सत्य के प्रयोग/ सत्याग्रह की चकमक

सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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अध्याय ४० ; सत्याग्रहकी चकमक करनेकी नौबत आ गई । मैं लिख चुका हूं कि जब हमारे नाम मंजूर हो गये और लिखे जा चुके तब हमें पूरी कवायद सिखानेके लिए एक अधिकारी नियुक्त किया गया । म सबकी यह समझ थी कि यह अधिकारी महज युद्धकी तालीम देने के लिए हमारे मुखिया थे, शेष सब बातों में टुकड़ीका मुखिया मैं था। मेरे साथियों के प्रति मेरी जवाबदेही थी और उनकी मेरे प्रति । अर्थात् हम लोगों का खयाल था कि उस अधिकारीको सारा काम मेरी मार्फत लेना चाहिए। परंतु जिस तरह ‘पुतके पांव पालनेमें ही नजर आ जाते हैं उसी तरह उस अधिकारीकी अांख हमें पहले ही दिन कुछ और ही दिखाई दी। सोराबजी' बहुत होशियार अदमी थे। उन्होंने मुझे चेताया, “भाई साहब, सम्हल कर रहना । यह आदमी तो मालूम होता हैं। अपनी जहांगी चलाना चाहता है । हमें उसका हुक्म उठाने की जरूरत नहीं है । हम उसे अपना एक शिक्षक समझते हैं। पर जो यह नौजवान आये हैं वे तो हमपर हुकम चलने लाये हैं ऐसा में देखता हूँ।" यह नवयुवक अक्सफोर्डके विद्यार्थी थे और हमें सिखानेके लिए आये थे। उन्हें बड़े अफसरले हमारे ऊपर नायब अफसर मुकर्रर किया था। मैं भी सोराबजीकी बताई बात देख चुका था । मैंने सोराबजी को तसल्ली दिलाई और कहा- कुछ फिकर मत करो।” परंतु सोराबजी ऐसे आदमी नहीं थे, जो झट मान जाते । “आप तो हैं भोले-भंडारी । ये लोग मीठी-मीठी बातें बनाकर अपको धोखा देंगे और जब आपकी आंखें खुलेगी तब कहोगे--- चलो, अ सत्याग्रह करो।' और फिर आप हमें परेशान करेंगे।" सोराबजीने हंसते हुए कहा । मैंने जवाब दिया-- “ मेरा साथ करनेमें सिदा परेशानीके और क्या अनुभव हुआ है ? और सत्याग्रहीका जन्म तो धोखा खानेके लिए ही हुआ है। इसलिए परवा नहीं, अगर ये साहब मुझे धोखा दे दें। मैंने उसे बीसों बार नहीं कहा है कि अंतको वही धोखा खाता है, जो दूसरोंको धोखा देता है ? " | यह सुनकर सोराबजीने कहकहा लगाया--- " तो अच्छी बात है। लो, धोखा खाया करो। इस तरह किसी दिन सत्याग्नहमें मर मिटोगे और साथ-साथ हमको भी ले डूबोगे ।” | इन शब्दोंको लिखते हुए मुझे स्वर्गीय मिस हाबहाउसके असहयोगके [ ३७७ ]________________

अत्-िकथा : र ४ दिनोंमें लिखे शब्द याद आते हैं-- * आपको सत्यके लिए किसी दिन फांसीपर लटकना पड़े तो आश्चर्य नहीं । ईश्वर आपको सन्मार्ग दिखावे और आपकी रक्षा करे ।' सोविजके साथ यह बातचीत तो उस समय हुई थीं जब उस अधिकारीकी नियुक्तिका आरंभ-काल था । परंतु उस आरंभ और अंतका अंतर थोड़े ही दिनका था। इसी बीच मुझे पसली वर की बीमारी जोरके साथ पैदा हो गई थी। | चौदह दिनके उपवासके बाद अभी मेरा शरीर पनपा नहीं था, फिर भी मैं वायदमें पीछे नहीं रहता था । और कई बार धरसे कबायदके मैदानतक पैदल जाता था। कोई दो मील दूर वह जगह थी और उसके फलस्वरूप अन्तों मुझे खटिया पकड़नी पड़ी थी ! | इसी स्थितिमें मुझे कॅपमें जाना पड़ता था। दूसरे लोग तो वहां रह जाते थे और मैं शामको घर वापस आ जाता । यहीं सत्याग्रहका अफसर खड़ा हो गया था। उस अफसरने अपनी हुकूमत चलाई। उसने हमें साफ-साफ कह दिया कि हर बातमें मैं ही आपका मुखिया हूं । उसने अपनी अफसरीके दो-चार पदार्थ पाठ (नमूने) भी हमें बताये । सोराबजी मेरे पास पहुंचे। वह इस ‘जहांगीरी'को बरदाश्त करनेके लिए तैयार न थे । उन्होंने कहा--- "हमें सब हुक्म आपकी मार्फत ही मिलने चाहिए। अभी तो हम तालीमी छावनीमें हैं; पर अभी से देखते हैं कि बेहूदे हुक्म छूटने लगे हैं। उन जवानोंमें और हममें बहुतेरी बातोंमें भेद-भाव रखा जाता है। यह हमें बरदाश्त नहीं हो सकता ! इसकी व्यवस्था तुरंत होनी चाहिए, नहीं तो हमारा सब काम बिगड़ जायगा। ये सब विद्यार्थी तथा दूसरे लोग, जो इस काममें शरीक हुए हैं, एक भी बेहूदा हुक्म बरदाश्त न करेंगे । स्वाभिमानकी रक्षा करनेके उद्देश्य से जो काम हमने अंगीकार किया है, उसमें यदि हमें अपमान ही सहन करना पड़े तो यह नहीं हो सकता ।” | मैं उस अफसरके पास गया और मेरे पास जितनी शिकायतें आई थीं, सब उसे सुना दीं। उसने कहा- “ये सर्व शिकायतें मुझे लिखकर दे दो।" साथ ही उसने अपना अधिकार भी जताया। कहा- “ शिकायत आपके मार्फत नहीं हो सकती। उन नायव अफसरोके मार्फत मेरे पास आनी चाहिए।' मैने उत्तरमें कहा---- “मुझे अफसरी नहीं करना है । फौजी रूपमें तो में एक मामूली सिपाही ही हूं । परंतु हमारी टुकड़ीके मुखियाकी हैसियतसे आपको [ ३७८ ]________________

अध्याय ४० : सत्याग्रहको चकमक मुझे उनका प्रतिनिधि मंजूर करना चाहिए। मैंने अपने पास आई शिकायतें भी पेश कीं-- “नायब अफसर हमारी टुकड़ीसे बिना पूछे ही मुकर किये गये हैं और उनके व्यवहारसे हमारे अंदर बहुत असंतोष फैल गया है। इसलिए उनको वहांसे हटा दिया जाय और हमारी टुकड़ीको अपना मुखिया चुननेका अधिकार दिया जाय। पर यह बात उनको जंची नहीं। उन्होंने मुझसे कहा कि टुकड़ीका अपने अफसरोंको चुनना ही फौजी कानूनके खिलाफ है और यदि उस अफसरको हटा दिया जाय तो टुकड़ीमें अज्ञा-पालनका नाम-निशान न रह जायगा ।। | इसपर हमने अपनी टुकड़ीकी सभा की और उसमें सत्याग्रहके गंभीर परिणामों की ओर सबका ध्यान दिलाया। लगभग सबने सत्याग्रहकी' सौगंध खाई। हमारी सभाने प्रस्ताव किया कि यदि ये वर्तमान अफसर नहीं हटायें गये और टुकड़ी को अपना मुखिया पसंद न करने दिया गया तो हमारी टुकड़ी कवायदमें और केपमें जाना बंद कर देगी । अब मैंने अफसरको एक पत्र लिखकर उसमें उनके रवैयेपर अपना घोर असंतोष प्रकट किया और कहा कि मुझे अधिकारकी जरूरत नहीं है। मैं तो केवल सेवा करके इस कामको सांगोपांग पूरा करना चाहता हूं। मैंने उन्हें यह भी बताया कि बोझर-संग्राममें मैंने कभी अधिकार नहीं पाया था। फिर भी कर्नल गेलवे और हमारी टुकड़ीमें कभी झगड़ेका मौका नहीं आया था और वह मेरे द्वारा ही मेरी टुकड़ीकी इच्छा जानकर सर्व काम करते थे। इस पत्रके साथ उस प्रस्तावकी नकल भी भेज दी थी । । किंतु उस अफसरपर इसका कुछ भी असर न हुआ ! उसका तो उलटा यह खयाल हुआ कि सभा करके हमारी टुकड़ीने जो यह प्रस्ताव पास किया है, दह भी सैनिक नियम और मर्यादाका भारी उल्लंघन था । उसके बाद भारत-मंत्रीको मैंने एक पत्रमें ये सब बातें लिख दीं और हमारी सभाका प्रस्ताव भी उनके पास भेज दिया । | भारत-मंत्री ने मुझे उत्तरमें सूचित किया कि दक्षिण अफ्रीका की हालत इसरी थी। यहां तो टुकड़ीके बड़े अफसरको नायब अफसर भुकर्रर करनेका इक है । फिर भी भबिष्यमें वे अफसर अापकी सिफारिशोंपर ध्यान दिया करेंगे ।

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