सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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जीवित हैं। आज भी यदि मैं उन नाटकोंको पढ़ पाऊं तो आंसू आये बिना न रहें ।

बाल-विवाह

जी चाहता है कि यह प्रकरण मुझे न लिखना पड़े तो अच्छा; परंतु इस कथामें मुझे ऐसी कितनी ही कड़वी घूंटें पीनी पड़ेंगी। सत्यके पुजारी होनेका दावा करके मैं इससे कैसे बच सकता हूं?

यह लिखते हुए मेरे हृदयको बड़ी व्यथा होती है कि १३ वर्षकी उम्र में मेरा विवाह हुआ। आज मैं जब १२-१३ वर्षके बच्चोंको देखता हूं और अपने विवाहका स्मरण हो आता है, तब मुझे अपनेपर तरस आने लगती है; और उन बच्चोंको इस बातके लिए बधाई देनेकी इच्छा होती है कि वे मेरी दुर्गतसे अब तक बचे हुए हैं। तेरह सालकी उम्रमें हुए मेरे इस विवाहके समर्थनमें एक भी नैतिक दलील मेरे दिमागमें नहीं आ सकती।

पाठक यह न समझें कि मैं सगाईकी बात लिख रहा हूं। सगाईका तो अर्थ होता है मां-बापके द्वारा किया हुआ दो लड़के-लड़कियोंके विवाहका ठहराव-वाग्दान। सगाई टूट भी सकती है। सगाई हो जानेपर यदि लड़का मर जाय तो उससे कन्या विधवा नहीं होती। सगाईके मामलेमें वर-कन्याकी कोई पूछ नहीं होती। दोनोंको खबर हुए बिना भी सगाई हो सकती है। मेरी एक-एक करके तीन सगाइयां हुईं। किंतु मुझे कुछ पता नहीं कि ये कब हो गईं। मुझसे कहा गया कि एक-एक करके दो कन्याएं मर गईं, तब मैं जान पाया कि मेरी तीन सगाइयां हुईं। कुछ ऐसा याद पड़ता है कि तीसरी सगाई सातेक सालकी उम्र में हुई होगी। पर मुझे कुछ याद नहीं आता कि सगाईके समय मुझे उसकी खबर की गई हो। लेकिन विवाहमें तो वर-कन्याकी उपस्थिति आवश्यक होती है, उसमें धार्मिक विधि-विधान होते हैं। अतः यहां मैं सगाईकी नहीं, अपने विवाह की ही बात कर रहा हूं। विवाहका स्मरण तो मुझे अच्छी तरह है।

पाठक जान ही गये हैं कि हम तीन भाई थे। सबसे बड़ेकी शादी हो [ २७ ]
चुकी थी। मंझले भाई मुझसे दो-तीन वर्ष बड़े थे। मेरे पिताजीने तीन विवाह एक साथ करनेका निश्चय किया-एक तो मंझले भाईका, दूसरे मेरे चचेरे भाई का, जिनकी उम्र मुझसे शायद एकाध साल ज्यादा होगी, और तीसरा मेरा। इसमें हमारे कल्याणका कोई विचार न था, हमारी इच्छाकी तो बात ही क्या? बस, केवल माता-पिताकी इच्छा और खर्च-वर्चकी सुविधा ही देखी गई थी।

हिंदू-संसारमें विवाह कोई ऐसी-वैसी चीज नहीं। वर-कन्याके मां-बाप विवाहके पीछे बरबाद हो जाते हैं। धन भी लुटाते हैं और समय भी बरबाद करते हैं। महीनों पहलेसे तैयारियां होने लगती हैं, तरह-तरहके कपड़े तैयार होते हैं, जेवर बनते हैं, जाति-भोजोंका तखमीना बनाया जाता है, खानेकी चीज़ोंकी होड़-सी लगती हैं। स्त्रियां, सुर हो या बे-सुर, गीत गा-गाकर अपना गला बैठा लेती हैं, बीमार भी पड़ जाती हैं, और पड़ोसियोंकी शांति भंग करती हैं सो अलग। पड़ोसी भी तो जब उनके यहां अवसर आता हैं तब ऐसा ही करते हैं, इसलिए इस सारे शोरगुलको तथा भोजोंकी जूठन व दूसरी गंदगीको चुपचाप सहन कर लेते हैं।

यह इतना झंझट तीन बार अलग-अलग करने के बजाय एक ही बार कर डालना क्या अच्छा नहीं? 'कम खर्च वाला नशीन।' क्योंकि तीन विवाह एक-साथ होनेसे खर्च भी खुले हाथ किया जा सकता था। पिताजी और चाचाजी वृद्ध थे। हम लोग थे उनके सबसे छोटे लड़के। इसलिए हमारे विवाह-संबंधी अपनी उमंगको पूरा करनेका भाव भी उनके मनमें था ही। इन कारणोंसे तीन विवाह एकसाथ करनेका निश्चय हुआ और उसके लिए, जैसा कि मै लिख चुका हूं, महीनों पहलेसे तैयारियां होती रहीं और सामग्रियां जुटती रहीं।

हम भाइयोंने तो सिर्फ उन तैयारियोंमें ही जाना कि हमारे विवाह होनेवाले हैं। मुझे तो इस समय इन मनसूबोंके अलावा कि अच्छे-अच्छे कपड़े पहनेंगे, बाजे बजते देखेंगे, तरह-तरहका भोजन, मिठाई मिलेगी, एक नई लड़कीके साथ हंसी-खेल करेंगे, और किसी विशेष भावका रहना याद नहीं आता। विषयभोग करनेका भाव तो पीछेसे उत्पन्न हुआ। यह किस प्रकार हुआ, सों मैं बता तो सकता हूं, परन्तु इसकी जिज्ञासा पाठक न रक्खें। अपनी इस शर्मपर मैं परदा डाले रखना चाहता हूं। किंतु जो बातें उनके जानने योग्य हैं, वे सब आगे [ २८ ]
आजायेंगी- वे भी इसलिए कि जो भव्य बिन्दु मैंने अपनी दृष्टि के सामने रखा है, उसका कुछ संबंध उनके ब्योरेके साथ है।

हम दोनों भाइयोंको राजकोटसे पोरबंदर ले गए। वहां हलदी लगाने इत्यादिकी जो विधियां हुईं वे रोचक तो हैं, पर उनका वर्णन छोड़ देने ही लायक है।

पिताजी दीवान थे तो क्या हुआ, थे तो आखिर नौकर ही। फिर राजप्रिय थे, इसलिए और भी पराधीन। ठाकुर साहबने आखिरी वक्ततक उन्हें जाने न दिया। फिर जब इजाजत दी भी तो दो दिन पहले, जबकि सवारीका जगह-जगह इंतिजाम करना पड़ा। पर दैवने कुछ और ही सोच रक्खा था। राजकोटसे पोरबंदर ६० कोस है। बैलगाड़ी से ५ दिनका रास्ता था। पिताजी तीन दिनमें आये। आखिरी मंजिलपर तांगा उलट गया। पिताजीको सख्त चोट आई। हाथ-पांव और बदनमें पट्टियां बांधे घर आये। हमारे लिए और उनके लिए भी विवाहका आनंद आधा रह गया। परंतु इससें विवाह थोड़े ही रुक सकते था? लिखा मुहूर्त्त कहीं टल सकता था? और मैं तो विवाहके बाल-उल्लासमें पिताजीकी चोटको भूल ही गया।

मैं जितना पितृ-भक्त था उतना ही विषय-भक्त भी। यहां विषयसे मतलब किसी एक इंद्रियके विषयसे नहीं, बल्कि भोग-मात्रसे है। यह होश तो अभी आना बाकी था कि माता-पिताकी भक्तिके लिए पुत्रको अपने सब सुख छोड़ देने चाहिए। ऐसा होते हुए भी, मानो इस भोगेच्छाकी सजा मुझे मिलनी हो, मेरी जिंदगीमें एक ऐसी दुर्घटना हुई, जो मुझे आज भी कांटेकी तरह चुभती है। जब-जब निष्कुलानंदकी यह पंक्ति-

'त्याग न ठके रे बैराग बिना, करिये कोटि उपाय जी'

गाता अथवा सुनता हूं, तब-तब यह दुर्घटना और कटु-प्रसंग मुझे याद आता है और शर्मिन्दा करता रहता है।

पिताजीने खुद मानो थप्पड़ मारकर अपना मुंह लाल रक्खा। शरीरमें चोट और पीड़ाके रहते हुए भी विवाह-कार्यमें पूरा-पूरा योग दिया। पिताजी किस अवसरपर कहां-कहां बैठे थे, यह सब मुझे ज्यों-का-त्यों याद है। बाल-विवाह पर विचार करते हुए पिताजीके कार्यपर जो टीका-टिप्पणी आज मैं कर रहा हूं, उसका स्वप्न भी उस समय न आया था। उस समय तो मुझे वे सब बातें रुचिकर [ २९ ]
और उचित ही मालूम होती थीं। क्योंकि एक तो विवाहकी उत्सुकता थी और दूसरे पिताजी जो-कुछ करते थे वह सब उस समय ठीक ही जान पड़ता था। अतः उस समयकी स्मृति आज भी मेरे मनमें ताजा है।

हमारा पाणि-ग्रहण हुआ, सप्तपदीमें वर-वधू साथ बैठे, दोनोंने एक-दूसरेको कसार खिलाया,और तभीसे हम दोनों एक साथ रहने लगे। ओह, वह पहली रात। दो अबोध बालक बिना जाने, बिना समझे, संसार-सागरमें कूद पड़े। भाभीने सिखाया कि पहली रातको मुझे क्या-क्या करना चाहिए। यह याद नहीं पड़ता कि मैंने धर्म-पत्नीसे यह पूछा हो कि उन्हें किसने सिखाया था। अब भी पूछा जा सकता है; पर अब तो इसकी इच्छातक नहीं होती। पाठक इतना ही जान लें कि कुछ ऐसा याद पड़ता है कि हम दोनों एक-दूसरेसे डरते और शरमाते थे। मैं क्या जानता कि बातें कैसे व क्या-क्या करें? सिखाई बातें भी कहांतक मदद कर सकती हैं? पर क्या ये बातें सिखानी पड़ती हैं? जहां संस्कार प्रबल हैं, वहां सिखाना फिजूल हो जाता है। धीरे-धीरे हमारा परिचय बढ़ता गया। आजादीके साथ एक-दूसरेसे बोलने-बतलाने लगे। हम दोनों हम-उम्र थे, फिर भी मैं पतिदेव बन बैठा।

पतिदेव

जिन दिनों मेरा विवाह हुआ, छोटेछोटे निबंध-पैसेपैसे या पाईपाईके सो याद नहीं पड़ता-छपा करते। इनमें दाम्पत्य प्रेम, मितव्ययता, बाल-विवाह इत्यादि विषयोंकी चर्चा रहा करती। इनमेंसे कोई-कोई निबंध मेरे हाथ पड़ता और उसे मैं पढ़ जाता। शुरूसे यह मेरी आदत रही कि जो बात पढ़नेमें अच्छी नहीं लगती उसे भूल जाता और जो अच्छी लगती उसके अनुसार आचरण करता। यह पढ़ा कि एक-पत्नी-व्रतका पालन करना पतिका धर्म है। बस, यह मेरे हृदयमें अंकित हो गया। सत्यकी लगन तो थी ही। इसलिए पत्नीको धोखा या भुलावा देनेका तो अवसर ही न था। और यह भी समझ चुका था कि दूसरी स्त्रीसे संबंध

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