। क़ीमत यानी वह रुपया जो इस सपने को आकार देता। उन दिनों के सस्ते ज़माने में भी यह कीमत 600 से 1000 करोड़ रुपया थी जो आज शायद 3800 करोड़ रुपए के आसपास झूल रही है। झगड़ रहे तीनों राज्यों में से किसी की भी जेब में इतना रुपया नहीं था कि वे अपने दम पर या केंद्र की मदद से ये बांध बना पाते। बहुत कम लोगों को याद होगा कि 1967 में मध्यप्रदेश के 31 संसद सदस्यों ने इंदिरा गांधी से नर्मदा घाटी योजना को भारत-सोवियत व्यापार में शामिल करने का आग्रह किया था।
सबसे विवादास्पद बांध सरदार सरोवर (गुजरात) को लेकर सन् 67 से 1974 तक मध्यप्रदेश और गुजरात सरकार के बीच जो ऊलजलूल बयानबाज़ी और झगड़े हुए वे अपने आप में एक छोटे-मोटे महाभारत की याद दिलाते हैं। 1969 में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल ने ज़ोर-शोर से कहा था कि गुजरात में नर्मदा पर बनने वाले बांध से मध्यप्रदेश की एक इंच ज़मीन भी डूब में नहीं आएगी। (बाद में यह आंकड़ा एक इंच से बढ़कर 27 हज़ार एकड़ उम्दा कृषि में बदला गया) इसी दौरान गुजरात और मध्यप्रदेश में अपने-अपने बांधों की ऊंचाई बढ़ाकर अधिक बिजली बना लेने की जैसे होड़ लग गई। केवल बिजली का बहाना थोड़ा शर्मनाक लग सकता था इसलिए दोनों राज्यों ने अपने-अपने किसानों के 'हितों' को भी बढ़ाना शुरू कर दिया। पर इन दोनों बांधों की ऊंचाई जितनी बढ़ती उतनी अधिक कीमती ज़मीन और वन भी उनकी डूब में आते इसलिए बांधों की ऊंचाई का सारा विवाद नीचता की हद तक उतरता गया। लगता है कुछ पुण्याई कमाने के ख्याल से ही उस समय यह भी जोड़ दिया गया कि अगर बांध ऊंचा बना तो उसमें एक लंबी नहर निकाल कर राजस्थान जैसे 'प्यासे' राज्य को भी कुछ पानी दे दिया जाएगा।
तीन राज्यों के मुख्यमंत्री और उनके अधिकारी व इंजीनियर आखिर कब तक झगड़ते। सन् 73 में सारा विवाद इंदिरा गांधी को सौंपा गया। वे हाथ जो इस देश की सारी समस्याओं का हल खोजने के लिए लगातार मज़बूत किए जाते रहे, नर्मदा के मामले में बेहद कमजोर साबित हुए। इंदिरा गांधी हल नहीं खोज सर्की तो उन्होंने इस विवाद को सन् 74 में एक पंचाट को सौंप दिया। यहां कुछ पुरानी बातें एक बार फिर दोहरा लें। 74 से बहुत दूर नहीं था सन् 75 की जून में लगा आपातकाल। सारे झगड़े समाप्त हो गए। पंचाट चुपचाप काम करती रही।
आपातकाल हटा और केंद्र तथा इन राज्यों में आई जनता पार्टी सरकार। और कुछ ही समय बाद सन् 79 में पंचाट ने अपना फैसला दिया। सबसे विवादास्पद बांध सरदार सरोवर की ऊंचाई उसने 455 फुट तय की। तब मध्यप्रदेश में विपक्ष की बेंच पर बैठी इंदिरा कांग्रेस उछलकर इन बांधों पर टूट पड़ी। पूरे फैसले को राज्य के लिए अभिशाप बताया गया। पर जनता सरकार चली ही कितने दिन। 80 में वापस शासन में आते ही इंदिरा सरकार ने अब तक के अभिशाप को वरदान की तरह स्वीकार किया और पंचाट के जो पंच उसे विपक्ष की कुर्सी से कपटी दिख रहे थे, वे फिर परमेश्वर दिखने लगे।
अब इसे भगवान की ही कृपा मानना होगा कि सन् 80 से अब तक नर्मदा-विवाद के राज्यों में और केंद्र में इंदिरा कांग्रेस है, और साथ ही यह भी कि इन सभी जगहों में विरोधी दल बेहद सिकुड़ा हुआ है तथा सबसे बड़े महाजन विश्व बैंक ने इसके लिए पैसा देना मंजूर किया है।
तीन राज्यों से गुजरने वाली 1312 किलोमीटर लंबी नर्मदा नदी की घाटी के 'पिछड़ेपन' को दूर करने के लिए कुछ उच्च विचार हों, इन्हें अमल में उतारने की महंगी योजनाओं का ख़र्च जुटाने के लिए विश्व बैंक जैसा उदार महाजन हो, सारे 'टुच्चे' विवादों को निपटा चुका पंच परमेश्वर हो तो भला देरी किस बात की? भीमकाय बांधों को बांधने के लिए टेंडर खुल चुके हैं।
लेकिन इस बीच कुछ 'घटिया विचार' भी सामने आने लगे हैं। बहस चल पड़ी है, इन बड़े बांधों के नुकसानों, पर्यावरण पर इनके असर और इनसे उजड़ने वाले हज़ारों लोगों के भविष्य को लेकर। अब तक एक सांस में गिनाए जाते रहे इनके लाभों पर भी कई विशेषज्ञों ने, संस्थाओं ने प्रश्न चिह्न लगाना शुरू कर दिया है। पंचाट के फ़ैसले के तुरंत बाद पहले कांग्रेस और फिर भाजपा द्वारा चलाए गए 'निमाड़ बचाओ आंदोलन' के क्षणिक उफान का अपवाद छोड़ दें तो सन् 80 से 85 तक नर्मदा घाटी में छाया सन्नाटा लगता है टूट रहा है। मध्यप्रदेश के जो अखबार पंचाट के फ़ैसले के बाद बेहद कट्टर बनकर इन बड़े बांधों को पूरा समर्थन कर रहे थे और जिस कारण उनकी प्रतियां, इन बांधों की डूब में आने वाले, क़स्बों, गांवों में जलाई गई थीं वे अखबार आज कह रहे हैं कि पंचाट के फ़ैसले में इन बांधों के पक्ष में कई मुद्दों पर सविस्तार स्पष्ट मत व्यक्त किए गए थे, लेकिन पर्यावरण का जो नया आयाम पिछले वर्षों में सामने आया है वह इस बात की मांग करता है कि इन ऊंचे बांधों की फिर से समीक्षा हो।
पर क्या पर्यावरण का मुद्दा सचमुच कोई नया आयाम है? जिस सर्वगुण संपन्न पंचाट में पानी, नदी, मिट्टी, सिंचाई, फ़सलें, बिजली, भूगर्भ, भूकंप, भूजल के सैकड़ों विशेषज्ञ थे, दोनों राज्यों की जनता के प्रतिनिधि नेता थे, योजना वाले जानकार थे, जिसके सामने तब तक देश की दूसरी नदियों पर बन चुके बांधों के गुणों अवगुणों का पूरा लेखा-जोखा था-उसे इस पर्यावरण नाम की चिड़िया का अता-पता न होना बड़ी अटपटी बात है।
खै़र, कोई बात नहीं। पिछले वर्षों में कई तरह की बदनाम योजनाओं का ब्याज ढो रहे विश्व बैंक ने अपना पल्ला बचाने के लिए ऐसी तमाम योजनाओं को पैसा देने में पहले पर्यावरण की सुरक्षा का डिठोना लगाना ज़रूरी समझा। पैसा पाने के लिए आतुर सरकारों को भी मज़बूरी में यह करना पड़ा। नर्मदा के बड़े बांधों को लेकर इसलिए राज्य सरकारों ने नवंबर 84 में 'पर्यावरण जांच समिति' बनाई। पहली बैठक थी दिसंबर 84 की तीन तारीख्न को। पर्यावरण का सबक सीखने के लिए इससे भयानक कोई और दिन न उगे। भोपाल उसी रात विकास की भारी कीमत अदा कर चुका था। यनियन कार्बाइड भी नर्मदा के बांधों की तरह गरीब और पिछड़े माने गए प्रदेश के लिए आधुनिक खेती का महान विचार लेकर आया था। ऐसे विचारों के बीच 'घटिया' विचारों की जगह भोपाल में भी नहीं बन पाई थी। नर्मदा घाटी तो फिर भी वहां से काफ़ी दूर थी।
नर्मदा घाटी को आधुनिक ढंग से विकसित करने के उच्च विचारों के बीच कुछ 'घटिया' विचार सन् 83 में उभरने लगे थे। दिल्ली की संस्था कल्पवृक्ष के दस छात्रों ने जुलाई-अगस्त में पूरी घाटी का दौरा किया और 44 पन्नों की एक रपट बना कर पूछा था कि इतने बड़े बांधों की ये योजनाएं विकास के लिए हैं या विनाश के लिए। अब तक चित्रित किया जा रहा लाभ रपट के मुताबिक कोई शुभ संकेत नहीं देता था और स्वीकार की गई कुछ हानियां मात्रा में बहुत ज़्यादा हो सकती थीं और निश्चित ही अशुभ संकेत देती थी। फिर मई 85 में लंदन की एक संस्था 'सर्वाइवल इंटरनेशनल' ने गुजरात में बन रहे सरदार सरोवर की डूब में आने वाले आदिवासियों का पक्ष रखते हुए विश्व बैंक को याद दिलाया कि आदिवासियों के पुनर्वास में बरती जा रही उपेक्षा बैंक की अपनी आचार संहिता के विरुद्ध जा रही है। फ़िलहाल कमज़ोर नायक के बदले बलवान खलनायक की आचार संहिता की याद दिलाना शायद ज़्यादा व्यावहारिक था।
फिर नर्मदा घाटी के विकास से जुड़े सबसे बड़े अधिकारी नर्मदा प्लानिंग एजेंसी के अध्यक्ष सुशीलचंद्र वर्मा ने देश में पहली बार उन सब बातों को सार्वजनिक बनाया जो अब तक बने हर बांध में वहां के लोगों पर कहर ढाती हैं: जान बूझ कर ठीक से सर्वे नहीं होता, बांध के सरोवर में डूबने वाले इलाक़ों की ईमानदारी के साथ जानकारी नहीं दी जाती, पूरी कोशिश की जाती है कि मुआवजे के मामले में सरकारें सस्ते में निपट जाएं आदि। वर्मा ने ख़ुद बहुत दुख के साथ कहा कि नब्बे साल पहले सन् 1894 में अंग्रेज़ों द्वारा बनाया गया भू-अर्जन (भूमि अधिग्रहण) क़ानून ऐसी तमाम योजनाओं में लोगों को लूट कर अपना ख़ज़ाना भरने के लिए था। आज़ादी के बाद भी इस कानून में जो कुछ सुधार हुआ वह सब सरकार के पक्ष में ही था, लोगों के पक्ष में नहीं। वर्मा ने पहली बार सरकारी तौर पर स्वीकार किया कि उत्तर में भाखड़ा से लेकर दक्षिण में बने श्रीशैलम और पोलावरम बांधों से बेघर-बार हुए लोग आज भी दर-दर भटक रहे हैं। इन बांधों का लाभ उठाने वाली सरकारें और लोग इन योजनाओं में डूब गए लोगों की शहादत को भूल चुके हैं। ऐसी योजनाओं में कई परिवारों को ठगा गया और वे हमेशा के लिए बर्बाद हो गए। इन पर अनगिनत जुल्म किए गए जो अब रोशनी में आ रहे हैं। वर्मा जी के इन लेखों को पढ़ने से जो यही लगता है कि अब तक बांध सीमेंट कंक्रीट पर नहीं, अन्याय की नींव पर बांधे गए हैं। उनका कहना है कि "यह परंपरा ब्रिटिश काल से चली आ रही है। ज़ाहिर है कि जिस गैर ज़िम्मेदारी से इन मसलों की तरफ़ देखा जाता था, जनता अब उसे बर्दाश्त नहीं करेगी।" उनके मुंह में घी शक्कर!
डूबने वालों के लिए इतनी संवेदना रखने वाले वर्मा जैसे अधिकारियों के रहते हुए भी नर्मदा घाटी में बंधने जा रहे बांधों में ऐसा कुछ नया नहीं होता दिखता कि ये बांध अन्याय की नींव पर नहीं, केवल सीमेंट की नींव पर खड़े हो सकेंगे। इधर पिछले दिनों ऐसे भी संकेत आने लगे हैं कि नुकसान पाने वाले लोग और इलाकों की तो छोड़िए, लाभ पाने वाले क्षेत्र भी परेशानी में पड़ सकते हैं। बंगलौर के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ साइंस की एक रपट का कहना है कि मध्यप्रदेश में इन बांधों से सिंचित होने वाले क्षेत्र का 40 प्रतिशत भाग (लगभग एक लाख हेक्टेयर) दलदल में भी बदल सकता है। अध्ययन दल ने इस ख़तरे को रोकने के भी कुछ उपाय ज़रूर बताए हैं। इस रपट पर काफ़ी हल्ला मचा है। लेकिन सरकार का कहना है कि इससे घबराने की कोई बात नहीं क्योंकि वह अध्ययन तो खुद सरकार ने बंगलौर को सौंपा था। लगभग यही तर्क विश्व बैंक का है। वह भी कहता है कि पर्यावरण पर लड़ने वाले प्रभावों का यह अध्ययन उसकी शर्त का एक हिस्सा था। इससे चौंकने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन अध्ययन की पहल का श्रेय ले लेने से उसमें छिपे नुकसान के खतरे को टाला नहीं जा सकता। नर्मदा के पानी को लेकर झगड़ते रहे राज्यों को अब यह भी मालूम पड़ गया होगा कि नदी में उतना पानी नहीं बचा है जितने को ध्यान में रख कर ये सारी योजनाएं बनाई गई हैं। अनुमानित 280 लाख एकड़ फुट के बदले पिछले कुछ वर्षों का औसत 230 लाख एकड़ फ़ुट है। पानी की कमी के कारण ऊंचे बांध रीते रह जाएंगे। नदी के पनढाल (जलागम) क्षेत्रों में एक तो बड़े बांधों के कारण पश्चिमी मध्यप्रदेश का कोई 43,064 हेक्टेयर वन डूबेगा और बचा हुआ पनढाल इतनी बुरी तरह से नंगा किया जा चुका है कि यह अब बांधों में गाद भरने का ही काम करेगा। यों केंद्र सरकार ने विश्व-खाद्य संगठन से आए एम एल दीवान की अध्यक्षता में इन बांधों को ध्यान में रख कर नर्मदा के पनढाल का सर्वे और उसे भूक्षरण से बचाने, वनीकरण करने के सुझाव देने की समिति बनाई थी। समिति ने काम पूरा किया। सुझाव दिया कि यदि इन बांधों की उम्र बढ़ानी है तो बांध बनने से पहले ही पनढाल को हरा-भरा बना लेना चाहिए। खर्च आएगा कोई 1400 करोड़ रुपया। पर बांध वाले कहते हैं कि उनके पास इतना पैसा नहीं है। वे बांध बनाएंगे, बांध की सेहत का ख्याल कोई और रखे। कुल मिलाकर होगा यही कि इसका ख्याल कोई नहीं रखेगा और बांध बन जाएंगे। तब बरसात के दिनों में बाढ़ आएगी और अपने साथ मिट्टी बहाकर इन बांधों को भेंट करेगी। धीरे-धीरे इससे उस बिजली पर भी असर पड़ेगा जिसे बनाने के लिए यह सारा तमाशा खड़ा किया जा रहा है। लेकिन बांध वाले कोई खतरा नहीं मानते। अब तक बनाए गए सभी बांधों में साद भरी है, उनकी अनुमानित उम्र घटी है और इसलिए बांध बनाने वाले कम उम्र के बांधों के इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि चिरंजीव शब्द उन्हें पुसाता नहीं।
कुछ लोगों की राय है कि इन बांधों की कमजोरियां या कमियों का हल होगा, जवाब होगा। फ़िलहाल उन बातों को सामने रखना चाहिए जिन्हें उन्होंने अनदेखा किया है। लेकिन आज सिंचाई विभाग अपनी ग़लतियों के बारे में कैसे सोचता है इसका एक उदाहरण है गुजरात में टूटा मोरवी बांध। विभाग के कुछ लोग आज भी पूरी ईमानदारी से मानते हैं कि मोरवी बांध तकनीक या प्रबंध की ग़लतियों के कारण नहीं, षड्यंत्र के कारण टूटा था। षड्यंत्र भी मामूली नहीं। अमेरिका ने अपने एक उपग्रह से संकेत भेज कर इस पर निशाना साधा था! लेकिन हमारी सरकार ने इस पर ज़ोरदार विरोध क्यों नहीं प्रकट किया? जवाब है कि पर्याप्त प्रमाण नहीं जुटाए जा सके थे। अगर यह सही है तो फिर पूछना चाहिए कि नर्मदा पर मोरवी से सौ गुने बड़े बांध क्यों बना रहे हो। क्या हमने अपनी राजनैतिक हैसियत इतनी मज़बूत कर ली है कि कोई देश अपने उपग्रहों से हमारे साथ फिर ऐसा खिलवाड़ नहीं कर पाएगा?
ख़ैर ग़लतियों की बात छोड़ें, अनदेखी को देखें। अनदेखी की सूची तो बहुत लंबी है। सबसे भयानक समस्या होगी उनाव की। यह शब्द अभी ज़्यादा नहीं चला है क्योंकि यह समस्या भी अभी उतनी नहीं उठी थी। उनाव यानी बाढ़ के समय पीछे पलट कर लगातार उठने वाला जलस्तर। उसे बांध वाले 'बैक वॉटर' कहते हैं। बड़े बांधों के कारण नदी का जलस्तर काफ़ी ऊपर उठ जाएगा। तब जब भी बाढ़ आएगी, पूर में बह रही नर्मदा में जो असंख्य सहायक नदियां और नाले मिलेंगे उन सबमें पानी का स्तर मुख्य धारा के बढ़ते जलस्तर के कारण लगातार अपने किनारे तोड़ कर आसपास के खेत, घर, रास्तों को अपने में लपेटेगा। अभी तक बांध वालों ने केवल मुख्य धारा के उनाव का थोड़ा बहुत अध्ययन किया है। पर सभी जानते हैं कि नर्मदा घाटी दोनों तरफ़ पहाड़ों से घिरी एक संकरी घाटी है। इसमें क़दम-कदम पर मिलने वाली सहायक नदियों के उनाव की कल्पना करते हुए भी डर लगता है।
दूसरी अनदेखी है इन भीमकाय बांधों के सरोवरों से इस क्षेत्र में भूकंप आने की आशंकाएं। कुछ लोगों ने पिछले दिनों कोयना बांध के भूकंप को उसके जलाशय के दाब से जोड़ा है। ज्यों-ज्यों सरोवर में जलस्तर बढ़ता जाता है भूकंप की परिस्थितियां बनने लगती थी। उसका पानी छोड़ते जाने से ये संभावनाएं भी कम होने लगती हैं। नर्मदा घाटी में खरगोन के पास सेंधवा में पिछले 137 वर्ष में पांच बार भूकंप आया है। कहा जा सकता है कि बांधों को भूकंप सहने लायक मज़बूत बनाया जा रहा है पर आसपास की बस्तियों का क्या होगा?
बिजली के पीछे जा रहे योजनाकारों को अब यह भी पता चल गया होगा कि नर्मदा घाटी में तेल की भी गुंजाइश है। तेल कम निकलेगा या ज़्यादा, यह अभी तक तय नहीं हो पाया है। तेल और प्राकृतिक गैस आयोग ने जो कुछ यहां देखा-परखा है उस आधार पर कहा जा सकता है कि यह क्षेत्र बंबई से ईरान जा रही एक तेल पट्टी की पीठ है। इसे बांधों में डुबोने से पहले यह तो जांच लें कि हम खोने क्या-क्या जा रहे हैं
हम क्या-क्या खो रहे हैं यह जानना ज़रूरी है क्योंकि 21वीं सदी आख़री मंज़िल नहीं है। वह एक पड़ाव भर होगी। 22वीं सदी भी आएगी, 23 भी और उसके आगे भी सूरज उगेगा और डूबेगा। तब भी मालवा, निमाड़, मध्यप्रदेश, गुजरात और देश को विकास करना होगा। इसलिए मेहरबानी करके विकास के (अगर यह सचमुच विकास है तो) सारे माध्यमों पर इन्हीं 15-20 सालों में क़ब्ज़ा मत कीजिए। नर्मदा पर बांधों की कुछ दर्जन भर जगहें अगली पीढ़ी के लिए भी सुरक्षित छोड़ दें। ऐसी क्या हाय तौबा है कि 80 बड़े 300 मंझोले और 3000 छोटे बांध बना लेने की सारी ज़िम्मेदारी इसी पीढ़ी के नाजुक कंधों पर आ गई है? सारा जंगल यही पीढ़ी काट ले, डुबो दे, भूमि का सारा उपजाऊपन यही पीढ़ी खींच ले!
पिछली पीढ़ियां इस पीढ़ी के लिए यह सब छोड़ती आई हैं। ऐसा नहीं था कि ये इनमें से ज़्यादातर काम कर ही नहीं सकती थी इसलिए उन्होंने किए नहीं। नर्मदा के किनारे कोटेश्वर के पास बावनगजा तीर्थ है। जो लोग आज से 2031 साल पहले पत्थर की बावन गज़ यानी 156 फ़ुट ऊंची मूर्ति बना सके वे यहां की प्रकृति को पहले विकास के लिए डुबो भी सकते थे। कोई 7000 साल पहले मालवा के पठार में आकर बसे लोगों ने त्रिपुरी, महिष्मती जैसे शक्तिशाली राज्यों की नींव रखी थी। चिकल्दा, झाकड़ा, खेड़, पिपल्दा आदि उनके केंद्र थे। चेटियों गोंड और हैहय वंशों ने नर्मदा के सुवर्ण कछार की समृद्धि से अपने राज्य मज़बूत किए। जिस खंबात की खाड़ी में आज नर्मदा अपना 'सारा जल बर्बाद' कर रही है वही खंबात उस दौर में हमारा सबसे पुराना और विकसित बंदरगाह था। वहां से अरब, इज़राइल और अफ़्रीका के साथ व्यापार होता था।
आज नर्मदा घाटी का इलाका पिछड़ा बता दिया गया है। इसका पिछड़ापन दूर करने के लिए ये बांध कल्याणकारी यज्ञ की तरह प्रचारित किए जा रहे हैं। इन यज्ञों के लिए आहुति चाहिए। ऐसे लोगों की पहले भी कमी नहीं थी जो अपने क्षेत्र की उन्नति के लिए बलिदान हो जाते थे। नर्मदा के बहुत से इलाकों में आज भी 'गाता' मिलेंगे। सिल के आकार के पत्थरों पर उकेरी हुई ये मूर्तियां उन शहीदों की स्मृति के लिए हैं जो अपनी और अपने समाज की शान, आन के लिए मर मिटे। आज भी 'गाता' के पास मेले लगते हैं और हाट सजते हैं। लेकिन नर्मदा के बांधों में शहीद होने वालों की 'गाता' नहीं बनेगी। विस्थापितों के साथ जो अन्याय की परंपरा अंग्रेजों के जमाने से कल तक जारी थी उसे एक अकेले सुशील चंद्र वर्मा कितना बदल पाएंगे? विस्थापित तो भटकेंगे ही और अगर लाभ पाने वाले लोग अनदेखी बातों के कारण उखड़ गए तो? इसलिए कल्याणकारी सरकारें यज्ञ ज़रूरी करें पर उतने ही बड़े जिनमें कोई चूक हो गई तो सिर्फ सरकार की उंगलियां जलें, लोग न जलें पीढ़ियां न झुलसें।