सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

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अध्याय ३ : धमकी ? उसमें वही चीजें अर्थात् फल और मेवे मंगाये थे, जो मैं खाया करता था । पार्टी उनके कमरेसे कुछ ही दूरपर थी। उनकी हालत ऐसी न थी कि वे वहांतक भी आ सकते; परंतु उनका प्रेम उन्हें कैसे रुकने देता ? वह जिद करके आये थे; परंतु उन्हें गश आ गया और वापस लौट जाना पड़ा । ऐसा गश उन्हें बार-बार आ जाया करता था, इसलिए उन्होंने कहलवाया कि पार्टीमें किसी प्रकारकी गड़बड़ न होनी चाहिए । पार्टी क्या थी, समितिके आश्रम में अतिथि-घरके पास के मैदानमें जाजम बिछाकर हम लोग बैठ गये थे और मूंगफली, खजूर वगैरा खाते हुए प्रेम-वार्ता करते थे एवं एक-दूसरेके हृदयको अधिक जाननेका उद्योग करते थे । . . । किंतु उनकी यह मूछ मेरे जीवनके लिए कोई मामूली अनुभव नहीं था । धमकी ? बंबईसे मुझे अपनी विधवा भौजाई और दूसरे कुटुंबियों से मिलने के लिए राजकोट और पोरबंदर जाना था। इसलिए मैं राजकोट गया । दक्षिण अफ्रीका सत्याग्रह-अांदोलनके सिलसिलेमें मैंने अपना पहनावा लभम गिरमिटिया मजूरकी तरह कर लिया था । विलायतमें भी यही लिबास रक्खा था । देसमें प्राकर मैं काठियावाड्का पहनावा पहनना चाहता था, दक्षिण अफ्रीकामें काठियावाड़ी कपड़े मेरे पास थे । इससे बंबईमें मैं काश्यिावाड़ी लिबासमें अर्थात् कुरता, अंगरखा, धोती और सफेद साझा पहने हुए उतर सका था। ये सब कपड़े देसी मिलके बने हुए थे। बंबईसे काठियावाड़तक तीसरे दरजे में सफर करने का निश्चय था । सो वह साफा और अंगरखा मुझे एक जंजाल मालूम हुए । इसलिए सिर्फ एक कुरता, धोती और आठ-दस नेकी कश्मीरी टोपी सार्थ रक्खे थे। ऐसे कपड़े पहननेवाला ग्राम तौरपर गरीब आदमियों में ही गिना जाता है। इस समय वीरमगाम और ववागमें, प्लेगकै कारण, तीसरे दरजेके मुसाफिरोंकी जांच-पड़ताल होती थी। मुझे उस समय हुलका-सा बुखार था.! जांच करनेवाले अफसरने मेरा हाथ देखा तो उसे वह [ ४०१ ]________________

-कैथई : भाग ५ गरम मालूम हुआ, इसलिए उसने हुक्म दिया कि राजकोट जाकर डाक्टरसे मिलो और मेरा नाम लिख लिया ।। बंबईसे शायद किसीने तार या चिट्ठी भेज दी होगी, इस कारण बढवाण स्टेशनपर दर्जी मोतीलाल, जो वहांके एक प्रसिद्ध प्रजा-सेवक माने जाते थे, मुझसे मिलने आये। उन्होंने मुझसे वीरमगामकी जकातकी जांचको तथा उसके संबंधमें होनेवाली तकलीफोंका जिक्र किया। मुझे बुखार चढ़ रहा था, इसलिए बात करनेकी इच्छा कम ही थी। मैंने उन्हें थोड़े में ही उत्तर दिया-- | " आप जेल जाने के लिए तैयार हैं ? " इस समय मैंने मोतीलालको वैसा ही एक युवक समझा, जो बिना विचारे उत्साहमें ‘हां कर लेते हैं, परंतु उन्होंने बड़ी दृढ़ताके साथ उत्तर दिया-- | "हां, जरूर जेल जायंगे; पर अपको हमारा अगुआ बनना पड़ेगा । काठियावाड़ीकी हैसियतसे आपपर हमारा पहला हक है। अभी तो हम आपको नहीं रोक सकते, परंतु वापस लौटते समय आपको बढवाण जरूर उतरना पड़ेगा । यहांके युवकों का काम और उत्साह देखकर आप खुश होंगे । आप जब चाहें तब अपनी सेनामें हमें भरती कर सकेंगे ।" - उस दिनसे मोतीलालपर मेरी नजर ठहर गई। उनके साथियोंने उनकी स्तुति करते हुए कहा-- “यह भाई दर्जी हैं। पर अपने हुनर में बड़े तेज हैं । रोज एक घंटा काम करके, प्रतिमासे कोई पंद्रह रुपये अपने खर्चके लायक पैदा कर लेते हैं; शेष सारा समय सार्वजनिक सेवामें लगाते हैं और हम सब पढ़े-लिखे लोगोंको राह दिखाते हैं और शमंदा करते हैं।' बादको भाई मोतीलालसे मेरा बहुत साबको पड़ा था और मैंने देखा कि उनकी इस स्तुतिमें अत्युक्ति न थी। सत्याग्न-प्रश्रमकी स्थापनाके बाद वह हर महीने कुछ दिन आकर वहां रह जाते। बच्चोंको सीना सिखाते और आश्चममें सीनेका काम भी कर जाते । वीरमगामकी कुछ-न-कुछ बातें बह रोज सुनाते । मुसाफिरोंको उससे जो कष्ट होते थे बह इन्हें नागवार हो रहे थे । इन मोतीलालको बीमा भर-जवानीमें ही खा गई और बवाण उनके विना सूना हो गया । राजकोट पहुंचते ही मैं दूसरे दिन सुबह पूर्वोक्त हुक्मके अनुसार अस्पताल [ ४०२ ]________________

अध्याय ३ : धमकी ? गया। वहां तो मैं किसीके लिए अजनबी था नहीं । डाक्टर मुझे देखकर शर्माये और उस जांच-कर्मचारीपर गुस्सा होने लगे। मुझे इसमें गुस्सेकी कोई वजह मालूम नहीं होती थी। उसने तो अपना फर्ज अदा किया था। एक तो वह मुझ पहचानता नहीं था और दूसरे पहचानने पर भी उसका तो फज यही था कि जो हुक्म मिला उसकी तामील करे; परंतु मैं था मशहूर आदमी । इसलिए राजकोटमें मुझे कहीं जांच करनेके लिए जानेके बदले लोग घर आकर मेरी पूछ-ताछ करन लगे । तीसरे दरजेके भुसाफिरोंकी जांच ऐसे मामलोंमें आवश्यक है। जो लोग बड़े समझे जाते हैं वे भी अगर तीसरे दर्जेमें सफर करें तो उन्हें उन नियमों पालन, जो गरीबोंपर लगाये जाते हैं, खुद-ब-खुद करना चाहिए और कर्मचारियोंको भी उनका पक्षपात न करना चाहिए; परंतु मेरा तो अनुभब यह है कि कमचारी लोग तीसरे दर्जे के मुसाफिरोंको आदमी नहीं, बल्कि जानवर समझते हैं। अजेतबेके सिवाय उनसे बोलते नहीं हैं। तीसरे दर्जेका मुसाफिर न तो सामने जवाब दे सकता है, न कोई बात कह सकता है। बेचारोंको इस तरह पेश अाना पड़ता है, मानो वह उच्च कर्मचारीका कोई नौकर हो । रेलके नौकर उसे पीट देते हैं, रुपये-पैसे छीन लेते हैं, उसकी ट्रेन चुका देते हैं। टिकट देते समय उनको बहुत | रुलाते हैं। ये सब बातें मैंने खुद अनुभव की हैं। इस बुराईका सुधार उसी हालतमें हो सकता है, जबकि पढ़े-लिखे और धनी लोग गरीबकी तरह रहने लगें और | तीसरे दर्जेमें सफर करके ऐसी एक भी सुविधाका लाभ न उठावें जो गरीब . मुसाफिरको न मिलती हो और वहांकी असुविधा, अविवेक, अन्याय और वीभत्सताको चुपचाप न सहन करते हुए उसका विरोध करें और उसको मिटा दें । काठियावाड़में मैं जहां-जहां गया, वहां-वहां वीरमगामकी जकातकी जांचसे होनेवाली तकलीफोंकी शिकायतें मैंने सुनीं । | इसलिए लार्ड विलिंग्डनने जो निमंत्रण मंझे दे रखा था उसका मैंने तुरंत उपयोग किया। इस संबंधमें जितने कागज-पत्र मिल सकते थे सब मैने पुढे । मैंने देखा कि इन शिकायतों में बहुत तथ्य था । उसको दूर करनेके लिए मैने बंबई-सरकारसे लिखा-पढ़ी की । उसके सेक्रेटरी से मिला । लार्ड विलिंग्डनसे भी मिला। उन्होंने सहानुभूति दिखाई; परंतु कहा कि दिल्लीकी तरफसे ढील [ ४०३ ]________________

अस्म-कथा : ६ ५ हो रही है । “यदि यह बात हमारे हाथमें होती तो हम कभीके इस जकातको उठा देते । आप भारत-सरकारके पास अपनी शिकायत ले जाइए ।" सेक्रेटरी ने कहा ।। मैने भारत-सरकारके साथ लिखा-पढ़ी शुरू की; परंतु वहां से पहुंचके अलावा कुछ भी जवाब नहीं मिला। जब मुझे लाई चेम्सफोर्डसे मिलने का अवसर आया, तब अर्थात् दो-तीन वर्षकी लिखा-पढ़ीके बाद कुछ सुनवाई हुई। लार्ड चेम्सफोर्डसे मैंने इसका जिक्र किया तो उन्होंने इसपर आश्चर्य प्रकट किया । वीरमगामके मामलेका उन्हें कुछ पता न था। उन्होंने मेरी बातें गौरके साथ सुनीं और उसी समय टेलीफोन करके वीरमगामके कागज-पत्र मंगाये और वचन दिया कि यदि इसके खिलाफ कर्मचारियोंको कुछ कहना न होगा तो जकात रद कर दी जायगी । इस मुलाकातके थोड़े ही दिन बाद अखबारोंमें पढ़ा कि जकात रद हो गई ।। . इस जीतको मैंने सत्याग्रहकी बुनियाद माना; क्योंकि वीरमगाभ संबंधमें जब बातें हुईं तब बंबई-सरकारके सेक्रेटरीने मुझसे कहा था कि बगसमें इस संबंधमें आपका जो भाषण हुआ था उसकी नकल मेरे पास है । और उसमें मैंने जो सत्याग्रहका उल्लेख किया था उसपर उन्होंने अपनी नाराजगी भी बतलाई । उन्होंने मुझसे पूछा-- “आप इसे धमकी नहीं कहते ? इस प्रकार बलवान् सरकार कहीं धमकीकी परवाह कर सकती है ? " ... मैने जवाब दिया--" यह धमकी नहीं है । यह तो लोकमतको शिक्षित करनेका उपाय है। लोगोंको अपने कष्ट दूर करनेके लिए तमाम उचित उपाय बताना मुझ-जैसोंका धर्म है । जो प्रजा स्वतंत्रता चाहती हैं उसके पास अपनी रक्षाका अंतिम इलाज अवश्य होना चाहिए। आम तौरपर ऐसे इलाज हिंसात्मक होते हैं; परंतु सत्याग्रह शुद्ध अहिंसात्मक शस्त्र है । उसका उपयोग और उसकी मर्यादा बताना मैं अपना धर्म समझता हूं । अंग्रेज सरकार बलवान् है, इस बातपर मुझे संदेह नहीं; परंतु सत्याग्रह सर्वोपरि शस्त्र है, इस विषयमें भी मुझे कोई संदेह नहीं ।” . इसपर उस समझदार सेक्रेटरीने सिर हिलाया और कहा--- "देखेंगे ।

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