सत्य के प्रयोग
मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

पृष्ठ ३१६ से – ३१८ तक

 

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अस्मि-कथा : भाग ४ उसमें सब बीमार रखे जायं । परंतु उसे साफ करनेकी जिम्मेदारी म्युनिसिपैलिटीने त ली । मकान बड़ा मैला और गंदा था। हम लोगोंने खुद लगकर उसे साफ किया । उदारचेता भारतीयोंकी सहायतासे चारपाई इत्यादि मिल गई और उस समय काम चलानेके लिए एक खासा अस्पताल बन गया। म्युतिमि लिटीने एक नई-परिचारिका--भेजी और उनके साथ बरांडकी बोतल और बीमारोंके लिए अन्य आवश्यक चीजें दीं । डाक्टर गाडझे ज्यों-के-त्यों तैनात रहे ।। नर्सको हम शायद ही कहीं रोगियोको छूने देते थे। उसे खुद तो छूने से परहेज न थी; बह थी भी भलीमानस । किंतु हमारी कोशिश यही रही कि जहांतक हो वह खतरेमें न पड़े। तजवीज यह हुई थी कि बीमारोंको समय-समयपर बांडी पिलाई जाय। हमसे भी नर्स कहती कि बीमारीसे अपने को बचानेके लिए आप लोग थोड़ी-थोड़ी बरांडी पिया करो। वह खुद तो पीती' ही थी। पर मेरा मन वाही नहीं देता था कि बीमारोंको भी वरांडी पिलाई जाय ! तीन बीमार ऐसे थे जो बिना बरांडीके रहनेको तैयार थे । डा० गाडफ़ेकी इजाजतसे मैंने उनपर मिट्टीके प्रयोग किये । छातीमें जहां-तहां दर्द होता था वहां-वहां मैंने मिंट्टीकी पट्टी बंधवाई। इनमें से दो बच गये और शेष सब चल बसे । बीस रोगी तो इस गोदाममें ही मर गये ।। म्युनिसिपैलिटीकी ओर से दूसरे प्रबंध भी जारी थे। जोहान्सबर्गसे सात मील दूर एक लेजरेटो अर्थात् संक्रामक रोगियोंका अस्पताल था, वहां तंबू खड़ा किया गया था और उसमें ये तीन रोगी ले जाये गये थे । प्लेगके दूसरे रोगी हों तो उन्हें भी वहीं ले जाने का इंतजाम करके हम इस कार्यंसे मुक्त हो गये। थोड़े ही दिन बाद हमें मालूम हुआ कि उस भली नर्सको भी प्लेग हो गया और उसीमें बेचारीका देहांत हो गया । यह कहना कठिन है कि ये रोगी क्यों बच गये और हम लोग प्लेगके शिकार क्यों न हो सके ? पर इससे मिट्टीके उपचारपर मेरा विश्वास और दवाके तौरपर भी बरांडीका उपयोग करनेमें मेरी अश्रद्धा बहुत बढ़ गई। मैं जानता हूं कि इस श्रद्धा और अश्रद्धाको निराधार कह सकते हैं। पर उस समय इन दो बातोंकी जो छाप मेरे दिलपर पड़ी और जो अबतक कायम' । है, उसे मैं मिटा नहीं सकता और इस मौकेपर उसका जिक्र कर देना आवश्यक ________________

अध्याय १६ : महामारी--२ ३९७ समझता हूँ । | इस महामारी फैल निकलते ही मैंने एक बड़ा पत्र अखबारोंमें लिखा था । उसमें यह बताया गया था कि लोकेशनके म्यूनिसिपैलिटीके कब्जे में आनेके बाद जो लापरवाही वहां दिखाई गई उसकी तथा जो प्लेग फैला उसकी जिम्मेदार म्यूनिसिलिटी है। इस पत्रके वैदौलत मि० हेनरी पोकने मेरी मुलाकात हुई और वही स्वर्गीय जोसेफ डोकसे भी मुलाकात होनेका एक कारण बन गया था । पिछले अध्याय में इस वातका जिक्र कर चुका हूं कि मैं एक निरामिष भोजनालयमें भोजन करने जाता था। वहां मिस्टर झाल्बर्ट बेल्ट मेरी भेट हुई थी। रोज हुम साथ ही भोजनालयमें जाते और खानेके बाद साथ ही घूमने निकलते ।। मि० वेस्ट एक छोटेसे छापेखाने में साझीदार थे। उन्होंने अखबारों में प्लेग-संबंधी मेरा वह पत्र पढ़ा और जब भोजनके समय भोजनालयमें मुझे नहीं पाया तो बेचैन हो उठे । मैंने तथा मेरे साथी' सेवकोंने प्लेगके दिनों अपनी खुराक कम कर ली थी। बहुत समयसे मैंने यह नियम बना रखा था कि जबतक किसी संक्रामक रोगको प्रकोप हों तबतक पेट जितना हल्का रखा जा सके उतना ही अच्छा । इसलिए मैंने शामुका खाना बंद कर दिया था और दोपहरको भी ऐसे सुस जाकर वहां भोजन कर आता जबकि इस तरहके खतरोसे अनेको बचानेकी इच्छा करनेवाले कोई भोजनालयमें न आते हों। भोजनालयकै मालिकके साथ तो मेरा घनिष्ट परिचय था ही । उससे मैंने यह वात कह रक्खी थी कि मैं इन दिनों प्लेगके रोगियोंकी सेवा-शुश्रूषामें लगा हुआ हूं, इसलिए औरोफो अपनी छुतसे दूर रखना चाहता हूँ । इस तरह भोजनालयमें मुझे न देख कर मि० बेस्ट दूसरे या तीसरे ही दिन सुबह मेरे यहां आ धमके। मैं अभी बाहर निकलनेकी तैयारी कर ही रहा था कि उन्होंने आकर मेरे कमरेका दरवाजा खटखटाया ! दरवाजा खोलते ही वेस्ट बोले “ आपको भोजनालय न देखकर मैं चितित हो उठा कि कहीं आप भी प्लेगके सपाटेमें न आ गये हों ! इसलिए इस समय इसी विश्वाससे अाया हूं। कि आपसे अवश्य भेंट हो जायगी । मेरी किसी मददकी जरूरत हो तो जरूर ________________

कथा : भाग ४ हिएगा । मैं रोगियों की सेवा-शुश्रूषके लिए भी तैयार हूं । आप जानते ही हैं। कि मुझपर सिवा अपना पेट भरनेके और किसी तरहकी जिम्मेदारी नहीं है ।' मैंने मि० वेस्टको इसके लिए धन्यवाद दिया। मुझे नहीं याद पड़ता कि मैने एक मिनट भी विचार किया होगा ! मैंने कहा----

  • नर्सका काम तो मैं आपसे नहीं लेना चाहता है यदि और लोग बीमार * हों तो हमारा काम एक-दो दिनों ही पूरी हो जायगा । पर एक काम आपके लायक जरूर है ।”

सो क्या है ? “आप डरबन जाकर 'इंडियन ओपीनियन' प्रेसका काम देख सकेंगे ? मदतजीत तो अभी यहां रुके हुए हैं। वहां किसी-न-किसीके जानेकी आवश्यकता तो है ही । यदि म हां चले जायं तो वहां के काम में त्रिलल निश्चित हो जाऊं।' वेस्टने जवाब दिया---“आप जानते हैं कि मेरे खुद एक छापाखाना हैं । बहुत करके तो मैं वहां जाने के लिए तैयार हो सकेंगा, पर निश्चित उत्तर आज शामको दे सकें तो हर्ज तो नहीं है ? आज शामको घूमने चल सके तो बातें कर लेंगे ।' उनके आश्वासनसे मुझे आनंद हुआ। उसी दिन शामको कुछ बातचीत हुई । यह तय पायो कि वेस्टको १० पौंड मासिक वेतन और छापाखानेके मुनाफेका कुछ अंश दिया जाय । महज़ वेतनके लिए वेस्ट वहां नहीं जा रहे थे। इसलिए यह सवाल उनके सामने नहीं था। अपनी उगाही मुझे सौंपकर दूसरे ही दिन सतकी मेलसे वेस्ट डरबन दाना हो गये। तबसे लेकर मेरे दक्षिण अफ्रीका छोड़नेतक वह मेरे दुःख-सुखके साथी रहे। वेस्टको जन्म विलायतके लाउथ नामक गांवमें एक किसान-कुटुम्बमें हुआ था । पाठशालामें उन्होंने बहुत मामूली दिशक्षा प्राप्त की थी । वह अपने ही परिश्रमसे अनुभवकी पाठशालामें पढ़कर और तालीम पाकर होशियार हुए थे। मेरी दृष्टिमें वह एक शुद्ध, संयमी, ईश्वरभीरु, साहसी और परोपकारी अंग्रेज थे। उनका व उनके कुटुंबका परिचय अभी हमें इन अध्यायोंमें और होगा ।

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