सत्य के प्रयोग/ भारतीयोंसे परिचय

सत्य के प्रयोग
मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

पृष्ठ १४७ से – १४९ तक

 


तो बाइबिल तथा उसके रूढ़ अर्थके संबंधमें थीं।

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भारतीयोंसे परिचय

ईसाइयोंके परिचयोंके संबंधमें और अधिक लिखनेके पहले उन्हीं दिनों हुए अन्य अनुभवोंका वर्णन करना आवश्यक है।

नेटालमें जो स्थान दादा अब्दुल्लाका था, वही प्रिटोरियामें सेठ तैयब हाजी खानमुहम्मद का था। उनके बिना वहां एक भी सार्वजनिक काम नहीं हो सकता था। उनसे मैंने पहले ही सप्ताहमें परिचय कर लिया। प्रिटोरियाके प्रत्येक भारतीयके संपर्कमें आनेका अपना विचार मैंने उनपर प्रकट किया। भारतीयोंकी स्थितिका निरीक्षण करनेकी अपनी इच्छा उनपर प्रदर्शित करके इस कार्यमें उनकी सहायता मांगी। उन्होंने खुशीसे सहायता देना स्वीकार किया।

पहला काम जो मैंने किया, वह था समस्त भारतीयोंकी एक सभा करना, जिसमें उनके सामने वहांकी स्थितिका चित्र रक्खा जाय। सेठ हाजी मुहम्मद हाजी जुसबके यहां, जिनके नाम मुझे परिचय-पत्र मिला था, सभा की गई। उनमें प्रधानतः मेमन व्यापारी शरीक हुए थे। कुछ हिंदू भी थे। प्रिटोरियामें हिंदुओंकी आबादी बहुत कम थी।

जीवनमें मेरा यह पहला भाषण था। मैंने तैयारी ठीक की थी। मुझे सत्य पर बोलना था। व्यापारियोंके मुंहसे मैं सुनता आया था कि व्यापारमें सच्चाईसे काम नहीं चल सकता। उस समय मैं यह बात नही मानता था। आज भी नहीं मानता हूं। व्यापार और सत्य दोनों एकसाथ नहीं चल सकते, ऐसा कहनेवाले व्यापारी मित्र आज भी मौजूद हैं। वे व्यापारको व्यवहार कहते हैं, सत्यको धर्म कहते हैं और युक्ति पेश करते हैं कि व्यवहार एक चीज हैं और धर्म दूसरी। व्यवहारमें शुद्ध सत्यसे काम नहीं चल सकता। वे मानते हैं कि उसमें तो यथाशक्ति ही सत्य बोला और बरता जा सकता है। मैंने अपने भाषणमें इस बातका प्रबल विरोध किया और व्यापारियोंको उनके दुहरे कर्त्तव्यका स्मरण दिलाया। मैंने कहा—"विदेशमें आने के कारण आपकी जवाबदेही देशसे अधिक


बढ़ गई है; क्योंकि मुट्ठी भर हिंदुस्तानियोंके रहन-सहनसे लोग करोड़ों भारतवासियों का अंदाजा लगाते हैं।"

मैंने देख लिया था कि अंग्रेजोंके रहन-सहनके मुकाबलेमें हिंदुस्तानी गंदे रहते हैं और उनको मैंने यह त्रुटि दिखाई।

हिंदू , मुसलमान, पारसी, ईसाई अथवा गुजराती, मदरासी, पंजाबी, सिंधी, कच्छी, सूरती इत्यादि भेदोंको भुला देने पर जोर दिया। और अंतको यह सूचित किया कि एक मंडलकी स्थापना करके भारतीयोंके कष्टों और दुःखों का इलाज अधिकारियोंसे मिलकर, प्रार्थना-पत्र आदिके द्वारा, करना चाहिए। और अपनी तरफसे यह कहा कि इसके लिए मुझे जितना समय मिल सकेगा बिना वेतन देता रहूंगा।

मैंने देखा कि सभापर इसका अच्छा असर हुआ।

चर्चा हुई। कितनोंने ही कहा कि हम हकीकतें ला-लाकर देंगे। मुझे हिम्मत आई। मैंने देखा कि सभामें अंग्रेजी जाननेवाले कम थे। मुझे लगा कि ऐसे प्रदेशमें यदि अंग्रेजीका ज्ञान अधिक हो तो अच्छा, इसलिए मैंने कहा कि जिन्हें फुर्सत हो उन्हें अंग्रेजी सीख लेनी चाहिए। बड़ी उम्रमें भी चाहें तो पढ़ सकते हैं, यह कहकर उन लोगोंकी मिसालें दीं जिन्होंने प्रौढ़ावस्थामें पढ़ा था। कहाकि यदि कुछ लोग या एक वर्ग जितने लोग पढ़ना चाहें तो मैं पढ़ाने को तैयार हूं। वर्ग तो निकला परंतु तीन शख्स अपनी सुविधासे व उनके घर जाकर पढ़ाऊं तो पढ़नेके लिए तैयार हुए। इनमें दो मुसलमान थे, एक नाई था और एक था कारकुन। एक हिंदू छोटा-सा दुकानदार था। मैं सबकी सुविधाके अनुकूल हुआ। अपनी पढ़ानेकी योग्यता और क्षमताके संबंधमें तो मुझे अविश्वास था ही नहीं। मेरे शिष्य भले ही थक गये हों; पर मैं न थका। कभी उनके घर जाता तो उन्हें फुरसत नहीं रहती। मैंने धीरज न छोड़ा। किसीको अंग्रेजीका पंडित तो होना ही न था; परंतु दो विद्यार्थियोंने कोई आठ मासमें अच्छी प्रगति कर ली। दोनोंने बहीखातेका तथा चिट्ठीपत्री लिखनेका ज्ञान प्राप्त कर लिया। नाईको तो इतना ही पढ़ना था कि वह अपने ग्राहकोंसे बातचीत कर सके। दो आदमी इस पढ़ाईकी बदौलत ठीक कमानेका भी सामर्थ्य प्राप्त कर सके।

सभाके परिणामसे मुझे संतोष हुआ। ऐसी सभा हर मास अथवा हर
सप्ताह करनेका निश्चय हुआ।

न्यूनाधिक नियमित रूपमें यह सभा होती तथा विचार-विनिमय होता। इसके फलस्वरूप प्रिटोरियामें शायद ही कोई ऐसा भारतवासी होगा, जिसे मैं पहचानता न होऊं या जिसकी स्थित से वाकिफ न होऊं। भारतीयोंकी स्थितिकी ऐसी जानकारी प्राप्त कर लेनेका परिणाम यह हुआ कि मुझे प्रिटोरिया-स्थित ब्रिटिश एजेंटसे परिचय करनेकी इच्छा हुई। मैं मि॰ जेकोब्स डिवेटसे मिला। उनके मनोभाव हिंदुस्तानियोंकी ओर थे। पर उनकी पहुंच कम थी। फिर भी उन्होंने भरसक सहायता करनेका आश्वासन दिया और कहा—"जब जरूरत हो तो मिल लिया करो।" रेलवे-अधिकारियोंसे लिखा-पढ़ी की और उन्हें दिखाया कि उन्हींके कायदोंके अनुसार हिंदुस्तानियोंकी यात्रा रोक-टोक नहीं हो सकती। उसके उत्तरमें यह पत्र मिला कि साफ-सुथरे और अच्छे कपड़े पहननेवाले भारतवासियोंको ऊपर दरजेके टिकट दिये जायंगे। इससे पूरी सुविधा तो न हुई; क्योंकि अच्छे कपड़ोंका निर्णय तो आखिर स्टेशनमास्टर ही करता न?

ब्रिटिश एजेंटने मुझे हिंदुस्तानियोंसे संबंध रखनेवाली चिट्ठियां दिखाई। तैयब सेठने भी ऐसे पत्र दिये। उनसे मैंने जाना कि आरेंज फ्री स्टेटसे हिंदुस्तानियोंके पैर किस प्रकार निर्दयतासे उखाड़े गये। संक्षेपमें कहूं तो प्रिटोरियामें मैं भारतवासियोंकी आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक स्थितिका गहरा अध्ययन कर सका। मुझे इस समय यह बिलकुल पता न था कि यह अध्ययन आगे चलकर बड़ा काम आवेगा; क्योंकि मैं तो एक साल बाद अथवा मामला जल्दी तय हो जाय तो उसके पहले देश चला जानेवाला था।

पर ईश्वरने कुछ और ही सोचा था।

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कुलीपनका अनुभव

ट्रांसवाल तथा आरेंज फ्री स्टेटके भारतीयोंकी दशाका पूरा चित्र देनेका यह स्थान नहीं। उनके लिए पाठकोंको 'दक्षिण अफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास' पढ़ना चाहिए; परंतु उसकी रूप-रेखा यहां दे देना आवश्यक है।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।