सत्य के प्रयोग/ परिवर्त्तन
इस विचारकी धुनमें पूर्वोक्त आशयका पत्र मैंने व्याख्यान-शिक्षकको भेज दिया। उससे मैंने दो या तीन पाठ पढ़े थे। नाच-शिक्षिकाको भी ऐसा ही पत्र लिख दिया। वायोलिन-शिक्षिकाके यहां वायोलिन लेकर पहुंचा और उसे कह आया कि जो दाम मिले लेकर बेच दो। उससे कुछ मित्रता-सी हो गई थी, इसलिए उससे मैंने अपनी बेवकूफीका जिक्र भी कर दिया। नाच इत्यादिके जंजालसे छूट जानेकी बात उसे भी पसंद हुई। खैर।
सभ्य बननेकी मेरी यह सनक तो कोई तीन महीने चली होगी, किंतु कपड़ोंकी तड़क-भड़क बरसोंतक चलती रही। पर अब मैं विद्यार्थी बन गया था।
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कोई यह न समझे कि नाच आदिके मेरे प्रयोग मेरी उच्छृंखलताके युगको सूचित करते हैं। पाठकोंने देखा ही होगा कि उसमें कुछ विचारका अंश था। इस मूच्छकेि समयमें भी कुछ अंशतक मैं सावधान था। एक-एक पाईका हिसाब रखता। खर्चका अंदाजा था। यह निश्चय कर लिया था कि १५ पौंड प्रति माससे अधिक खर्च न हो। बस (मोटर) किराया और डाकखर्च भी हमेशा लिखता और सोनेके पहले हमेशा हिसाबका मेल मिला लेता। यह टेव अंततक कायम रही; और मैंने देखा कि उसके बदौलत सार्वजनिक कार्योंमें मेरे हाथसे जो लाखों रुपये खर्च हुए उनमें मैं किफायतसे काम ले सकता हूं, और जितनी हलचलें मेरी देख-रेखमें चली हैं उनमें मुझे कर्ज नहीं करना पड़ा। उलटा हरेकमें कुछ-न-कुछ बचत ही रही है। यदि हरेक नवयुवक अपने थोड़े रुपयोंका भी हिसाब चिंताके साथ रक्खेगा, तो उसका लाभ उसे अवश्य मिलेगा, जैसा कि मेरी इस आदतके कारण आगे चलकर मुझे और समाज दोनोंको मिला।
अपनी रहन-सहनपर मेरी कड़ी नजर थी। इसलिए मैं देख सकता था कि मुझे कितना खर्च करना चाहिए। अब मैंने खर्च आधा कर डालनेका विचार किया। हिसाबको गौरसे देखा तो मालूम हुआ कि गाड़ी-भाड़ेका खर्च काफी बैठता था। फिर एक कुटुंबके साथ रहनेके कारण कुछ-न-कुछ खर्च प्रति सप्ताह लग
ही जाता। कुटुंबके लोगोंको एक-न-एक दिन भोजनके लिए बाहर ले जानेके शिष्टाचारका पालन करना जरूरी था। फिर उनके साथ कई बार दावतोंमें जाना पड़ता और उसमें गाड़ी-भाड़ा लगता ही। मालकिन की लड़की यदि साथ हो, तो उसको अपना खर्च न देने देकर खुद ही देना उचित था। और दावतमें बाहर जानेपर घर खाना न होता; उसके भी पैसे देने पड़ते और बाहर भी खर्च करना पड़ता। मैंने देखा कि यह खर्च बचाया जा सकता हैं; और यह भी ध्यान में आया कि लोक-लाजसे जो कितना ही खर्च करना पड़ता है वह भी बच सकता है।
अब कुटुंबके साथ रहना छोड़कर अलग कमरा लेकर रहनेका निश्चय किया, और यह भी तय किया कि कामके अनुसार तथा अनुभव प्राप्त करनेके लिए अलग-अलग मुहल्लोंमें घर लेने चाहिए। घर ऐसी जगह पसंद किया कि जहांसे कामके स्थानपर पैदल जा सकें और गाड़ी-भाड़ा बच जाय। इससे पहले जानेके लिए एक तो गाड़ी-भाड़ा खरचना पड़ता और, दूसरे, घूमने जानेके लिए अलग वक्त निकालना पड़ता। अब ऐसी तजवीज की गई कि जिससे कामपर जानेके साथ ही घूमना भी हो जाया करता। आठ-दस मील तो मैं सहज घूम-फिर डालता। प्रधानतः इसी एक आदतके कारण मैं विलायतमें शायद ही बीमार पड़ा होऊं। शरीर ठीक-ठीक सुगठित हुआ। कुटुंबके साथ रहना छोड़ कर दो कमरे किरायेपर लिये, एक सोनेके लिए और एक बैठनेके लिए। इस परिवर्त्तनको दूसरा युग कह सकते हैं। तीसरा परिवर्त्तन अभी आगे आने वाला था।
इस तरह आधा खर्च बचा। पर समय? मैं जानता था कि बैरिस्टरीपरीक्षाके लिए बहुत पढ़नेकी जरूरत नहीं है। इसलिए मैं बेफिकर था। मेरी कच्ची अंग्रेजी मुझे खला करती थी। लेली साहबके शब्द बी० ए० होकर मेरे पास आना, मुझे चुभा करते थे। इसलिए मैंने सोचा, बैरिस्टर होनेके अतिरिक्त मुझे कुछ और अध्ययन भी करना चाहिए। आक्सफर्ड, केंब्रिजमें पता लगाया। कितने ही मित्रोंसे मिला। देखा कि वहां जानेसे खर्च बहुत पड़ेगा और पाठ्य-क्रम भी लंबा है। मैं तीन वर्षसे ज्यादा वहां रह नहीं सकता था। किसी मित्रने कहा, "यदि तुम कोई कठिन परीक्षा ही देना चाहते हो तो लंदनकी प्रवेश परीक्षा पास कर लो। उसमें परिश्रम काफी करना पड़ेगा और सामान्य ज्ञान भी बढ़ जायगा।
साथ ही खर्च बिलकुल नहीं बढ़ेगा।" यह बात मुझे पसंद हुई। पर परीक्षाके विषय देखकर मेरे कान खड़े हुए। लैटिन और एक दूसरी भाषा अनिवार्य थी। अब लैटिनकी तैयारी कैसे हो? पर मित्रने सुझाया, "वकीलको लैटिनका बड़ा काम पड़ता है। लैटिन जाननेवालेको कानूनकी पुस्तकें समझने में सहूलियत होती है। फिर रोमन लॉकी परीक्षा में एक प्रश्न-पत्र तो केवल लैटिन भाषाका ही होता है, और लैटिन जान लेनेसे अंग्रेजी भाषापर ज्यादा अधिकार हो जाता है।" इन बातोंका असर मेरे दिलपर हुआ। चाहे मुश्किल भले ही हो, पर लैटिन जरूर सीखना चाहिए। फ्रेंच जो शुरू की थी उसे भी पूरा करना चाहिए। अतः दूसरी भाषा फ्रेंच लेनेका निश्चय किया। एक खानगी मैट्रिक्युलेशन क्लास खुला था, उसमें भरती हुआ। परीक्षा हर छठे महीने होती। मुश्किलसे पांच महीनेका समय मिला था। यह काम मेरे बूतेके बाहर था, किंतु परिणाम यह हुआ कि सभ्य बननेकी धुनमें मैं अत्यन्त उद्यमी विद्यार्थी बन गया। टाइम-टेबल बनाया। एक-एक मिनट बचाया। परंतु मेरी बुद्धि और स्मरण-शक्ति ऐसी न थी कि दूसरे विषयोंके उपरांत लैटिन और फ्रेंचको भी सम्हाल सकता। परीक्षा दी, पर लैटिनमें फेल हुआ, इससे दुःख तो हुआ, पर हिम्मत न हारा। इधर लैटिनका स्वाद लग गया था। सोचा कि फ्रेंच ज्यादा अच्छी हो जायगी और विज्ञानमें नया विषय ले लूंगा। रसायनशास्त्र, जिसमें मैं अब देखता हूं कि खूब मन लगना चाहिए, प्रयोगोंके अभावमें, मुझे अच्छा ही न लगा। देशमें यह विषय मेरे पाठ्यक्रममें रहा ही था। इसलिए लंदन-मैट्रिकके लिए भी पहली बार इसीको पसंद किया था। इस बार 'प्रकाश और उष्णता' (Light & Heat) को लिया। यह विषय आसान समझा जाता था और मुझे भी आसान ही मालूम हुआ।
फिर परीक्षा देनेकी तैयारीके साथ ही रहन-सहनमें और भी सादगी दाखिल करनेकी कोशिश की। मुझे लगा कि अभी मेरे जीवनमें इतनी सादगी नहीं आ गई है, जो मेरे खानदानकी गरीबीको शोभा दे। भाई साहबकी तंगदस्ती और उदारताका खयाल आते ही मुझे बड़ा दुःख होता। जो १५ पौंड और ८ पौंड प्रति मास खरचते थे उन्हें तो छात्रवृत्ति मिलती थी। मुझसे अधिक सादगीसे रहनेवालोंको भी मैं देखता था। ऐसे गरीब विद्यार्थी काफी तादादमें मेरे संपर्क में आते थे। एक विद्यार्थी लंदनके गरीब मुहल्लेमें प्रति सप्ताह दो शिलिंग देकर
एक कोठरीमें रहता था, और लोकार्टकी सस्ती कोकोकी दूकानमें दो पेनीका कोको और रोटी खाकर गुजारा करता था। उसकी प्रतिस्पर्धा करनेकी तो मेरी हिम्मत न हुई; पर इतना जरूर समझा कि मैं दोकी जगह एक ही कमरे से काम चला सकता हूं और आधी रसोई हाथसे भी पका सकता हूं। ऐसा करनेपर ४ या ५ पौंड मासिकपर रह सकता था। सादी रहन-सहन संबंधी पुस्तकें भी पढ़ी थीं। दो कमरे छोड़कर ८ शिलिंग प्रति सप्ताहका एक कमरा किराये पर लिया। एक स्टोव खरीदा और सुबह हाथसे पकाने लगा। २० मिनटसे अधिक पकानेमें नहीं लगता था। ओट-मीलकी लपसी और कोकोके लिए पानी उबालने में कितना समय जा सकता था? दोपहरको बाहर कहीं खा लिया करता था और शामको फिर कोको तैयार करके रोटीके साथ खा लिया करता था। इस तरह मैं रोज एकसे सवा शिलिंग में भोजन करने लगा। मेरा यह समय अधिक-से-अधिक पढ़ाईका था। जीवन सादा हो जानेसे समय ज्यादा बचने लगा। दुबारा परीक्षा दी और उत्तीर्ण हुआ।
पाठक यह न समझें कि सादगीसे जीवन नीरस हो गया हो। उलटा इन परिवर्त्तनोंसे मेरी आंतरिक और बाह्य स्थितिमें एकता पैदा हुई। कौटुंबिक स्थितिके साथ मेरी रहन-सहन का मेल मिला। जीवन अधिक सारमय बना। मेरे आत्मानंदका पार न रहा।
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जैसे-जैसे मैं जीवनके विषयमें गहरा विचार करता गया तैसे-तैसे बाहरी और भीतरी आचारमें परिवर्त्तन करनेकी आवश्यकता मालूम होती गई। जिस गतिसे रहन-सहनमें अथवा खर्च-वर्चमें परिवर्त्तन प्रारंभ हुआ, उसी गतिसे अथवा उससे भी अधिक वेगसे भोजनमें परिवर्त्तन प्रारंभ हुआ। अन्नाहार-विषयकी अंग्रेजी पुस्तकोंमें मैंने देखा कि लेखकोंने बड़ी छान-बीनके साथ विचार किया है। अन्नाहार पर उन्होंने धार्मिक, वैज्ञानिक, व्यावहारिक और वैद्यककी दृष्टिसे विचार किया था। नैतिक दृष्टि से उन्होंने यह दिखाया कि मनुष्यको जो सत्ता पशु-पक्षीपर प्राप्त हुई है वह उनको मार कर खानेके लिए नहीं, बल्कि उनकी रक्षाके
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