सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय
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धर्मकी झलक

छः-सात सालकी उम्रसे लेकर १६ वर्षतक विद्याध्ययन किया; परंतु स्कूलमें कहीं धर्म-शिक्षा न मिली। जो चीज शिक्षकोंके पाससे सहज ही मिलनी चाहिए, वह न मिली। फिर भी वायुमंडलमेंसे तो कुछ-न-कुछ धर्म-प्रेरणा मिला ही करती थी। यहां धर्मका व्यापक अर्थ करना चाहिए। धर्मसे मेरा अभिप्राय है आत्मभानसे, आत्मज्ञानसे।

वैष्णव-संप्रदायमें जन्म होने के कारण बार-बार 'वैष्णव-मंदिर' जाना होता था। परंतु उसके प्रति श्रद्धा न उत्पन्न हुई। मंदिरका वैभव मुझे पसंद न आया। मंदिरोंमें होनेवाले अनाचारोंकी बातें सुन-सुनकर मेरा मन उनके संबंधमें उदासीन हो गया। वहांसे मुझे कोई लाभ न मिला।

परंतु जो चीज मुझे इस मंदिरसे न मिली, वह अपनी दाईके पाससे मिल गई। वह हमारे कुटुंबमें एक पुरानी नौकरानी थी। उसका प्रेम मुझे आज भी याद आता है। मैं पहले कह चुका हूं कि मैं भूत-प्रेत आदिसे डरा करता था। इस रंभाने मुझे बताया कि इसकी दवा 'राम-नाम' है। किंतु राम-नामकी अपेक्षा रंभापर मेरी अधिक श्रद्धा थी। इसलिए बचपनमें मैंने भूत-प्रेतादिसे बचनेके लिए राम-नामका जप शुरू किया। यह सिलसिला यों बहुत दिनतक जारी न रहा; परंतु जो बीजारोपण बचपनमें हुआ वह व्यर्थ न गया। राम-नाम जो आज मेरे लिए एक अमोघ शक्ति हो गया है, उसका कारण यह रंभाबाई का बोया हुआ बीज ही है।

मेरे चचेरे भाई रामायणके भक्त थे। इसी अर्सेमें उन्होंने हम दो भाइयोंको 'राम-रक्षा' का पाठ सिखानेका प्रबंध किया। हमने उसे मुखाग्र करके प्रात:काल स्नानके बाद पाठ करनेका नियम बनाया। जबतक पोरबंदरमें रहे, तबतक तो यह निभता रहा। परंतु राजकोटके वातावरणमें उसमें शिथिलता आ गई। [ ५२ ]
इस क्रियापर भी कोई खास श्रद्धा न थी। दो कारणोंसे 'राम-रक्षा'का पाठ करता था। एक तो मैं बड़े भाईको आदरकी दृष्टिसे देखता था, दूसरे मुझे गर्व था कि मैं 'राम-रक्षा'का पाठ शुद्ध उच्चारण-सहित करता हूं।

परंतु जिस चीजने मेरे दिलपर गहरा असर डाला, वह तो थी रामायण-का पारायण। पिताजीकी बीमारीका बहुतेरा समय पोरबंदरमें गया। वहां वह रामजीके मंदिरमें रोज रातको रामायण सुनते। कथा कहनेवाले थे रामचंद्रजीके परम-भक्त बीलेश्वरके लाधा महाराज। उनके संबंध में यह आख्यायिका प्रसिद्ध थी कि उन्हें कोढ़ हो गया था। उन्होंने कुछ दवा न की-सिर्फ बीलेश्वर महादेवपर चढ़े हुए विल्व पत्रोंको कोढ़वाले अंगोंपर बांधते रहे और राम-नामका जप करते रहे; अंतमें उनका कोढ़ समूल नष्ट हो गया। यह बात चाहे सच हो या झूठ, हम सुननेवालोंने तो सच ही मानी। हां, यह जरूर सच है कि लाधा महाराजने जब कथा आरंभ की थी, तब उनका शरीर बिलकुल नीरोग था। लाधा महाराजका स्वर मधुर था। वह दोहा-चौपाई गाते और अर्थ समझाते। खुद उसके रसमें लीन हो जाते और श्रोताओंको भी लीन कर देते। मेरी अवस्था इस समय कोई १३ सालकी होगी; पर मुझे याद है कि उनकी कथामें मेरा बड़ा मन लगता था। रामायणपर जो मेरा अत्यंत प्रेम है, उसका पाया यही रामायण-श्रवण है। आज मैं तुलसीदासकी रामायणको भक्ति-मार्गका सर्वोत्तम ग्रंथ मानता हूं।

कुछ महीने बाद हम राजकोट आये। वहां ऐसी कथा न होती थी। हां, एकादशीको भागवत अलबत्ता पढ़ी जाती थी। कभी-कभी मैं वहां जाकर बैठता; परंतु कथा-पंडित उसे रोचक न बना पाते थे। आज मैं समझता हूं कि भागवत ऐसा ग्रंथ है कि जिसे पढ़कर धर्म-रस उत्पन्न किया जा सकता है। मैंने उसका गुजराती अनुवाद बड़े चाव-भावसे पढ़ा है। परंतु मेरे इक्कीस दिनके उपवासमें जब भारत-भूषण पंडित मदनमोहन मालवीयजीके श्रीमुखसे मूल संस्कृतके कितने ही अंश सुने तब मुझे ऐसा लगा कि बचपनमें यदि उनके सदृश भगवद्भक्तके मुंहसे भागवत सुनी होती, तो बचपनमें ही मेरी गाढ़-प्रीति उसपर जम जाती। मैं अच्छी तरह इस बातको अनुभव कर रहा हूं कि बचपनमें पड़े शुभ-अशुभ संस्कार बड़े गहरे हो जाते हैं और इसलिए यह बात अब मुझे बहुत [ ५३ ]
खल रही है कि लड़कपनमें कितने ही अच्छे ग्रंथोंका श्रवण-पठन न हो पाया।

राजकोटमें मुझे सब संप्रदायोंके प्रति समानभाव रखनेकी शिक्षा अनायास मिली। हिंदू-धर्मके प्रत्येक संप्रदायके प्रति आदर-भाव रखना सीखा; क्योंकि माता-पिता वैष्णव-मंदिर भी जाते थे, शिवालय भी जाते व राम-मंदिर भी जाते थे और हम भाइयोंको भी ले जाते अथवा भेज देते थे।

फिर पिताजीके पास एक-न-एक जैन धर्माचार्य अवश्य आया करते। पिताजी भिक्षा देकर उनका आदर-सत्कार भी करते। वे पिताजीके साथ धर्म तथा व्यवहार-चर्चा किया करते। इसके सिवा पिताजीके मुसलमान तथा पारसी मित्र भी थे। वे अपने-अपने धर्मकी बातें सुनाया करते और पिताजी बहुत बार आदर और अनुरागके साथ उनकी बातें सुनते। मैं पिताजीका 'नर्स' था, इसलिए ऐसी चर्चाके समय मैं भी प्रायः उपस्थित रहा करता। इस सारे वायुमंडलका यह असर हुआ कि मेरे मनमें सब धर्मोंके प्रति समानभाव पैदा हुआ।

हां, ईसाई-धर्म इसमें अपवाद था। उसके प्रति तो जरा अरुचि ही उत्पन्न हो गई। इसका कारण था। उस समय हाईस्कूलके एक कोनेमें एक ईसाई व्याख्यान दिया करते थे। वह हिंदू-नेताओं और हिंदू-धर्मवालोंकी निंदा किया करते। यह मुझे सहन न होता। मैं एकाध ही बार इन व्याख्यानोंको सुननेके लिए खड़ा रहा होऊंगा, पर फिर वहां खड़ा होनेको जी न चाहा। इसी समय सुना कि एक प्रसिद्ध हिंदू ईसाई हो गये हैं। गांवमें यह चर्चा फैली हुई थी कि उन्हें जब ईसाई बनाया गया तब गो-मांस खिलाया गया और शराब पिलाई गई। उनका लिबास भी बदल दिया गया। और ईसाई होनेके बाद वह सज्जन कोट-पतलून और हैट लगाने लगे। यह देखकर मुझे व्यथा पहुंची। 'जिस धर्ममें जानेके लिए गो-मांस खाना पड़ता हो, शराब पीनी पड़ती हो और अपना पहनावा बदलना पड़ता हो, उसे क्या धर्म कहना चाहिए?' मेरे मनमें यह विचार उत्पन्न हुआ। फिर तो यह भी सुना कि ईसाई हो जानेपर यह महाशय अपने पूर्वजोंके धर्मकी, रीति-रिवाजकी, और देशकी भर-पेट निंदा करते फिरते हैं। इन सब बातोंसे मेरे मनमें ईसाई-धर्म के प्रति अरुचि उत्पन्न हो गई।

इस प्रकार यद्यपि दूसरे धर्मोंके प्रति समभाव उत्पन्न हुश्रा, तो भी यह नहीं कह सकते कि ईश्वरके प्रति मेरे मनमें श्रद्धा थी। इस समय पिताजीके [ ५४ ]
पुस्तक-संग्रहमेंसे मनुस्मृतिका भाषांतर मेरे हाथ पड़ा। उसमें सृष्टिकी उत्पति आदिका वर्णन पढ़ा। उसपर श्रद्धा न जमी। उलटे कुछ नास्तिकता आ गई। मेरे दूसरे चचेरे भाई जो अभी मौजूद हैं, उनकी बुद्धिपर मुझे विश्वास था। उनके सामने मैंने अपनी शंकायें रक्खीं। परंतु वह मेरा समाधान न कर सके। उन्होंने उत्तर दिया-"बड़े होनेपर इन प्रश्नोंका उत्तर तुम्हारी बुद्धि अपने-आप देने लगेगी। ऐसे-ऐसे सवाल बच्चोंको न पूछने चाहिए।" मैं चुप हो रहा, पर मनको शांति न मिली। मनुस्मृतिके खाद्याखाद्य-प्रकरणमें तथा दूसरे प्रकरणोंमें भी प्रचलित प्रथाका विरोध दिखाई दिया। इस शंकाका उत्तर भी मुझे प्रायः ऊपर लिखे अनुसार ही मिला। तब यह सोचकर मनको समझा लिया कि एक-न-एक दिन बुद्धिका विकास होगा, तब अधिक पठन और मनन करूंगा; और तब सब कुछ समझमें आने लगेगा।

मनुस्मृतिको पढ़कर मैं उस समय तो उससे अहिंसाकी प्रेरणा न पा सका। मांसाहारकी बात ऊपर आ ही चुकी है। उसे तो मनुस्मृतिका भी सहारा मिल गया। यह भी जंचा था कि सांप-खटमल आदिको मारना नीति-विहित है। इस समय, मुझे याद है, मैंने धर्म समझकर खटमल इत्यादिको मारा है।

पर एक बातने मेरे दिलपर अच्छी जड़ जमा ली। यह सृष्टि नीतिके पायेपर खड़ी हैं, नीति-मात्रका समावेश सत्यमें होता है। पर सत्यकी खोज तो अभी बाकी है। दिन-दिन सत्यकी महिमा मेरी दृष्टिमें बढ़ती गई, सत्यकी व्याख्या विस्तार पाती गई और अब भी पाती जा रही है।

फिर एक नीति-विषयक छप्पय हृदयमें अंकित हो गया। अपकारका बदला अपकार नहीं, बल्कि उपकार हो सकता है, यह बात मेरा जीवन-सूत्र बन बैठी। उसने मुझपर अपनी सत्ता जमानी शुरू की। अपकार करनेवालेका भला चाहना और करना मेरे अनुरागका विषय हो चला। उसके अगणित प्रयोग किये । वह चमत्कारी छप्पय यह है-

पाणी आपने पाय, भलुं भोजन तो दीजे;
आवी नमावे शीश, दंडवत कोडे कीजे।
आपण घासे दाम, काम महोरो नुं करीए;
आप उगारे प्राण ते तणा दुःख मां मरीए।

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